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मंगलवार, 26 मई 2020

जो जीता वही चन्द्र गुप्त मौर्य:: अब एक नए युग प्रवर्तक की तलाश में ::अशोकबिन्दु

  इतिहास गबाह है कि असंतुष्टो,भूखों ने इतिहास रचा है।
आधुनिक लोकतांत्रिक इतिहास व राष्ट्र वाद की शुरुआत फ्रांस की क्रांति से होती है।इसके बाद हमें रूस की क्रांति, अमेरिका की क्रांति, इंग्लैंड की क्रांति आदि से प्रेरणा मिलती है। सन 1947 की आजादी को हम सिर्फ सत्ता हस्तांतरण मानते है न कि आजादी। ये वर्ष 2011 -2025 ई0 काफी महत्वपूर्ण है।विभिन्न क्रांतियों में क्रांति के जो कारण थे वे अब भी जिंदा है।सन1947 से पहले आजादी के संघर्ष के लिए जो कारण थे वे अब भी मौजूद हैं। पूंजीवाद, सत्तावाद, सामन्तवाद, बेरोजगारी, खाद्यमिलावट, नशा व्यापार, सामाजिक असमानता, आर्थिक असमानता, व्यवहारिक ,व्यवसायिक,चारित्रिक शिक्षा का अभाव,समाजसेवी नौकरशाही व नेताशाही का अभाव, जातिवाद व साम्प्रदायिकता विरोध का अभाव, नागरिक सम्मान व निरपेक्ष जनता को सुविधाओं को अभाव आदिआदि समस्याएं आम आदमी को माहौल नहीं दे पा रही हैं। सरकार परिवर्तन नहीं व्यवस्था परिवर्तन की आवश्यकता है।नेताओं की नहीं समाजसेवियों की आवश्यकता है। कर्मचारियों की नहीं राष्ट्र सेवियों की आवश्यकता है।

दो वर्षों से इलाहाबाद यूपी बोर्ड ने कक्षा 09 व 10 में सामाजिक विज्ञान का पाठ्यक्रम चेंज हुआ है।जो लोकतंत्र को प्रशिक्षित करने वाला सलेब्स है यदि कोई वास्तव में इसका ईमानदारी से अध्ययन कर अमल में लाए। कोर्स में चरवाहों, किसानों, जंगली जातियों, घुमकडू जातियों आदि का इतिहास पढ़ाए जाने के मतलब क्या है?वास्तव2 में हर क्रांति में इनका बड़ा योगदान रहा है।



ये लेख आज हम क्यों लिख रहे हैं?ये लेख हम आज जिस हेतु लिख रहे हैं वह की झलक अभी इसमें नहीं आ पा रही है।इसके लिए हमे अलग से एक लेख लिखना होगा। ये समय सरकारों को बार बार बदलते रहने के लिए नहीं है, व्यवस्था परिवर्तन के लिए है।जो स्थायित्व में है उन्हें काफी नुकसान भविष्य में उठाना होगा।जो अपने को बदलने के लिए तैयार रहेगा वही  भविष्य के लिए महत्वपूर्ण रहेगा। वर्तमान  व इन70 साल में राजनीतिक नायक भविष्य में खलनायक घटित होने वाले है कुछ अपवादों को छोड़ कर।वर्तमान में कोई दल, नेता व संग़ठन देश को समस्याओं से3 उबरने वाला नहीं है। जयगुरुदेव/सन्त तुलसी दास का तो मानना था-देश के हालात ऐसे हो जाएंगे जैसे कुत्ते के गले में हड्ड़ी।भीम राव अम्बेडकर ने भी कहा था- सामाजिक लोकतंत्र व आर्थिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र को खतरा बना रहेगा।


देश के सिस्टम में अब भी वह लोग हॉबी हैं जो जातिवाद, पूंजीवाद, सामन्तवाद, नशा व्यापार, खाद्यमिलावट, जन्म जात उच्चता, माफ़ियावाद ,पुरोहितबाद आदि को खत्म नहीं करना चाहता। श्रमवाद, श्रम कानून ,मानवाधिकार, सम्विधान गरिमा आदि नहीं चाहता। देश अभी तक अल्पसंख्यकों, मानवतावादियों ,सम्विधान प्रेमियों आदि के लिए कोई व्यवस्था नहीं कर पाया है।
प्राइवेट कर्मचारियों ,शिक्षकों के लिए कुछ भी न कर पाया है।
ईमानदार, कानून के आधार पर चलने वालों की सुरक्षा व भविष्य भी सुरक्षित नहीं कर पाया है।

हम अब मुख्य मकसद पर आते हैं।इस कोरोना संक्रमण के दौरान हमें काफी कुछ अवसर मिला है अपनी धारणाओं को स्थापित करने का व उनको मजबूत करने का। हमारा किसी दल,नेता से कल्याण नहीं होने वाला है।हां, नुकसान अवश्य हो सकता है।हम तो यही कहेंगे कि जो हमारा सहयोग नहीं कर सकते उनको हमसे चन्दा, दक्षिणा, वोट मांगने का क्या हक?हमसे उम्मीदे रखने का क्या हक?जो देश के हित की सिर्फ बात कर देश के सम्विधान की गरिमा में चल कर जातिवाद ,पूंजीवाद, सामन्तवाद,नशा व्यापार,खाद्यमिलावट आदि के खिलाफ मुहिम के लिए कार्य करना चाहते है वे क्या समझते है कि वर्तमान दलों, नेताओं को चुनने से देश का उद्धार हो जाएगा?


