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गुरुवार, 22 सितंबर 2022

22सितम्बर 1539!!गुरुनानक पुण्य तिथि के याद में!!#अशोकबिन्दु

सन्त परंपरा में हमें जीवन के सहजता नजर आती है। संत परंपरा में गुरु नानक को हम भुला नहीं सकते ।आज हम उनको याद कर रहे हैं । हमें उनकी शिक्षाएं याद आ रही हैं । उन्होंने कहा था जिंदगी में तीन चार नियम काफी महत्वपूर्ण है - ईश्वर से प्रेम करना, मिल जुल कर रहना , मिल बांट कर भोजन करना। हमें सिख अर्थात शिष्य पंथ अर्थात अभ्यास पंथ काफी महत्वपूर्ण लगता है । जीवन में इस धरती पर कोई भी प्राणी स्वयं में पूर्ण नहीं है। जब तक हम अपनी पूर्णता के आभास में जीवन नहीं जीते । अपने पूर्णता के आभास में जीने के लिए हमें निरंतर अभ्यास में रहने की जरूरत है । क्योंकि हम मनुष्य में पूर्वाग्रह ,जटिलताएं, पुराने संस्कार इतने घुल मिल गए हैं कि उनसे उभरना मुश्किल होता है।ऐसे में हमें निरंतर अभ्यास में रहने की जरूरत होती है । हमारी नियमित दिनचर्या , हमारी आदतें जीवन में काफी महत्वपूर्ण होती हैं । हम अपना वक्त जिस विचार,जिस सोच, जिस आस्था, जिस समझ , जिस दिनचर्या , जिन आदतों मैं गुजारते हैं । हम वास्तव में वही हो जाते हैं। बुढ़ापे पर और मृत्यु के वक्त उनका असर हमारे जीवन में पढ़ना स्वाभाविक होता है । गुरु नानक के जीवन से हमें सहज जीवन जीने की प्रेरणा मिलती।

शनिवार, 9 जुलाई 2022

समाज व उसकी सामजिकता तो कायर व पाखंड?!#अशोकबिन्दु

हम कहते रहे हैं अब मानवता व प्रकृति अभियान को वर्तमान समाज व उसकी सामजिकता नहीं चाहिए। पांच हजार वर्ष पहले ही श्रीकृष्ण कह गए कि " दुनिया के धर्मों को त्याग मेरी शरण में आ।" यदि वर्तमान में जिंदा महापुरुषों को सम्मान नहीं, उन्हें कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं तो समझो कि समाज व उसकी सामजिकता में धर्म व ईश्वर की बात बेईमानी है।::#अशोकबिन्दु समाज व उनकी सामजिकता कायर व पाखंड!! #अशोकबिन्दु . . एक इंसान की समाज व सामजिकता से नहीं इंसान से आवश्यकताएं पूरी होती हैं। समाज व सामजिकता एक इंसान की समस्याओं का समाधान करने में असमर्थ ही होता है। समाज में एक समस्या है - दहेज। कन्या पक्ष को इस कारण कर्ज में डूब जाना पड़ जाता है। रिश्ता निभाने ,चलाने के बीच आर्थिक पहलू भी होते है लेकिन रिश्ता में महत्वपूर्ण रिश्ता निभाना है परस्पर सहयोग के माध्यम । रिश्ता जोड़ने का मतलब किसी का कर्ज में डूबना नहीं होना चाहिए। रिश्तों को निभाने में हमने देखा है कि अनेक चीजें निरर्थक होती हैं जो कि वास्तव में एक इंसान के जीवन में सहायक नहीं होतीं। एक इंसान को अकेले ही अपनी समस्याओं से जूझना पड़ता है।उसके जीवन में अनेक समस्याएं इस समाज व सामजिकता के कारण ही होती हैं। समाज व सामजिकता वास्तव में ज्ञान, प्रेम, इंसानियत, कानूनी व्यवस्था, दया-करुणा आदि को महत्व नहीं रखता।वह इस बात से ही इंसानियत, इन्सान की समस्याओं को नजरअंदाज कर देता है कि हमारे यहां यह होता है, हमारे यहां यह नहीं हो सकता। समाज व सामजिकता बदलती तो है समय समय पर लेकिन कुछ चीजें बदलती भी नहीं हैं। सन्त कबीर, रैदास, गुरु नानक, राजा राम मोहन राय, ज्योतिबा फुले आदि के सिद्धांतों की बात करने वाला आज भी समाज व सामजिकता के बीच अलग थलग है। कूड़ा फेंकने वाली स्त्री पर भी दया भाव रखने वाले नबी के इस आचरण को स्वीकार करने वाला आज भी समाज व सामजिकता में अलग थलग है। समाज व सामजिकता के ढर्रे की वकालत करने वाला विचलित होता है ।उससे कहो कि हमारे पूर्वज तो हमारे ग्रन्थ तो ऐसा ऐसा कहते हैं और हो ऐसा ऐसा रहा है तो कहते हैं कि अरे, आज कल की बात करो।जब उनसे आज कल व भविष्य की संभावनाओं की बात करो तो कहते हैं कि ऐसे कैसे?हमारे यहां तो यह होता आया है, यह हो रहा है। हम देख रहे हैं कि विश्व के जिन समाजों में ईश्वर व आधुनिक धर्म की बात नहीं है वहां अन्य की अपेक्षा अपराध कम हैं, कानूनी व्यवस्था ज्यादा है। धर्म व ईश्वर पर भी समाज व सामजिकता की वह धारणा नहीं होती जो उनके ग्रन्थों व महापुरुषों के सन्देशों में होती है।

