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मंगलवार, 31 मार्च 2020

कोरो-ना संक्रमण ने हमारी धारणाओं को और मजबूत किया है आपकी धारणाओं को झकझोर??!!

हमारे अंदर कुछ है।
जो इस शरीर को छोड़ देता है तो ये शरीर लाश हो जाता है।
उससे जुड़ना है तो इसके लाश होने से पूर्व इसको लाश होने का अभ्यास तेज हो जाना चाहिए।
बुद्ध क्या कहते हैं?
मृत्यु व वैराग्य/मोक्ष दोनों में मृत्यु होती है।
लालसाएं जिंदा रहे और शरीर मर जाए तो मृत्यु, यदि मृत्यु से पूर्व लालसाएं खत्म हो जाएं तो मोक्ष/वैराग्य।
इसलिए कोई कहता है-आचार्य है मृत्यु अर्थात आचरण से शिक्षा देना है मृत्यु।
कोई कहता है-योग का एक पहला अंग यम है-मृत्यु।
ये इतना आसान नहीं है।
ये स्तर दर स्तर कोशिस से आता है।
इसके लिए हमें किसी की शरण जाना होता है।उसके वाणी/सन्देश को फॉलो करना होता है, हर हाल में । हर हाल में?बस, यही से शरुआत........प्राण जाएं  पर वचन न जाए।
स्वीकार्य! किसका स्वीकार्य???इसमें लीप पोती नहीं!!लेकिन, परन्तु नहीं!!!बस, हो गयी शुरुआत.....
समर्पण!यदि अमुख ठीक है तो ठीक है।माता पिता क्या कहते है?समाज क्या कहता है?इससे हम पर कोई फर्क नहीं पड़ता।झेलना.... बस, हो गयी शुरुआत.....
आदि आदि!!
ये मृत्यु से कम नहीं!!महान क्षत्रियत्व!!!पहला पन्थ-जैन!!जिन...!!!
सिक्ख! सिक्ख होना भी साहस का काम है।अभ्यासी होना साहस का काम है।

कमलेश डी पटेल 'दाजी' कहते है हार्टफुलनेस शिक्षा कमजोर दिल वालों के लिए नहीं है। समाज व संस्थाओं के वरिष्ठ भी कहते हैं बुद्धि की बात करो, दिमाग की बात करो।बुद्धि व दिमाग ने आधुनिक विकास के नाम स्व क्या दिया? वास्तव मे कोई महान दिल से होता है दिमाग से नहीं।इस बच्चा पढ़ता रहता है।उसे खेलने की फुर्सत नहीं।एक को पढ़ने की फुर्सत नहीं ।खेलता रहता है।  कक्षा आठ तक 8 विषय बनते है ।आधा आधा घण्टा पढ़ें, और होमवर्क..... तो खेलने की भी फुर्सत नहीं।कम्पटीशन के लिए भी लगभग 08 विषय बनते है। अपने को हम किस ओर होने को अग्रसर कर रहे हैं ?ये हमारे दिल पर निर्भर करता है।दिमाग तो उधेड़ बुन में रहता है। हम अधिकतर अपना वक्त जिसमें लगते हैं, वह हमारी असलियत है।

अनेक असफल व्यक्तियों ने लोगों को सफल बनाया है।असफलता में भी सफलता छिपी होती है।आगे बढ़ने की प्रेरणा छिपी होती है।ईसा मसीह अपने जिंदा रहते सफल थे कि असफल?सुकरात अपने समय में असफल थे कि सफल?गुरु गोविंद, भगत सिंह आदि असफल थे कि सफल? योगी समीरा सफल थे कि असफल?अनेक ऐसे अध्यापक, बिल्डर, बैज्ञानिक, लेखक,विचारक, उद्योगपति आदि अपने जिंदा रहते आपके जमाने की नजर में असफल थे लेकिन....??!!उन से भी अनेक ने प्रेरणा पायी।


आज मानव समाज  कोरो-ना  संक्रमण से ग्रस्त है।
इस संक्रमण ने हमसब को अपनी धारणाओं पर पुनर्विचार को विवश कर दिया है।जो पुनर्विचार को तैयार नहीं हैं और अपने जाति, मजहब, देश आदि के नाम पर अपना उल्लू सीधा करना चाह रहे हैं वे मानवता के लिए खरनाक हैं। आज हमें बदलने की जरूरत है।सिर्फ आवश्यकताओं,अनुशासन, मानवता,आध्यत्म, चिकित्सा, प्रकृति संरक्षण आदि में जीने की जरूरत है।