रविवार, 24 मई 2020

क्या हम सोलहवीं सदी की ओर लौट रहे हैं:::विलियम थॉमस

नशे की लत भारत में भी महामारी बनती जा रही है.
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पंजाब तो इस का बुरी तरह शिकार है. पंजाब में 4 दशकों पहले जब बिहारी मजदूर आने लगे थे तो उन्हें काम पर लगाए रखने के लिए किसानों ने उन्हें नशा कराना शुरू किया था ताकि उन्हें दर्द महसूस न हो और वे 12-14 घंटे काम कर सकें. पंजाब में अफगानिस्तान से आने वाली अफीम आसानी से मिलती थी. इसीलिए मजदूरों के लिए ड्रग जमा करना कोई मुश्किल काम न था.
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अब यह आदत मजदूरों से किसानों के बच्चों में घुस गई है. पूरा पंजाब ड्रग की मंडी बन गया है. हर दूसरा घर नशेड़ी का है. नशे के चलते सब नष्ट हो रहा है. नशे से ज्यादा पैसा उगाहने के लिए अब पंजाब से उस की तस्करी दूसरे राज्यों में की जा रही है और दिल्ली नशे का बड़ा केंद्र बन रहा है. यहां विदेशी भी आ कर धंधा कर रहे हैं.
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दिल्ली में हर दूसरे रोज एक जघन्य अपराध होता है जिस में मर्डर तक होता है केवल इसलिए कि अपराधियों को नशे की आदत थी. जेलें नशेडि़यों से भरने लगी हैं और अमेरिका जैसा हाल होने लगा है जहां कोकीन और हेरोइन घरघर में मिलने लगी है और दक्षिण अमेरिका का ड्रग माफिया कितने ही इलाकों में पैर फैलाए हुए है.
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ड्रग्स का चलन अभी तक या तो बहुत गरीबों में है या फिर बहुत अमीर घरों के बिगड़ैलों में. लेकिन इस को फैलते देर न लगेगी. जिन्हें सिगरेट और शराब पीने का चस्का लगा हुआ है उन में ड्रग्स लेने की आदत डलवाना आसान है. फिल्मों और पार्टियों से शराब का जिस तरह प्रचार हो रहा है वह चौंकाने वाला है. आजकल छोटे बच्चों की बर्थडे पार्टियों में भी जाम छलकने लगे हैं. ये बच्चे लिमिट जानते ही नहीं हैं लिमिट का पता हो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.
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बिहेवियोरल ऐक्सपर्ट यानी व्यवहार के विशेषज्ञ कहते हैं कि शराब पीने, नशा करने में लिमिट जैसी कोई बात नहीं होती. शराब के समर्थक अकसर कहते हैं कि वे सिर्फ सोशल ड्रिंकिंग करते हैं यानी लिमिट में शराब पीते हैं. वहीं विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि लिमिट का कोई पैमाना नहीं होता और यह बदली जाती रहती है. ड्रग्स भी इसी तरह आदत में शामिल हो जाती है. बस, टेस्ट करने से शुरू हो कर नशेड़ी बनने में समय नहीं लगता.
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ड्रग्स पर कंट्रोल करना है तो शराब पर कंट्रोल आवश्यक है. यह अगली पीढ़ी के सुखद भविष्य के लिए जरूरी है. इस बारे में ढीलढाल देश को महंगी पड़ेगी. चीन एक बार 17वीं सदी में अफीम की गिरफ्त में आया था और उस को 150-200 साल गुरबत में बिताने पड़े.
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हमारे यहां धर्म व जाति का नशा तो है ही, भांग, अफीम, कोकीन, मेरीजुआना का नशा ज्यादा चढ़ा तो हम 16वीं सदी में लौट जाएंगे.




शुक्रवार, 22 मई 2020

जिंदा मूर्तियों से मतभेद धर्म के गलियारों में ही::अशोकबिन्दु

जिंदा मूर्तियां!?
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""अशोकबिन्दु

हम जितना साधना में मजबूत होते हैं, उतना ही हम अपने को तुम्हारी धार्मिकता, उपासना, भक्ति, कर्मकाण्डों,भावना, नजरिया आदि से अपने को अलग पाते हैं।
 ध्यान मेँ हम देखते है जगत में जो भी है सब प्रकृति है।
जो उसमें है वह स्वतः है निरन्तर है। वह स्वतः ,निरन्तर हमारे अंदर भी है। उसको पाने के लिए/अहसास के लिए हमें बनाबटें, पूर्वाग्रह, संस्कार नहीं चाहिए। हमारा हाड़ मास शरीर, अन्य हाड़ मास शरीर, उसमें दिल सिवा हमारा धर्म स्थल क्या?गुरुद्वार/गुरुद्वारा सिवा।

कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक।महत्वपूर्ण है कि आप महसूस क्या करते हैं?अपने अंदर,सबके अंदर क्या आप वह दशा महसूस करते हैं, जो परम् है अनन्त है?

हम देख रहे हैं,लॉक डाउन से पूर्व था - दुनिया न चले राम के बिना। ये ही कहने वाले आज दुःखी हैं दान,दक्षिणा न मिलने पर।वह कहना किसके लिए था?क्या दिल से था?कि दुनिया न चले राम के बिना?!!

