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सोमवार, 29 जून 2020

आत्महत्या के इच्छुक व्यक्ति सुनें:::अशोकबिन्दु

 एक युवक आत्म हत्या करना चाहता था।
उसने अरस्तू का नाम काफी सुन रखा था। जिस अरस्तू के पास हर समस्या का समाधान था।

वह युवक अरस्तू के पास जा पहुंचा।

उसने अरस्तू से कहा, मुझे आत्म हत्या करने की इच्छा होती है।


अरस्तू ने कहा-कर लो तो आत्महत्या। मेरे पास क्यों आये हो?


युवक बोला-अरे आप भी?आप से अच्छी तो दुनिया थी।उसने आत्महत्या को मना ही किया।

"तो यहां क्यों आ गए?"

"आपका नाम सुन रखा था, सब समस्याओं का समाधान है आपके पास!"


"समस्या क्या है?"

"आत्महत्या करना चाहता हूं।"

 "ये क्या है?समस्या है? जब चाहते हो ,तो करो।"

अब युवक खामोश....

"आप से अच्छी दुनिया थी।"

"तो जाओ दुनिया के पास।"

"हम तो बडी उम्मीद से आये थे।"

"किस उम्मीद से?चाहते आत्मा हत्या हो?ऐसे में उम्मीद क्या?"

"आपके पास समाधान है, हर समस्या का।"

"लेकिन आप समस्या बता भी कब रहे हो?अपनी इच्छा बता रहे हो।"

अब युवक फिर खामोश।

"जिस दुनिया में आपसे किसी ने नहीं कहा कि आत्म हत्या गलत है, उस दुनिया में तुम को समाधान क्यों नहीं मिला? आज  हमारे पास आये हो।अब इच्छाओं को त्याग दो।समाधान के लिए आये हो,समाधान में जिओ। हमारे संग जिओ।


अब हमारे संग जीने का मतलब जानते हो?

सन2020ई0,वैश्विक कोरोना संक्रमण। कुछ लोगों की हालत ऐसी है कि हतासा के दौरे पड़ते हैं।आत्महत्या करने का भी ख्याल आता आ जाता है।इसके लिए मानव समाज का प्रबंधन भी दोषी नहीं क्या?


स्वेट मार्डन कहते हैं जिन हालातों में कोई दुखी होता है उन्हीं हालातों में कोई सुखी भी देखा गया है आखिर यह सब क्या है उनका कहना है आध्यात्मिक आनंद सभी समस्याओं के बीच से हमें निकालते हुए जीवन जीना सिखाता है एक आत्मा गर्भ धारण करती है वह एक योजनाबद्ध तरीके से ही अपना माता-पिता का निर्धारण करती है अपनी एक योजना बनाकर वह शरीर धारण करता है। लेकिन दुनिया में आकर वह अपनी इंद्रियों और शारीरिक आवश्यकताओं में अपने को लगा देता है और वह अपनी मिलता अपनी आत्मीयता से दूर होता जाता है।





एक सच्ची घटना के माध्यम से हम बताना चाहते हैं की हमारा सुख दुख हमारे नजरिया का परिणाम है हमारे सोचने का परिणाम है यहां पर मैं बताना चाहता हूं एक बार की बात है एक युवक हताश निराश वह आत्महत्या करने की कोशिश कर रहा था उसे कुछ व्यक्तियों ने बचा लिया जो एक आश्रम से संबंधित थे आत्महत्या करते उस युवक को आश्रम में स्वामी जी के पास ले जाया गया स्वामी जी ने एकांत में उस से वार्ता की उसका दुख दर्द पूछा स्वामी जी ने उससे कहा तुम तो एक अच्छे युवक हो तुम अपने अंदर दिव्य शक्तियां रखते हो तुम अपने अंदर आत्मा रखते हो जो अनंत से जुड़ी हैं तुम जो चाहो तो कर सकते हो अब तुम अपने गांव लौट जाना लेकिन कब तुम इस आश्रम में तब तक रह सकते हो जब तक रहना चाहो लेकिन सत्य ही है तुम्हें माउन रहना है और जब तुम्हारी इच्छा हो तब वापस अपने गांव लौट जाना गांव जाने के बाद तुम्हारे मन में जो भी काम हो वह करना किसी की बातों पर ध्यान ना देना के लोग क्या कहते हैं तुमने यहां जो महसूस किया होगा तुमने यहां जो अध्ययन किया होगा और तुम्हारे दिल में जो आए शो करना लेकिन ऐसा कुछ भी ना करना जो संतो की बालियों के खिलाफ हो जो तुम्हारे दिल के खिलाफ हो इसके बाद क्या हुआ युवक काफी समय तक आश्रम में रहा मौन रहा बिल्कुल बोला नहीं बाकी सारी गतिविधियों में सक्रिय रहता स्वाध्याय करता मेडिटेशन करता 1 दिन उसकी इच्छा हुई अब हमें गांव लौटना चाहिए। वह गांव वापस आ गया और मन में जो इच्छा होती वह वही काम करता उसने इस पर ध्यान देना बंद कर दिया कि लोग क्या कहते हैं वह अपने मन की करने लगा अपने दिल की सुनने लगा महापुरुषों के बानी ओ की सुनने लगा पुस्तकों के संदेशों की सुनने लगा और उसके आधार पर चलने रहा 1 साल के बाद ही उसने महसूस किया यह हमारे जीवन तो अब तो बेहतर हो गया है अब उसे अपने अंदर से काफी अच्छा महसूस होने लगा उसने फिर अपने भविष्य की योजना बनाई स्वाध्याय करने लगा और भी काम करने लगा आगे चलकर वह आश्रम से जुड़ा और आश्रम के सहयोग से वह काफी ऊपर तक गया और वह एक अच्छा इंसान बन चुका था उसके चेहरे पर तेज आ चुका था।




शुक्रवार, 26 जून 2020

अशोकबिन्दु : दैट इज ...?!पार्ट 10

शांति शांति करते हम दक्षेस सरकार व विश्व सरकार का भी सपना देख बैठे।


ये हमारी भविष्य यात्रा का हिस्सा है।

हम कहते आये हैं-हम सिर्फ प्रकृति अंश व ब्रह्म अंश हैं।

प्रकृति व ब्रह्म का असर ऐसे में हम पर स्वाभाविक है लेकिन हम इससे हट कर बनाबटी, कृत्रिम जीवन को जीते हैं।जो  कि यज्ञ/मिशन के खिलाफ है। जगत में मनुष्य को छोंड़ सभी प्रकृति अभियान

अर्थात यज्ञ में जीते हैं।

लेकिन हम इसे कैसे जिएं?

इसे हम महसूस कैसे करें?

ज्योतिष स्वयं क्या है?

अनेक ने इसके विरोध में भी लिखा है।

शब्द कोषों में जितने भी शब्द हैं, निरर्थक नहीं हैं।

हम ये भी कहते रहे हैं कि हम हो या जगत की कोई वस्तु कोई शब्द कोई वाक्य कोई ध्वनि स्वयं जगत या ब्रह्मांड .......उसकी 3 अवस्थाएं है- स्थूल सूक्ष्म व कारण।

ऐसा शब्द के साथ भी है, वाक्यों के साथ भी है।
 शब्द या वाक्य भी के तीन स्तर हैं, तीन अवस्थाएं है-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।


इसलिए कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं-इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप नास्तिक है या आस्तिक।महत्वपूर्ण है आप महसूस क्या करते हैं?अनुभव क्या करते है?चिन्तन मनन क्या है?नजरिया क्या है?



अपना अदृश्य?


अपना व जगत का अदृश्य भी है,जो सूक्ष्म, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर... व  कारण।

हम चौराहे पर आए और दो हजार का नोट सड़क पर पड़ा मिल जाए?हम खुश हो बैठते हैं।मन उछल पड़ता है।


होश आया, तुम्हारे धर्म स्थलों में रुचि नहीं, तुम्हारे जातियों मजहबों में रुचि नहीं । किशोरावस्था में आते ही आंख बंद कर हम जो पाने लगे वह तुम्हारे पुरोहितवाद, सत्तावाद, पूंजीवाद, जाति वाद आदि में न मिले।

अचानक कुछ होता रहा है।आकस्मिक।हमने तो आकस्मिक योग,एक्सीडेंटल योगा को भी महसूस किया है। अचानक कुछ अदृश्य से प्राप्त होना। लेकिन उसे प्राप्त कर उछलना खतरनाक है।



हमारे सभी स्वप्न,कल्पना, अहसास आदि सिर्फ बकबास ही नहीं होते।



आम आदमी ने भी इसे महसूस किया है, अर्द्ध निद्रा में जो देखा वह अगले दिन घटित हो  गया।


पूरे नगर में जब पहली बार परिक्रमा की एक विशेष भाव में तो इसके बाद उस रात ये क्या?



अरे, वो उनका घर है?

ये वो है?

भमोरी रोड पर वहां वो है?

थाना के सामने वहां वो है?

जलालाबाद रोड पर ही फ़ीलनगर नगर में उस मंदिर में वो है?

रामनगर कालोनी में वो अमुख अमुख परिवार है।

अरे, ये क्या?

आतिशबाजान में ये?

हम कक्षा पांच से शांति कुंज साहित्य, आर्य समाज साहित्य, अखंड ज्योति पत्रिका को पढ़ते रहे हैं। पढ़ते कम, चिंतन मनन, कल्पना में ज्यादा लाए...... हमने पड़ा था- हमारा सूक्ष्म जनता है।
आयुर्वेद तो कहता है, हमारे साथ क्या होने वाला है-वह हम छह महीने  पहले ही जान सकते हैं।


इस निष्कर्ष पर विज्ञान भी पहुँचा है।जब से रूस में एक तकनीकी आयी है, आभा मंडल कैच करने की।


और ये क्या?


अर्द्धनिद्रा में-

अर्द्ध निद्रा में एक बार दो यमदूत हमारे समीप से यह कह कर गुजरे, आओ चलो।हम एक दूत का फरसा लेकर चल देते है। एक गली में पहुंच कर एक को आवाज देते हैं।वह बाहर आता है,तो उसे फरसे से मार देते हैं।....ऐसे स्वप्न?!

दूसरे दिन स्कूल जाते वक्त पता चला कि अमुख - अमुख लड़का अपने मित्र के साथ गंगा स्नान पर गया था, एक्सीडेंट में मारा गया।

ऐसे स्वप्न?!

ये क्या है?

ऐसे नगेटिव - पॉजीटिव स्वप्नों ,अहसासों से हमारी रातें भरी है।अब तो ऐसा दिन में  भी होने लगा है।


लेकिन?!


लेकिन ये स्वप्न, अहसास आदि हमारी सफलता नहीं हैं। कोई साधना स्वयं में पूर्ण नहीं है।

भविष्य यात्रा में विकसित कुछ भी नहीं, विकासशील है...... निरन्तर है।



हम तो यही कहेंगे कि अपने किए कुछ कर जाना चाहते हों तो शान्ति को चाहो। चरित्र ये नहीं है, दुनिया की नजर में जीना। दुनिया को बर्दाश्त करते हुए अपना जीवन जीते चलो।


यश - अपयश का हानि......


आज का नायक भविष्य का खलनायक भी ही सकता है।


आइंस्टीन ने कहा है- "कल्पना ज्ञान से भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि ज्ञान सीमित होता है, जबकि कल्पना सम्पूर्ण विश्व को समाविष्ट कर लेती है।यह प्रगति को तेज करती है जिससे विकास होता है।"



विद्यार्थी, अभ्यासी, साधक आदि जब शास्त्रीय ज्ञान, पुस्तक विषय, पाठ्यक्रम आदि के तथ्यों को उठाकर कल्पना, चिंतन, मनन में उतरता है वह असीमितता की ओर अपनी चेतना व समझ को बढ़ाने का कार्य करता है।


हमारे व जगत के अंदर,अन्य मनुष्यों एवं जीव जंतुओं के अंदर स्वतः ,निरन्तर है।जब हमारी चेतना व समझ उस ओर बढ़ती है तब हमारी स्थिति सागर में एक लहर की तरह हो जाती है। जो  विभिन्न  लहरों की समीपता के अहसास के साथ पूरे सागर का अहसास करने लगती है। ये स्थिति हमें त्रिकाल दर्शी से जोड़ती है।

ये आध्यत्म से ही सम्भव है।

शांति व मौन में उतरने से सम्भव है।
शांति  बुन बुन हम विश्व शांति, बसुधैव कुटुम्बकम, विश्व बंधुत्व आदि को बुनने लगते हैं।


जातिवाद, मजहब वाद, पूंजीवाद, सामन्तवाद, पुरोहितवाद, धर्मस्थल आदि सबके सब भौतिक सामिग्री, बनाबटी, कृत्रिमताओं आदि नजर आने लगते हैं। हम प्रकृति अभियान/यज्ञ/अनन्त यात्रा के साक्षी हो जाते हैं।


विद्यार्थी या साधक जीवन को ब्रह्मचर्य जीवन मानने का मतलब यही हो जाता है कि हमारी यात्रा अंतरज्योति के साथ शुरू होकर विभिन्न अंतर ज्योतियों व उनके बीच अर्थात विविधता में एकता जैसे एकत्व में प्रवेश कर जाती है।जहां से हम अनन्त यात्रा हम पाते हैं।राजनीति में हमें  विश्व सरकार व विश्व शांति का दरबाजा खटखटाना पड़ता है।विश्व बंधुत्व, बसुधैब कुटुम्बकम का दरवाजा खटखटाना पड़ता है।




शब्द?!

शब्द शोर कब बन जाते हैं?बकबास कब बन जाते हैं?गाली कब बन जाते हैं?शब्द व वाक्य बकबास व अश्लील कब हो जाते हैं?