हम पहले से ही कहते रहे हैं।
क्या कहते रहे हैं? धर्मस्थलों,जातियों, मजहबों, बडे बडे तोंद वालों को दाबतों,वर्तमान सामाजिकता आदि का मानवता में क्या योगदान है? हम कहते रहे है कि आपने लाखों रुपए त्यौहार,जन्म,मृत्यु,शादी आदि के नाम से खर्च कर दिए इससे क्या लाभ?आप ने इसे कार्यक्रम में हमारी दावत कर दी, इससे हमें क्या लाभ, इससे हमारी व समाज की कौन सी समस्या हल हो रही है?भूखे को रोटी दो, मरीज को औषधि दो, वस्त्रहीन को वस्त्र दो, बेरोजगार को रोजगार दो.... बगैर बगैरा चलता है।मानवता इससे विकसित होती है। शिक्षा दान दो... अब तो देह दान, अंग दान ,रक्त दान का भी सिलसिला चल गया है, अच्छा है। हम जो भी कमा रहे हैं, चाहें ज्ञान हो या धन.... यों ही सबको नहीं बांटना चाहिए।यों ही ऐसे खर्च नहीं करना चाहिए। कमलेश डी पटेल दाजी तो कहते है -  खूब धन कमाओ लेकिन यात्रा के लिए ,क्या आप समझेंगे?!!

हमने एक वर्ष से  धर्म स्थलों, पूजा पाठ, जागरण आदि में दान करना छोड़ दिया है।सिर्फ गुरुद्वार, आश्रम, गरीब बच्चों की फीस, भूखे को भोजन.... बगैरा बगैरा सिवा।लेकिन इसका प्रदर्शन क्यों?हमने देखा है-एक अस्पताल में कुछ लोग  मरीज़ों को फल बांटने।एक मरीज को एक केला दिया जाता है और उसको पकड़ चार लोग फ़ोटो खिंचवाते है।दान दे दे फ़ोटो खिंचवाना दान नहीं है। दान दिल से दिया जाता है हाथ से नहीं।

आज कल कहीं कहीं शादियां हो रहीं है। 10 /20 लोगों के बीच अंदर ही अंदर घर में।अच्छा है। भीड़ व भीड़ तन्त्र के स्थान पर अब मानवता, आध्यत्म, सेवा ,शिक्षा,हेल्थ क्लब, आक्सीजन बार, जिम, अस्पताल, हर वार्ड/गांव में हर विभाग के प्रतिनिधि,पुस्तकालय, पार्क ,सार्वजिनक रसोई, सराय आदि की जरूरत है।







सोमवार, 30 मार्च 2020

न काहू से दोस्ती न काहू से वैर!!!

   तीन माह से दुनिया ने पुराना जो त्याग नया स्वीकार किया है,उस के प्रति इंसान को सजग होने की जरूरत है।उसे रोज मर्रे की जिंदगी में आत्म सात करने को जरूरत है। कहावत है आदतें ऐसे नहीं जाती, लॉक डाउन से कितने लोग जागने को तैयार है?वही पुराना की ही आदत है।वे आदतें यो नहीं सुधरने वाली। समाज में कहावत है- कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नहीं होती, हां उसे काटा जरूर जा सकता है।
         
कहा गया है एक सम्बन्ध ही धर्म है एक सम्बन्ध ही अधर्म है।
इंसानों, प्राणियीं,संसार के वस्तुओं से सम्बन्ध ही धर्म व अधर्म है। जो लोग कुछ को राक्षस व असुर मान कर विरोध, मतभेद या हिंसा का समर्थन करते हैं, वे नहीं देखते कि हमारे आचरण, विचार स्वयं सुर हैं क्या?क्या हम अहंकार में नहीं?क्या हम मांस मदिरा में नहीं? क्या हम आध्यत्मिक ज्ञान में जीते हैं?आत्मा व आत्मा के गुणों ले अहसास, नजरिया ,मन मे न रहने वाला सनातनी कैसे?जगत में सर्फ आत्मा ही सनातनी है। एक तरफ से100 घरों का अध्ययन कर लो,कौन है-देवत्व में,सुरत्व में?सुर/श्वास के अहसास में?प्राण/आत्मा के अहसास में? हमारे आस पड़ोस में व जहां भी भीड़ नजर आती है, वह क्या धर्म में है?सुर में है?आध्यत्म में है?