ईश्वर की बनाई दुनिया मे,अन्य प्राणियों में,अपने अंदर क्या वह दिव्यता की संभावना नहीं दिखती?जो दिखनी चाहिए।

गुरुवार, 21 मई 2020

मानव व उसकी समीपता::अशोकबिन्दु भईया

समीपता!
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मानव की महानता की ओर उपनयन संस्कार का बड़ा महत्व है।
वह है गुरु के पास जाना। इसके बाद उपनिषद अर्थात गुरु के पास बैठना।उपासना अर्थात उप आसन।इस सब के पीछे एक दर्शन छिपा हुआ है।उस दर्शन को हम सदा 'समीपता'के माध्यम से सिमेटने की कोशिस करते रहे हैं।


हमारी समीपता को समझने के लिए हमें पहले स्वयं को समझना आवश्यक है। हमारी सम्पूर्णता बनती है-हमारे स्थूल, सूक्ष्म व कारण को मिला कर।हमारा अधूरापन हमें जीवन के अस्तित्व का आनन्द नहीं लेने देता।अधूरेपन पर हम बाद में लिखेंगे। यहां हमारा विषय है-समीपता।

हमारा हमारी समीपता का हमारे उन्नति की दशा में बड़ा महत्व होता है।


हमारे समीप क्या होता है?जब हम इस जगत में आते हैं तो हमारी समीपता होते हैं-माता पिता व माता पिता का नजरिया, उस सम्भोग के प्रति माता पिता का नजरिया जो सम्भोग हमारे जन्म का कारण बनता है।इसके बाद गर्भावस्था के दौरान माता को शारीरिक, मानसिक,भावात्मक स्थिति व खानपान।जन्म के वक्त का वातावरण। डेढ़ साल तक कि हमारी परवरिश।देश साल बाद परिवार, समाज, विभिन्न मौसमों ,तापमान आदि को ग्रहण करना।परिवार में माता पिता का आचरण, परिवार के सदस्यों के बीच परस्पर व्यवहार व संवाद। परिवार व परिवार के सदस्यों का पास पड़ोस, समाज के व्यक्तियों से व्यवहार। परिवार से बाहर अन्य व्यक्तियों से व्यवहार रखने के हेतु का स्तर, मानसिकता, दशा आदि।परिवार व परिवार के सदस्यों की जीवन में प्राथमिकताएं  व विभिन्न घटनाओं पर नजरिया। परिवार व परिवार के व्यक्तियों की इच्छाओं, अवश्यकताओं, प्राथमिकताओं  के बीच हमारा नजरिया, विचार, भाव हमारी चेतना व समझ का स्तर।परिवार व परिवार के सदस्यों में सामाजिक कुरीतियों, जातिवाद, मजहब वाद आदि नजरिया व ज्ञान, विज्ञान ,मानवता, आध्यत्म, सम्विधान आदि प्रति हमारा अचरणात्मक पहलू।जीव जंतुओं, पेड़ पौधों आदि के प्रति समझ का हमारा स्तर।गैर जाति, गैर मजहब के प्रति हमारी समझ का स्तर।विभिन्न समस्याओं, परेशानियों,आपात काल आदि के वक्त परिवार व परिवार के सदस्यों की समझ का स्तर।परिवर्तन/बदलाव ,विकास के प्रति परिवार, परिवार के सदस्यों व हमारी समझ। स्वाध्याय, मनोरंजन, शिक्षा, सरकार, सम्विधान आदि के प्रति हमारी अपने व्यक्तिगत जीवन में समझ। इस बात का महत्व कि हमारा अधिकांश वक्त किस भाव, विचार, आचरण में व्यतीत होता है......... आदिआदि।




जब हम वर्तमान में सन्तुष्ट नहीं या हम वर्तमान में अधिकांश वक्त असन्तुष्टि संग गुजरते हैं तो फिर हम भविष्य में आनन्द को प्राप्त करेंगे ,इस पर संदेह है। समीपता हमारी आंतरिक व बाहरी स्थिति, आचरण है।उस आधार पर ही हम अपना पड़ोस जीते हैं।  हमें....