सोमवार, 2 मई 2022

समाज में तो टूटे हैं, विखरे है।मानवता व कुदरत ने स्वर जोड़े हैं::#अशोकबिन्दु





 कुछ और....


एक फाइल से प्राप्त पुरानी यादें/निशां!!

"एक दिन हम इस जहां से गुजर जाएंगे,

मगर  निशां  अपने  यहां  छोंड़   जाएंगे। #अशोकबिन्दु




मंगलवार, 22 मार्च 2022

समाज...?!समाज तो कायर है!::अशोकबिन्दु

 "समाज तो कायर है वह दहेज प्रथा, जातिवाद आदि के खिलाफ बगावत की हमें प्रेरणा नहीं दे सकता।"


सुबह - सुबह जब हम विद्यालय पहुंचे तो शिक्षक ने ओबीसी, पिछड़ा आदि की बात छेंड़ दी।हमने देखा है कि यह तथाकथित ब्राह्मण या पंडित या जन्मजात व्यवस्था आधारित जातिव्यवस्था के हिमायती कैसे कैसे जाति सूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं?


बात आगे बड़ी,हमने कहा कि हम जाति व्यवस्था को नहीं मानते।

हम अपने जीवन में अनुभव करते हैं कि जाति वादी शब्दों, वाक्यों का इस्तेमाल कौन करता है?!

बड़प्पन?!::समाज ,देश, विश्व व मानव सभ्यता ,समाज में बड़ा कौन?!#अशोकबिन्दु

  " अरे, कैसी बात करते हो?यह तो आपका बड़प्पन है।" -यह वाक्य  किन स्थितियों में कहा जाता है? समाज, देश व विश्व में हम किसे बड़ा माने?



हमें अफसोस है इनके बड़े होने पर यदि यह प्रेम,ज्ञान,मानवता, रूहानी आंदोलन, प्रकृति संरक्षण, मानव संरक्षण की वकालत नहीं करते।


रविवार, 20 मार्च 2022

परिजनों, धर्मों, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रतिरूपों में पुनरावलोकन की आवश्यकता :: आत्महत्या या अस्वस्थ सामाजिक परिवेश

   सन 1996 ई0 तक हर 80 सेकंड में एक आत्महत्या हो रही थी।अर्थात वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के अनुसार विश्व में 11000 आत्महत्याएं प्रतिदिन हो रही थीं। इन दो वर्षों में आत्महत्या करने की दर में 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जब हम समाजशास्त्र से एम ए कर रहे थे तो आत्महत्या पर एक अध्याय हुआ करता था।जिसमें अध्ययन से हमें ज्ञात हुआ कि आत्महत्या का कारण  परिवार, समाज, रिश्तेनातों ,आर्थिक, सामाजिक,सांस्कृतिक प्रतिरूप ही दोषी होते हैं।