हमारे स्थूल कब-'बरसात में रेंगती गिजाईयों के झुंड'-जैसा हो जाते हैं?निर्रथक कब हो जाते हैं?औचित्य हींन कब हो जाते हैं?अश्लिल व बोझ कब हो जाते हैं?


बात तो शब्द व वाक्य की हो रही थी।

सुबह सुबह जब आ आंख खुलती है, 'अल्लाह हो अकबर'- की आवाज सुनाई देती है।कहीं किधर से गीता के श्लोक, रामचरित मानस की चौपाइयों आदि की आवाज सुनाई देती है।


ये वाक्य स्वयं में क्या हैं?


इन वाक्यों के पीछे महानताओं का संसार छिपा है।
बस, नजरिया की बात है।नजर कहाँ पर है?


इसी तरह शब्द!


अल्लाह!(अल:)!!

इला:!(इलाहा)!!..........आदि आदि!


भाषा विज्ञान में जाने की जरूरत है।
सूक्ष्म में जाने की जरूरत है।


सूक्ष्म में जब हम उतरते हैं तो समाज के धर्मों की धारणाएं विदा हो जाती हैं। पंथों की सारी धारणाएं विदा हो जाती हैं।


शब्द व वाक्य के पीछे की दशा उजागर होने लगती है।

किसी ने ठीक कहा है, भीड़ का धर्म नहीं होता- उन्माद, सम्प्रदायिकता होती है। जिसके दिल में धर्म व दिव्यता फैलती है वह जमाने के धर्मों, धर्मस्थलों की नजर में भी अलग थलग हो जाता है।


ज्योतिष स्वयं क्या है?

ज्योति+ईष अर्थात ज्योति का प्रतीक/चिह्न!अर्थात संकेत! इसके पीछे की दशाएं या स्थितियां क्या है?


हमारे सभी स्वप्न, कल्पना, अहसास आदि सिर्फ बकबास ही होते।


शान्ति का जीवन में क्या महत्व है?
शांति या खामोशी हम स्वीकार नहीं सकते।

बेटा उछलते हुए कप लेकर आता है।लड़खड़ाता है, कप गिर जाता है.... कप गिर टूट जाता है। हम झल लाए, बिगड़े।चलो, ठीक हैं।
सिस्टम के लिए, व्यवस्था के लिए चिल्लाना भी जरूरी हो सकता है लेकिन किस स्तर पर?


नुकसान?!

हमारा कोई बड़ा भौतिक नुकसान हो जाता है, हम हतास उदास या हिंसा से भर जाते हैं।

शांति या  खामोशी किस स्तर की? किस स्तर पर!!अपने सूक्ष्म व कारण को हम नजरअंदाज कर दें?

सूक्ष्म व कारण की शर्त पर स्थूल को,भौतिकता ओं को नजरअंदाज कर देना ही कुर्बानी है,समर्पण है, स्वीकार्यता है, शरणागति है?तटस्थता है? क्या हम ठीक सोंचते हैं?


आचार्य क्या है?योगी क्या है?योग क्या है?योगांग-यम क्या है?कोई इसका उत्तर देता है- मृत्यु।

क्या कहा?आचार्य मृत्यु है?योगी मृत्यु है?यम मृत्यु है?


हमारे वरिष्ठ व सरकारें शांति के लिए कितना समय व धन खर्च कर रही हैं?

शांति के लिए हम क्या कर रहे हैं?खामोशी के लिए हम क्या करते है?


अपरिग्रह!?


हम अपरिग्रह के खिलाफ खड़े हो गए हैं?

गेट पर ताले लगाने पड़ रहे हैं?हथियार रखने पड़ रहे हैं?  धर्मस्थलों में ही ताले लगाने पड़ रहे हैं?

कहीं तो कुछ गलत हो रहा है?समाज  व धर्म के ठेकेदार क्या कर रहे हैं? हूँ, अहंकार में तो न जाने क्या क्या कर जाते है लेकिन धर्म कहाँ है?



 हमारी व्यवस्थाए,सरकारें, ठेकेदार किस स्तर के है?
अंगुलिमाल की गलियों से वे क्यों डरते हैं?


'एकता में अनेकता, अनेकता में एकता'- के भाव ,बसुधैब कुटुम्बकम के भाव ,विश्व बंधुत्व के भाव व आचरण से मानव प्रबन्धन जुदा है।विश्व का कल्याण हो? विश्व का कल्याण कैसे हो?
सिर्फ विश्व सरकार...

ज्योतिष!?


ज्योतिष की दशा क्या है?


हमारा वेद आत्मा है।

ज्योतिष=ज्योति+ई ष! ज्योति से जब संकेत मिलने शुरू हो जाएं।कब? सागर में कुम्भ कुंभ में सागर.....




आखिर कमलेश डी पटेल दाजी क्यों कहते है -महत्वपूर्ण ये नहीं है कि हम आस्तिक है  या नास्तिक? महत्वपूर्ण है-हम महसूस क्या करते हैं?हमारा आचरण क्या है?














रविवार, 21 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया: दैट इज...?!पार्ट09





विश्व बंधुत्व, बसुधैव कुटुम्बकम और भविष्य....!!?

परिवार में जब परिवार का आओ ना हो तो क्या होगा एक स्कूल है अनेक क्लास अनेक क्लास है तो इसका मतलब यह नहीं है कि प्रत्येक क्लास के बीच भेद खड़े कर दिए जाएं परिवार भाव का मतलब क्या है परिवार के अंदर संस्था के अंदर कुछ व्यक्ति यदि अपनी मनमानी में रहते हैं तो क्या उनके साथ भेदभाव खड़ा कर दिया जाए या जो चापलूसी हां हुजूरी कर रहे हैं उन्हें सिर पर बैठा लिया जाए परिवार संस्था क्लास में कुछ ऐसे होते हैं जो व्यवस्था बिगाड़ने का ही कार्य करते हैं सहयोगी नहीं होते तो क्या उनसे भेद खड़ा कर दिया जाए उन्हें नजरअंदाज कर सिर्फ अपना टाइम पास किया जाए इसी तरह समाज दे भविष्य समाज देश विश्व में अनेक क्लास अनेक स्तर के व्यक्ति हैं कुछ व्यवस्था बिगाड़ने का कार्य कर रहे हैं हमारा कर्तव्य क्या है अफसोस ए है कि जब मुखिया तंत्र ही सु प्रबंधित ना हो


ऐसे में कल सब्जियों के साथ चलना बड़ा मुश्किल हो जाता है तंत्र बात तंत्र को जकड़ा बैठा व्यक्तित्व ही सुकरात मीरा को जहर ईशा को सूली की व्यवस्था मैं झोंक देता है तंत्र को जकड़े बैठे लोग उनके ठेकेदार शासक सामंत पूंजीपति आदि अंगुलिमाल की गलियों के विरोध में तो खड़े मिल जाते हैं लेकिन अंगुलिमाल ओ को संतुष्ट नहीं कर पाते इतिहास बुद्ध को नायक बना देता है भविष्य बुद्ध को नायक बना देता है जो नायक थे बे खलनायक हमारी खामोशी हमारा मून बोलो ना तो झुनझुना पढ़ो क्यों झुंझला पढ़ें यथार्थ जीने के लिए वर्तमान जीने के लिए सिर्फ खामोशी ही काफी है खामोशी रखकर अपना कर्म करते जाना है हमारा जो स्तर है उस स्तर पर काम करते जाना है तुम्हारे नजर में हमें अपना चरित्र नहीं गढ़ ना है शिक्षित होना स्वयं एक क्रांति हैं बाबूजी महाराज कहते हैं शिक्षित व्यक्ति के लिए कोई अधिकार है ही नहीं कर्तव्य ही कर्तव्य हैं सुकरात आए ईशा आए मोहम्मद साहब आए कभी आए नानक आए ज्योतिबा फुले आए गोपाल कृष्ण गोखले आए हजरत किबला मौलवी फजल अहमद खान साहब रायपुर हाय लाला जी महाराज आए वगैरा-वगैरा जो करना है वह करना है दिल से करना है तुम हमारे साथ खड़े ना हो कोई बात नहीं दुनिया हमारे साथ खड़ी ना हो कोई बात नहीं कुदरत देख रही है सब फैसला हो जाएगा भविष्य में।

21 जून2020 ई0!

सूर्य ग्रहण अनेक जगह सड़कें सुनसान हो गई कल तक कोरोना संक्रमण का भी डर ना था सड़कों पर भीड़ थी बाजार में सब एक दूसरे पर चले जा रहे थे इंसान नहीं जीता है इंसानियत नहीं जीती है गुलामी जी रही है पुरोहित बाद जी रहा है सत्ता बाद जी रहा है सामंत बाद जी रहा है माफिया तंत्र जी रहा है जातिवाद मजहब बाद जी रहा है देश बाद भी जी रहा है लेकिन कब तक कुदरत सब हिसाब किताब करना जानती है।



बसुधैव कुटुम्बकम!

विश्व बंधुत्व!
जगत का कल्याण हो...अधर्म का नाश हो....बगैरा बगैरा।
ये कहने में अच्छा लगता है, बस।


आचरण किधर है ?अरे, वह खिचड़ी है ।  वह कहीं का भी नहीं ।  धर्म धर्म ,हिंदुत्व हिंदुत्व, ईमान ईमान ,खुदा खुदा चीखते सड़क पर उतरने वाले जब जाते हैं तो सिर्फ खून बह सकता है  ।लेकिन वे कुदरत से बढ़कर नहीं हो सकते।

 कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं कोई भी हो सामने । उसे कुदरत का खुदा का वरदान मानो, उसमें अल्लाह की रोशनी जानो ।यदि कोई वैश्या भी हो तो उसे वैश्या नहीं इंसान ही मानो। ए विश्व बंधुत्व आदि की बातें सिर्फ खेल नहीं है ।योग भी क्या है ?अपने विचार ,भाव ,नजरिया, मन प्रबंधन महानता की ओर ले जाना। योग का पहला अंग है -यम।यम मृत्यु है। आचार्य मृत्यु है। योगी मृत्यु है।..... इसे क्या हम आप समझेंगे? अहंकार शून्य हो जाना? जातिवाद - मजहबबाद के खिलाफ उठ खड़ा होना? पूरी दुनिया कम से कम शिक्षित दुनिया जो सिर्फ कर्तव्य जानती है अधिकार नहीं ,हमें प्रसन्नता है कि वह  अब कमलेश डी पटेल दाजी जी की ओर देख रही है। जैसा कि राजनीतिक दुनिया नरेंद्र मोदी की ओर देख रही है ।जो वास्तव में अध्यात्मा, मानवता को दिल से चाहते हैं बे कमलेश डी पटेल दाजी की और देखने लगे हैं। रामदेव बाबा भी अनेक बार कर चुके हैं आखिर सभी को इधर ही आना होगा ।दलाई लामा कहते हैं दुनिया का भला विश्व सरकार ही कर सकती है। विश्व बंधुत्व, वसुधैव कुटुंबकम भावना ही कर सकती है।

कमलेश डी पटेल दाजी इस समय हजरत किबला मौलवी फजल अहमद खान साहब रायपुर  के शिष्य श्री रामचंद्र जी महाराज फतेहगढ़ की याद में 1945 में शाहजहांपुर की धरती पर स्थापित श्री राम चंद्र मिशन हार्टफुलनेस के प्रमुख हैं ।एक खामोश आध्यात्मिक क्रांति  शाहजहांपुर से चलकर 200 देशों में पहुंच चुकी है ।वर्तमान में अध्यात्म की पताका लिए अनेक संस्थाएं चल रही हैं। अब बता रहा है उनका एक मंच पर आने का हम सन 1990 से एक साझा मंच की कल्पना में, प्रार्थना में कोशिश में जी रहे हैं। हमें प्रसन्नता है हम शाहजहांपुर धरती से हैं, उस धरती से जहां श्री रामचंद्र मिशन की स्थापना हुई ।जिसके 75 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। जिस की खास विशेषता है- प्राण आहुति कार्यक्रम अर्थात संस्था संबद्ध स्त्री पुरूषों में प्राण प्रतिष्ठा जैसा कार्यक्रम?
मीरानपुर कटरा शाहजहांपुर से हम श्री जयवीर सिंह, श्री रामदास श्री ,ब्रह्मा धार मिश्र आदि के  साथ इस खामोश आध्यात्मिक क्रांति में आहुतियां लगा रहे हैं। हम इस पर निशांत दास पार्थ, हरि शंकर सिंह गुर्जर, महेश चंद्र मेहरोत्रा, राजीव अग्रवाल,अनूप अग्रवाल, एके सिंह, कविन्द्र सिंह यादव ,प्रियंक गंगवार, हरकरन त्रिपाठी आदि को धन्यवाद देते हैं। की दे हमारे प्रति हमदर्दी रखते हैं, धन्यवाद।

शनिवार, 20 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया :: दैट इज?..?!पार्ट08

  05 अक्टूबर 1994 ई0 को पहला विश्व शिक्षक दिवस मनाया गया।

उस वक्त हम एस एस कालेज,शाहजहाँपुर में साहित्यकार व बीएड विभागाध्यक्ष आकुल जी के मार्गदर्शन में उनके मकान पर था।
सत्र 1993-94ई0 में हमारा बीएड रहा।इसके बाद सत्र 1994-95 में एम ए प्रथम वर्ष, अर्थशास्त्र व सत्र 1995-96ई0 में एम ए द्वितीय वर्ष/फाइनल, अर्थशास्त्र।इस दौरान भी हम शिक्षण कार्य से भी जुड़े थे।कालेज से आने के बाद सायंकाल को हम एक विद्यार्थी को सांख्यकी में देखते थे।

01जुलाई 1996ई0 से हम नियमित नगर से बाहर एक गांव के स्कूल में नियमित शिक्षण कार्य करने लगे। अभी तक शिक्षक वर्ग हमारे लिए सम्माननीय था।जब हमने स्वयं उस वर्ग में अपना कदम रखा तो नजरिया बदला।


नबम्बर 2002ई0 तक हम विद्याभारती योजना सम्बद्ध विद्यालयों में रह शिक्षण कार्य किए।

इस दौरान अनेक खट्टे मीठे अनुभव रहे। शिक्षण के पहले वर्ष हम परमात्मा गंगवार कक्षा08 ,सुतापा बैरागी कक्षा 08 आदि हमारे प्रिय विद्यार्थियों में से रहे।अगले वर्ष से इस लिस्ट में अन्य नाम और जुड़े-अनामिका मिश्रा जिनमें से प्रमुख थी।जो कक्षा03 में थी।




विद्या भारती योजना के अंतर्गत विद्यालय व्यबस्था से निकल हम डेढ़ वर्ष मखानी  इंटर कॉलेज मुड़िया अहमदनगर बरेली में रहे।इस दौरान हमने अपने को शिक्षण वर्षों के बेहतर स्थिति समय में पाया।

01जून2004ई0 को आदर्श बाल विद्यालय इंटर कॉलेज मीरानपुर कटरा के इंटरव्यू में हम शामिल हुए इस इंटरव्यू की सूचना हमने दैनिक जागरण समाचार पत्र में पढ़ी थी।

हमें शिक्षण कार्य करते अब25वर्ष से अधिक होने को आये हैं।



अशोकबिन्दु भईया :: दैट इज ...?! पार्ट 07

हमारे तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण!