फ़िल्म उद्योग भी माफियाओं से चलता है::मुंशी प्रेम चन्द्र

मुंशी प्रेमचंद ने 1934 में एक फिल्म “मिल मज़दूर” लिखी पर मिल मालिकों ने उसे चलने नहीं दी तब मुंबई छोड़ते हुए उन्होंने कहा था “शराब के धंधे की तरह ही फिल्म का धंधा भी बिज़नेस माफिया चलाता है,
क्या दिखाना है क्या नहीं दिखाना सब वही तय करते हैं। ”
क्या ये बात आज भी लागू है?
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मुंशी प्रेमचंद को 1934 में एक फिल्म लिखने का ऑफर मिला।
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फिल्म का नाम था “मिल मज़दूर”
ये प्रेमचंद की लिखी एक मात्र फिल्म है इतिहास की,
प्रेमचंद को इस फिल्म के लिए उस समय 8000 रुपये मिले थे जो बहुत बड़ी रकम थी तब के हिसाब से ।
प्रेमचंद ने ना केवल फिल्म लिखी थी बल्कि इसमें मजदूरों के नेता का एक छोटा सा रोल भी किया था
फिल्म बना रहा था अजंता प्रोडक्शन नाम का स्टूडियो।
फिल्म 1934 में बनकर तैयार हो गयी, प्रेमचंद इस दौर में मुंबई में ही रहे।
1934 से 1935 तक।
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फिल्म की कहानी ये थी के एक टेक्सटाइल मिल का मालिक मर जाता है, और उसके बेटे को मिल चलाने के लिए मिल जाती है,अब वो नए विचारों का लड़का होता है, और बिज़नेस की बढ़ोत्तरी के लिए इंसान को इंसान नहीं समझता होता है। लोगों को निकालना उन्हें प्रताड़ित करना ये सब मिल में होने लग जाता है। फिल्म की हीरो उसकी बहन है, जो पिता को मिल चलाते देख रही थी मरने से पहले,वो मजदूरों के हकों के लिए खड़ी हो जाती है, उनसे हड़तालें करवाती है।एन्ड में भाई जेल जाता है, और लड़की मिल को वापस शुरू करती है।
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अब फिल्म में लड़की का डायलाग बताते हैं की इतना असरदार था की उस से मुंबई जो उस समय टेक्सटाइल का हब माना जाता था वहां मजदूरों की क्रांति होने लग गयी।
उस समय जिसने फिल्म देखि थी उसका कहना था की प्रेमचंद ने बेहतरीन फिल्म लिखी है।
1935 में फिल्म को रिलीज़ करने की मेहनत शुरू हुई,बोर्ड ने इसे बैन कर दिया,फिल्म को दुबारा नए नाम “सेठ की लड़की” से रिलीज़ करने की कोशिश की,लेकिन बिज़नेस लॉबी ने इसे फिर बैन करवा दिया।
मिल मालिकों ने फिल्म सिनेमा हाल से हटवा दी। कई जगह जोर जबरदस्ती से।
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प्रेमचंद फिर मुंबई छोड़कर चले गए, उन्हें लगा की अब कोई फायदा नहीं है यहां रहने का।
उन्होंने जाते हुए बयान दिया था की “शराब के धंधे की तरह ही फिल्म का धंधा भी बिज़नेस माफिया चलाता है, क्या दिखाना है क्या नहीं दिखाना सब वही तय करते हैं। ”
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और प्रेमचंद की बात सही भी थी।
इंडस्ट्री उस समय बदहाली से गुजर रही थी,
मजदूरों के हकों का कोई ख्याल नहीं रखा जा रहा था,
1929 के ग्रेट डिप्रेशन ने पूरी दुनिया के बिज़नेस को डब्बा कर रखा था।
मजदूरों को तनख्वां नहीं मिल रही थी, भूखे मर रहे थे मजदूर, घर जाएँ कैसे उसके भी पैसे नहीं थे उनके पास!
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1936 में फिल्म को कांट छांट के रिलीज़ किया गया “दया की देवी” नाम से।
फिल्म इक्का दुक्का किसी ने देखि होगी।
फिल्म लाहौर, दिल्ली, और लखनऊ में रिलीज़ हुई थी, लेकिन वहाँ से भी वो फिर हटवा दी गयी।
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फिल्म को बार बार बैन करवाने में बिज़नेस लॉबी का हाथ था,
और उस लॉबी का उस समय लीडर था भयरामजी जीजाभाई, जो उस समय ना केवल सेंसर बोर्ड के मेंबर थे, बल्कि टेक्सटाइल मिल एसोसिएशन के प्रेजिडेंट भी थे !
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इस से केवल प्रेमचंद ही मुंबई से वापस नहीं गए, फिल्म को बनाने वाला अजंता प्रोडक्शन भी दिवालिया हो गया।
फिल्म की अब कोई कॉपी नहीं है दुनिया में। सब लॉस्ट हो चुकी हैं, अब इसके बारे में केवल उस समय की ख़बरों में पढ़ा जा सकता है।
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इस समय ये शेयर करने का मकसद ये है के इस से आपको बिज़नेस लॉबी की मीडिया पर पकड़ का अंदाजा हो जाएगा की ये film/news मीडिया अभी नहीं बिका है, हमेशा से बिका रहा है।
बिज़नेस लॉबी इसे शुरू से ड्राइव कर रही है, खबरें फिल्में आप तक फ़िल्टर होकर ही पहुँचती है, उनमे से आपको कम बुरा और ज्यादा बुरा में से कुछ चूज़ करना होता हो।
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आज जिस तरह से मज़दूरों की सडकों पर मौत हो रही है और उन्हें घर नहीं जाने दे रही सरकार, ऐसे समय में परदे के पीछे के विलन पहचानना जरूरी हो जाता है, की क्यों नहीं बस और ट्रैन में भेजे गए मजदूर जबकि देश में बस और ट्रैन दोनों इस समय खाली खड़ी हैं।
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फिल्म से जुडी एक इंटरेस्टिंग बात ये और है की प्रेमचंद की फिल्म से ना केवल मुंबई की मिलों में हड़ताल हुई, बल्कि बनारस में खुद प्रेमचंद की प्रेस में हड़ताल हो गयी थी।
William Thomas

विलियम थॉमस

बुधवार, 20 मई 2020

दिमाग विकास को तो जन्म दे सकता है लेकिन बुद्धिमत्ता का नहीँ, विकास शीलता तो हमारी सम्वेदना में है::अशोकबिन्दु

सम्वेदना@
"'''''''''''''''''''''''"""""

ये हमारे हाड़ मास सम्वेदना/आत्मियता की हालत है।
यही सिर्फ हमारा है।
यही का प्रबन्धन हमारा है।
इस हाड़ मास के पीछे अनन्त प्रवृतियों का तन्त्र छिपा है।
हमारी चेतना/आत्मा का सम्वन्ध यही से है।
दिमाग से नहीं।
जीवन दिमाग से संचालित नहीं होता।
दिव्यता का भंडार दिल है।
जब हम इस हाड़ मास से उबर आगामी स्तर पर बढ़ते हैं तो-
कम्पन!स्पंदन!तरंग!प्रकाश!!!
जगदीश चन्द्र बसु उस ओर पहुंचने की कोशिस साइंस के माध्यम से शुरू की लेकिन सुप्रीम साइंस के माध्यम से नहीं।
हमारा सुप्रीम साइंस, हमारा अध्यत्म हमारी यही दशा की ओर लेजाता है,हमारी वर्तमान धारणाओं से निकल कर।वर्तमान धर्म के ईश्वर से हट कर है अध्यत्म का ईश्वर... फिजिक्स में हैं हम अभी।सिर्फ गुरुत्वाकर्षण तक पहुंचे तो हैं लेकिन उस पर भी अनुभव व अहसास को नहीं चमकाया है।
जो स्वतः है निरन्तर है वह  किसी भाषा, पन्थ,जाति, कर्मकांड से परे है।
रूहानी यज्ञ/अभियान हाड़ मास, भाषा, पन्थ, जाति, कर्मकांड आदि से आगे भी है। और भी आगे... और भी आगे... मुरारी या हुसैन या हुसैन क्या गाने लगे व्यास गद्दी से कि लोगों के सनातन की जड़ें हिल गईं, नहीं सनातन की जड़ें नहीं।उनके भ्रम की.....

