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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

आज के भारत मेँ हजारोँ दयानन्द व विवेकानन्द पर एक मैकाले काफी ?

इस वक्त पूरे देश मेँ अंग्रेजोँ के नववर्ष पर युवाओँ मेँ 'HAPPY NEW
YEAR' का तांता लगता है.आखिर ऐसी क्या खास बात है कि इन डेढ़ हजार वर्षोँ
मेँ भारतीयता का रुप हिन्दुत्व से बदलकर विचलन का शिकार हो गया है
.वर्तमान मेँ भारतीय का मतलब INDIAN हो महानगरीय सभ्यता मेँ भारतीयता की
टांगे बिल्कुल तोड़ चुका है.घर से बाहर निकलकर जिधर से भी जिस कोण पर चल
किन्हीँ कहीँ से भी किन्हीँ सौ घरोँ के सदस्योँ का मनोवैज्ञानिक अध्ययन
करेँ सबका नजरिया व चाहतोँ का संसार भोगवाद ,भौतिकता व पश्चिम से
प्रभावित है.अध्यात्म व धर्म से नाता दूर दूर तक नजर नहीँ आता.जो है भी
वह मात्र शारीरिक रीतिरिवाज व कर्मकाण्डोँ तक.विकसित देशोँ मेँ जहाँ अब
भी क्रिकेट के लिए सारा दिन या रात गंवा कर अपनी दैनिक दिनचर्या मेँ खलल
नहीँ डालना चाहते वहीँ यहाँ कुछ दैनिक आवश्यक या अनुशासित कार्य तक
तिलांजलि देते हैँ .


पश्चिम का एक मैकाले यहाँ पर यहाँ के हजारोँ दयानन्द व विवेकानन्द के
प्रभावोँ पर हावी रहता है ?पश्चिम देश जब उठे तो विश्व व विदेश नीति के
साथ लेकिन हम इन 1500-1700 वर्षोँ मेँ उठे कब ?उठे तो किस स्तर तक ?


--
संस्थापक <
manavatahitaysevasamiti,u.p.>

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

सच!देश को कड़ुवी दवा की जरुरत .

वैश्विक आर्थिक मंदी पर चिन्ता व्यक्त करते हुए वित्तमंत्री पी चिदंबरम
कहते हैँ कि अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए कुछ कड़वी दवाएं जरुरी हैँ .बिना
त्याग,बलिदान,धैर्य व संयम के सुप्रबंधन नहीँ लाया जा सकता.जो वास्तव मेँ
अभी जनता भी नहीँ चाहती.प्रजातंत्र मेँ मैँ प्रजा को ही दोषी मानता हूँ
.प्रजातंत्र मेँ प्रजा का नजरिया व उसकी जीवनशैली ही कुप्रबंधन व
भ्रष्टाचार के लिए दोषी है.समस्याओँ की मूलजड़ोँ पर मट्ठा डालने वाला
कौटिल्य कौन बनना चाहते है?वैश्वीकरण व संबैधानिक व्यवस्था के बीच हमेँ
कूपमण्डूक व निजी नजरिया व जीवनशैली पर पुनर्विचार की आवश्यकता है .ऐसा
तो है नहीँ कि जितने नजरिया व जीवनशैली उतने राष्ट्र व राज्य खड़े तो किए
नहीँ जा सकते. जहाँ अब विश्वसरकार व दक्षेस सरकार तक की बात होने लगी है
.