ये सब प्राकृतिक अभियान का हिस्सा है।प्राकृतिक प्रबन्धन है।
हम स्वयं क्या है? हम मानवों की व्यवस्थाएं स्वयं प्रकृति अभियान व प्रबन्धन के सामने क्या हैं?

शांति... मौन ....कितना सुकून है?
हम  एस एस कालेज से मिली हुई नहर के किनारे हम बैठे बैठे हुए थे।सुबह का वक्त था।


मानव समाज के अलाबा कहाँ सुकून नहीं है?समस्याएं प्रकृति में नहीं हैं,मानव के जीवन में हैं।अशांत विश्व नहीं है, मानव है।प्रकृति व विश्व में तो सब सहज है।जो है, सब असल है।बनाबटी नहीं,अप्राकृतिक नहीं।


एक दिन हम कमरे से कालेज की ओर पैदल जा रहे थे।
हमारे पास एक पुस्तक-शिक्षा में क्रांति थी ।साथ में एक कॉपी।
मुंह के अंदर बेतुका सा लग रहा था।हमने अपने गालों को अंदर की ओर दांतों को दबा कर सिकोड़ा, मुंह से खून निकल पड़ा।हम घबरा से गये। रास्ते में एक आयुर्वेदिक डॉक्टर बैठते थे।हम उनके पास जा पहुंचे।उनसे नमस्ते की,पड़ोस में नल लगा था, कुल्ला कर बैंच पर बैठ गया।कुछ देर बैठा रहा, मालिक को याद किया।मन को शांत किया और फिर आगे बढ़ गया।

हम कालेज जाकर पुस्तकालय पहुंच गए।
तुरन्त ही वहां से आ बीएड संकाय की ओर और आ गया।।फील्ड में बैठ कापी में कुछ लिखने लगा। थोड़ी देर में अनुपम श्री वास्तव आकर बैठ गया।वह वहां से बी एस सी कर रहा था। हमारी सामने निगाह पड़ी। हमारे बैच के लड़के लड़कियां आने लगे थे।एम एड का क्लास इस वक्त चल रहा था।जब आकुल जी आफिस में आकर बैठ गए तो हम क्लास में जा बैठ ही पाए कि हमारे बैच में टॉपर अंशु अग्रवाल हमारे पास आ पहुंची कुछ देर हमारी कापी व किताब देखती रही।क्लास में कब आकुल जी आये तो हम सब अपनी अपनी सीट पर व्यवस्थित बैठ गए।


सभी पीरियड अटैंड करने के बाद जब हम कालेज से बाहर चल दिए तो नागेश पांडेय संजय भी हमारे साथ चल दिए।
"आज हम आपके कमरे पर चल रहे हैं।"

"चलो।"

हम दोनों पैदल ही चल पड़े।

साथ में कुछ अन्य लड़के लड़कियां भी थे।

कमरे पर पँहुच हमने शीशा में अपना मुंह देखा।मुंह के अंदर तो सब सामान्य था।लेकिन बायां जबड़े से अपने को अच्छा महसूस नहीं कर रहा था।  दिन तो गुजर गया।रात अनेक शंकाओं में बीती।बायीं ओर एक दाढ़ तीन साल पहले ही उखड़ चुकी थी।उसके ऊपर मसूड़ा का मास आ गया था।कोई समस्या न थी लेकिन अब...?! ये खून क्यों?!खैर, दो तीन दिन बाद सब सामान्य हो गया।

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 नींद या अर्द्ध निद्रा में कुछ स्वपन हमारे लिए खास हो गए थे। जो एक से थे और महीनेमें पांच छह बार उन्हें देख लेता था।



अजीजगंज, गर्रा पुल से लेकर बरेली मोड़ तक का प्राकृतिक क्षेत्र (उन दिनों खेत खलिहान, बाग उपस्थित थे) हमारे साधना, अंतर्चेतना के स्तर के विकासशीलता की प्रयोगशाला बन गए थे।

यह क्षेत्र कभी हमारे पिताजी प्रेम राज वर्मा का भी अध्ययन क्षेत्र भी रहा था। पिता जी का सत्य पाल यादव व हरि शंकर सिंह गुजर से सम्पर्क यहीं हुआ था।

प्रकृति हमें आकर्षित करती रही है।बाग बगीचों से हमें लगाव रहा है।


जगदीश चन्द्र बसु को हम हाईस्कूल व   इंटर क्लास इस दौरान ही पढ़ चुके थे। हम भी उनकी तरह प्रकृति के बीच सर्व व्याप्त अंतर चेतन आत्म संवेदना स्थिति को महसूस करने का प्रयत्न करने लगे थे  ।
हम कक्षा पांच से ही शांतिकुंज साहित्य ,अखंड ज्योति पत्रिका, युग निर्माण योजना आदि को पढ़ने लगे थे ।

कबीलाई संस्कृति ,सहकारिता संस्कृति को हम भूल चुके हैं ।इसकी पेठ सूक्ष्म जगत में भी है लेकिन हम भौतिक सांसारिक जगत में अपने इंद्रिय जगत में इतने रंग हैं कि परिवार के अंदर ही हम कुटुंब भावना की मर्यादा को भुला चुके हैं। हम सब चारों ओर प्रकृति वनस्पति जीव जंतु की डूब या ल य ता संस्कृति ,सागर में कुंभ कुंभ में सागर ....सागर में लहरों की स्थिति बीच अपने को लहर से तुलना, सूरज की किरणों बीच अपने को किरण से तुलना,आदि को लेकर सारी दुनिया व सारा ब्रह्मांड को देखने की सोच ,कल्पना, चिंतन आज  खो चुके हैं ।प्रकाश में हम हम में प्रकाश.... हम सब में प्रकाश..... हम सब में मैं, मैं में हम सब....?!अरण्य जीवन हमारी स्थूलता... हमारा हाड़मांस..!? हम उससे दूर जाकर अंतरसंबन्धों की नैसर्गिकता, एक जंजीर में कड़ियों के सम्बंध... एक एक कड़ी के बीच सम्बंध..!? ये सब क्या यथार्थ नहीं... आध्यत्म भी सूक्ष्म फिजिक्स है।


हम कमरे में बसुधैव कुटुम्बकम व कुरान की एक आयत जिसका अर्थ-सभी एक जमात हैं, लिखे पृथ्वी व प्रकृति को दर्शाती स्वयं बना एक चित्र लगाने लगे थे।



इंटर क्लासेज के दौरान से ही हम अनन्त यात्रा की कल्पना करने लगे थे।उस अनन्त यात्रा की कल्पना से जोड़ कर सारे जगत, वनस्पति, जीव जंतु, प्रकृति को देखने लगे थे।


लेकिन ये काम व खिन्नता ?!

कुछ कहते हैं-काम व क्रोध खत्म नहीं होता।उसे नियंत्रित किया जा सकता है।लोभ, लालच, बेईमानी आदि खत्म हो सकती है।कामनाएं(इच्छाएं)जो हम जीवन में प्राप्त करना चाहते है,जो सांसारिक हैं, उसके लिए हम रास्ता न देख रहे थे।

आध्यत्मिकता, मानवता, सुप्रबन्धन का हम कहीं भी माहौल मानव समाज व संस्थाओं में नहीं देख रहे थे। अभी तक हम विद्यार्थी जीवन में थे। अब स्थितियां बदलने वालीं थीं।कालेज की ओर से हमे  रोटी गोदाम, बहादुर गंज  भेजा गया।वहां कक्षा07में गणित व कक्षा छह में इतिहास पढ़ाना शुरू किया।दोनों में 21 - 21 पाठ योजना पढ़ानी पड़ी।





खबर मिली कि 05 अक्टूबर 1994ई0 से संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व शिक्षक दिवस मनाना शुरू करेगा। हमें इस पर प्रसन्नता हुई।





शुक्रवार, 19 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया ::दैट इज...?!पार्ट न06


चिंतन, मनन, कल्पना, स्वप्न, लेखन, स्वध्याय, मेडिटेशन हमारे जीवन का हिस्सा हो गया।


विज्ञान प्रगति, आविष्कार जैसी वैज्ञानिक पत्रिकाओं का अध्ययन व उसमें -'हम सुझाएँ आप बनाएं' के अंतर्गत मन सक्रिय हो गया था।

एक बार समाचार आया था कि अनुसंधान केंद्रों में वैज्ञानिकों ,कर्मचारियों की कमी है।

 हम सोचते रहे हैं - हमारे आसपास अनेक विज्ञान विषय के छात्र व अध्यापक उपस्थित हैं लेकिन उनका सोच, चिंतन, नजरिया ,विचार ,भावना आदि वैज्ञानिक नहीं है। तो ऐसे में कैसे अनुसंधान शालाओं की नियुक्तियां भरें ?अभिभावक भी अपने बच्चों को सिर्फ घरेलू व कमाऊ पूत के रूप में देखना चाहते हैं लेकिन हमारा ऐसा नहीं था ।हम इंटर तक संस्थागत वैज्ञानिक छात्र थे ।नजरिया ,मनन ,कल्पना, सत्य से भी वैज्ञानिक थे ।लेकिन हममें हालातों से संघर्ष करने का चाहत न था और फिर इस मामले में हम देश की व्यवस्था से शिकायत रखते हैं । किसी के वैज्ञानिक होने के लिए ,किसी को शोध में अवसर देने के लिए इस देश के मानक ही गलत हैं। अब जरूरी नहीं है कि शोध, आविष्कार आदि के लिए वही व्यक्ति सफल है - जिसके स्नातक में 50% से ऊपर और स्नातकोत्तर में 55% से ऊपर अंक हो । अंको का खेल खत्म होना चाहिए ।अभ्यार्थी के चिंतन, मनन ,नजरिया ,आचरण,उसका उत्साह ,खोज की प्रवृत्ति ,अन्वेषण की प्रवृत्ति आदि महत्वपूर्ण होनी चाहिए। हमने देखा है - देश के अंदर ऐसे भी कैंडिडेट हैं जो स्कूली शिक्षा से दूर हैं लेकिन उनमें प्रतिभाएं हैं । वे किसी नई वस्तु का आविष्कार कर सकते हैं ,वे  एशिया और ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वालों से कम नहीं है ।हमें दुख होता है- भारत के सिस्टम से ,अफसोस ! इस संबंध में मेरे पास अनेक घटनाएं भी हैं ।



हमने कभी न सोचा था - सरकारी नौकरी ऐसी करें जहां हमारी कल्पनाशीलता ,चिंतन ,मनन आदि रुक जाए । जीवन तो विकास शीलता है, विज्ञान का कभी अंत नहीं होता, विज्ञान कभी विकसित नहीं होता। वह भी निरंतर होता है ,विकासशील होता है। लेकिन रास्ता कक्षा 11 में आकर तब बिगड़ गया जब बायो ग्रुप में न जाकर मैथ्स ग्रुप में आ गया। उससे तो अच्छा था -मनोविज्ञान, शिक्षा शास्त्र ,खगोल विज्ञान ,अंतरिक्ष विज्ञान आदि विषयों के साथ हम जो थे हमारे रुचि के  , लेकिन ये विषय नगर में ही न थे, नगर की छोड़ो कुछ विषय तो प्रदेश में ही न थे।

 खैर.....!?

2 महीने के मानसिक खींचतान के बाद हमने कक्षा 12 के बाद आर्टग्रुप में प्रवेश कर लिया यह हमारी दूसरी भूल थी आर्ट ग्रुप में आ तो गए थे लेकिन यहां पर भी हमारे विषय जो हुए वे हमारे न थे।

 अब याद आ रहा था -गृह त्यागी।
 विद्यार्थी के 5 लक्षणों में से 1 लक्षण- गृह त्यागी !

लेकिन.....


अगस्त 1990 ईस्वी !