कबीरा पुण्य सदन




गुरुवार, 14 मई 2020

85-90 प्रतिशत व्यक्ति बेहतर इलाज बेहतर शिक्षा से बंचित!उनका जीवन जीना मुश्किल:::अशोकबिन्दु भईया

देश की दिशा व दशा!
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शहर में नब्बे प्रतिशत सिर्फ जिंदा है।दस प्रतिशत की चमक ही शहर है।ऐसा ही कुछ गांवों में है।
गांव व शहर में दो-तीन परिवार की ही चलती है।इस लिए हम वर्तमान तन्त्र व व्यवस्था को जनतन्त्र नहीं मानते।सामन्तवाद, जातिवाद, मजहब वाद ,मफियातन्त्र, धन बल आदिआदि मानते हैं।

देश में जनतंत्र तभी होगा जब हर व्यक्ति व हर परिवार सिस्टम का हिस्सा होगा। सरकार व व्यक्ति/परिवार के बीच अन्य कोई न होगा।होगा तो वह सिर्फ सेवक,जनप्रतिनिधि।

देश के अंदर ऐसे दृश्य देखने को मिल रहे है जो इंसानियत,सामजिकता,देश भक्ति के लिए कलंक है।
कूड़े के ढेर से भूख की तृप्ति तलाशते अब भी मिल जाते है। ऊंची ऊंची कुछ हवेलियां भी देखी है,जो चमक में तो है लेकिन राशन कार्ड के बल पर भूख मिटा रही हैं।या राशन कार्ड खत्म तो भूख मिटाने में भी दिक्कत!!
समीकरण अनेक हैं जो गड़बड़ हैं। 85-90 प्रतिशत व्यक्ति बेहतर इलाज, बेहतर शिक्षा से वंचित हैं।

बार बार जयगुरुदेव/सन्त तुलसी दास की बातें याद आ जाती हैं-देश के हालात ऐसे हो जाएंगे जैसे कुत्ते के गले में फंसी हड्डी।दिल्ली की गद्दी देश का भला नहीं कर सकती।
देश!क्या है देश?देश स्वयं क्या है?यदि उसके मनुष्यों, जीवजंतुओं, वनस्पतियों को निकाल दो।देश पूंजीपति की फैक्ट्रियां नहीं,सड़के,इमारते नहीं।मनुष्य, जीवजंतुओं, वनस्पतियों के संरक्षण के बिना सब निरर्थक।

दीनदयाल उपाध्याय क्या कहते हैं?जब तक नीचे पायदान के व्यक्ति का जीवन मुस्कुराते हुए आगे के पायदान पर जाने के अवसर नहीं पाता ,सब कुछ निरर्थक। लोहिया कहते है-जब तक वार्ड/गांव में अकेला लाचार व्यक्ति भी सीना तान कर आत्म निर्भर हो जीवन जीना शुरू नहीं करता तबतक  सुप्रबन्धन नहीं। महात्मा गांधी कहते हैं- वातावरण ऐसा होना चाहिए कि कोई गुंडा मनमानी न कर सके।

सोमवार, 11 मई 2020

गीता व वेद की बातों के आधार पर चलने वाले व वर्तमान में हिन्दू की सोंच में फर्क नहीं क्या???अशोकबिन्दु

वेद व गीता में जो लिखा है, उसके आधार पर जब हम बोलते है, चलने की कोशिश करते हैं तो हिन्दू ही हमारे विरोध में खड़े होते हैं?


मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९१)
अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )।


किसी हिन्दू की सोच हमें सनातन नहीं दिखती

हमने तो अध्ययन से यही जाना है   कि सनातन है आत्मा/परम् आत्मा। अपने अंदर की आत्मा की ओर अपने मन को मोड़ना जरूरी है। धर्म,ईश्वरता व आध्यत्म का सम्बन्ध कर्म कांड ,जातियों, धर्म स्थल आदि से नहीं वरन हमारे नजरिया, रुझान, कर्तव्य आदिआदि से है। अपने को पहचाने बिना सब निरर्थक।सभी ग्रंथो का हेतु है आत्म प्रबन्धन व समाज प्रबन्धन। आत्मा से ही परम आत्मा की यात्रा शुरू होती है।मार्टिन लूथर ने कहा था हम पुरोहितों, धर्म स्थलों की क्यों सुने?हमें ग्रंथो व ईश्वर से मतलब है।

सोमवार, 4 मई 2020

फतेहगढ़ वाले श्रीरामचन्द्र जी जिनकी याद में स्थापित श्रीरामचन्द्र मिशन के गुरु हजरत क़िब्ला मौलबी फ़ज़्ल अहमद खां साहब रायपुरी को नमन!

https://youtu.be/0Tiyc51PkvA


हजरत जनाब मौलवी फज्ल अहमद खां साहब
जन्म : 1857
समाधि : 1908

हम सब लोग हजरत जनाब शाह फज्ल अहमद खां साहब रायपुरी के प्रति कृतज्ञ है कि उन्होंने अपनी असीम व उदार आध्यात्मिक चेतना के द्वारा नक्श्बंदिया सिलसिले की अति गुह्म व अनमोल आध्यात्मिक विद्या को मुसलमानों के अतिरिक्त अन्य धर्मं के लोगो को बिना धर्म परिवर्तन कराए फैजयाब करने का अत्यंत साहसिक कदम उठाया | यह एक क्रांतिकारी घटना थी | इस महान पाक हस्ती ने विश्व के सम्पूर्ण मानव समाज के लिए महान उपकार का कार्य किया | उन्होंने धर्म की ऐसी नूतन व सर्वग्राही परिभाषा व संकल्पना की कि जिसके आधार पर धर्मं को दो हिस्सों में  शरीयत व रूहानियत में बांटा | शरीयत (कर्मकाण्ड) का स्वरुप  निर्धारित है, पर रूहानियत (आध्यात्म) प्राप्त करने के लिए धर्म का कोई बंधन नहीं है | हजरत ने यह भी समझाया कि यह सूफी संतो की विद्या, प्राचीन हिन्दू आर्य ऋषि मुनियों की विद्या है जो अब पुनः उन्ही को वापस हो रही है |