हम इस निष्कर्ष पर निकले हैं कि आर्थिक, सांस्कृतिक व कार्यात्मक संरचना के बीच हमारी इच्छाओं,हमारे प्रति अन्य की उम्मीदों का हमारे सामर्थ्य से संघर्ष  हमें निरुत्साह, हताशा में डाल देता है।परिवार, कार्यात्मक क्षेत्र ,समाज आदि में लोगों के साथ होने के बाबजूद हम मानसिक रूप से जब अकेले खड़े होते हैं तो हमारी स्थिति भयंकर हो जाती है। ओशो प्रेमी स्वामी आत्मो मनीष कहते हैं कि किसी परिवार में अगर किसी कारण वश आत्महत्या हुई हो तो उस परिवार में बहुत एहतियात रखने की जरूरत है। ऐसा परिवार मानसिक और शारीरिक रूप से रुग्ण हो सकता है। बेल्जियम की थेरेपिस्ट मा प्रेम नारायणी कहती हैं कि ऐसे परिवार में सच्चाई का साक्षात्कार करने की समझ होनी चाहिए। अपनी समस्यायों को व्यक्त करते रहना चाहिए। लेकिन इसके लिए सँवरना कैसे हो?कैसे अपनी समस्याओं व दर्द को हम मानवता के लिए मंच बना लें?





देखा जाए तो वर्तमान सामजिकता व सहयोगात्मक संरचना मानवता  व मानव के प्रति सम्वेदी नहीं रह गयी है। ऐसे में हम नितांत अकेले ,नितांत अकेले होते हैं।हमें अपना सङ्घर्ष अकेले स्वयं अंदर ही अंदर झेलना होता है।  यह कहना तो आसान है कि ऐसे व्यक्ति व परिवार को अपनी समस्याएं कहते रहना चाहिए।लेकिन कहाँ कहे ?किससे कहे? हमने स्वयं अपने जीवन से सीखा है कि साहित्य व कला की विविध विधाएं व उनसे शौक हमें मुश्किलों से उबार ही नहीं लेता हम व परिवार अन्य व अन्य परिवारों तक का उद्धारक हो जाता है।देखा गया है कि कोई व्यक्ति या परिवार सङ्घर्ष करते हुए लोगों के दुख दर्द में सहायक होते हुए मानवता व रूहानी आंदोलन में महारथी हो जाता है।

कैसे हमारा दर्द व सङ्घर्ष सारी मानवता के लिए सहायक हो सकता है?हम व निशान्त दास पार्थ जैसे युवक भली भांति समझ सकते हैं।


लेकिन अमेरिकन थेरेपिस्ट अनिशा कहती हैं कि अपने शरीर को कई प्रकार के कष्ट देने से सूक्ष्म रुप से आत्महत्या का उदय होता है। 



हम तो कहेंगे स्वयं का नजरिया, आस्था ,निर्णयों ,प्राथमिकताओं की बड़ी जिम्मेदारी बन जाती है आत्मा हत्या की दशा की ओर पहुंचने को। स्वेट मॉर्डन कहते हैं कि जिन हालातों में कोई दुखी है, उसी हालत में भी कोई सुखी देखा गया है। हमारा नजरिया, आस्था, हमारे सोंचने का ढंग इसमें काफी महत्वपूर्ण है।ओशो कहते हैं -सुख दुख हमारा नजरिया है। 


तब भी सामजिकता की बड़ी जिम्मेदारी है यदि वास्तव में सामजिकता जिंदा है। इसी तरह हम सब को समाज ,धर्म के ठेकेदारों को पुनरावलोकन की आवश्यकता है। दान, सेवा ,सामजिकता, धर्म, संस्कृति आदि का क्या औचित्य जब मानव समाज में ही मानव को समपेथी न मिल सके या बदले या तुलना की भावना से जिया जाए।किसी ने कहा है कि सच्चा मानव के कर्तव्य ही कर्तव्य हैं अधिकार नहीं। मुखिया, नेता, नेतृत्व आदि का मतलब क्या है?