 B.a. प्रथम वर्ष में हम नए 2 विद्यार्थियों के संपर्क में आए -नरेश राठौर और छत्रपाल पटेल। इस दौरान सुनील संवेदी ,राजेश भारती से भी मिलना जुलना बड़ गया । हालांकि ये दोनों हम से जूनियर थे। कभी कभार प्रभात रंजन नाम का लड़का भी मिलने चल चला आता था लेकिन हम उससे मिलना नहीं चाहते थे।

 उस समय देश के प्रधानमंत्री थे- विश्वनाथ प्रताप सिंह।

 वे देश के आठवें प्रधानमंत्री थे।
 उन्हें भारत की पिछड़ी जातियों में सुधार करने और सामाजिक न्याय की कोशिश के लिए जाना जाता है ।उस वक्त पढ़ा-लिखा पिछड़ा वर्ग उनसे काफी प्रभावित था। इन से पूर्व देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। इनका कार्यकाल 2 दिसंबर 18 सो 89 से 10 नवंबर 1990 तक रहा।

कुछ भोजपुरी जोकि गन्ना सोसाइटी में सुपरवाइजर थे -अरुण सिंह , उमेश राय आदि हमसे कहते रहे थे-बनारस या इलाहाबाद निकल जाओ ,कामयाब हो कर लौटोगे ।तुम्हारी अंदरूनी हालात , समझ अच्छी लगती है।

 लेकिन....

 लेकिन - वेकिन!
 परंतु -वरंतु!

 हूं......

 उन दिनों हमारी खास रचना थी--

 अब क्रांति होगी,
 रोशनी फिर तेज मानव के मशाल में होगी;
 अब क्रांति होगी ।
कृष्ण की भूमिका निभाएगा विश्व में भारत ,
अब क्रांति होगी ।


हमारा माइंड - विश्व सरकार, वसुधैव कुटुंबकम, विश्व बंधुत्व, दक्षेस सरकार आदि को लेकर एक साझा मंच में जीने लगा था। जिसमें सभी आधार आध्यत्म शक्तियां ,मानवतावादी संगठन एक मंच पर थे।

 उन दिनों छत्रपाल पटेल ,नरेश राठौर आदि के साथ आर्य समाज संस्था में आना जाना तेज हो गया था ।
लेकिन एक बार हमें ताज्जुब हुआ- दिल्ली से आए एक प्रचारक ने जब हम सब को बताया- धरती पर मानव की उत्पत्ति गाजर मूली की तरह हुई है ।मानव लाखों वर्ष वनस्पति व जंतु के बीच एक कड़ी रहा है। हमें इस ज्ञान पर ताज्जुब होता है। हमारे मस्तिष्क ने इसे स्वीकार नहीं किया और किसी ने भी इसे स्वीकार नहीं किया था।

 अब हमारी शिक्षा मात्र, स्कूली शिक्षा खानापूर्ति हो गई थी।
 हमारा हेतु डगमगा गया था ।
रास्ता तो और था चल और पर रहा था ।
हमने अपना ध्यान स्वाध्याय, लेखन ,प्रकृति के बीच आना जाना, मेडिटेशन आदि पर जरूर लगा रखा था।
 जयशंकर प्रसाद ,मुंशी प्रेमचंद्र, धूमिल ,फणीश्वर नाथ रेणु आदि का पूरा साहित्य कालेज पुस्तकालय से लेकर पढ़ लिया था ।

स्नातक के 3 वर्ष हमारे वर्तमान में सिर्फ यूं ही गुजर गये बिना किसी लगनता ।

हमारा मकसद तो इंटर करने के बाद नगर छोड़ने के बाद ही आगे बढ़ना था लेकिन ऐसा न हो सका।

 देखा जाए तो स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम प्रति कर्मठता हाईस्कूल तक ही रही ।इसके बाद हमारी शिक्षा मात्र खानापूर्ति रह गई थी ।जो था उससे दूर था।
 देखा जाए तो हम अकेले पड़ने लगे थे।
 कहने के लिए परिवार ,पास पड़ोस ,समाज ,स्कूल, सहपाठी ...लेकिन हम जो अपने जीवन में चाहते थे उस मामले में हम अपने जीवन में अकेले हो चुके थे।

 ऐसे में पुरानी आदतें -स्वाध्याय, लेखन, मेडिटेशन ,प्रकृति के बीच रहना, छोटे बच्चों के बीच रहना और बढ़ गया था।




मई-नबम्बर 1993ई0!

इन दिनों  हम एक साधना कर रहे थे- हम अपने अतीत को कैसे जाने ?पिछले जन्मों को कैसे जाने? इसकी प्रेरणा हमें बौद्ध धर्म के जातक कथाओं से मिली थी। इसके प्रति जब कुछ सहज होना शुरू हुआ तो हमें सोनभद्र और सोनभद्र के आस पड़ोस में पहाड़ियों और एक तालाब का दर्शन हुआ ।इससे पहले हमने अभी तक सोनभद्र का नाम नहीं सुना था ।हम अपने किसी पूर्वज के  साथ एक रथ पर सवार थे और कोई हमारा पीछा कर रहा था। आगे चलकर हमने जानकारियां एकत्रित की पूर्व डीआईजी एवं पीलीभीत लोक सभा से जनता दल की ओर से प्रत्याशी महेंद्र सिंह से भी वार्ता हुई। हमें कुछ जानकारियां ऐसी मिली ,कुर्मी क्षत्रिय के लिए अनेक गढ़ हैं, चित्रकूट के पास पटना के पास भी। उनका कहना था कुर्मी क्षत्रियों का भी अपना गौरवशाली अतीत है ।


हमने एक सपना और देखना शुरू किया था जो हमें बार-बार अपने किसी पूर्वज के साथ कर्नाटक कोलार मैसूर के जंगलों में ले जाता था। आगे चलकर हमने इस पर शोध किए जानकारियां एकत्रित की ।वह चौंकाने वाली थी ।इस पर हम कभी भविष्य में लिखेंगे ।

b.a. तृतीय वर्ष फाइनल की परीक्षा के बाद एसएस कॉलेज शाहजहांपुर में बीएड प्रवेश परीक्षा देने आया ।
भाई अवनीश ने उन दिनों बीएससी प्रथम वर्ष की परीक्षा दी थी वह उसी कॉलेज में छात्र था और वहीं पड़ोस में अजीजगंज में रह रहा था ।हमें उम्मीद नहीं थी हम B.Ed प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर पाएंगे। b.a. फाइनल का रिजल्ट आने के बाद हमने अर्थशास्त्र विषय से एम ए प्रथम वर्ष में एडमिशन करा लिया ।

अक्टूबर में हमें B.Ed में एडमिशन करवाने की सूचना मिली ।

बीएड संकाय एसएस कॉलेज शाहजहांपुर में जब हम पहुंचे तो विभागाध्यक्ष आकुल जी के व्यवहार से हमका काफी प्रभावित हुए। वैसे तो  हमारी इच्छा B.Ed में एडमिशन की न थी लेकिन फिर भी आकुल जी से करीबी बढ़ने की संभावना से हमने B.Ed में एडमिशन करा लिया और एक ही विचार था की संभावनाओं के नए रास्ते शायद मिल जाए ?यहां नागेश पांडे संजय से परिचय हुआ। यहां के प्राकृतिक वातावरण में हमें मेडिटेशन को और अवसर दिया। इस दौरान- शिक्षा में क्रांति, शिक्षा में प्रयोग, नए भारत की खोज.... आदि पुस्तकों व आकुल जीके संबोधनों ने हमारी समझ को और विस्तार दिया ।मन में जो विचार उठते थे उन्हें व्याख्या मिली।


बुधवार, 17 जून 2020

अशोक बिंदु भईया : दैट इज...?! पार्ट 05

क्लासेज सिस्टम में हमारे पास जो विषय थे, उनमें हमें विज्ञान व जीवविज्ञान में रुचि थी।इतिहास के प्राचीन काल खंड में भी।

हाईस्कूल 1998 परीक्षा के बाद जब हमने स्वमूल्यांकन किया तो पता चला, वही के अनुसार अंक प्राप्त किए।

उस समय प्रथम श्रेणी आना बड़ा मुश्किल होता था।
जब हमने सामाजिक विज्ञान,जीवविज्ञान में 60% से ज्यादा अंक प्राप्त किए तो इस पर कुछ अध्यापकों को विश्वास न हुआ। क्योंकि हमारा व्यक्तित्व असामान्य था और बोलचाल भी नाममात्र की थी ।लेकिन ए अध्यापकों में मूल्यांकन हीनता ही थीl

 पहले भी और अब भी देखते हैं कुछ बच्चे उनकी नजर में नहीं होते यहां तक की उपेक्षित भी होते हैं। बे उनसे भी ज्यादा बेहतर स्थिति में थे जिन्हें वे महत्व देते थे। इस विषय पर कभी बाद में लिखेंगे ।

अब हम कक्षा 11 में एडमिशन लेने जा रहे थे ।

अपनी निजता, स्व, आत्मा, अंतर ता आदि से दूर होना हमारा शत्रु है ।हमें कक्षा 11 में बायो ग्रुप ही लेना था जो बिल्कुल तय था। लेकिन एक सहपाठी सर्वेश सिंह कुशवाहा के साथ हमने मैथ्स ग्रुप में एडमिशन करा लिया। उसका साथ तो ठीक था लेकिन उसका फैसला हमारा न था । यहां से हमारे दो रास्ते बनने लगे। हम दो माइंड होने लगे। मन में कुछ और तन में कुछ और.... ऐसे में फिर हमें अंतर्मुखी होना  पड़ा ।

अभी तक सब सही था ।
दुनिया वही थी, परिवार वहीं था, पास पड़ोस वही था लेकिन तब भी सब कुछ बदलना शुरू हो गया था।नजरिया बदलता है तो दुनिया भी बदलती है। यह बदलाव जिधर जाना चाहिए था उधर न था।


आंख बंद करने पर ही सब कुछ ठीक था ।
,
पेड़-पौधे, बच्चे ,स्त्रियां, प्रकृति में आकर्षण तो हो सकता है लेकिन  ये आकर्षण की धारा और कहीं से कहीं और जगह जाती है ।कुछ कुछ अनुभव होने लगा था ।

हमारी ओर से विपरीत लिंग आकर्षण किसी के लिए कष्ट देने नहीं जा रहा था ।किसी का चरित्र हनन करने नहीं जा रहा था। लेकिन हमें अवश्य उलझा रहा था ।

पेड़ पौधे ,बच्चे, स्त्रियां, पुस्तके आदि प्रकृति के संग सहचारी का हेतु तो कुछ और है जो एक पागल पथिक ही जान सकता है। अनंत यात्रा ,सच्चिदानंद यात्रा  को महसूस करने वाला ही जान सकता है ।
कुछ है- अदृश्य!
 स्त्री जाति से संबंध की सीमाएं व मर्यादा जातियों - मजहब आदि की भावनाओं में खत्म नहीं हो जाती।
 ये क्या है?
 वह मर जाती है और फिर वह अपने प्रेमी के मां की कोख में जन्म लेकर अपने प्रेमी के ही पास आ जाती है।
क्या है ये?
 ये क्या प्रेम?
प्रेम एक बेनाम रिश्ता है। समाज की निगाहें कितनी गलत है ?लड़का लड़की के बीच के अज्ञात संबंधों को समाज अपनी धारणा के आधार पर गलत अज्ञात या गलत प्रचार या गलत ज्ञान या गलत विचार क्यों बना देता है ?
धन्य ,समाज !
जो पवित्र प्रेम को कलंकित करता है । जिसमें लड़के लड़कियां प्रेम को शारीरिक आकर्षण समझ बैठते हैं ।

हम उस दौरान ही महसूस करने लगे थे- प्रेम तो वह दशा है जो हमें वह दशा देती है जो हमें मन से सब के प्रति सद्भावना सब का सम्मान करना सिखाती है ।

ये विविधताएं  तो हमारे लिए विभिन्न मर्यादा खड़ी करती है बस ।हमारे लिए कर्तव्य पर खड़ी करती हैं बस।
 ये सब आंख बंद कर बैठने से सब ठीक था ।
लेकिन खुले आंखों  हम बनाबटी दुनिया के बीच भ्रम शंका भय प से ग्रस्त थे। मनुष्य द्वारा निर्मित बनावटी पूर्वाग्रह छापे अशुद्धियां आदि हमें परेशान कर देते थे । उन दिनों हम सामाजिक लोकतंत्र ,आर्थिक लोकतंत्र ,सामाजिक न्याय आदि के संबंध में भी सजग होने लगे थे ।

कटरा - तिलहर से सत्यपाल सिंह यादव के माध्यम से हम कॉलेज के कुछ मुस्लिम लड़कों के माध्यम से राजनीति में भी सक्रिय हो गए थे। उस वक्त से ही हम अपने पिताजी श्री प्रेम राज वर्मा के माध्यम से कटरा में श्री हरिशंकर गुर्जर का नाम  सुनते रहते थे लेकिन क्या पता था एक दिन कटरा हमारे कर्म स्थली बनेगा? उस समय हमारा विचार अभी भी हमारा विचार रहा है हमें सरकारी नौकरी नहीं करनी है ।संघ की शाखाओं से हमने जाना है महसूस किया है सरकार, सरकारी संस्थाएं समाज और प्रकृति से बढ़कर नहीं हो सकती ।हम उस वक्त सिर्फ लेखन, समाज सेवा, राजनीति ,स्वरोजगार आदि पर ही सोचते थे। लेकिन परिवार के हालातों ने विशेष कर पिता जी के निर्णयों ने हमें यहां ला पटका। जुलाई 1996ई0 में हम घर छोड़ चुके थे।



मंगलवार, 16 जून 2020

योगिनी एकादशी-देवरहा बाबा पुण्य तिथि पर अंतर नमन::अशोकबिन्दु

योगिनी एकादशी!
देवराह बाबा पुण्य तिथि!!
"""""""""""""""""""""""""सत सत नमन!!
ऐ बच्चा, जिसे तू पेड़ कहत है, हम तो उससे हर रात बतियाते हैं::#देवरहाबाबा!

