Powered By Blogger

रविवार, 25 जुलाई 2010

मुंशी प्रेम चन्द्र : स���माजिकता के दंश का चित्रकार

31 जुलाई को साहित्यकार प्रेम चन्द्र की जयन्ती है.मैँ अपनी सोँच के मुताबिक सन्त कबीर,प्रेमचन्द्र,धुमिल,आदि ' सामाजिकता के दंश' के चित्रण मेँ महत्वपूर्ण स्थान रहा है.


मुंशी प्रेमचन्द्र का साहित्य व्यक्ति के विकारयुक्त सामाजिकता के दंशोँ का यथार्थ चित्रण है.उनका साहित्य समाज मेँ उपेक्षित -दलित- नीच माने जाने वाली जातियोँ,दबे कुचले व्यक्तियोँ,आदि का यथार्थ है.हालांकि सवर्ण वर्ग के कुछ लेखकोँ ज्योति प्रसाद निर्मल,ठाकुर श्रीनाथ सिँह,आदि ने जातिवादि मानसिकता के साथ प्रेम चन्द्र को 'घृणा का प्रचारक' कह कर आलोचना की . डा . धर्मवीर 'प्रेमचंद्र की नीली आँखे' मेँ लिखते हैँ कि'प्रेमचन्द्र ने रंगभूमि का पाठ तैयार ही इसलिए किया था कि अपने समय के अछूतोँ के नेतृत्व से लड़ा जा सके'. राजीव रंजन गिरी हालांकि कहते हैँ, कुछ हद तक ठीक कहते है कि अस्मितावादी विचार या समूह का लक्ष्य मुक्तिकामना है. ऐसा न हो कि अपनी अस्मिता को उभारक र,ताकत अर्जित कर एक नया वृहद आख्यान रच लिया जाए और इस ने आख्यान मेँ दूसरी अस्मिताएं दब जाएं.लिहाजा लोकतांत्रिक मूल्योँ की कसौटी पर अस्मितावादी विचारोँ की जांच होनी चाहिए.


अन्य अस्मितावादी ......?!



इस वक्त मात्र एक विषय'छुआ छूत ' का लेँ,उत्तर प्रदेश के कुछ जिलोँ मेँ प्रथमिक विद्यालयोँ मेँ दलित रसोईयोँ के द्वारा भोजन पकाने का विषय है.दलित रसोईयोँ के द्वारा भोजन पकाने का विरोध क्या गैर संवैधानिक व गैर लोकतान्त्रिक नहीँ है.रसोईये पद पर आरक्षण -गैरआरक्षण की बात अलग की है.लोकतन्त्र के सम्मान का मतलब यह तो नहीँ कि विकारोँ का समर्थन करने वालोँ के पक्ष मे जा कर संवैधानिक मूल्योँ को दबा दिया जाये?

कुरीतियोँ के खिलाफ मुहिम निरन्तर जारी रखने की आवश्यकता है.क्योँ न कुरीतियोँ के समर्थन मेँ सौ प्रतिशत समाज खड़ा हो लेकिन कुरीतियोँ के खिलाफ निरन्तर दिवानगी,बलिदान,समर्पण ,आदि की आवश्यकता है.हाँ,यह भी सत्य है सारा का सारा समाज शासन प्रशासन तन्त्र धर्म से विचलित है.ऐसे मेँ गीता की बातेँ अब भी प्रासांगिक है.

सामाजिक विषमताओँ के चित्रण मेँ मुंशी प्रेमचन्द्र स्मरणीय रहेँगे.

ASHOK KUMAR VERMA 'BINDU'

AADARSH INTER COLLEGE,

MEERANPUR KATARA,

SHAHAJAHANPUR,
U.P.(INDIA)

ये अभिभावक:बच्चोँ के ��िए फुर्सत नहीँ

रोशन जहाँ व परवेज अली ,जो कि दोनोँ भाई बहिन हैँ तथा दोनोँ एक ही क्लास मेँ पढ़ते हैँ.इस सत्र भी मैँ उनका क्लासटीचर हूँ ,पिछले वर्ष मैँ उनका क्लासटीचर था ही.कुछ अधिभावक ऐसे होते हैँ जिन्हेँ अपने बच्चोँ के लिए फुर्सत नहीँ होती.ऐसे अभिभावकोँ मेँ से एक हैँ-रोशन जहाँ व परवेज अली के अभिभावक.वे बड़े बिजी हैँ,बच्चोँ को समय देने के लिए फुर्सत नहीँ.