किसी ने कहा है कि रोगी भी इलाज करवाते करवाते व इलाज के उपायों में जीते जीते दूसरों के लिए सहायक  हो जाता है। किसी ने यह भी कहा है कि समस्याओं में नहीं समाधान व भगवान में जीना चाहिए। ऐसे में हमे स्वयं आत्म साक्षत्कार की जरूरत होती है।अपना यथार्थ समझने की जरूरत होती है। समाज में प्रचलित  प्रतिरूप हो सकता है कि हमें समाधान न दें। घर से बाहर निकलने के बाद वास्तव में शायद ही कोई बिना मतलब कोई हमारी मदद करने के लिए कोई तैयार हो।समाज में यह भी देखने को मिलता है कि समाज में जो वास्तव में प्रतिष्ठित होता है वह उसकी मदद करता नजर नहीं आता, उसको दान करता नजर नहीं आता, उसको उत्सव में बुलाता नजर नहीं आता वास्तव में जिसको आवश्यकता है।

रविवार, 6 मार्च 2022

अकेला खड़ा इंसान व उसकी इंसानियत::अशोकबिन्दु

 आज कल सामजिकता व राजनीति इंसान व इंसानियत को ठग रही है।

भीड़ में खड़ा इंसान व उसकी इंसानियत के बुरे दिन चल रहे हैं लेकिन सिर्फ इंसान समाज में। प्रकृति व ईश्वरता उसके साथ ही खड़ी है।


समाज आज की तारीख में किसके साथ खड़ा है? जाति, मजहब, लोभ लालच, अपराध आदि के साथ। इंसान व उसकी इंसानियत भीड़ में नितांत अकेले है।



समाज में जो भी आचरण हैं वे सब जातिवाद, मजहबवाद,अंध विश्वसों आदि की ही जटिलता को बनाये रखना चाहते हैं। 


एक इंसान, उसकी इंसानियत की नजर में ,प्रकृति की नजर में इंसानी समाज खतरा है।


समाज जिसके साथ खड़ा होना चाहिए, उसके साथ नहीं खड़ा है।निर्बल कमजोर, अल्पसंख्यक आदि के साथ समाज को हम खड़ा नहीं पाते ।


#अशोकबिन्दु

कबीरा पुण्य सदन


मंगलवार, 18 जनवरी 2022

हम जीवित महापुरुषों का सम्मान करें, उनकी शरण में आएं::अशोकबिन्दु

 हम चाहें कोई भी हों , जीवित महापुरुषों का सम्मान करें। आज जो भीड़ में अकेला खड़ा है वह भी ईश्वर की बनायी श्रेष्ठ मूर्ति है जिसे स्वयं ईश्वर ने ही प्राण प्रतिष्ठित किया है। बहुमत के चक्कर में मत पड़ो वरन अपने कर्तव्य निभाते रहो। अपने जिंदा रहते सुकरात अल्पसंख्यक थे ,उनको जब जहर दिया गया वह बहुमत ने दिया था लेकिन आज वह बहुमत खलनायक है। ईसा को जब सूली पर लटकाया जा रहा था तब बहुमत उनके साथ न था वरन अल्पसंख्यक उनके साथ था।



एक समय वह भी था जब पश्चिमभारत बहुमत/बहुसंख्यकों के अत्याचारों से हा हा कार करने लगा लेकिन उनकी हा हा कार ने आत्माओं को झकझोर दिया । आत्माओं ने मिशन ने ,रूहानी आंदोलन ने और तीब्रता पकड़ी। अरे, क्या जाता है अल्पसंख्यक को रौंदने में?इससे हमारा वर्तमान बेहतर हो सकता है लेकिन हमारा भविष्य नहीं।हमारे कर्मों का असर अनेक जन्मों तक रहता है। जीवित महापुरुषों को सम्मान देना आवश्यक है। अल्पसंख्यकों को भी सम्मान देना जरूरी है।हमने इसके प्रभाव को महसूस किया है। पश्चिम भारत ने हमें गुरु नानक दिए, अन्य गुरु दिए।गुरुगोविंद सिंह दिए।उनकी व उनके परिवार के संघर्ष के हम ऋणी है। हम बहुमत में ही न खो जाएं, हम अल्पसंख्यकों की अनसुनी न कर दे। हमारे कर्म व कर्तव्य ही हमारे हैं। उनको ही हम भुना सकते हैं न भविष्य में। 


पुरुषार्थ!!