आस पड़ोस ,समाज में हम देखते हैं लोग अब भी अहंकार, जाति बल, धन बल, तनबल, तन्त्र बल आदि के बलबूते अपनी, अन्य प्राणियों, प्रकृति, हादसों आदि की असलियत से अनजान हैं।
वे जिस पर फूलते हैं,उन्हें नहीं पता कुदरत उनका भी हिसाब किताब करना जानती है।वे नगर व गांव के कुछ लोगों की नजरअंदाज किए बैठे हैं।लेकिन जरूरी नही कि वे कुदरत की नजर में नायक नहीं।


 किसी ने कहा है-धर्म में भी अपना कोई नहीं होता, अधर्म में भी कोई अपना नहीं होता।चरित्र भी क्या होता है?चरित्र होता है-स्थूल नजर में, सूक्ष्म नजर में व कारण नजर में।अट्ठानवे प्रतिशत से भी ज्यादा लोग व्यक्ति के स्थूल आचरण के आधार पर दूसरे का चरित्र गढ़ते हैं।वरन सूक्ष्म व कारण नजर से नहीं। आज हम जिस परिबार में रह रहे हैं, जिनलोगों के साथ है, जिस संस्था में कार्य कर रहे है,कोई हमारे अनुकूल है आदि आदि ,ये इत्तफाक  हो सकता है सिर्फ। सूक्ष्म नजर में हमारा संसार इन सब से हट कर हो सकता है। कारण नजर में हमारा संसार अन्य कहीं हो सकता। स्थूल, सूक्ष्म व कारण तीनों के मेल में हमारा न जीना ही हमारी असन्तुष्टि, अशांति,पुनर्जन्म आदि का कारण है।


 सन्त इस भाव से जीते हैं कि न काहू से दोस्ती न काहू से बैर!!
उनकी कुटिया में सभी को सम्मान होता है।वह अंगुलिमानों की गलियों से परहेज नहीं करते। पौराणिक कथाओं में भी मिलता है  कि ऋषियों का किसी से विरोध नहीं था।विरोध एक विचारधारा को मानने वालों से था।उस वक्त कुल व्यवस्था तो थी लेकिन जाति व्यवस्था नहीं।कुछ अपवादों को छोड़ कर।संघर्ष तब चालू हुए जब जंगलों ,जमीनों की बाड़ाबंदी चालू हुई। धरती के सभी संसाधनों पर राक्षसों, असुरों, यक्षों, गन्द्धर्भों आदि का ही रख रखाव था। जब ऋषियों की संतानों/ब्राह्मणों के द्वारा जंगलों की बाड़ाबंदी का विस्तार होना शुरू हो गया तो युद्ध प्रारम्भ हो गए। यक्ष/यक्षणी का पुरोहित कार्य छीनने लगा। प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने वाले राक्षसों के कार्य मे हस्तक्षेप होने लगा। राजनीति सत्तावाद,आवश्यकताओं की पूर्ति पूंजीवाद, निजी धार्मिक कर।कांड पुरोहितबाद ,कर्मविभाजन/वर्णव्यवस्था जाति वाद में बदलने लगा। लेकिन वेद का उद्देश्य सनातन था,वह पुस्तक नहीं स्थिति था, ज्ञान था।आत्मा, परम आत्मा, जगत, ब्रह्मांड आदि का अंतर अहसास। वहां  पर था-सागर में कुम्भ  कुम्भ में सागर।सभी में परम् आत्मा की संभावना की तलाश व अबसर ।यही सनातन धर्म था।सभी मे परम् आत्मा को अबसर। ऐसे में किससे दोस्ती किससे दुश्मनी?

हम अपने अंदर कैसे जाएं?और क्यों जाएं?

हम से लोग पूंछ रहे है हम अपने अंदर कैसे जाएं?
इस सवाल का जवाब देने से पूर्व हम बताना चाहते हैं कि आखिर हम अपने अंदर क्यों जाएं?