ग्राहकोँ तक आते आते किसी वस्तु की कीमत या खर्चा यदि 920 रुपये
आता है तो वह व 920रुपये से कम मेँ ग्राहकोँ कोँ दी जाएं.?लगभग 40करोड़
व्यक्ति गरीब है तो इसके लिए दोषी कौन है?सरकार या ये 40करोड़ गरीब या इन
40करोड़ गरीब को जन्म देने वाले ?किसी अर्थशास्त्री ने कहा है कि गरीबी का
कारण गरीब मानसिकता है.अपने शरीर को पाल नहीँ पाते लेकिन शादी कर बैठते
हैँ,फिर बच्चे.क्या ये मानसिकता गरीबी का कारण नहीँ है?हूँ ,बच्चे भगवान
की देन हैँ.?यदि बच्चे भगवान की देन हैँ तो फिर उनके हालात भी भगवान पर
ही छोंड़ो न.सरकारोँ के सामने रोना क्योँ?दूसरी और मध्यम व उच्चवर्ग के
द्वारा देशभर मेँ औसत रुप से होली पर रंगबाजी,दीपावली पर आतिशबाजी आदि के
नाम से करोड़ोँ रुपये खर्च होजाता है.अनेक जलसोँ व उत्सवोँ मेँ देशभर
लाखोँ टन खाद्यान्न बर्बाद कर दिया जाता है.जो शादी दस हजार मेँ हो सकती
तो उसके लिए लाखोँ खर्च करना क्योँ ?ये क्या मानवता के साथ मजाक नहीँ
?क्या यही धर्म है ?यही धर्म है ?समाज के प्रति क्या कोई कर्त्तव्य
नहीँ?हमेँ यदि देश का नेतृत्व करने को दे दिया जाये तो मैँ तो वेतन
व्यवस्था ही समाप्त कर दूँ .कर्मचारियोँ के लिए सभी सुविधाएं सरकार के
द्वारा मुहैया कराऊँ,कर्मचारियोँ से सिर्फ सरकारी कार्य करवाये
जायेँ,उनके बच्चोँ के लिए सुविधाएँ ,चिकित्सा आदि की व्यवस्था सरकार की
हो,डयूटी इस डयूटी,डयूटी के वक्त कर्मचारी डयूटी ही करे .यदि उसके परिवार
का मेम्बर बीमार है या घर मेँ कोई सामान जुटाना है तो इसके लिए सरकारी
डाक्टर या अन्य कर्मचारी लगेँ.किसी की कोई व्यक्तिगत सम्पत्ति न रह पाये
,सब सम्पत्ति सरकार की हो जाए,न ही कोई वस्तु किसी व्यक्ति की,सभी
वस्तुएं सरकार की रहे .बस,व्यक्ति उनका इस्तेमाल करे.हमने सुना है चीन
मेँ एकल व परिवार नियोजन युक्त परिवार को सरकारी सुविधाएं देने मेँ
वरीयता दी जाती है ?इण्डिया की सरकार उनके लिए क्या विशेष आरक्षण मुहैया
क्योँ नहीँ कराती जो एकल,द्वि या त्रि सदस्यीय परिवार हैँ या जो
सेक्यूलरवादी हैँ और अन्तर्जातीय शादी को बढ़ावा देते हैँ या संवैधानिक
मर्यादाओँ व योजनाओँ को लेकर चल रहे हैँ ?

किसी का सर्वे कहता है कि नब्बे प्रतिशत भारतीयोँ के दिमाग मेँ
कूड़ाकरकट भरा है तो क्या ये गलत है?एक नागरिक को कैसा होना चाहिए ?आदर्श
नागरिक की परिभाषा क्या है?अपनी बन पड़ती है तो कानून का रास्ता दिखता
है,वैसे रोजमर्रे की जिन्दगी मेँ कानून,मर्यादा,सत आदि की बात करने वाला
सनकी माना जाता है . ऐसा है यहाँ की जनता का बौद्धिक व मानसिक स्तर.


--
संस्थापक <
manavatahitaysevasamiti,u.p.>

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

11दिसम्बर ओशो जन्मदिन : जीवन व मनुष्यता के श्रेष्ठ व्याख्याकार !

आंखेँ न जाने क्या क्या देखती हैँ?मन न जाने क्या क्या महसूस करता
है?शरीर को न जाने क्या क्या करना पड़ जाता है ?लेकिन कब तक ? व क्योँ ?
अज्ञानता व कूपमण्डूकता बस या फिर सर्वोच्च ज्ञान व सार्वभौमिक सत्य
बस?मनुष्य जाति क्या सत्य व स्वस्थ नजरिये की ओर है ?मनुष्य अभी क्या
मनुष्य के पद पर भी क्या पहुंच पाया है?महानता व सार्वभौमिक सत्य की ओर
अग्रसर होना तो काफी दूर की बात.मनुष्य प्रतिदिन जिन शब्दोँ का इस्तेमाल
करता है,उनके अर्थ,परिभाषा व दर्शन से भी क्या परिचित रह गया है?मनुष्योँ
के कुछ ऐसे मनुष्य आते रहे हैँ जो भीड़ व भीड़ को नेतृत्व करने वालोँ से
हट कर अपना व्यक्तित्व रखते हैँ.एक गांव के करीब एक रेलवेस्टेशन पर से
गुजरने वाली एक ट्रेन से एक दिन महात्मा गांधी को निकलना था.गांव के
काफी लोग महात्मा गांधी के स्वागत के लिए इकट्ठे हो गये थे लेकिन महात्मा
गांधी नहीँ आये.ग्रामीण इन्तजार कर कर वापस चले गये.दिन गुजरा रात होने
को आयी.बस,एक किशोर अब भी खड़ा था.सूनसान स्टेशन पर वह अकेला खड़ा था.कुछ
रेलवे कर्मियोँ ने उसे वापस जाने को कहा.सबको नहीँ लग रहा था कि महात्मा
गांधी अब आयेंगे भी लेकिन उस किशोर को विश्वास था कि महात्मा गांधी अवश्य
आयेंगे. आखिर आये,कस्तूरबा के साथ वे ट्रेन से उतरे.उस किशोर से उनकी
बात हुई.महात्मा गांधी बोले कि बा,अब मुझे कोई अपने टक्कर का मिला है.

