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मंगलवार, 24 अगस्त 2021

व्यवहारिक रूप में समाज, संस्थाओं में कार्य करना मुश्किल::अशोकबिन्दु

 दुनिया भर की किताबें रट लेने से हम विद्वान नहीं हो जाते।परम्परा गत समाज में ये अच्छा हो सकता है। महत्वपूर्ण है कि हमारा चिंतन मनन, नजरिया,स्वप्न, कल्पना क्या है?आस्था क्या है?किताबों से जो रट कर हम कहते फिर रहे हैं, जरूरी नहीं वह हमारा चिन्तन मनन, नजरिया, आस्था, स्वप्न, कल्पना आदि हो?

शोध करने वाले, डिग्री कालेज के प्रोफेसर आदि सेमिनार में पढ़ पढ़ कर अपना लेख पढ़ते हैं?उन्हें क्या पता?पढ़ पढ़ कर पड़ते है?

आप क्या जानो? चिंतन मनन,नजरिया, स्वप्न, कल्पना में जिसे जिया जा रहा है वह व्यक्ति की असलियत होकर भी बाहर उजागर होने की कैसी कला ?!

हमें व्यवहारी रुप से कार्य करना मुश्किल होता है जो आप जगत में जीते हैं उनके पास कामकाजी बुद्धि का अभाव होता हैै इसको अनेक मनोवैज्ञानिक कर चुके हैं हम चिंतन मनन अन्वेषण लेखन कर सकते हैं लेकिन उसके आधार पर व्यवहार करना मुश्किल होता है क्योंकि समाज संस्थाएं पूरा सिस्टम कुछ और ही चाहताा है

बुधवार, 11 अगस्त 2021

शिक्षा कोई व्यवसाय नहीं है:::अशोकबिन्दु

 शिक्षा के लिए समाज ,शासन को अपना 80 प्रतिशत बजट खर्च करना चाहिए।जिस देश में शिक्षा व्यवसाय है ,उस देश का भविष्य कभी भी उज्ज्वल नहीं हो सकता, जहां नशा व्यापार आदि को इस लिए बढ़ावा हो कि वह आय का बड़ा स्रोत है, ये विचार ही उस देश के निम्न शैक्षिक स्तर को प्रदर्शित करता है। जीवन की असलियत यह है कि इच्छाएं दुख का कारण है।इच्छाओं की पूर्ति लोभ का कारण।

शिष्यत्व! व गुरुत्व में अहसास की कल्पना काफी दूर जा चुकी है।।



यदि अंदर शिष्यत्व है तो जड़,चेतन सभी से गुरुत्व को प्राप्त किया जा सकता है। नगेटिव दशा से भी गुरुत्व प्राप्त करते हैं, प्रतिकूलता से तक गुरुत्व प्राप्त करते।


शिष्यत्व दो प्रतिशत से भी कम लोगों में होता है, ऐसा 100 साल पहले रामकृष्ण परमहंस कह गए। शिष्यत्व में तो समर्पण, शरणागति, श्रद्धा, आस्था, रुझान होता है।


ऋषियों ने तो कहा है कि शिष्यत्व में अपनी निजी इच्छा होती ही नहीं,वरन एक व्यवस्था में समर्पण होता है।जो स्वतः ही गुरुत्व की ओर धकेलता है, प्राथमिकता देता है।

शिष्यत्व व गुरुत्व में इतना ही फर्क है जितना एक चिकित्सक व चिकित्साशिक्षा के विद्यार्थियों के कर्म व दशा में होता है।

कोई तो कहता है कि दोनों दो शरीर एक प्राण होते हैं।जो ब्रह्मचर्य आश्रम को निर्मित करते हैं।

जहां हमारा पूर्णत्व अस्तित्व=स्थूल+सूक्ष्म+कारण जाग उठे।मन, वचन व कर्म एक हो जाये।

जब भारत जगद्गुरु था तो सब गुरुत्व केंद्रित था। विद्यालय, गृहस्थ वानप्रस्थ व सन्यास;सब कुछ गुरुत्व केंद्रित था।तन्त्र भी गुरुत्व केंद्रित था।तब V I P भी गुरुत्व था।