तुम किस भक्ति में जी रहे हो?अहिंसा क्या है,तुम क्या जानो? भक्ति किसी को कष्ट नहीं देती।और कुल व लोक मर्यादा में भी नहीं जीती।तुम्हारी कौन सी व्यवस्था व आचरण कुदरत को व स्वयं तुम्हें भी शांति देती है?:::#अशोकबिन्दु

देवरहा बाबा एक ऐसे महान संत योगिराज जिनके चरण अपने सिर पर रखवा कर आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए देश ही नहीं विदेशों के राष्ट्राध्यक्ष तक लालायित रहते थे।  वह यूपी के देवरिया जिले के रहने वाले थे। मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। उनकी उम्र के बारे में भी एक मत नहीं है।कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि बाबा 900 वर्ष की आयु तक जीवित रहे  (बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं.)

भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे देवरहा बाबा. डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था. पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।

श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे. प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी।

श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है. जनश्रूति के मुताबिक, वह खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन से कहीं भी कभी भी चले जाते थे. उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में कांटे नहीं होते थे. चारों तरफ सुंगध ही सुंगध होता था।

लोगों में विश्वास है कि बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया. बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे।

 . यमुना के किनारे वृन्दावन में वह 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे. उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवारों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।

लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई. वह अवतारी व्यक्ति थे. उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था।वह फोटो कैमरे और टीवी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। वह उनसे अपनी फोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी. उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था।

अपनी उम्र, कठिन तप और सिद्धियों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी भी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया, लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ ऐसी भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजते देखी गई।अत्यंत सहज, सरल और सुलभ बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे. भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें अपने बचपन में देखा था।

 देश-दुनिया के महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधू-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था. उनसे जुड़ीं कई घटनाएं इस सिद्ध संत को मानवता, ज्ञान, तप और योग के लिए विख्यात बनाती हैं।

. कोई 1987 की बात होगी, जून का ही महीना था. वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था. अधिकारियों में अफरातफरी मची थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बाबा के दर्शन करने आना था।प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गई।

आला अफसरों ने हैलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिए. भनक लगते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अफसर को बुलाया और पूछा कि पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? अफसर ने कहा, प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जरूरी है. बाबा बोले, तुम यहां अपने पीएम को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पीएम का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन इसका दंड तो बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा!

वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? नही! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा. अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का है, इसलिए इसे काटा ही जाएगा और फिर पूरा पेड़ तो नहीं कटना है, इसकी एक टहनी ही काटी जानी है, मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए. उन्होंने कहा कि यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है, यह पेड़ नहीं कट सकता।

इस घटनाक्रम से बाकी अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी, आखिर बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब पीएम का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं. आश्चर्य कि दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया कि प्रोग्राम स्थगित हो गया है, कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आए, लेकिन पेड़ नहीं कटा. इसे क्या कहेंगे चमत्कार या संयोग.

बाबा की शरण में आने वाले कई विशिष्ट लोग थे. उनके भक्तों में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं. उनके पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे. सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे. योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था. ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे. कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाता, तो वह संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते।

 लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया. ध्यान, प्रणायाम, समाधि की पद्धतियों के वह सिद्ध थे ही. धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद करते थे. उन्होंने जीवन में लंबी लंबी साधनाएं कीं. जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर था.

देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गांधी हार गईं तो वह भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं. उन्होंने अपने हाथ के पंजे से उन्हें आशीर्वाद दिया. वहां से वापस आने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया. इसके बाद 1980 में इंदिरा के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और वह देश की प्रधानमंत्री बनीं।

 वहीं, यह भी मान्यता है कि इन्दिरा गांधी आपातकाल के समय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गयीं थी. वहां उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया और हाथ का पंजा पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा।

बाबा महान योगी और सिद्ध संत थे. उनके चमत्कार हज़ारों लोगों को झंकृत करते रहे. आशीर्वाद देने का उनका ढंग निराला था. मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो गया. पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे. उनके आश्रम में बबूल तो थे, मगर कांटेविहीन. यही नहीं यह खुशबू भी बिखेरते थे।

उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था. बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे. उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया. दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया. श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे।

ख्याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया. दरअसल, इंग्लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इंडिया के साधु संत महान होते हैं।

प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना. यह सन 1911 की बात है. जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी. उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं।

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने माता-पिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे. बाबा देखते ही बोल पड़े-यह बच्चा तो राजा बनेगा. बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन 54 के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया।

बाबा देवरहा 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे. उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी. खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे.

उनके भक्त उन्हें दया का महासमुंदर बताते हैं. और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्तज लुटाई. जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया. वितरण में कोई विभेद नहीं. वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा. मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है।

कहा जाता है कि बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है. दिव्यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी. याददाश्त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्प्युटर की तरह।

हां, बलिष्ठ कदकाठी भी थी. लेकिन देह त्याहगने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे. उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता. लकडी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे. जल में वे साल में आठ महीना बिताते थे. कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे।

खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्तनगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया. उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैकडों लोगों की भीड हर जगह जुटती थी. और फिर अचानक ११ जून १९९० को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया।

लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है. मौसम तक का मिजाज बदल गया. यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं. मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे. डॉक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड निकलने पर आमादा है.१९ तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी।

 आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं. यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी. लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा. और इन्हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्पंदनरहित हो गया. भक्तों की अपार भीड भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी।
(संकलित)
वाया कुमार एस


सोमवार, 15 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया ::दैट इज..!?पार्ट 04

हम स्वयं अपने नजर में क्या हैं?
चरित्र नहीं है-समाज की नजर में जीना।
आत्मा से परम् आत्मा !
चरित्र है-आत्मा!
चरित्र है-परम् आत्मा!
चरित्र है कर्म करने का हेतु या नजरिया!
आत्म साक्षात्कार!
वह दूसरे के सामने बुराई कर रहा था, हमें पता चला।
भीड़ में लोगों के सामने कभी उसने हमें गम्भीरता से न लिया।हम ओर कटाक्ष ही करता रहा।

जब हमने उससे दूरी बना ली ,दिल में उसके प्रति वैसा ही था जैसे पहले था।
वह बोला-कसम से,हम ऐसे नहीं हैं।बताओ तो कौन कह रहा था?

"स्वयं अपने दिल से पूछो।"

आत्म साक्षात्कार!

अंतर्ज्ञान से जुड़ना ही कारण है, विद्यार्थी जीवन का ब्रह्मचर्य जीवन होना।

हम हरितक्रांति विद्या मंदिर में ही थे।
हम कक्षा सात के विद्यार्थी थे।
कक्षा सात व आठ के बीच में द्वंद हो गया था।
लेकिन मुद्दा ऐसा था,सच्चाई कक्षा आठ के बच्चों के साथ थी।

हमें कक्षा सात के विद्यार्थियों ने घेर लिया।
हम तो भीड़ भाड़ में वैसे भी सहमे सहमे से रहते थे।


लेकिन....


अब तो बचना था।

हमारे हाथ एक डंडा आ गया।आंख बंद कर हम चलाने लगे।
अपनी उम्र के 20 साल हमने आर एस एस आदि के लोगों के बीच भी बिताए हैं।उनकी शाखा ओं में लाठी चलाने का अवसर मिला है।


जब हमने आंख खोली तो हमारे चारों ओर कोई न था।
रोज मर्रे की जिन्दगीं में साधारण रहो।
जियो, जीवन जियो।सहज रहने की कोशिश करो।अनन्त यात्रा के साक्षी बनो।अपने अस्तित्व को महसूस करो।


ये धैर्य,शांति, मौन में ही सम्भव है।खुद से खुदा ओर....


कक्षा नौ में हमारे साथ एक और जुड़ा-अनुपम श्रीवास्तव।जो रायबरेली से था।उसके पिता बैंक में थे।
उसे गाने का शौक था।हमें लिखने का शौक हो था।
कक्षा आठ में ही हमने लिखना शुरू कर दिया था।
उसका हमारा साथ कक्षा12 तक रहा।

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धर्म स्थलों में हमें गुरुद्वारा ही पसन्द था।
सिंदर सिंह!जूनियर क्लासेज से ही सिक्ख लड़का-सिंदर सिंह हमारे साथ पढ़ता था।
वह अब भी हमारे साथ था।

कक्षा नौ नौ में हमारे क्लास टीचर थे-टी एन पांडे।

हालांकि कालेज में सिंदर सिंह व उसकी मित्र मंडली के साथ हम नहीं रहते थे।क्योंकि वे शरारती थे।
हम हमेशा टॉपर, गम्भीर, शालीन विद्यार्थियों के साथ ही रहते थे।लेकिन मन से भेद किसी भी प्रति न था।

सिंदर सिंह के साथ अनेक बार रेलवे स्टेशन के पास के  गुरुद्वारा आना जाना रहता था।

रविवार या छुट्टी वाले दिन उसके खेत पर भी पहुंच जाते थे।उसका खेत नगर से बाहर ही तुरन्त था।

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जो भी हो जैसा भी हो,अपने स्तर से अपना सुधार होना चाहिए।
ऊपर से क्रीम पाउडर लगा लेने से हम सबर नहीं जाते ऐसा हम व्यक्ति के शिक्षा के स्तर पर कह रहे हैं ।
शिक्षा ? कैसी शिक्षा ?
जो सिर्फ बाहरी, शारीरिक, भौतिक चमक दमक में सहयोगी है ?नहीं ,कदापि नहीं ।हम जो भी अध्ययन करते हैं उस पर चिंतन मनन कल्पना करते हैं ।ऐसे में हो सकता है कि बोलना न हो पाए लेकिन लिखना ,नजरिया विस्तार -परिमार्जन ,अंतःकरण शुद्धि ,समझ में विस्तार -गहनता  आदि में सुधार होता है ।हमें ज्ञान हुआ यही कारण है कि बड़े-बड़े विद्वान ,शोध कर्मी सेमिनार में अपने शोध पत्र पढ़ते हैं जो चिंतन मनन कल्पना स्वप्न से लिया है ।वह लिखते हैं या पढ़ते हैं बोलते नहीं ।इसका मतलब आम आदमी की नजर में बुद्धिहीनता हो सकता है लेकिन जो वास्तव में अंतर्ज्ञान में है उसके लिए नहीं ।शिक्षा भी चरित्र की तरह आम आदमी व वर्तमान समाज की धारणाओं के आधार पर अपने को बनाने में नहीं है ।बरन महापुरुषों ,शैक्षिक पाठ्यक्रम से सीख आदि के माध्यम पर अपने को बनाना है।

हाई स्कूल 1998 की परीक्षा हमारी बीसलपुर डाइट में थी ।इस परीक्षा के बाद हम मनोविज्ञान दर्शन शास्त्र शिक्षा शास्त्र का भी अध्ययन बड़ी रुचि से करने लगे थे।






रविवार, 14 जून 2020

हर पल क्रांति की जरूरत::अशोकबिन्दु

हर पल जिहाद/धर्म युद्ध/क्रांति की आवश्यकता!!
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फ्रांस क्रांति, रूस क्रांति या अन्य क्रांति का अध्ययन कर पता चलता है कि उन क्रांतियों के जो कारण थे, वे अभी खत्म नहीं हुए है।ऐसे में क्या हर पल क्रांति की आवश्यकता नहीं है ?

85 प्रतिशत बनाम 15 प्रतिशत का खेल आदि काल से रहा है।

सामाजिक,आर्थिक स्तर पर काफी असमानताएं रहीं हैं।
पूंजीवाद, सत्तावाद, पुरोहितवाद ने कभी आम आदमी के अंदर की संभावनाओं को उठाने नहीं दिया है।

महाभरत युद्ध समाप्त हो गया, पूरी दुनिया की व्यवस्था छिन्न भिन्न होगयी।लोग शहर-सभ्यता से ग्रामीण सभ्यता में आ गये, जंगली सभ्यता में आ गये।ग्रामीण सभ्यता व वन सभ्यता को  असभ्य कहने वाले ही ग्रामीण व वन सभ्यता में आ गए। इतिहास बार बार दोहराया जाता है।हम समझते हैं,सामाजिक विज्ञान का सलेब्स चेंज कर आम आदमी के आचरण, जीवन व चरवाहा, किसान, घुमंतू, वन्य जीवन को जोड़ते हुए इतिहास लेखन का मतलब यही रहा होगा। जब जब सांसारिक इच्छाओं की पराकाष्ठा बढ़ कर भीड़, परिवार, संस्थाओं आदि के बीच के इंसान इंसान में ही, समीप रहते इंसान इंसान के बीच ही मानसिक दूरियां, खिन्नता आदि बढ़ा दे तो फिर निजीकरण,पूंजीवाद,सत्तावाद, जन्मजात उच्चता भाव आदि के माध्यम से सभ्यताओं को देखकर प्रकृति,प्रकृति के बीच की कबीलाई संस्कृति मुंह चिड़ाती ही दिखती है।लोग बाहर इतने चले जाते हैं,लोग अपने निजत्व, सहजत्व, अस्तित्व के अहसास से ही दूर हो जाते हैं बाहरी कृत्रिम दुनिया के चकाचौंध में।वे अंदुरुनी अपने अंदर के सुकून,धैर्य, आनन्द से काफी दूर चले जाते हैं।


यदि शांति चाहते हो तो हमारे साथ आओ।वर्तमान रहनुमा, तन्त्र, सरकारे कुदरत व मानवता की खातिर समाधान नहीं रखतीं।आओ, हम सब पूंजीवाद, जातिवाद, राष्ट्रबाद,सामन्तवाद, पुरोहितवाद, सत्तावाद आदि को नष्ट कर मानवता व आध्यत्म को स्वीकारें।






वर्तमान में अब जो होने जा रहा है,कुदरत मुस्कुराने वाली है इंसान व उसकी व्यवस्थाओं पर।मानव सभ्यता युद्ध ही चाह सकती है।मानव की व्यवस्थाओं ने अनेक बार दुनिया को युद्ध में धकेला है। दो युद्ध के बीच की शांति अगले युद्ध की तैयारी होती है।ऐसे में सन्त परम्परा ही समाधान होता है लेकिन उसे कौन स्वीकार करे?