समय गुजरा,अनेक वर्ष बीत गये.अधेड़ावस्था मेँ एक सन्यासी भाँति वस्त्र
पहने ट्रेन यात्रा पर थे.

एक दम्पत्ति ने अपने बच्चे से कहा पैर छुओ,बाबा जी हैँ.साधुओँ का सम्मान
करना चाहिए.


''मैँ कोई सन्यासी या साधू नहीँ हूँ .''


'' हिन्दू तो हो?"


"हिन्दू भी नहीँ हूँ ."


"तो कौन हो ? "

"इन्सान हूँ ."


दम्पत्ति खामोश हो गये?वे आपस मेँ बात कर रहे थे.


"ऐसे सन्यासी खतरनाक होते हैँ."


वह किशोर ही अब ये अधेड़ सन्यासी था.ऐसे सन्यासी खतरनाक क्योँ होते
हैँ?इसलिए क्योँकि ये तुम्हारे नजरिया,मर्यादा,रीतिरिवाज,कूपमण्डूकता आदि
पर सवाल करने वाले होते हैँ.जब ऐसे लोग धरती पर होते हैँ तो इनके धरती पर
होते इन्हेँ कुछ लोग ही समझ पाते हैँ. पढ़े लिखे तक इन्हेँ नहीँ समझ
पाते.इन ओशो के प्रति पढ़े लिखोँ की क्या सोँच थी?व्यक्त करता हूँ.मैने
ओशो की पुस्तकोँ लेकर कुछ प्रयोग किये हैँ.जो ओशो की पुस्तकेँ पढ़ना तो
दूर देखना तक पसंद नहीँ करते थे.ओशो को अफवाहोँ के आधार बुरा कहते रहते
थे.उनके साथ मैने एक प्रयोग किया.डबल प्रतियोँ मेँ मैँ ओशो की कुछ
पुस्तकेँ रखता था.एक एक प्रति का मुख्य कवर व अन्दर के कुछ पृष्ठ इस तरह
फाड़ कर अलग कर देता था कि कोई पहचान न पाये कि ये ओशो की हैँ.जिन्हेँ
मैँ पुस्तक प्रेमियोँ को पढ़ने के लिए देता .वे रुचि से पढ़ते.जब वे कुछ
दिनोँ मेँ पुस्तक पढ़ लेते तो मैँ उनसे कहता ये उन्हीँ ओशो की पुस्तक
है,जिनसे तुम घृणा करते हो.विश्वास न हो तो ये पुस्तक देखो .मैँ दूसरी
प्रति देते हुए कहता.ऐसा है तुम्हारा समाज व तुम्हारे समाज के शिक्षित.

बच्चोँ! मैँ आप से कहना चाहूँगा कि आपसब सुनो सब की लेकिन करो अपने
विवेक की.मेडिटेशन व स्वाध्याय से अपने को सदा जोड़े रखो.समाज के आधार पर
नहीँ ,समाज के ही महापुरुषोँ व ग्रंथोँ की सुन समाज को जबाब देना
सीखो.ओशो जीवन से जुड़े तथ्योँ व नई मनुष्यता के एक श्रेष्ठ व्याख्याकार
थे.लेकिन उन्होने स्वयं कहा था न हमेँ याद करो न ही हमेँ
भूलो.बच्चोँ!अपना विकास चाहते हो तो अपने को पहचानो.हमारी कोई जाति नहीँ
न कोई मजहब.हम सब सजीव पचास प्रतिशत ब्रह्मांश व पचास प्रतिशत प्रकृतिअंश
हैँ .निर्जीव व क्रत्रिम वस्तुओँ व व्यवस्थाओँ का उसी हद तक पीछा करो जब
तक ब्रह्मांश व प्रकृतिअंश अधिकारोँ का हनन न हो.ब्रह्मांश व प्रकृतिअंश
का समअस्तित्व व समसम्मान ही हिन्दू पौराणिक परिकल्पना
श्रीअर्द्धनारीश्वरशक्ति का हेतु है .