पुरुष के लिए जीना आखिर कब ?! आखिर पुरूष है क्या ? ऋग्वेद में स्पष्ट है, पुरूष क्या है ? विराट पुरुष क्या है?

पुरुषार्थ चार स्तम्भों पर टिका है।चार दिशाओं पर टिका है।धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष..... जो एक दशा में पांच तत्वों के साथ मिल कर हमारा स्थान निर्मित करता है। हमारे शरीर व जगत की प्रकृति विभिन्नता में वह 10 दिशाएं स्पष्ट करता है। जो हमे चेतना के अनन्त बिन्दुओं, अनन्त स्तरों से गुजरते हुए आगे ले जाता है लेकिन बेहतरी हमारी हमारे अस्तित्व का ऊर्ध्वाधर होने से है।


मूलाधार चक्र पर भी जो ऊर्जा प्रवाहित होती है वह भी  अनन्त से आती महसूस होती है। 

"सागर में कुंभ कुम्भ में सागर !"


लेकिन हमारी गति किधर है। गीता का विराट रूप हैं हर वक्त मौजूद दो सम्भावनाओं से भी ऊपर के अस्तित्व को स्पष्ट करता है।अच्छा बुरा, अनुकूल प्रतिकूल, प्रकृति ब्रह्म ,सुर असुर आदि से ऊपर के अस्तित्व को स्पष्ट करता है।


हे अर्जुन(अनुरागी)!उठ!दुनिया के सभी धर्मों को त्याग मेरे (आत्मा) के शरण आ ।

तू भूतों को भेजेगा अर्थात भूत ,भूत काल की घटनाओं से प्रभावित होगा तो भूत को प्राप्त होगा। तू पितरों को भेजेगा अर्थात अपने पूर्वजों की याद में जिएगा तो पितरों को प्राप्त होगा अर्थात तब भी एक प्रकार से भूत को ही प्राप्त होगा। देवों को भेजेगा तो तू देवों को प्राप्त होगा अर्थात तू इससे ऊपर जो सत्ता है, उसको प्राप्त नहीं हो सकता। तू मुझे(आत्मा) को भेजेगा तो मुझे (आत्मा) को प्राप्त होगा।यह जो विराट स्वरूप / प्रकाश है यह भारत है अर्थात प्रकाश में रत । दुनिया मे सिर्फ आत्मा ही सनातन है। जो अनन्त से जुड़ कर परम् आत्मा की ओर हो जाती है। जो अपने गुण आत्मियता से स्वतः चमकती है। 

स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज 

यथार्थ गीता के प्रणेता परम श्रद्धेय💥 स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज💥 

श्री श्री  १००८ स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज 


https://ashokbindu.blogspot.com/2022/01/blog-post.html


7 वीं - 15 वीं सदी::उस वक्त के राजबाड़े अब जातबाड़े ?? अल्पसंख्यक का बजूद क्या?!


#अशोकबिन्दु  


#लोहिया ने कहा था कि भीड़ में अकेला व्यक्ति भी जब #तन्त्र का महत्वपूर्ण हिस्सा हो उसे भी आगे बढ़ने का अबसर हो,तभी सफल #लोकतन्त्र है।


#दीनदयालउपाध्याय ने कहा था कि पीछे पंक्ति में खड़ा व्यक्ति तक सुविधाएं जाना चाहिए।


#भीमरावअंबेडकर ने कहा था कि #सामाजिकलोकतन्त्र  ,#आर्थिकलोकतन्त्र के बिना #राजनैतिकलोकतन्त्र  हमेशा खतरा में रहेगा।