शुक्रवार, 12 जून 2020

सन2011ई0 का हमारा एक लेख::अशोकबिन्दु


जानते नही कलियुग है? ईमानदारी पर उतर आये तो रोटी मिलना भी मुश्किल हो जाएगी.हम कर्त्तव्य का पालन क्यो करे?आज कल तो सुविधाजनक व अवसरवादिता है वही ठीक है. धन्य ,आज के व्यक्ति की सोच!!




सुप्रीम कोर्ट दो बार कह चुका है कि कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार के लिए हर व्यक्ति दोषी है ?इसका मतलब मेरी दृष्टि मे यह है कि हर व्यक्ति के जागरुक हुए बिना देश मे दीर्घ कालीन परिवर्तन सम्भव नहीं .हर समस्या की जड़ है-मन .

मन मे सृजनात्मक सोच पैदा हुए बिना दूरगामी परिवर्तन सम्भव नही है.न जान कितनी क्रान्तियां हुईं लेकिन उसका प्रभाव कब तक पड़ा?अंगुलिमानों को बुद्ध ही बदल सकते हैं सेना व पब्लिक नहीं.क्रान्ति की तो हर पल आवश्यकता होती है .



* हम क्यो न निभाए अपना कर्त्तव्य ? *



अपने कर्त्तव्योँ का क्रान्ति से घनिष्ट सम्बन्ध होता है.शास्त्रों ने व्यक्ति के तीन कर्त्तव्य कहे हैं - अपने , परिवार व समाज प्रति कर्त्तव्य . आखिर हम अपने कर्त्तव्य क्यों न निभाएं?दुनिया मे सभी एक जैसे नही हो सकते . हम अपना कर्त्तव्य न निभा कर भावी पीढी के मार्गदर्शक व प्रेरणास्रोत तभी हो सकते हैं जब हम ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का पालन करेंगे . इसके लिए हमे संघर्ष व त्याग करना ही पड़ेगा.


यहाँ पर मुझे श्री अर्द्धनारीश्वर शक्तिपीठ , नाथ नगरी , बरेली (उ प्र) के संस्थापक श्री राजेन्द्र प्रताप सिंह (भैया जी)के कहे शब्द याद आ जाते है कि एक रोज मेरे जाने का वक्त आयेगा और चला जाऊंगा छोड़कर तुम्हारी दुनिया,जिसमे तुम अपने अहंकार के वजूद को जीवित रखना चाहते हो.मगर फिर भी मुझे किसी से कोई शिकवा या गिला नहीं है,और न ही नफरत है लेकिन अहंकार मेरा परमशत्रु है............. परन्तु यह परिवर्तन की विचारधारा गंगा की निर्मल धारा की तरह अनवरत बहती रहेगी और मनुष्य युगों युगोँ तक परिवर्तन के इन प्रयासों को सफल बनाने के लिए कार्य करते रहेंगे.वर्तमान युग ने जहां हमें ओशो जैसा श्रेष्ठ व्याख्याकार दिया है वहीं दूसरी ओर आचार्य श्रीराम शर्मा जैसा वैज्ञानिक अध्यात्मवाद व यज्ञपेथी का श्रीगणेशकर्ता , श्री श्रीरविशंकर जैसा आर्ट आफ लीविंग का विस्तार जयगुरुदेव जैसा सन्त , अन्ना हजारे जैसा परिवर्तनकर्ता ,डा ए पी जे अब्दुल कलाम जैसा आदर्श पुरुष .....और भी न जाने कितने नाम.इन सब से हट कर इन तेरह साल मेँ एक और हस्ती उभर कर आ रही है ,जिस हस्ती का नाम है - योगगुरु स्वामी रामदेव. कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी को बिगुल बजाना ही था.


हमारा एक ख्वाब था -विभिन्न जातियोँ सम्प्दायोँ के देशभक्त व समाजसेवियों,सन्तोँ को एक मंच पर लाना.क्या यह कार्य योगगुरु स्वामी रामदेव के द्वारा सम्भव नहीं है?आप को इस सम्बन्द्ध मे जयगुरुदेव ,आदि से भी बात करनी चाहिए .वैसे हमे उम्मीद है कि वक्त आने पर वह भी स्वामी रामदेव के मिशन के साथ आयेंगे.श्री अर्द्धनारीश्वर शक्तिपीठ, नाथ नगरी ,बरेली (उप्र )के संस्थापक श्री राजेन्द्र प्रताप सिंह(भैया जी) से भी निवेदन है कि वे स्वामी रामदेव जी के मिशन मे सहयोग करने की कृपा करें.आपका यह मिशन हर देश भक्त का मिशन होना चाहिए.




*स्वामी रामदेव जी जरा मेरी भी सुनिए*


अपने मिशन में इण्डिया के स्थान पर भारत नामकरण,नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु सम्बन्धी दस्तावेज,अमेरीका मेँ ओशो को दिया गया थेलियम जहर व व्यवहार,मुसलमानो को साथ ले कर भारत ,पाकिस्तान बांग्ला देश व अन्य सार्क देशों को लेकर एक मुद्रा ,एक सेना ,एक संघीय सरकार,भावी विश्व सरकार ,आदि पर भावी योजना को अपने मिशन मे प्रतीक्षा सूची मे डालने की कृपा करें.


ASHOK KUMAR VERMA'BINDU'



www.kenant814.blogspot.com

शुक्रवार, 5 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया :दैट इज...?!पार्ट03

दिनेश सिंह व रजनीश सिंह!
दोनों भाई भाई थे।जो हमारे साथ ही पढ़ते थे।
कक्षा08 पास करने के बाद वे दोनों सपरिवार सहित तिलहर के मो0 पचासा में आ गये थे।

दीपक सिंह विष्ट!

वह खटीमा आकर रहने लगा था।

सर्वेशसिंह कुशवाह ,राजेश शर्मा ही अब नजदीक थे।
मोहल्ले में एक परिवार और भी था।जिसमें एक लड़का जसकरन सिंह के साथ हमारा मिलना जुलना था।




कक्षा नौ में आते आते जीवविज्ञान में रुचि हो गयी थी।
दर्शन,आध्यत्म की पुस्तकें वक्त वेवक्त पढ़ते ही रहते थे।


नफरत!द्वेष!भय!!



घर से बाहर निकलने के बाद चारो ओर अनेक मनुष्य, बच्चे, स्त्री पुरुष, जीवजन्तु, वनस्पति।

मन ही मन महसूस होने लगा था अनेक से व्यवहार नहीं,बोलना नहीं।अनेक से भय भी। 

लेकिन नफरत कैसी, द्वेष कैसा?सबकी अपनी अपनी दुनिया।कुछ मुश्लिम लड़के लड़कियां भी करीब में थे, मन में उनके प्रति कोई दुर्भावना न थी लेकिन उनकी कुछ बातें व आचरण हमें अखरता था।एक दो के घर भी जाना होता था लेकिन कोई मन को दिक्कत नहीं।

सभी से बोलने को अवसर की तलाश!



कक्षा पांच से ही शांति कुंज व आर्य समाज का साहित्य पढ़ने लगे थे।अखंड ज्योति पत्रिका, गीता आदि का भी अध्ययन करने लगे  थे।विचार बने थे-दुश्मनी किससे?सब हालात है।सबसे व्यवहार रखने की कोशिश रखो।सबसे बोलने जी गुंजाइश रखो।

नमस्ते-अभिवादन सबसे अच्छा माध्यम।
सुबह सुबह जब टहलने निकलते थे तो कुछ चेहरे रोज नजर आते थे।उनसे रोज नमस्ते शुरू हो गयी थी।
हमजोली तोअपने कुछ बड़ों से भी नमस्ते।लड़कियों से भी नमस्ते।
हमारे प्रेरक हरिपाल सिंह, हम देखते थे हम जब स्कूल जाते थे तो जो बच्चे नमस्ते नहीं करते थे, उनसे वे ही नमस्ते कर लेते थे।रमेश भैया नमस्ते... अर्चना बहिन नमस्ते..... बगैरा बगैरा....!!



बसुधैव कुटुम्बकम!



साहित्य को पढ़ कर इस पद को समझने लगे थे।
अंदर ही अंदर महसूस भी होता था-सारी कायनात को सोचने पर।

कोई जातिवाद नहीं!कोई मजहब वाद नहीं!कोई छुआ छूत नहीं!!



विद्यालय में साथ साथ रहना-समाज में भी आ गया।साथ साथ खाना पीना भी।


समाज से ही भेद मतभेद का मैसेज मिला।
घर से भी नहीं।
हां, घर में बाहर वालों  में से कुछ के लिए गिलास बर्तन अलग थे।हम बड़े हुए तो ये भी सब हटा दिया।


परहेज काहे का?छुआ छूत कहे का?गांव छोड़ने से पिता जी दो कदम आगे बढ़ गए । हम चार कदम इस मामले में। हम महसूस करते थे तथाकथित ब्राह्मण जाति से लोग हम सब से परहेज करते थे।कोई उनमे से घर नहीं आता था।हालांकि पड़ोस में उनके घर कम नहीं थे।


आर एस एस के स्वयंसेवकों से नजदीकियां थी तो लेकिन हम उनके जन्मजात उच्च होने के भाव व विचार से नफरत करते थे।

स्तर-स्थूल,सूक्ष्म व कारण!

स्थूलताओं से तो जुड़े ही थे।
सूक्ष्म से व कारण से भी जुड़ने लगे थे।हालत ही ऐसे थे। समाधियों, कब्रों आदि से कोई भेद न, भय न था।


भूगोल की पुस्तकों में जब पृथ्वी व अंतरिक्ष की तश्वीरें, विज्ञान प्रगति पत्रिका से भी देखते थे, दूर काफी दूर छितिज का.... धुंध.... अदृश्य.... अनेक जिज्ञासाएं... बेचैनी सी पैदा हो जाती थी।
मन के किसी कोने से वैज्ञानिकता भी उठने लगी थी।खामोशी हमें वो अहसास कराने लगी थी कि हमें ताज्जुब होता था।


कभी कभी लगता था-हम और कहीं के हैं? कुछ अपना खोया सा है,जिसकी तलाश है। अंतरिक्ष में कोई धरती है।जहां भी हम हैं।आगे चल कर पढ़ा, पढ़कर सुकून मिला कि भूमध्यसागरीय जंगलों में कुछ कबीले है, जो अपना पूर्वज किसी लुन्धक धरती से आया बताते हैं जो कि मत्स्य मानव थे। मानव के आदिपूर्वज  रामापिथेक्स के अवशेष वहां, अफ्रीका में व भारत में शिवालिक पहाड़ियों में मिले हैं। हम खामोशी के रहस्यों को समझने लगे थे।ऋषि मुनि ठीक करते थे कि आत्मा पूर्ण ज्ञानी है।विद्यार्थी जीवन ब्रह्मचर्य जीवन इसलिए है कि बाहर के अलाबा अंदर भी ज्ञान छिपा है,उस ज्ञान तक विद्यार्थी जाए।



मोहल्ले में रामबिलास, एक वैद्य जी ,जो बुजुर्ग थे....उनके साथ शाम तीन चार बजे मीटिंग हो जाती थी। सर्वेश सिंह कुशवाह के मकान पर दिन मु दे अधिकतर जाना होता था, वहां सामने एक बुजुर्ग से सत्संग होता रहता था। कबीर, बुद्ध, भक्त काल आदि का जो कि पढ़ा समझ मे आने लगा था-उस पर चर्चा करने लगा था।



सगुन निर्गुण को जानने लगा था।

हम उम्र लड़के लड़कियों से बातें नहीं हो पाती थीं।उनकी बातें तो दुनियादारी की,फिल्मों की।

उस समय जो खेल थे, वे तो अब समाप्त ही हो गए।

लेकिन हमारी रुचि खेल में न थी।


बस, चिंतन,मनन, कल्पना, स्वप्न.....


आर्य समाज में जाना-25 साल तक का जीवन ब्रह्मचर्य जीवन लेकिन...!?


लेकिन!!?



कोई भी अंतर्ज्ञान में?!


देखा जाए तो कोई हमजोली हमें न भाया।

बुजुर्गों, सन्तों के बीच ही ठीक था।

लेकिन वे भी!?

उनमें से भी कुछ में विकृतियां!?