आपके गुरुदेव ने एक बार आपको अपने गुरुदेव (श्रीमान कुतुब साहब) का बतलाया हुआ यह रहस्य भी बतलाया था कि ”तुम्हारे पास एक दिन एक लड़का आयेगा, उससे इस आध्यात्म का बहुत-बहुत प्रचार होगा, परन्तु मेरे पास तो ऐसा कोई लड़का नहीं आया, संभवतः (शायद) उन्होंने तुम्हे मुझमे देखा होगा| अब तुम इस बात का ध्यान रखना और इस आज्ञा का पालन अक्षःरशः करना|”

आप जिला फर्रुखाबाद में कायमगंज से चार मील दूर रायपुर गाव के निवासी थे | आपको आपके गुरदेव ने अपना पुत्र बना लिया था व गुरुदेव के साथ ही रहते थे | गुरुमाता भी अपने अंतिम समय तक आपके ही साथ रही और आपने गुरुमाता की बहुत सेवा की | आप अपने गुरुदेव की सेवा में २२ वर्ष रहे उन्होंने ब्रह्म विद्या से मालामाल कर दिया |अंत समय में गुरुदेव ने भविष्यवाणी की कि तुम्हारे पास एक हिन्दू लड़का आएगा, उसका ख़ास ख्याल रखना | उस लड़के से ब्रह्म विद्या का प्रचार हिन्दुओ में खूब होगा | ये लड़के स्वनामधन्य महात्मा रामचन्द्रजी साहब (फतेहगढ़) थे| आपने अपना ख़ास खलीफा पूज्य महात्मा जी (महात्मा रामचन्द्र जी साहब) को बनाया व साथ ही पूर्ण आचार्य पदवी अपने छोटे गुरु भाई पूज्य मौलवी अब्दुल गनी खां साहब को प्रदान की|

आपका जन्म सन् 1857 में हुआ था | आपका जीवन करामातो से भरा है | सदाचार आपका परम सीमा पर था | सब्र व संतोष की आप साक्षात मूर्ति थे | आपके गुरुदेव ने किसी और को ख़ास खलीफा नहीं बनाया | कहा, तुम जैसा एक शेर हजारो से अच्छा है | आपकी आत्मिक धारा (तवज्जोह) हजरत ख्वाज़ा बाकी बिल्ला साहब (रह) की तवज्जोह से हूबहू मिलती हुई थी |

कोई आपसे धर्म परिवर्तन करने के लिए कहता तो उन्हें बहुत बुरा लगता | कहते “अब तुम मेरे काम के नहीं रहे | मैं अपनी फकीरी पर धब्बा नहीं लगने दूंगा | तुम जिस धर्म में हो उसी में रहो और आध्यात्म प्राप्त (रूहानियत हासिल) करो |”

आप न किसी से पैर छुआते थे न किसी से भेंट लेते थे बल्कि अपने शिष्यों के पैर दबाते | अक्सर कई दिनों तक फाका (उपवास) रहता | फिर अगर कहीं से पैसे भी आते तो बाँट देते | अभ्यास इतना करते कि एक बोतल चमेली का तेल कुछ दिन में ही सर में जज्ब हो जाता | एक बार आपने दवाखाना खोला व शीशियों में कुएँ का पानी भर दिया  | उन दवाओ को पीकर, जो आया उसके असाध्य रोग ठीक हो गए | फिर जो कमाई होती उसका सिर्फ चालीसवां हिस्सा रख कर, सब बांट देते  | फिर कुछ दिन बाद शोहरत ज्यादा होने से, दवाखाना बंद कर दिया |

एक रईस के सुपुत्र आपके पास आते थे | कुछ दिनों बाद निवेदन किया मैं एक स्त्री से शादी करना चाहता हूँ | आप मुझे कोई ऐसा मंत्र बता दीजिये जिससे वह मुझसे शादी करने को तैयार हो जाए | उस समय आप चुप रह गए | बाद में एक दिन चांदनी रात थी, सत्संगी भाई बैठे हुए थे व रईस के सुपुत्र भी बैठे थे | हजरत साहब बहुत साफ़ सफ़ेद कपडे पहने हुए थे, इत्र लगा हुआ था, चमेली बेला के फूल पास में रखे थे,अचानक उन सुपुत्र को संबोधित करके बोले “बेटे हमारी तरफ देखो, क्या वह औरत हमसे भी ज्यादा खूबसूरत है ?” आप उस समय बहुत खूबसूरत दिखाई पड़ते थे | उन साहबज़ादे ने आपकी तरफ देखा तो देखते रह गए, मानो पत्थर की कोई मूर्ति हो | उस रोज़ से हालात बदल गए व स्त्री की मोहब्बत के बदले में गुरु महाराज की मोहब्बत ने घर कर लिया |