 हमारी नजर  #अशोकबिंदु  में #सामाजिकलोकतन्त्र का मतलब है जातिवाद, मजहबवाद,परिवारवाद ,जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात निम्नवाद आदि से ऊपर उठ कर समाज में व्यक्ति -व्यक्ति, परिवार -परिवार के बीच सम्बन्ध। #आर्थिकलोकतन्त्र का मतलब है  जतिवाद,मजहबवाद आदि से ऊपर उठ कर आर्थिक क्रियाओं की स्वतंत्रता।देखा गया है कि कुछ लोग शॉपिंग, मार्केटिंग आदि करते वक्त जाति बिरादरी, मजहब को भी देखते हैं कि अरे, उस जाति के उस मजहब के व्यक्ति की दुकान से नहीं खरीदना, उसे भागीदार नहीं बनाना।


वास्तव में हमें आज का लोकतन्त्र समझ में ही नहीं आता ।वोट किसे ? जो हमारी बिरादरी का।टिकट किसे ?बिरादरी को देख कर। 


आदिकाल से ही अल्पसंख्यक के मूलअधिकारों , विकास के अवसर, तन्त्र में भागीदारी,न्याय आदि को नजरअंदाज किया जाता रहा है। राजतंत्र हो लोकतन्त्र।


07 वीं - 15 वीं सदी में आज कल के जातबाड़ों की तरह रजबाड़ों में क्षेत्र व देश की राजनीति उलझी थी। ऐसे में विदेशी, विदेशी प्रतिनिधि अवसरों का फायदा उठा रहे थे सत्ता व सरकारों से चिपक कर। भारतीय संस्कृति, पूरे क्षेत्र में शांति आदि के लिए कुछ मुठ्ठी भर लोग थे, अल्पसंख्यक थे। उस वक्त बहुसंख्यकों के प्रभाव - कु प्रभाव में आकर एक एक लाख लोग, परिवार कुप्रबन्धन, शोषण, अन्याय,गरीबी, विकास के अवसर हीनता आदि को झेलने को मजबूर थे। आज कल भी ऐसा हो रहा है।देश के अंदर लाखों लोग बदतर स्थिति में पहुंचते जा रहे हैं। राजनीति, चुनाब, तन्त्र आदि जातबाड़ों का शिकार हो कर रह जाता है। अल्पसंख्यक कितना भी बेहतर सोंच, आचरण, योजनाबद्ध आदि के साथ हो लेकिन उसका बजूद नहीं है, उसकी भागीदारी नहीं है।उसको आगे बढ़ने का अवसर नहीं है।जनता किस का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार है? जातिबाड़ी बहुसंख्यकता अल्पसंख्यक बेहतरी तो भी कुचलने को तैयार है या उसका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं।


बहुसंख्यक,बहुमत सुकरात को जहर, ईसा को सूली ही देने को तैयार है। बहुमत उस वक्त भी अल्पसंख्यक को राजद्रोह आदि का।मुकदमा लगा कर किसी को जहर, किसी को सूली, किसी को फांसी देने को तैयार खड़ा था, आज भी तैयार खड़ा है। आदि काल से ही अल्पसंख्यक को शहादत का ही अबसर मिला ,कुर्बानी का ही अवसर मिला। यहां तक कि जो अल्पसंख्यक भविष्य में जब बहुसंख्यक हो गए तो उन्होंने भी अल्पसंख्यकों के साथ ज्यादतियां कीं। हम हजरत हुसैन, गुरुगोविंद सिंह व उनके बच्चों, बन्दा बैरागी, वीर हकीकत,महाराणा प्रताप,  छत्रपति शिवा जी ,भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेता जी सुभाषचंद्र बोस आदि के संघर्ष को हम भुला नहीं सकते। 