क्या कहें?खजुराहो मन्दिर की दीवारों की तश्वीरें फेल!समझने वालों के लिए इशारा ही काफी।




बाजार में जब जाते थे तो कपड़े की एक दुकान थी-देशबन्धु गुप्ता की।उनके घर पर भी जाता था।उनका व्यक्तित्व काफी आकर्षक था। उनके घर भी सब ठीक था।सब कुछ संस्कारवान, शालीन लगता था। पड़ोस के रामबिलास गंगवार उन्हीं  के यहाँ मुनीम आदि का काम देखते थे।


देशबन्धु गुप्ता ने जब शरीर त्याग दिया तब हम उनका अहसास अपने करीब करते रहे। उनसे अनेक मार्गदर्शन भी मिलते रहे। अभी तक कटरा में भी।


कटरा के कुछ फैमिली का अहसास स्वप्न में उन्होंने कराया था।




नारी सशक्तिकरण का मतलब ये नहीं है कि वह पुरुष बन जाए, ,स्त्री के शरीर में एक पुरुष:::विलियम थॉमस

#पिछले कुछ वर्षों से स्त्री-- पुरूष #समानता की बात उठाई जा रही है!
😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊
और मुझे ये नहीं #समझ में आता कि जब उस विधाता ने ही स्त्री को पुरुष से अलग और श्रेष्ठ बनाया है,, तो समानता की जरूरत क्या है??
क्यों वो अपने स्वभाव से नीचे गिरकर पुरुष के बराबर आना चाहती है,,
शायद मुझे लगता है ये समानता अधिकारों को लेकर है,,,
यानी स्त्री को भी पुरुष के समान इज्जत और अधिकार मिलें,,
इनमें से अधिकार बराबर मिलने चाहिए,, यह जरूरी है,, लेकिन कौनसे??और कितने??यह विचारणीय है,
.
और इज्जत यानी सम्मान तो स्त्री का निश्चित तौर पर ज्यादा है ही,, होना भी चाहिए,, मैंने पूरे देश में माता के हजारों मंदिर देखे हैं,,,और कहीं भी पापा का मंदिर नहीं देखा,,इसका कारण ये है कि पिता होना बड़ी बात नहीं है,,,
.
बड़ी बात है माता होना,,
अभी कुछ दिमाग से पैदल आधुनिक लड़कियाँ बराबरी या समानता का अर्थ कुछ और ही लगा बैठी हैं,,
वे लड़को जैसे बाल रखती हैं,, सिगरेट पीती हैं,,
दिल्ली, चंडीगढ़, बॉम्बे आदि में तो बियर और शराब भी पीती हैं,,
नाईट क्लब में हुड़दंग मचाती हैं,,
मुँह में हाथ डालकर सीटियां बजाती हैं,,
गाली गलौज भी करती हैं,,
और इसे वे समानता समझती हैं,,
ये समानता नहीं है मेरी बहन,,,
वास्तव में समान होने के चक्कर में तुम दूसरा #पुरुष बन गई हो,,
# बच्चे पैदा करने वाला पुरुष,,
.
ये समान होना नहीं है,,खुद का अस्तित्व इतना सुंदर और पवित्र होते हुए भी दूसरे जैसा बनना पागलपन # विक्षिप्त होने की निशानी है,,
फटे हुए कपड़े पहनती हैं,,और कपड़े क्या,
कपड़ो के नाम पर # चिथड़े समझो,,
कहती हैं हम कैसे भी कपड़े पहनें,,
तुम अपनी सोच ठीक रखो ,,
कम कपड़े पहनना और सार्वजनिक स्थानों पर #बेशर्मी से टहलना,,,
इसे वे आधुनिकता का नाम देती हैं,,
.
अगर कम कपड़े पहनना आधुनिक होने की निशानी है तो,, गाय, भैंस, गधी,, ये सब तो बिना कपड़ों के रहती हैं,,
फिर तो #गधी को परम् आधुनिक मानना चाहिए,, वो आधुनिकता की # रोलमॉडल होनी चाहिए,, क्योकि वह तो सदियों से,, बल्कि सृष्टि के आरम्भ से निर्वस्त्र है,,,
.
इससे बचो मेरी बहनों,,बराबरी और आधुनिकता के चक्कर में कहाँ??
किस चक्रव्यूह में फंस गई तुम ये तुम्हे भी नहीं पता,,
अपना अस्तित्व खोकर दूसरा पुरुष बनना शोभा नहीं देता।
आप मेरे बात से सहमत हो या असहमत अपना मत अवश्य प्रकट करें!
अगर किसी को इस पोस्ट से तकलीफ हुई है तो हमे क्षमा करे
@विलियम थॉमस
Fb पोस्ट से....



गुरुवार, 4 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया:दैट इज...?! पार्ट02

किशोरावस्था!
विचारक्रांति का केंद्र-हरितक्रांति विद्यामन्दिर!!
स्वयं!
सु+अयम!!
इस संधि को बनाने का नियम::उ+अ=व्+अ!

क्या?

यदि-
स्वागत=सु+आगत
जहां उ+आ=व्+आ, तो.

अयम का अर्थ?
सु का अर्थ?
स्वतंत्र?!
स्वतंत्र के साथ क्या होगा?
अरविंद घोष ने कहा है-स्वतंत्र को आत्मा ।


मैं सोंच रहा था।
हम सब एक बाग में उपस्थित थे।
कुछ लड़के आम तोड़ रहे थे।
दीपक सिंह विष्ट हमारे साथ बैठा था।उसने इसी साल बाहर से आकर एडमिशन कराया था। उसके पिता sbi में थे।
हम दोनों एक ही क्लास में थे।



चिंतन, मनन, कल्पना,स्वप्न हमारे जीवन के अहम पहलू बन गए थे।
यही अपनापन व अच्छा समय का अहसास करा रहे थे।
ये हमें गहराई दे रहे थे।हमारे समझ व चेतना को भी।समझ व चेतना के विस्तार को।


अब हमारा क्लास में दूसरा स्थान रहने लगा था।
राजीव तिवारी प्रथम व अनुभव सक्सेना तृतीय। गणित अध्यापक होरी लाल शर्मा बढही अभी जल्द ही हमे पढ़ाना शुरू किया था। वे हमारे पिताजी व हमसे काफी लगाव रखते थे उनके गांव में पिता जी के मित्र थे। आगे चल कर उनकी रोडवेज में नौकरी लग गयी। वे हमें गणित में बेहतर विद्यार्थी मानते थे।दरअसल ये था कि उनकी बातों को हम क्लास में अन्य विद्यार्थियों के अपेक्षा जल्दी समझ जाते थे।लेकिन उसको बाद में अपने में रख नहीं पाते थे।इसका भी कारण था।,वर्तमान में रहना या भविष्य में रहना।वास्तव में जीवन की गति भी यही है।


विद्यालय की ओर से हमें थाना, रेलवे, गन्ना फैक्ट्री, दूरभाष केंद्र आदि में जानकारियों के लिए लिए ले जाया जाता था। वजन7हम सब सम्बंधित कर्मचारियों व अधिकारियों से सवाल करते थे।हम अंतर्मुखी थे लेकिन दिमाग चलता खूब था।इतना कि फिर  थक भी जाए। बहिर्मुखता में हम शारीरिक सक्रियता में हम सहमा सहमा पन महसूस करते थे।इस पर भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है-अति बैद्धिक सक्रियता वर्तमान समाज मनोबिज्ञान  से ऊपर होती है या नीचे।ऊर्जा गति मान होती है।ठहराव में नहीं।जीवन गतिशीलता है, विकासशीलता है, अनन्त यात्रा है।अब स्वाध्याय में रुचि बढ़ गयी थी। घर में चन्दामामा, चंपक, बाल भारती, नंदन, धर्मयुग, सोवियतसंघ आदि पत्रिकाओं का भी अध्ययन करने लगे थे।


सन  1994 ई0!

ब्रह्मा, विष्णु व महेश आंख बंद कर क्या प्राप्त करना चाहते?

प्रार्थना सत्र के दौरान पांच मिनट करवाए जाने वाले 'ब्रह्मनाद' से हमें आंख बंद कर बैठने की प्रेरणा मिली। ज्ञान की शुरुआत उपनिषद से होती है।इसका मतलब बैठने से भी है।

आंख बंद कर हम शांति, सुकून की ओर बढ़ना शुरू करते हैं।

अन्य विद्यार्थियों ,बच्चों से अलग हमारी दुनिया बनने लगी।

कुछ हूं जो सभी में है,दुनिया में है।जो सबको एक मे बांधे है।उससे दूरियां ही हम सब की समस्या है।

आर्यसमाज में होने वाले तीन चार दिवसीय वार्षिक उत्सव में हम जाने लगे थे। यज्ञ(हवन) में धुंआ सामने बैठना तो मुश्किल था लेकिन संवाद, वार्ता आदि में बेहतरी महसूस होती थी।


मोहल्ले के ही सुशील वर्मा के साथ एज दो बार जयगुरुदेव सत्संग में भी पहुंचा था।

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अक्टूबर 1994 ई0!



सरदार बल्लभ भाई पटेल जयंती में हम उपस्थित थे। सायंकाल होने को आयी थी।पता चला कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही अंगरक्षकों ने ही हत्या कर दी।



यहां से अब हमें राजनीति में कुछ कुछ रुझान होना शुरू हुआ।

अब रात्रि हो चली थी।
अच्छा बुरा के अहसास से परे की स्थिति थी।आंखें नम थीं।
सूक्ष्म व कारण शरीर में हमारी अन्तर्मुखीता कभी कभी अति गहराई में पहुंचा देती थी।


22मार्च 2020ई0!एक दिवसीय लॉक डाउन !

किसी को महसूस हो या न हो, हम महसूस कर रहे थे-प्रकृति में शांति, सहजता आदि पहले से ज्यादा। यथार्थयथार्थ, वर्तमान पहले से ज्यादा। इसी तरह उन दिनों??उन दिनों वर्तमान की तरह हाल नहीं थे। गांव व शहर से बाहर निकलने के बाद बाग ही बाग।खूब हरियाली2।बरसात भी खूब1।इंसान को भी एक दूसरे के लिए वक्त ज्यादा।वर्तमान से ज्यादा उस वक्त प्रकृति शांत व सहज में।

कुछ और भी...


इंसानी भागदौड़ जिधर है उधर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण उसके विपरीत भी कुछ है।

मई जून की छुट्टियां में हम ननिहाल मोहिउद्दीनपुर चले2 जाया करते थे।अपने पैतृक गांव जाना नहीं होता था।साल दो साल में एक दो दिन के अलावा।

हमारा पेट गड़बड़ रहता था।खाने पीने में डरा डरा सा रहता था।
ननिहाल में ये डर गायब हो जाता था।

नाना बेसिक में टीचर के अलावा वैद्य जी ज्यादा माने जाते थे।चूर्ण गोलियां की कमी नहीं थी।और भी कुछ...!?सहज सा, सब सँवरा सा लगता था।


हरित क्रांति विद्या मंदिर!
हम हरित क्रांति विद्या मंदिर में विद्यार्थी थे।कक्षा 08 तक हम वहीं पढ़े थे।हमारे वैचारिक धरातल को आधार देने मेँ वहां हरिपाल सिंह की बोध कथाएं बड़ा योगदान दिए। जो पहले सरस्वती शिशुमन्दिर योजना में थे।


लेकिन अपनी समस्याएं अपनी ही होती हैं।वे जिस स्तर से उभरती है,उसी स्तर पर ही समाधान भी आवश्यक है।समाधान भी अपना ही काम आता है।परिवार, समाज, स्कूल आदि में प्रेरणा के लिए काफी कुछ होता है लेकिन हमने महसूस किया उत्साह, सामर्थ्य विकास, साहसिक कार्य क्षमता, कर्मठता विकास, लक्ष्य प्रति सजगता व ततपरता,प्रतिकूलताओं में भी अपने कर्तव्यों की अडिगता आदि कैसे?किशोरावस्था में हमारी ये समस्याएं थीं।


एक साधे सब सधे!


सिर्फ आत्मा से परम् आत्मा!सिर्फ तत्व से व्यक्तित्व!

आध्यत्म, मानवता, सम्विधान ही हमें उस वक्त से ही समाधान दिखने लगे थे।


स्व से ही स्वाभिमान!
स्व से ही स्वतन्त्रता!
स्व से ही स्वास्थ्य!
आत्मा वसे ही आत्म निर्भरता!
आत्मा से ही आत्मसम्मान!
आत्मा से ही अध्यत्म!!!


आर्यसमाज में एक विद्वान ने कहा था-स्वयं ही हम सबकुछ हैं।


विद्यार्थी जीवन कैसे ब्रह्मचर्य जीवन बने?इस पर अभिवावकों, स्कूलों व सरकारों को विचार करना चाहिए।

बुधवार, 3 जून 2020

अशोक बिंदु भईया : दैट इज....?! पार्ट 01

योग/सम्पूर्णता(all/अल) की कृति!
तीन स्तर-स्थूल, सूक्ष्म व कारण!
तीनों की आवश्यकताओं के लिए जीना ही कर्म/यज्ञ/प्रकृति अभियान!
किशोरावस्था हालांकि तूफानी अवस्था होती है।

हमारी शिक्षा की शुरुआत सन्तों के बीच शुरू हुई।
नर्सरी एजुकेशन में संतो के अतिरिक्त पूरनलाल गंगवार, टीकाराम गंगवार, हरिपाल सिंह आदि का योगदान रहा जोकि सरस्वती शिशु मंदिर योजना में आचार्य थे ।
सरस्वती शिशु मंदिर योजना में शिक्षा प्रारंभ के वक्त ठाकुर दास प्रजापति की समीपता में भी आए ।

आर्य समाज ,शांतिकुंज ,जय गुरुदेव संस्था ,निरंकारी समाज आदि के कार्यक्रमों में  सहभागिता बनी रहती थी।
श्री रामचंद्र मिशन, शाहजहांपुर से अभ्यासियों से  भी मैसेज आते रहते थे।


सन1983 ई0!