एक शाह साहब ने कुछ सिद्धिय हासिल कर ली थी | एक बार हजरत साहब फर्रुखाबाद से कानपुर जा रहे थे | शाह साहब जब भी ट्रेन रूकती हर स्टेशन पर प्रकट हो जाते हुक्का पेश करते और हजरत साहब से बातें करते मानो बतला रहे हो कि मै यह चमत्कार जानता हूँ | ऐसे ही तीन स्टेशन तक वह बराबर आते रहे | आखिर हुज़ूर महाराज ने कहा – “शाह साहब यह क्या खेल दिखा रहे हो ? यह हरकत फकीरों को शोभा नहीं देती | अब आप अगले स्टेशन पर न आ सकेंगे |” अगले स्टेशन पर शाह साहब के दर्शन नहीं हुए उनकी यह सिद्धि हमेशा के लिए जाती रही |

आपकी करामातो का कहाँ तक वर्णन किया जाए | आपकी ज़िन्दगी ही करामातो और बरकात की ज़िन्दगी थी | जा काम था वह करामात था | जहाँ जाते थे वहां बार्कर फैल जाती थी |

आप एक नज़र में शिष्यों को आध्यात्म की ऊँची से ऊँची अवस्थाओं में ले जाते थे | जब आपने अपने शिष्य महात्मा रामचन्द्र जी महाराज (फतेहगढ़) को उत्तराधिकारी बनाया तो एक जलसा किया जिसमे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, नानक पंथी, कबीर पंथी आदि सभी बुलाये और कहा कि मैंने सारी उम्र में यह दरख़्त (पेड़) तैयार किया है | आप इस उत्तराधिकारी की पुष्टि करें | फिर महात्मा जी को कहा कि इन सब साहेबान को ध्यान कराएँ | ऐसा कहा जाता है कि उस सभा में अजीब कैफियत थी जो फिर कभी देखने में नहीं आई | सभी वंश के बुज़ुर्ग उस सभा में बैठें नज़र आते थे | सब जगह नूर ही नूर छाया हुआ था और अजीब कशिश व आनंद था | आंखो में आंसू जारी थे और अजीब हालात सोजो गुदाज़ (द्रवित होकर रोने) की थी | बाद में सभी ने कहा, “क्या नमूना तैयार किया है | और इन्होने क्या कमाल हासिल किया है | आपका शिष्य ईश्वर में पूर्ण रूप से लय ही नहीं बल्कि इनकी सतपद में पूर्ण स्तिथि भी है |”

जब आपकी उम्र 69 वर्ष की हो गयी तो कहते थे मै इस जिस्म की कैद से आज़ाद होना चाहता हूँ उसके बाद में आप सब की ज्यादा मदद कर सकूँगा | आप कहते थे दुनिया में कोई ऐसा कोई काम नहीं है जिसे हम हिम्मत करे और न हो | जब आपकी माताजी बहुत वृद्ध हो गईं व कहने लगी बेटा फर्रुखाबाद 25 मील दूर है व हमें खरीददारी को जाना पड़ता है बहुत समय लगता है तो आपने कोई मंत्र माताजी को बता दिया तो वे आधे घंटे में फर्रुखाबाद से खरीददारी करके वापस आ जाया करती थीं | वे बहुओं आदि के लिए चूड़ियाँ वगैराह खरीद लाती थीं |

आपका कश्फ (त्रिकालदर्शिता) विशेष थी | आप अपने शिष्यों के घर जाते तो बता देते कि शिष्य कहाँ पर, कितने बजे बैठ कर क्या पूजा करते है |

सन् 1908 में जब आपका अंत समय आया तो आप बराबर बताते जाते कि “अब हमारी आत्मा पैर से निकल गई, अब जिस्म के निचले हिस्से से, अब हाथों से,” फिर फरमाया “अब सभी मौजूद लोग आंख बंद करके परमात्मा का ध्यान करो और हमारी आखिरत (मोक्ष) के वास्ते दुआ करो |” सब परमात्मा का ध्यान करने लगे तो देखा शरीर मौजूद है व आत्मा परमपिता परमात्मा की गोद में वापस लय हो चुकी है |

समाधि – आपकी समाधि कायमगंज से 5 मील दूर रायपुर गाँव में ईदगाह के पास है | आपके पौत्र हजरत मंजूर अहमद खां साहब ने बड़ी लगन से समाधि पर कमरा बना दिया है | जहाँ गुड फ्राइडे के तीसरे दिन बाद भंडारा होता है | यह ऐसा स्थान है जहाँ बैठने से जन्मो जन्मो के पाप धुल जाते है व अपूर्व कृपा कि अनुभूति होती है |


रविवार, 3 मई 2020

आर्य या सुर से ऊपर भी एक असुर स्थिति:::अशोकबिन्दु भईया

आर्य व आर्यत्व बनाम सुर व सुरत्व!!
---------------------------------------------कबीरा पुण्य सदन/अशोकबिन्दु
हम अपने जीवन के प्रारंभिक पड़ाव में आर्य समाज बीसलपुर व #शांतिकुंज से संबद्ध रहे। ये हमारे लिए परिवार व स्कूल के बाद समाज की तीसरी इकाई रहा समाजीकरण के लिए,#मानवता के लिए,#धर्म के लिए,#आध्यत्म के लिए,अपने #आत्मिकविकास के लिए जहां से हम अपने अस्तित्व को समाज में अहसास कराते रह सके व हम स्वयं अपने अस्तित्व के अहसास के लिए कार्य कर सकें।जाति व्यवस्था, मजहब व्यवस्था से ऊपर उठ कर कार्य कर सके। लेकिन हम अपने अंदर असन्तुष्टि महसूस करते रहे।हम वह स्तर जरूर पा गए थे जहां पर हम जातिवादीहीन पुरोहितबाद के साथ खड़े रह सकते थे।लेकिन हम जातिवादी,मजहब वादी लोगों से यहां भी खड़े थे। यहाँ पर हम अपने पिता जी की भांति कुछ तो अंधविश्वासों से मुक्त तो हो ही रहे थे।जिस तरह पिता जी के द्वारा अपने पैतृक स्थान छोड़ने से वे अनेक जातीय, मजहबी अंधविश्वासों व कर्मकांडों से मुक्त हुए थे उसी तरह हम भी पैतृक गांव व नगर स्थान से दूर निकल जाने से पिताजी के से भी दो कदम आगे निकल गये।अपने व चेतना के स्तर को आगे बढ़ाने की अनन्त सम्भावनाएं हैं, जहां #निरन्तरता है, #विकासशीलता है। विकसितता नहीं। जहां विकसितता की समझ है वहां तो एक तालाब की तरह सन्ढाध है। गुलामी की जंजीरे यूं ही तुरंन्त नहीं छूटने वाली।उसके लिए पीढ़ियों को लगना पड़ता है, लगे रहना पड़ता है।हर कदम पर त्याग चाहिए होता है।#भूतगामी व #पितरगामी जरूरी नहीं आगे भी हर कदम पर आपके साथ हों।