हम जिंदगी भर बाहर  भागते रहते हैं- कस्तूरी मृग की भांति।
हम अपने लिए सब कुछ कर लेना चाहते हैं।
लेकिन चाहने कुछ नहीं होता।अनेक महापुरुषों ने कहा कि अपनी इच्छाएं जीवन पर व अपने पर विकारों का पर्दा डाल देती है ।

वास्तव में हम अपने से ही दूर होते हैं।शादी, परिवार, समाज, राजनीति,जाति, मजहब आदि के माध्यम से हम अपनी लालसाओं में ही मंडराते रहते हैं। लेकिन हम उम्र भर जीवन व अपने को नहीं जान पाते। हमारे व जगत के अंदर जो स्वतः होता है,, हम उसको न जान कर पूर्वाग्रहों, बनाबटों,जटिलताओं, छापों आदि में ही फंसे रहते हैं। कोई भी व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं से शांति को प्राप्त नहीं हुआ है।अपनेपन को नहीं जिया है।

आज का सनातनी भी  सनातन से दूर है।शिक्षा की शुरुआत अपने परिचय के साथ होनी चाहिए कि हम अपने तीन स्तर स्तर रखते हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।इन तीनों की आवश्यकताओं व प्रबन्धन से ही हम अपने निजत्व का स्तर उच्च कर पाते हैं। हम जब अपने अंदर के स्वत: व अनन्त प्रवृतियों से जुड़ जाते हैं तो जगत की स्वत: व अनन्त प्रवृतियों की ओर का स्वयं महसूस करने लगते हैं।यहां पर समाज की नास्तिकता या आस्तिकता से कोई मतलब नहीं है। इसके बाद हम विभिन्न समस्याओं ,उतार चढ़ाव के बाबजूद जीवन जीते चले जाते है।तब हमारे जीवन व आम आदमी के जीवन जीने में फर्क हो जाता है जो सबको नहीं दिखाई देता। हमारे अंदर वह है जो परमात्मा में है। परम् +आत्मा =परमात्मा, तो फिर भटकने की क्या जरूरत? किसी ने ठीक ही कहा है खुद से खुदा की ओर!!सम्पूर्णता की ओर.... सागर में कुंभ कुम्भ में सागर की ओर....और तब न काहू से दोस्ती न काहू से बैर....
तब घटित होता है-विद्या ददाति विनयम।ऐसे में प्रतिकूलताएँ, शारीरिक विकार आदि प्रति विचलित नहीं होते, वरन अपने स्तर पर निदान में जीते में जीते चले जाते हैं। अंतर प्रकाश/अंतर ज्ञान के बिना हम अधूरे रहें।हमारे व्रत, संकल्प, उप आसन आदि इसी  अधूरे पन को भरता है।हमारे अंदर के स्वत: से जोड़ता है।जो हर प्राणी में होता है।जब हम उसमें होते जाते है तो जगत के स्वत: से भी जुड़ते जाते है ।फिर हम अपने साथ चमत्कार देखते हैं लेकिन उसे सिर्फ हम ही जानते हैं।महसूस करते हैं।

हम अपने अंदर कैसे जाएं? जो बिल्कुल नादान है।आंख बंद कर नहीं बैठ पाते।उनसे हम कहते हैं-जब तक आंख बंद कर बैठ सको तो बैठो।बस करना ये है कि आंख बंद कर अपने शरीर के किसी अंग पर अपना ध्यान ले जाना है, जिस अंग पर स्वत:ध्यान चला जाए। इसका अभ्यास प्रतिदिन करे।फिर धीरे धीरे अपना ध्यान हृदय पर लाएं और विचार करें कि दिव्य प्रकाश हमारे हृदय में मौजूद है।



इसके बाद....


हम अपने वैश्विक मार्गदर्शक श्री कमलेश डी पटेल 'दाजी' द्वारा मास्टर क्लास प्रस्तुत करते हैं!