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

10दिसम्बर:मानवाधिकार दिवस और नई मनुष्यता के पग .

बच्चोँ को पहले पढ़ाया जाता था कि पर्व दो तरह के होते हैँ-राष्ट्रीय
पर्व व धार्मिक पर्व लेकिन अब ऐसा नहीँ है.प्रत्येक शहर व कस्बोँ मेँ
यहाँ तक कुछ गाँव मेँ भी अब अन्तर्राष्ट्रीय पर्व व प्रशासन से प्रेरित
होकर अन्य जागरुकता अभियान आयोजित किए जाने लगे हैँ.मेरा मानना है कि
आधुनिक तकनीकी व जीवन शैली के बीच अन्तराष्ट्रीय पर्व व विभिन्न
जागरुकता अभियान प्रकृति व मनुष्य को बचाने के लिए अतिआवश्यक हो गये हैँ
जो नई मनुष्यता के पग हैँ.जातीय,मजहबी ,क्षेत्रीय,भाषायी,व्यक्तिगत
कूपमण्डूक सोँच से निकल सार्वभौमिक सत्य व सर्वोच्च ज्ञान से जुड़ने के
लिए ये अन्तर्राष्ट्रीयपर्व विशेष रुप से मानवाधिकार दिवस व विश्व
पर्यावरणदिवस नई मनुष्यता के पग को मजबूत करने मेँ सहायक हो सकते हैँ.


प्रत्येक वर्ष के दस दिसम्बर को मानवाधिकार दिवस मनाया जाता
है.अच्छा है,अन्य पर्वोँ के अलावा इसे भी प्रतिवर्ष मनाये जाने के लिए
प्रत्येक संस्था,विद्यालय,विभाग आदि को प्रेरित किया जाना चाहिए लेकिन ये
पर्व मनाये जाने से ही सिर्फ काम नहीँ चलने वाला.पहले से ही सदियोँ से
मनाते चले आ रहे पर्वोँ से व्यक्ति क्या प्रेरणा ले रहा है?प्रेरणा लेना
तो दूर पर्व मनाने का मूल हेतु का विचार व भाव दर्शन भुलाया जा चुका है.
प्रत्येक पर्व भौतिकता के रंग मेँ रंग ढोँग,दिखावा,मनोरंजन,मूड परिवर्तन
का साधन,परम्परा आदि मात्र रह गया है.जिस के कारण ऋणात्मक सीख लेकर
व्यक्ति भड़क या उन्माद मेँ आ द्वेष,मनमानी,पक्षपात आदि को तो जन्म दे
सकता है लेकिन उदारता,धैर्य,सेवा,सत्य आदि के लिए प्रेरणा नहीँ ले
सकता.अब मानवाधिकार दिवस को ही लेँ,कोई भी देश हो या कोई मजहब या कोई
जाति,कहीँ भी व्यक्ति मानवाधिकारोँ के प्रति ईमानदारी से कितना सजग है
?जब अपने स्वार्थ व अपने नजरिये पर जब चोट पहुँचती है तभी व्यक्ति
मानवाधिकारोँ के प्रति सजग होता है और वह भी अपने पक्ष मेँ या अपने
परिवार या अपने जाति या मजहब या अपने देश के पक्ष मेँ लेकिन सारी
मनुष्यता को ध्यान मेँ रखकर नहीँ.जिन देशोँ ने मानवाधिकारोँ के प्रति
विश्व पटल पर अलख जगाने की कोशिस की है,उन देशोँ के अन्दर मानवाधिकारोँ
के हनन के केस कम नहीँ हैँ.यहाँ तक कि देश,जाति,मजहब आदि के नाम से
भेदभाव के आधार पर मानवाधिकारोँ के वास्ते दूसरे देश,जाति,मजहब आदि के
व्यक्तियोँ को निर्दोष अत्याचार व शोषण का शिकार बनाया जाता है .क्या इस
बात मेँ सच्चाई नहीँ है?