गुप्त, छापा मार, गोरिल्ला संघर्ष भी आदि काल से अल्पसंख्यक समुदाय चलाने को मजबूर हुए। देश पहला हिंदवी साम्राज्य छत्रपति शिवाजी ने स्थापित किया।उन्हें बहुसंख्यक हिंदुओं - गैर हिंदुओं की करतूतों, जातीय-मजहबी हरकतों के सामने छापा मार नीति अपनानी पड़ी। महाराणा प्रताप को भी को अकेले ही संघर्ष झेलना पड़ा। दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य के माध्यम से हरिहर बुक्का, आचार्य सायण को सीमित हो जाना पड़ा।  क्रांतियों व बदलाव का इतिहास तो अल्पसंख्यकों ने ही लिखा है।जब ये अल्पसंख्यक कफ़न बांध कर निकले हैं, मरने -मिटने को भी तैयार हुए हैं। सूली, जहर, फांसी को भी सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हुए हैं।


भीड़ ,बहुमत तो जाति, मजहब, परिवार, जीवन यापन, लोभ लालच, भीड़ हिंसा, जातीय -मजहबी उन्माद आदि में ही शिकार होकर दम तोड़ता रहा है।पूंजीवाद, सामन्तवाद, जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात निम्नवाद,गरीबी, पुरोहितवाद,मुफ्त की खैरात आदि का शिकार होता रहा है। इतिहास तो अल्पसंख्यक बनाता है। भविष्य के लिए चंद लोगों के साथ क्रांति अर्थात परिवर्तन वही लिखता है। भविष्य आखिर में उसी को ही स्वीकार करता है क्योंकि वर्तमान हालतों से संतुष्ट आखिर होता कौन है।सब के सब जाति, मजहब, लोभ लालच, जीवन यापन आदि के बहाने जैसे तैसे सिर्फ जीवन जीते है या जिंदा रहने की कोशिश में रहते हैं।

भारतीयता ही हमारा धर्म::#अशोकबिन्दु



मेरा कन्हैया भी बोले - मेरी शरण तू आ जा जग धर्म तज!! #मूला राम




 7 वीं - 15 वीं सदी::उस वक्त के राजबाड़े अब जातबाड़े ?? अल्पसंख्यक का बजूद क्या?!


#अशोकबिन्दु  


#लोहिया ने कहा था कि भीड़ में अकेला व्यक्ति भी जब #तन्त्र का महत्वपूर्ण हिस्सा हो उसे भी आगे बढ़ने का अबसर हो,तभी सफल #लोकतन्त्र है।


#दीनदयालउपाध्याय ने कहा था कि पीछे पंक्ति में खड़ा व्यक्ति तक सुविधाएं जाना चाहिए।


#भीमरावअंबेडकर ने कहा था कि #सामाजिकलोकतन्त्र  ,#आर्थिकलोकतन्त्र के बिना #राजनैतिकलोकतन्त्र  हमेशा खतरा में रहेगा।


 हमारी नजर  #अशोकबिंदु  में #सामाजिकलोकतन्त्र का मतलब है जातिवाद, मजहबवाद,परिवारवाद ,जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात निम्नवाद आदि से ऊपर उठ कर समाज में व्यक्ति -व्यक्ति, परिवार -परिवार के बीच सम्बन्ध। #आर्थिकलोकतन्त्र का मतलब है  जतिवाद,मजहबवाद आदि से ऊपर उठ कर आर्थिक क्रियाओं की स्वतंत्रता।देखा गया है कि कुछ लोग शॉपिंग, मार्केटिंग आदि करते वक्त जाति बिरादरी, मजहब को भी देखते हैं कि अरे, उस जाति के उस मजहब के व्यक्ति की दुकान से नहीं खरीदना, उसे भागीदार नहीं बनाना।


वास्तव में हमें आज का लोकतन्त्र समझ में ही नहीं आता ।वोट किसे ? जो हमारी बिरादरी का।टिकट किसे ?बिरादरी को देख कर। 


आदिकाल से ही अल्पसंख्यक के मूलअधिकारों , विकास के अवसर, तन्त्र में भागीदारी,न्याय आदि को नजरअंदाज किया जाता रहा है। राजतंत्र हो लोकतन्त्र।