शिष्यत्व व्यक्ति के रुझान, समर्पण, संकल्प, शरणागति शक्ति से  होता है। जहां स्वयं के पूर्वाग्रह, स्वयं के पूर्व निर्धारित विचार, पूर्व निर्धारित आस्था,पूर्व निर्धारित अहंकार आदि गायब होता है। जबरदस्ती का विनमय नहीं होता है। सब मानसिक होता है।गुरु की उपस्थि में गुरु मन की जिस गहराई से है,शिष्य भी उधर ही बढ़ना शुरू हो जाता है।गुरु के सामने शिष्य शून्य होजाता है। वह गुरु ही होने लगता है। गुरु के एक एक शब्द, एक एक विचार उसके चिंतन मनन, स्वीकृति ,रुझान, रुचि आदि हो जाते है। शिक्षा सिर्फ शब्दों ,वाक्यों, पुस्तकों के भंडार का विनिमय नहीं है,व्यवसाय नहीं है।हमारी शिक्षा विद्या है। जो अतीत की आस्था, अतीत का नजरिया, विचार, पूर्वाग्रह आदि से ऊपर उठ कर आगे बढ़ाता है, जहां पूर्णता नहीं निरन्तरता, अभ्यास होता है। अब अंकतालिकाओं, धन प्राप्ति की युक्तियों, नौकरी पर आकर ठहराव है। जीवन ठहराव है ही नहीं, प्रकृति में कुछ भी ठहराव में है ही नहीं।निरन्तरता है, क्रमिकता है, लगतार गति है।


वर्तमान शिक्षक नौकर है-अंकतालिकाओं ,कागजी तथ्यों, शब्दों, वाक्यों, नौकरी, शासन प्रशासन, शिक्षा कमेटियों, जीविका आदि तक सीमित है।वास्तविक शिक्षक स्वतंत्र है।वास्तविक शिष्य स्वतंत्र है।जो भी प्राकृतिक, नैसर्गिक है, सब का सब स्वतंत्र है।परिवर्तन शील है, सहज है।दबाव में नहीं है।दवाब में तो मानव व मानव समाज है।प्रकृति में जो भी है वह यदि दबाव में है तो इसका कारण मानव व मानव समाज ही है।आत्मा, बुद्धि, ह्रदय आदि सब मानव की प्रकृति की स्थितियां है।वे नैसर्गिक हैं, सहज में रहना जानती है।समस्या स्वयं मानव व मानव समाज पैदा करता है। कृत्रिमताओं का उस पर बोझ...?! शिक्षक किसी का  नौकर नहीं है, शिक्षक किसी का हस्तक्षेप नहीं है, उसका कार्य कोई व्यवसाय नहीं है।समाज, शासन,संस्थाओं का कार्य हो सकता है-शिक्षक भौतिक समस्याओं को दूर करना। लेकिन स्वयं शिक्षक तो हवा का झोंका है, रुझान है, मन की दशा है, आस्था है जो भावी पीढ़ियों  के लिए उसका अंतर ज्ञान, रुझान, रुचि, आस्था आदिआदि को वह प्रेरणा देता है जो कि उसे उसके चेतना, समझ, जीवन जीने के स्तर आदि को आगे की निरंतरता दे।जहां पूर्वाग्रह, पूर्व के विचार, पूर्व की आस्था पर ठहराव न हो।आगे के लिए, भविष्य के लिए निरन्तरता हो।पूर्णता तो होती ही नहीं, जब जीवन में  अनन्तता के प्रभाव हों।

शिष्य ऐसे वातवरण का अंकुरण है, बीज है।पूर्वाग्रह, अतीत, भूत,पितर आदि के लिए शिष्य व गुरु, शिष्यत्व व गुरुत्व क्रांति है।क्योंकि वह आगे की ओर होती है, निरन्तर होती है, शाश्वत होती है।उसके लिए हर वक्त अवसर होते हैं।उसके लिए समझौता नहीं होता।


आज का शिष्य गुरु के सामने क्यों बैठा है?क्यों उप आसन में है?क्यों उप नयन में है?क्यों उपनिषद में है?उपआसन में है भी की नहीं, उप नयन में है भी कि नहीं?गुरु के सामने बैठा है लेकिन पहले से अपना स्वयं का नजरिया बनाये बैठा है, स्वयं की अपनी आस्था बनाये बैठा है?स्वयं के अपने विचार पहले से ही मन में भरे बैठा है? इसी तरह आज का गुरु भी, आज का शिक्षक भी, आज का अभिवावक भी...?!अरे, मेरा बेटा डॉक्टर बन जाये?फलाना ढिमका बन जाए?लेकिन बेटे में क्या पल रहा है?बेटियों में क्या पल रहा है?शिष्यों में क्या पल रहा है।मानव व मानव समाज ने अपने में ही नहीं वरन जगत, प्रकृति में उपद्रव ही उपद्रव भर दिए है, विकार ही विकार भर दिया है। पात्र में पहले से ही काफी कुछ भरा है, पात्र में छेंद भी हो सकते हैं।


वर्तमान तन्त्र में माफिया, जातिवादी, मजहब वादी, नशा व्यापारी का हॉबी होने के बीच मौन रूहानी आंदोलन ही सिर्फ सम्मानीय है।


#अशोकबिन्दु