मानवाधिकारोँ का हनन अनेक स्तर से हो रहा है;परिवार व
अन्तर्परिवार,जाति व अन्तर्जातीय,राज्य व अन्तर्राज्यीय,राष्ट्र व
अन्तर्राष्ट्रीय,आदि स्तरोँ पर .इन सब स्तरोँ पर सत्तावाद ,पूँजीवाद व
सम्प्रदायवाद,प्रजातान्त्रिक व
संवैधानिक मूल्योँ आदि का गला घोट कर मानवाधिकारोँ का हनन कर रहा
है.आधुनिक तकनीकी व ज्ञान के वातावरण मेँ भी अपने दिमाग व ह्रदय का ताला
नहीँ खोला है.सभी शारीरिक व ऐन्द्रिक आवश्यकताओँ और कूपमण्डूकता की
दीवारोँ मेँ कैद हो सागर को नापने की संभावनाएं तलाश रहे हैँ.कोई
हिन्दुत्व के नाम से तो कोई इस्लाम के नाम से तो कोई सेक्यूलरवाद के नाम
से तो कोई समाजवाद के नाम से मनुष्यता व पर्यावरण के विकास के सागर को
नापना तो चाह रहा है लेकिन मानवाधिकारोँ का कहीँ न कहीँ पर प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष हनन जारी है. ये भुला दिया जाता है कि मानव की प्रकृति व
चेतना शक्ति के द्वारा कोई भी जाति,मजहब,वाद आदि निर्धारित नहीँ है.
विकास के नाम पर मनुष्यता को नये आयाम देने का प्रयास तो किया जा रहा है
लेकिन किस तरह का विकास ? जब कायदे कानूनोँ व नीतियोँ के अनेक विकल्प
मनमानी ढंग से निर्धारित कर लिए जाते हैँ तो किसी न किसी के मानवाधिकारोँ
का हनन होना स्वाभाविक है. मानवसेवा,नैतिकता ,ईमानदारी,व अध्यात्मिकता के
बिना किसी न किसी का विकास तो किया जा सकता है लेकिन सारी
मनुष्यता,प्रकृति व मानवाधिकारोँ का सम्मान तब भी हो,विश्वास नहीँ किया
जा सकता .


मनुष्य आँखेँ खोलता है तो उसके सामने होता है-संसार .हालांकि उसके
साथ संसार तब भी होता है ,जब उसकी आँखेँ बंद होती हैँ.संसार मेँ होती हैं
सजीव,निर्जीव व मानव या जंतुओँ द्वारा निर्मित वस्तुएं .सत्रहवीं शताब्दी
से विश्व को उपलब्ध हुए विकास व सभ्यता ने व्यक्ति का नजरिया व जीवनशैली
बदली है. सत्रहवीँ शताब्दी पूर्व नजरिया था कि प्रकृति से छेड़ छाड़ ठीक
नहीँ लेकिन अब आधुनिक विकास व सभ्यता ने निरा भौतिक भोगवाद की उत्पत्ति
की है और प्रकृति विदोहन काफी तीव्र गति से हुआ ही, मानव मानव के बीच
सम्बंध समीकरण बदले हैँ.इन नये मानवीय समीकरणोँ ने ऋणात्मक व धनात्मक
दोनोँ तरह की स्थितियां प्रकट की हैँ.सब कुछ बदल रहा है लेकिन प्रकृति व
मानव की सहजता मिट रही है.भौतिक विकास की अन्धदौड़ ने विभिन्न स्तर पर
विभिन्न विक्रतियां उत्पन्न की है. विकास व सभ्यता के नाम पर मानव व
प्रकृति ने काफी कुछ खोया है. शारीरिक व मानसिक दोनोँ रुप से मानव असहज
हुआ ही है,प्रकृति भी प्रदूषित हुई है.वैश्वीकरण व समीपता बढ़ाने के
बावजूद अविश्वास,धोखा,बेईमानी,असत्य,हिँसा,भय आदि मेँ वृद्धि हुई
है.नैतिकता व चरित्रता कम हुई हैँ.प्रेम के प्रति नजरिया बदल कर काम(sex)
हो गया है.ऐसे मेँ अपराधी मन विकसित हुए है . धन व भौतिक लालसा मेँ
वृद्धि लेकिन ईमानदारी से परिश्रम व कर्मठता का महत्व कम हुआ है.अपने निज
स्वार्थोँ के लिए मानवाधिकारोँ का हनन स्वाभाविक है.


24 अक्टूबर 1945 को स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ के छह अंगोँ मेँ से
एक आर्थिक एवं सामाजिक परिषद ने मानवाधिकार के प्रति सम्मान को महत्व
देते हुए 10दिसम्बर1948 मेँ मानवाधिकार की घोषणा की थी. इसका एक मात्र
उद्देश्य है कि जाति,भाषा या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो .न ही निजी
स्वार्थोँ के आधार पर मानवाधिकारोँ का हनन हो.भारत मेँ अक्टूबर 1993मेँ
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया.उप्र मेँ 04अप्रैल 1996 मेँ
मानवाधिकारआयोग का गठन किया गया.

<अशोक कुमार वर्मा 'बिन्दु'>