मार्केट मेँ 5 रुपये के आलू खरीदते वक्त सब्जीवाला यदि एक आलू खराब तौल देता है तो बौखला पड़ते हैँ लेकिन अपने बच्चोँ पर प्रति माह हजारोँ रुपये खर्च करने के बाबजूद यह फुर्सत नहीँ कि हमारे बच्चे क्या हो रहे हैँ?बच्चोँ के मन का रुझान क्या हो रहा है ?बच्चोँ से उम्मीदेँ तो बड़ी रखते हैँ लेकिन बच्चोँ के लिए समय नहीँ.जो है भी वह सिर्फ भाषणबाजी या फिर बौखलाहट का प्रदर्शन एवं मारपीट.बस,इतने से ही सन्तुष्ट कि हम इतना रुपये खर्च करते हैँ उतना रुपये खर्च करते हैँ.


कक्षा 12 का एक छात्र है-विमल राजा.उसके अभिभावक एक दिन कालेज मेँ आये.उसके क्लासटीचर बीडी मिश्रा के सामने बोले कि मेरा बालक तो किसी काम का नहीँ है.मिश्रा जी बोले कि आप का बालक सीधा है.अभिभावक बोले कि किसी काम मेँ तो होता.मुझे पता है कि वह दस प्रतिशत भी अंक पाने की योग्यता नहीँ रखता.मैँ बोल दिया कि व्यक्ति के विकास मेँ व्यक्ति के मन की दिशा दशा महत्वपूर्ण है,मन का रुझान महत्वपूर्ण है.अभिभावक बोले कि हमेँ तो किसी के प्रति भी उसका रुझान नहीँ मालूम पड़ता.मेरे मन ही मन मेँ काफी कुछ आ गया,लेकिन कहा व्यक्ति के स्तर के आधार पर जाता है.
संकोचवश मेँ धीरे से बोला कि तो क्या मन से शून्य है या अस्थिर है.



हम देख रहे हैँ कि जो अपने बच्चोँ के साथ अपना समय लगाते हैँ,आदर्श वातावरण देते हैँ ,मित्रवत व्यवहार भी रखते हैँ,आदि क्योँ न भौतिक संसाधन कम होँ.जो अभिभावक या अध्यापक सोँचते हैँ कि हम बच्चोँ को पढ़ाते हैं ,वे अज्ञानता मेँ हैँ.यदि ऐसा होता तो क्योँ अनेक विद्यार्थी संसाधनोँ के बाबजूद शिक्षा अधूरी छोड़ देते हैँ.कुछ ऐसे अभिभावकोँ से सामना होता है जो कहते है कि मैं इतना इतना रुपया खर्च करता हूँ,इतनी इतनी ट्यूशन लगवा रखी हैँ;तब भी मेरा बच्चा पढ़ता नहीँ है.भाई,पढ़ाई के लिए मानसिक तैयारी भी तो चाहिए.आज 90प्रतिशत विद्यार्थी आधुनिकता के सामने असफल है ही,मजदूर-चाट खोँन्चे वालोँ के स्तर के भी नहीँ हैँ.यदि उन्हेँ संसाधनोँ से मुक्त कर घर से बाहर धकेल दिया जाए तो ये लेबर स्तर के भी नहीँ होँ.धन्य था -मैकाले.?और आज के काले मैकाले ?! ....और धन्य 'सर्व शिक्षा अभियान'. ..सिर्फ कागजी आंकड़े ठीक कर लो भाई?!कड़ुवा सच से कब तक मुँह फेरते रहोगे?हम जैसे पागलोँ का क्या?बकवास करते करते एक दिन दुनिया से चले जाएँगे.अरे, हम जैसोँ का जीवन क्या जीवन?क्योँ न हम खिलखिलाते मुस्कुराते दुनिया से जाएँ.जीवन तो उसका है जिसके साथ लोग खड़े हैँ,जो धन दौलत गाड़ी बंगला आदि रखते है.




लेकिन मेरे साथ माँ है,जननी-मातृ भूमि-गाय!और गीता का सन्देश!


खैर!


अभिभावक क्या चाहते हैँ?वे चाहते तो है कि हमारे बच्चे 'कुछ 'बन जाएँ लेकिन यहाँ 'कुछ'से मतलब कुछ ही रह जाता है.नौकरी...शादी... धन दौलत.....लेकिन दिशा दशा?!अशान्ति...असन्तुष्टि....अवसाद...? हूँ !