नमस्कार,
 मास्टरक्लास के तीसरे सत्र में आज शाम 4:55 बजे हमसे जुड़ें।

कुछ अनोखा अनुभव करने के लिए अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को आमंत्रित करें।

घर पर रहें और दाजी के साथ ध्यान करना सीखें

तीसरा दिन - https://www.facebook.com/hindiheartfulness/posts/147840116792460

यदि आपने मास्टरक्लास के हमारे पिछले दो सत्रों को नही देखा है, तो कृपया नीचे दिए गए लिंक, इन सत्रों को देखें

Day 1 - https://www.facebook.com/hindiheartfulness/videos/531147907812962/?flite=scwspnss&extid=h9vuHOJjrjzsgiFn

Day 2 -https://www.facebook.com/hindiheartfulness/videos/147239089943100/?flite=scwspnss&extid=MWwpITmhgmiv4L70







सोमवार, 9 मार्च 2020

सन्त परम्परा में ही धर्म, अध्यात्म व जीवन...

असुर अर्थात एक असुर सुर से नीचे दूसरा असुर सुर से ऊपर...




हम अपने पास पड़ोस, समाज में जो कर्म कांड, रीति रिवाज देखते हैं उनमें हम अब धर्म व अध्यात्म नहीं देखते।

उसके त्यौहारों  में सादगी, सात्विकता नजर नहीं आती। हमारे पूर्वजों का हेतु अब खोता नजर आ रहा है।

होली के नाम पर हुड़दंग,कमर के झटके, सीने की उछालें...टीवी होली के नाम पर क्या परोस रहे हैं?
गरिष्ठ भोजन....
 पूंजीपतियों की बल्ले बल्ले....
भौतिकता को ही बढ़ावा.....

मन व आचरण की शुद्धता पर बल नहीं...

मानवता को मुस्कान नहीं....
गरीब आदमी पर  त्यौहारों के नाम पर भी बल....

पूंजीवाद, पुरोहितबाद .....
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हमें आप लोगों का धर्म समझ में नहीं आता?
कर्मकांड समझ नहीं पाते हम....
हमें जीवन में अनेक तथ्य निरर्थक नजर आते हैं!!

असुर हम किसे कहें?
निशाचर हम किसे कहते हैं?
रात्रिचर हम  किसे कहते है?
आज कल के असुर, निशाचर, रात्रिचर किसे कह सकते हैं???
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#अशोकबिन्दु

बुधवार, 4 मार्च 2020

अकेला खड़ा इंसान पर भीड़ तन्त्र समझौता पर अड़ा है....

दिल्ली के हादसे की जिम्मेदारी कौन ले?
वे आतंकवादियों से भी बड़े हो गए हैं,
वे आतंकवादी हादसे की जिम्मेदारी तो ले लेते हैं?
अंदर का आतंक  बड़ा खामोश है,
 आतंक हो तो परिभाषित, हम ये कहते रहे हैं।
जाति-पन्थ के नाम पर षड्यंत्र कम नहीं हैं पुराने,
हमारी जाति के हिंसक हमें प्यारे को लगते रहे हैं?
हमने देखा है अपराधियों को बचाने-
उनकी जाति के लोगों को थाना में खड़े,
एक अकेला दलित जब उठा-
तो भीड़ की भीड़ थाना में उससे समझौता पर अड़े हैं,
हम तो इस पर अड़े हैं-
आतंक हो परिभाषित,हम ये कहते रहे हैं।
दीनदयाल का वो अकेला इंसान,
लोहिया का वो भीड़ में खड़ा वो अकेला इंसान,
वह कब दलित होने से ऊपर उठा है?
इसलिए हम अल्पसंख्यक की परिभाषा के पुनर्विचार पर अड़ा है,
हिंदुओं के गांव मे न देखा कोई मुसलमान,
मुसलमानों के गांव में न देखा कोई हिन्दू,
तब भी उन गांव में वो तन्हा कौन मरा है?
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मानते हैं उनमें हजार गलतियां हैं,
गलतियां हम सब में भी कम नहीं हैं,
हम तो गुरु नानक के शिष्य अब भी हैं,
दूसरा जो था उनका खास वह आज कहाँ है?
कहते है उनका एक सिख हिन्दू दूसरा मुसलमान है।
जानते हैं विदेशी मेहमान भी रहे है हमारे,
मगर जो व्यापारी बन यहां ठहर गए,
एक जाति के दूसरी जाति पर के जो जहर-
वे उनके अमृत हो गए हैं,
वे दलित उनकी क्यों ढाल हो गए हैं?
मानते हैं गौरी के पुरखों में हजार गलतियां होंगी,
लेकिन तुम्हारे बहिष्कार यवनों के लिए हथियार हो गए हैं।
ये जंग आज भर की नहीं है,
कौन थे यवन आज वे क्या हो गए हैं?
गर वसुधैब कुटुंबकम की भांति था हमारा मकसद,
वह पश्चिम के पुराणों का शैतान कौन है?
चतुरसेन वयम रक्षाम: में क्या कह गए-
अवेस्ता में वो शैतान कौन है?
तुम कहते थे जिसे असुर,
वे भी  त्रिदेव की उपासना करते देखे गए है,
तो फिर ये धर्म आज क्या हो गया है?
कर्मकांड कब धर्म हो गए हैं?
मानते हैं उनमें हजार गलतियां हैं;
मगर हम कब जाति पन्थ से परे हो गए हैं?