07 वीं - 15 वीं सदी में आज कल के जातबाड़ों की तरह रजबाड़ों में क्षेत्र व देश की राजनीति उलझी थी। ऐसे में विदेशी, विदेशी प्रतिनिधि अवसरों का फायदा उठा रहे थे सत्ता व सरकारों से चिपक कर। भारतीय संस्कृति, पूरे क्षेत्र में शांति आदि के लिए कुछ मुठ्ठी भर लोग थे, अल्पसंख्यक थे। उस वक्त बहुसंख्यकों के प्रभाव - कु प्रभाव में आकर एक एक लाख लोग, परिवार कुप्रबन्धन, शोषण, अन्याय,गरीबी, विकास के अवसर हीनता आदि को झेलने को मजबूर थे। आज कल भी ऐसा हो रहा है।देश के अंदर लाखों लोग बदतर स्थिति में पहुंचते जा रहे हैं। राजनीति, चुनाब, तन्त्र आदि जातबाड़ों का शिकार हो कर रह जाता है। अल्पसंख्यक कितना भी बेहतर सोंच, आचरण, योजनाबद्ध आदि के साथ हो लेकिन उसका बजूद नहीं है, उसकी भागीदारी नहीं है।उसको आगे बढ़ने का अवसर नहीं है।जनता किस का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार है? जातिबाड़ी बहुसंख्यकता अल्पसंख्यक बेहतरी तो भी कुचलने को तैयार है या उसका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं।


बहुसंख्यक,बहुमत सुकरात को जहर, ईसा को सूली ही देने को तैयार है। बहुमत उस वक्त भी अल्पसंख्यक को राजद्रोह आदि का।मुकदमा लगा कर किसी को जहर, किसी को सूली, किसी को फांसी देने को तैयार खड़ा था, आज भी तैयार खड़ा है। आदि काल से ही अल्पसंख्यक को शहादत का ही अबसर मिला ,कुर्बानी का ही अवसर मिला। यहां तक कि जो अल्पसंख्यक भविष्य में जब बहुसंख्यक हो गए तो उन्होंने भी अल्पसंख्यकों के साथ ज्यादतियां कीं। हम हजरत हुसैन, गुरुगोविंद सिंह व उनके बच्चों, बन्दा बैरागी, वीर हकीकत,महाराणा प्रताप,  छत्रपति शिवा जी ,भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेता जी सुभाषचंद्र बोस आदि के संघर्ष को हम भुला नहीं सकते। 


गुप्त, छापा मार, गोरिल्ला संघर्ष भी आदि काल से अल्पसंख्यक समुदाय चलाने को मजबूर हुए। देश पहला हिंदवी साम्राज्य छत्रपति शिवाजी ने स्थापित किया।उन्हें बहुसंख्यक हिंदुओं - गैर हिंदुओं की करतूतों, जातीय-मजहबी हरकतों के सामने छापा मार नीति अपनानी पड़ी। महाराणा प्रताप को भी को अकेले ही संघर्ष झेलना पड़ा। दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य के माध्यम से हरिहर बुक्का, आचार्य सायण को सीमित हो जाना पड़ा।  क्रांतियों व बदलाव का इतिहास तो अल्पसंख्यकों ने ही लिखा है।जब ये अल्पसंख्यक कफ़न बांध कर निकले हैं, मरने -मिटने को भी तैयार हुए हैं। सूली, जहर, फांसी को भी सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हुए हैं।


भीड़ ,बहुमत तो जाति, मजहब, परिवार, जीवन यापन, लोभ लालच, भीड़ हिंसा, जातीय -मजहबी उन्माद आदि में ही शिकार होकर दम तोड़ता रहा है।पूंजीवाद, सामन्तवाद, जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात निम्नवाद,गरीबी, पुरोहितवाद,मुफ्त की खैरात आदि का शिकार होता रहा है। इतिहास तो अल्पसंख्यक बनाता है। भविष्य के लिए चंद लोगों के साथ क्रांति अर्थात परिवर्तन वही लिखता है। भविष्य आखिर में उसी को ही स्वीकार करता है क्योंकि वर्तमान हालतों से संतुष्ट आखिर होता कौन है।सब के सब जाति, मजहब, लोभ लालच, जीवन यापन आदि के बहाने जैसे तैसे सिर्फ जीवन जीते है या जिंदा रहने की कोशिश में रहते हैं।