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

बुजुर्गोँ की उपेक्षा : बुजुर्गोँ का पिछला स���य

पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर बुजुर्गोँ के सामने प्रमुख समस्या बन कर आ रही है - 'बुजुर्गो की उपेक्षा' .जिस पर वर्तमान मेँ मेरा चिन्तन जारी है.बुजुर्गोँ की उपेक्षा के कारणोँ मेँ से एक प्रमुख कारण है-' बुजुर्गोँ का पिछला समय '.आज वे बुजुर्ग अपने जिन बच्चोँ को दोषी मानते हैँ,पिछले दिनोँ उन बच्चोँ के प्रति कैसा व्यवहार किया गया ?इस पर मैने कुछ परिवारोँ के अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष पर जाने का प्रत्यन किया है.
जिन परिवारोँ का नेतृत्व खुशमिजाज व शान्ति पूर्ण वातावरण बनाने का हरदम रहा था ,परिवार के प्रति सदस्य से भावनाओँ का शेयर करना था,एक दूसरे के दुख दर्द,समस्याओँ मेँ हमदर्दी व समर्पण का प्रदर्शन था, समय समय पर डाँट फटकार व स्नेह प्रेम भाव का प्रदर्शन था, एक दूसरे की आवश्यकताओँ व भविष्य के प्रति मदद थी,गैर परिजनोँ के प्रति सेवा सहयोग व त्याग भाव का प्रदर्शन रहा था,जहाँ बड़ोँ के द्वारा बुजुर्गोँ की सेवा करते देखने से छोटोँ के बीच सकारात्मक सन्देश था,आदि; तो ऐसे परिवारोँ मैने शान्तिपूर्ण वातावरण देखा ही,बुजुर्गोँ का सम्मान भी देखा.क्योँ न ऐसे परिवारोँ मेँ आमदनी के संसाधन सामान्य से भी कम रहे होँ.



दूसरी ओर कुछ परिवार हम ऐसे भी देखते आये हैँ जिनके नेतृत्व मेँ निरुत्साह,खिन्नता,कर्कशवाणी,निज स्वार्थ,दबंगता,अभिव्यक्ति अनादर,भावात्मक सम्बन्धोँ का अभाव, एक दूसरे को असन्तुष्ट रखना,वातारण खुशमिजाज व शान्तिपूर्ण न रख पाना,किसी के बात का जबाव शान्तिपूर्ण ढंग से न दे पाना,आदि का होना पाया जाता है.



परिवार का मुखिया होने का मतलब यह नहीँ कि सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए जीना या उसके अनुरूप जीने वालोँ के पक्ष मेँ रहना तथा अन्य परिजनोँ को उपेक्षित कर देना तथा उन पर कमेन्टस कसते रहना .तब तो अपनी ढपली अपना राग.....?!समूह मेँ रहने की योग्यताओँ शर्तोँ का अभाव ?!जब बुजुर्ग जवान थे तब उनकी ओर से बच्चोँ को जो मैसेज मिला -जो सीख मिली, वह यह कि उसी से व्यवहार मधुर रखो जिससे आप का काम बने. अपना काम बनता भाड़ मेँ जाए जनता(परिजन)....?! घर के बाहर मुखिया अपने परिजनोँ की आलोचना कर स्वयं अपने घर को कमजोर करते हैँ .सम्बन्धियोँ की प्रशंसा मेँ अपने पास शब्द नहीँ रखते. त्याग -संयम- समर्पण- आदि की यहाँ भी जरुरत होती है , परिजनोँ की उम्मीदोँ पर खरा उतरना भी आवश्यक है.किसी ने कहा है कि माता पिता के बच्चो के प्रति कर्त्तव्य हर हालत मेँ अनिवार्य हैँ,बच्चोँ के माता पिता के प्रति कर्त्तव्य उनके संस्कारोँ पर निर्भर करते हैँ.अभी तक तुम परिजनोँ को घुटन ,निरूत्साह,द्वेषभावना ,मतभेद,निष्ठुरता,आदि मेँ रह कर व्यवहार करते रहे. अब जब तुम बुजुर्ग हो तो कहते हो बच्चे अब हमारे काम नहीँ आते?जब आप जवान थे तो काम मेँ थे. अपनी धुन मेँ थे. अरे!बच्चोँ की क्या समस्याएँ ?बच्चे खामोश हो घुट घुट जीते रहे.तुम्हारे प्रति अब वे खिन्नता मेँ जीने लगे है. बबूल बो के आम की उम्मीद कैसे रखो?तुम जब खिन्नता, द्वेष भावना, निरूत्साह, आदि परोसते रहे तो.....?!बच्चे तुमने पैदा थोड़े किये थे ,वे तो आ टपके. ओशो ने ठीक ही कहा है कि नयी पीढ़ी के स्वागत मेँ हमारी तैयारी क्या होती है? वे क्या मूर्ख थे जिन्होँने 'गर्भाधान' शब्द के साथ 'संस्कार' शब्द जोड़ कर 'गर्भाधानसंस्कार' अवधारणा की उत्पत्ति की.शादी व परिवार का उद्देश्य धर्म बताया .काम व अर्थ का परिणाम क्या होता है?तुम तब भी उम्मीद रखते थे अब भी उम्मीद रखते हो.तुम यही चाहते रहे थे कि हम से कोई उम्मीद न रखे.ऐसा कैसे हो सकता था?हर व्यक्ति का समय होता है.चलो आज बुजुर्ग हो कोई बात नहीँ,इससे पहले बच्चोँ के स्वास्थ्य का भी ख्याल नहीँ रखा.बच्चोँ के इलाज के लिए धन व समय नहीँ था. गाँव मेँ जा बुजुर्गोँ को देखने का समय न था . शहर मेँ इमारतोँ को खड़ा करने के लिए धन व समय था.जब तुम को बच्चोँ व बुजुर्गोँ कुशल क्षेम के लिए समय व धन न था तो आज तुम्हारे बच्चे तुम्हारे पथ पर है तो क्या गलत?