मंगलवार, 3 मार्च 2020

जहां हम सब परस्पर सम रहें ,वही हमारा सम+आज,=समाज

हमारा समाज वह है जहां हम सम रहें।
हमें खुशी होती है कि कुछ लोग अब होली दिवाली आदि पर्व को  अब वर्तमान समाज व सामजिकता के बीच न मना कर  सैनिकों  के बीच, आश्रम में मनाते हैं या कहीं अन्यत्र तीर्थ आदि पर।ऐसा करने वालों की संख्या अवश्य कम है लेकिन ये अन्ध विश्वासों, कु प्रथाओं आदि को तोड़ने की परंपरा में सराहनीय कदम है।
हम देख रहे हैं समाज को सनातन धर्म से कोई मतलब नहीं है।
समाज व सामजिकता तो चेतना व समझ के अन्य अग्रिम बिंदुओं को न पकड़ कर विकास शीलता का परिचय न देकर भौतिक ता के अग्रिम बिंदुओं को ही स्वीकार कर सिर्फ विकसित होने ठहरने का ख्वाब रखती है।भविष्य की ओर या विकास शीलता के साथ अपनी चेतना अपनी सम्पूर्णता की ओर के अग्रिम बिंदुओं की ओर नहीं।


समाज व सामजिकता भविष्य की ओर है तो ठहराव के साथ अपनी स्थूलताओं में सिर्फ न कि आगे भी सूक्ष्म व कारण की ओर अर्थात पिंड दान सिर्फ ढोंग!!!


हालांकि कुछ लोगों को इस बात को लेकर  ऋषियों मुनियों से शिकायत रही है कि वे समाज को उसके ही हाल पर छोड़ कर अन्यत्र या जंगल जाते रहे।समाज में असल की क्रांति नहीं जगाए।

सोमवार, 2 मार्च 2020

वर्तमान समाज व सामजिकता पतनगामी/भूतगामी



हमने इस ब्लॉग को समाज व सामजिकता को बचपन से ही झेलते रहने की प्रतिक्रिया में बनाया।
होश सँभालते ही हमने अपने मन, चिन्तन,भावनाओं, दिल, दिमाग में महापुरुष,सन्तों की वाणियों को पाया। ऐसे में कुल व लोक मर्यादाएं हमें कचोटती रही हैं।आगे चल हमने देख की स्वयं मीरा भी अपनी भक्ति के बीच लोक मर्यादा, कुल मर्यादा को निम्न पाती हैं। सन्त कबीर ने तो अनेक कटाक्ष किए। आगे चल कर महसूस किया है समाज में शिक्षित भी भ्रम मात्र हैं। शिक्षित होना तो क्रांति है।


योग व आचरण व्यक्ति को जीवन के करीब लाता है।जीवन का साक्षात्कार कराता है। योग का पहला अंग है/यम!हम यम को मृत्यु से जोड़ते हैं,मृत्यु से पूर्व मृत्यु......वैराग्य... त्याग... । कुल मिला कर अच्छा आचरण।जिसे पांच भागों में बंटा है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह। किसी ने कहा ठीक ही कहा-आचार्य है -मृत्यु।



वर्तमान समाज व सामजिकता पतनगामी /भूतगामी है।
ये पतनगामी/भूतगामी क्या है?


वर्तमान समाज व सामाजिकता भविष्य की ओर है तो लेकिन पतन/भूत के साथ।
इस पर विस्तार से चर्चा फिर आगे करते हैं।