पाठ्यक्रम तथ्यों विशेष कर कबीर ,रहीम ,रैदास के दोहे ,गीता के श्लोक ,सुभाषितानि के श्लोक ,गौतम बुद्ध ,सम्राट अशोक ,चंद्रगुप्त मौर्य ,गुरु गोविंद सिंह व उनके पुत्र आदि से चिंतन मनन कल्पना सपना माध्यम अपना वैचारिक स्थल सजाती जा रहे थे ।

किशोरावस्था में प्रवेश करते ही समाज की अनेक धारणाएं जातिवाद ,मजहबवाद, धर्मस्थलवाद आदि अटपटी लगने लगी थी।

 प्रकृति ,पुस्तकें ,बच्चे .....ये  स्थितियों में ही हमारा वक्त गुजरता था ।

सारी कायनात में मैत्री मनोदशा थी ।
डर ,भ्रम आदि तो प्रकृति में थे जो मानव निर्मित व मानव के बीच थी ।
तीनों स्तरों- स्थूल, सूक्ष्म व  कारण के एहसास किसी ने आमंत्रित करना शुरू कर दिए थे ।

मूर्ति पूजा शुरुआत करने के साथ ही छूट चुकी थी सिर्फ दिखावा रह गया था ।
अंदर कुछ क्षण ऐसे आने लगे थे जोकि हमें आनंदित कर देते थे ।

वे आनंद की लहरें.... तरंगे.। स्पंदन ...!
परिवार ,पास पड़ोस, विद्यालय से कुछ मैसेज ऐसे ग्रहण होने शुरू हुए जो सहज ज्ञान में विपरीत है ।

ऊर्जा तो गतिमान है स्थिर भी है हालांकि ।
लेकिन हमारे लिए गतिमान ही थी कभी मूलाधार पर तो कभी माथे पर ।
परिवार ,समाज के भेद ,संकीर्णताएं ,विकार ,अशुद्धियों के प्रभाव में बे वे अहसास, स्पंदन ,कंपन .... जो निष्पक्ष हैं पक्ष या विपक्ष में होकर जीवन यात्रा उन्नति में बाधक होते रहे !
यहां पर महसूस हुआ विद्यार्थी जीवन के लिए महत्वपूर्ण है वातावरण,आवासीय शिक्षा व्यवस्था, कुछ समय के लिए समाज से दूर कुछ शिविर ....... फिर जाना विद्यार्थी जीवन आखिर ब्रह्मचर्य जीवन क्यों है? बाहरी ज्ञान बाहरी प्रकाश से ही नहीं अंदरूनी प्रकाश अंदरूनी ज्ञान से जुड़ना ही ब्रह्मचर्य है।
 योग प्रथम  आवश्यकता है विद्यार्थी जीवन की।
 आगे बढ़ते रहें .....मन  बिखरता भी रहा.... एकाग्र होने की कोशिश करते रहे !आध्यात्मिक चिंतन मनन भी होता रहा !




पिता श्री प्रेम राज वर्मा के नाना ठाकुरदास राय व मामा रेवती प्रसाद ,खजुरिया नवी राम बिलसंडा पीलीभीत, ताऊ कह्मारा पुवायां, फूफा जी पौरिया बिलसंडा, सक्सेना जी प्राचार्य एसएस कॉलेज शाहजहांपुर आदि  की सांसारिक मदद के साथ बाबूजी महाराज , आर्य समाज व  शांतिकुंज की प्रेरणा से आगे बढ़े ।
वैसे तो वे जब  बे 5 साल के थे तभी उनके पिताजी अर्थात हमारे बाबा मूलाराम मृत्यु हो गई थी ।गांव छोड़कर ही विकास करना मजबूरी बन चुकी थी ।ऐसे में हम सभी की परवरिश भी बड़ी प्रतिकूलताओं, दुर्गमताओं के बीच हुई। पिताजी के चाचा फतेह चंद की नीतियां व आचरण तामसी प्रवृतियां, षड्यंत्र कार्य थे ।


हमने जब सांसारिकता में होश संभाला तो हम उस वक्त खजुरिया नवी राम बिलसंडा में रह रहे थे। वहां भी जमीन जायदाद, तामसी प्रवृतियां ,व्यक्तियों ,आर्थिक समस्याओं आदि के चलते स्थिति संघर्ष मे थी । केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी ।आपातकाल लागू था। पुलिस की मनमानी से भी आसपास लोग, रिश्तेदार आदि शिकार हो रहे थे । उस समय सरस्वती शिशु मंदिर योजना में आचार्य हरपाल सिंह जिन्होंने बाद में हरित क्रांति विद्या मंदिर बीसलपुर पीलीभीत की स्थापना की; उनका व उनके परिजनों का बड़ा सहयोग रहा ।पुरोहितबाद, जातिवाद, अनेक अंधविश्वासों से संघर्ष भी जारी रहा ।इसके लिए शुरुआती प्रेरणा मोहिउद्दीनपुर बण्डा में आर्य समाजी गतिविधियों से मिली जहां हमारी ननिहाल (रोशनलाल गंगवार, रवि गंगवार, अश्वनी गंगवार ) भी है ।

अप्रैल सन 1983 ईस्वी !
हम कक्षा 5 परीक्षा कार्यक्रम में व्यस्त थे।
 राजीव तिवारी ,प्रसून गुप्ता, राजेश गुप्ता, मनोज गंगवार, अनुभव सक्सेना ,आनंद सक्सेना ,धर्मेंद्र सक्सेना, राजेश शर्मा ,दीपक सिंह बिष्ट ,नीतू शर्मा ,अर्चना तिवारी ,उमा गंगवार आदि हमजोली या सहपाठी हमारे करीबी थे ।इस वक्त हम अपना एकांत ब्रह्मनाद( मेडिटेशन ),गीता अध्ययन ,ओम नमो भगवते वासुदेवाय जाप आदि में व्यतीत करने लगे थे ।इस वक्त हम संत परंपरा में लगे अनेक व्यक्तियों के संपर्क में थे।

 कक्षा 6:00 में आते आते हैं हमारी मित्र मंडली में सर्वेश सिंह कुशवाहा, दिनेश सिंह, रजनीश सिंह आदि भी जुड़ गए थे। संभलने - सवरने हेतु स्थितियां नाजुक थी। नेगेटिव ऊर्जा से साक्षात्कार ज्यादा होता था ।जिसका प्रभाव मन मस्तिष्क पर था ।लेकिन उसको काटते हुए हम आध्यात्मिक चिंतन में लग गए थे ।लेकिन सांसारिक आकर्षण, हमजोलीओ के आचरण ,परिवार की स्थिति आदि प्रभावित करने की कोशिश करते रहे। उस वक्त सांसारिक ख्याल सिर्फ मैत्री तक सीमित थे उस वक्त कोई ख्वाब मित्रता के सिवा नहीं था या फिर सत्संग....





मंगलवार, 2 जून 2020

मलंग कबीरा की पोस्ट से::अशोक बिंदु

आंध्रप्रदेश में हिंदुओं में अपनी सगी भाँजी से विवाह किया जा सकता है। चेचेरी और ममेरी बहन से भी विवाह संभव है। मेरे लिए ऐसा कुछ अकल्पनीय है।
नार्थ सिक्किम 9000 फुट से अधिक ऊंचाई पर याक खूब दिखते हैं। याक मुझे बहुत प्रिय है। सिक्किम के लोगों को याक का मांस बहुत पसंद है और कुछ हिस्सों में मजबूरी भी है। रास्ते में चलते चलते याक का शिकार होता हुआ दिखा और हम सारे दोस्त सिहर गए।
कर्नाटक में छोटे छोटे रेस्टॉरेन्ट में और सड़क किनारे पड़ने वाले ग्रामीण ढाबों में पोर्क खूब मिलता है।
केरल में बीफ कॉमन है। हिन्दू/मुसलमान/ईसाई सब प्रेम से खाते हैं। बड़े रेस्टोरेंट में हर तरह का मीट मिलता है।
पश्चिम बंगाल में बाहरी लोगों से सीधा पूछ लिया जाता है कि देश कौनसा है तुम्हारा ? बिहार से बंगाल के रास्ते में मालदह पार कर जाने पर बीफ की दुकान सड़क किनारे दिख जाती है। हाँ देश पूछने पर और सड़क किनारे बीफ दिखने पर मैं असहज हुआ था।
तमिलनाडु के कुछ हिस्से में लड़कियों के पीरियड शुरू होने पर बड़े बड़े होर्डिंग लगाए जाते हैं और पूरे गाँव समाज को भोज खिलाया जाता है।
मेरे गाँव में दिवाली के अगले दिन सुकरतिया नाम के पर्व में टोले भर के भैंस मिलकर एक निरीह सुअर को फुटबॉल की तरह खेलते हैं जबतक की वो मर नहीं जाता। मुझे गुस्सा आया था पहली बार देखकर।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं मेरे पास ये समझने के लिए कि इस देश में लोग हैं जिनकी मान्यता मेरे से बिल्कुल अलग है। जो मेरे से जुदा सोचते हैं। जिनका स्वाद मेरे से अलग है। और मैं इनसब के साथ बड़ी आसानी से समझ जाता हूँ कि मुझे सबके साथ रहना है, उनके मान्यताओं को सम्मान देते हुए जरूरत पड़ने पर शामिल होने में बस अपनी अनिच्छा दर्ज करानी है।
कई दोस्त हैं जिनके साथ बेहतरीन जगहों पर घूमने गया हूँ।
सिक्किम के लोग मुझे पूरे भारत मे सबसे अच्छे लगे। जिंदादिल, ईमानदार, शांत। याक या बीफ खाने के कारण ये थोड़े भी खराब इंसान न हो पाए जैसा में मुर्गा दबाकर खाने के बाद भी सिक्किम के महात्मा गांधी रोड पर ली गयी तस्वीर में गाँधी की प्रतिमा के साथ अनफिट नहीं होता।
कर्नाटक में खूब सारा प्यार मिला। लोग मिले ऐसे जो मुझे कम्फ़र्टेबल करने के लिए टूटी फूटी हिंदी में बतियाते थे। थोड़ा भी परायापन न मिला।
केरल में जिंदादिल दोस्त मिले। दारू की पार्टी में खूब गया, पिया नही और बिल दिया। दोस्त ऐसे जो मेरे प्रजेंस के बिना दारू पीने को तैयार नहीं। ज्यादातर दोस्त ईसाई और मुसलमान लेकिन मेरे कम्फर्ट को ध्यान में रखकर चिकन छोड़ कभी कुछ आर्डर न हुआ ( अभी मुझे वो कम्फर्ट अपना स्वार्थ लगता है).
एक दीदी मिली जो मुसलमान हैं और राखी पर टीका लगाने के लिए कुछ न मिलने पर मेरे माथे पर लिपस्टिक से टीका करती थी। एक बिहारी को पूरे मलयाली कम्युनिटी का भरपूर प्यार मिला।
तामिलनाडु की मेरी दोस्त के बिना मुंबई का तीन साल बेकार गुजरता। मुम्बई और आसपास का हर हिस्सा हमने साथ देखा। खूब हँसे, खूब घूमे, खूब खाए। एकदूसरे के समस्याओं को सुलझाया भी, एक दूसरे के साथ रोये भी और रो चुकने के बाद चिढ़ाया भी खूब। कभी भी तमिल और बिहारी न हुए।
पश्चिम बंगाल में चार साल हिंदी बोलते गुजार दिए और दोस्तों ने उफ तक न की। यहाँ भी खूब प्यार मिला। बंगाली मकानमालिक और मेरे अनगिनत दोस्तों ने मेरी बदमाशी मुस्कुरा कर झेली।
सुअर का भैंसों से शिकार कराकर भी मेरे गाँव के सारे लोग खराब नहीं हो जाते । लोग बीफ खाकर खराब नहीं हो जाते जैसे मैं चिकन खाकर अपने बौद्ध और जैन मित्रों के लिए खराब नहीं हो जाता।
लोग संबंधियों में विवाह करके खराब नहीं हो जाते जैसे ब्राह्मण केवल ब्राह्मण से और यादव केवल यादव से शादी कर खराब नहीं हो जाते।
न कोई पोर्क खाने से खराब होता है, न कोई शाकाहारी होने से खराब होता है।
मुझे बुरा लगता यदि कोई मुझे जबरदस्ती मुसलमान, ईसाई, बौद्ध या नास्तिक बनाने का प्रयास करता। मुझे बुरा लगता यदि मुझपर कोई अपनी मान्यता थोपता।
देश बुरा हो जाएगा यदि कोई हिस्सा सबको जबरदस्ती अपने जैसा बनाने लगेगा।
देश बुरा हो जाएगा यदि इसकी विविधता खत्म होगी।
देश बुरा हो जाएगा यदि मुहम्मद अली रोड पर रमज़ान के मौके पर मिलने वाले पकवानों को खाने के लिए उमड़ने वाली भीड़ में हिंदुओं भारी संख्या कम हो जाए।
देश बुरा हो जाएगा यदि कोई भी अपने मन का खाने और पहनने को स्वतंत्र न हो।
देश बुरा हो जाएगा यदि खान-पान और परिवेश में भिन्नता के कारण एकदूसरे के दिल में जगह मिलना बंद हो जाए।
देश बुरा हो जाएगा यदि हमारे बीच विविधता के रंग बिरंगी खूबसूरत महीन लकीरों को कोई चौड़ी खाई में बदलने की जिद करने लगे।
इतिहास को गौरवशाली करने में हमारा बस इतना सा योगदान हो कि हम अपने वर्तमान को सबके लिए खुशहाल बनाने का प्रयास करें।

बाकी सब कुशल मंगल है।

#मैं_मलंग
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