#आर्य का अर्थ #श्रेष्ठ से लगाया जाता है।#देवत्व से लगाया जाता है न कि भूतगामी व पितरगामी बने रहने से। वेद कहते हैं-मनुष्य बनो।इसका मतलब है कि हम अभी मनुष्य नहीं हैं।#वेद आगे कहते है, मनुष्य होने के बाद देव मनुष्य बनो अर्थात  देवत्व को धारण करो।दिव्यताओं को धारण करो।सन्त परम्परा में पहुंचो।#धर्म से आध्यत्म में पहुंचो।यहां पर हम गीता में श्री कृष्ण के माध्यम से #महाकाल के इन दी सन्देशों की ओर जाना चाहेंगे कि-हे #अर्जुन(अनुरागी)!दुनिया के धर्मों जातियों को छोड़ मेरी शरण आ। दूसरा-हे अर्जुन!तू भूत को भजेगा तो बहुत को प्राप्त होगा, पितर को भजेगा तो पितर को प्राप्त होगा।मुझे भजेगा तो मुझे प्राप्त होगा।

"परिवर्तन को स्वीकार करने का माप ही #बुद्धिमत्ता की माप है"-ये है विकासशीलता, निरन्तरता न कि रुके पानी की तरह विकसितता।इसलिए आचार्य है-मृत्यु!#योग का पहला अंग '#यम'-मृत्यु!त्याग व सन्यास का मतलब है-मृत्यु! बाबू जी।महाराज भी कहते हैं-#अनन्त से पहले है-प्रलय! ये मृत्यु ये प्रलय क्या है?हमारी #चेतना/समझ/नजरिया जिस स्तर पर है, उसमें पक जाना और पक कर आगे के स्तर पर पहुंच जाना।यहाँ पूर्णता नहीं, विकसितता नहीं वरन निरन्तरता। ऐसे में आर्य होना क्या है?आर्यत्व क्या है?हमने अपने जीवन के प्रारंभिक चरण में ही महसूस कर लिया कि सैद्धान्तिक आर्यसमाज नहीं मिशन विचार क्रांती शान्तिकुंज हरिद्वार नहीं अर्थात वहाँ जो लोग है वे जातिवादीविहीन पुरोहितबाद में जरूर खड़े हैं लेकिन जातिवाद मजहबवाद से मुक्त नहीं हैं।अपने बेटे बेटियों की शादी में जातिवाद मजहबवाद ही फैलाए हैं।
पैतृक स्थानों को त्याग कर हमें  इस चीज इसे छुटकारा मिलता, हम जैसा चाहते थे।वैसा जीवन जी सकते थे। हमने कोई भेद नहीं रखा कि सामने चमार/मेहतर है या #ब्राह्मण?रहे हम सदा तथाकथित ब्राह्मणों व क्षत्रियों के  बीच ताकि हम अध्ययन कर सकें इनमें ऐसा कौन सा आचरण है जो ये अपने को जन्मजात उच्च मानते है? हमारी आंतरिक कोशिस चलती रही-अपने चेतना व समझ को आगे बढ़ाने की। पैतृक स्थानों को त्याग हमें आगे बढ़ने का अवसर मिला। हम आर्य समाज, शांति कुंज ,#विद्याभारती, संघ आदि संस्थाओं के अलावा अन्य संस्थाओं को भी समझने का अवसर मिला लेकिन शांति व संतुष्टि नहीं।हम वर्तमान में #श्रीरामचन्द्रमिशन & #heartfulness के माध्यम से वर्तमान वैश्विक गुरु श्री #कमलेशडीपटेल #दाजी से सम्बद्ध हैं। जिस बीच हम जातिवाद मुक्त मजहब मुक्त अन्य अंधविश्वास मुक्त जीवन जी सकते हैं।लेकिन यहाँ भी ऐसे लोग नहीं है जो जातिवाद विहीन व मजहबवाद विहीन जीवन जीते हों।कुछ अपवादों को छोंड़।लेकिन तब भी ये तो है कि हमारी चेतना व समझ को वैसा आगे बढ़ने का अबसर है, जैसा हम पसन्द करते हैं। हम #सहजमार्ग अंतर्गत #राजयोग  से सम्बद्ध हैं।जहां सन्तों  की वाणियों के आधार पर आचरण करने के अबसर हैं। राष्ट्रभक्त बाबा रामदेव भी कह चुके हैं अन्य भी कह चुके है-यहाँ खामोश आध्यत्मिक क्रांति घटित हो रही है। जिधर कभी पूरी दुनिया को आना होता है।जहां से ही सबको भेद मुक्त हो देखा जा सकता है। सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर। और हम आर्य व देवत्व, सुर व सुरत्व से आगे भी छलांग लगा सकते हैं। उस #असुर की ओर छलांग लगा सकते हैं जो सुर व आर्य से भी ऊपर है।जिसमें सब समाए हैं।सुर से नीचे का भी असुर भी।