कुल मिला कर मैँ नई पीढ़ी के लिए मैँ पुरानी पीढ़ी को ही दोषी मानता हूँ.वह ही आज अपनी पुरानी संस्कृति का संवाहक नहीँ है.वैदिक संस्कृति मेँ हर समस्या का निदान है.

किसी ने ठीक ही कहा है-

रोज घुट घुट मर कर जिन्दा हैँ

अपनोँ के बीच ही
अकेलापन सहते हैँ

उनका मलहम भी दर्द देते हैँ

इससे तो अच्छी अनजान गलियाँ हैँ

अपनोँ से अच्छे पराये लगते हैँ.

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

सर्व शिक्षा अभियान मेँ दंश:छुआ छूत

नई पीढ़ी को दोष दिए जा रहे हैँ लेकिन नई पीढ़ी को मिलता क्या है विरासत मेँ?

पुरानी पीढ़ी से जो मिलता है वह सब ठीक ही नहीँ है.उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद,कानपुर देहात,औरेया और शाहजहाँपुर मेँ एक के बाद एक प्रथमिक विद्यालयोँ मेँ दलित रसोईयोँ द्वारा भोजन बनाने का बहिष्कार किया जा रहा है.मासूम बच्चोँ को यह सिखाने का काम कौन कर रहा है कि दलित रसोईयोँ के द्वारा बनाये भोजन को न खायेँ.दलित रसोईया तो पहले से ही खाना पकाते आये थे लेकिन अब विरोध क्योँ?समाज व धर्म के ठेकेदार कहाँ सो रहे हैँ?विहिप,बजरंगदल,संघ आदि जैसे संगठन कहाँ सो रहे हैँ?क्या वे भी इस बहिष्कार के समर्थन मेँ हैँ या फिर तटस्थ हैँ तो क्योँ?


विद्यालय तो ज्ञान केन्द्र हैँ. ज्ञान केन्द्र का मतलब यह नहीँ कि वहाँ समाज के परम्परागत अन्धविश्वास,कूपमण्डूकता ,आदि को बढ़ावा दिया जाये.वहाँ से तो सार्वभौमिक ज्ञान की ओर दिशा दशा मिलनी चाहिए.शिक्षा जगत से जुड़े मुझे अनेक वर्ष हो चुके हैँ. अत: हर जाति वर्ग के बच्चोँ के सम्पर्क मेँ रहा हूँ.बच्चे तो बच्चे होते हैँ, कोरे कागज के समान होता है उनका मन लेकिन....?!मत मेँ जीना कोई दोष नही लेकिन मतभेदोँ मेँ जीना ठीक नहीँ और न ही बच्चोँ को मत भेदोँ के लिए बातावरण बनाना उचित है.


समाज मेँ सब अच्छा ही नहीँ है.समाज मेँ हर व्यक्ति विकारोँ से भरा है.अनुसूचित जाति के अन्तर्गत तक विभिन्न जातियोँ के अन्तर्गत भेद व छुआ छूत है.अनुसूचित जाति के कितने लोग वाल्मिकियोँ के सामाजिक कार्योँ मेँ शामिल होते हैँ?जाति व छुआ छूत की भावना के लिए अब सिर्फ सवर्ण वर्ग ही दोषी नहीँ हैँ.हालाँकि यह सत्य है कि सवर्ण वर्ग गैर हिन्दुओँ के सामाजिक कार्योँ अब शामिल होते देखे जा रहे हैँ लेकिन हिन्दू समाज मेँ ही आने वाले जाटव व वाल्मीकि भाईयोँ के यहाँ पानी छूना तक पसन्द नहीँ करते.


अपने परिवार या समाज मेँ हम जिस अवधारणा मेँ जीते आये हैँ.जरुरी नहीँ वे अवधारणाएँ ठीक होँ.




अवैज्ञानिक व असंवैधानिक नीतियोँ का चलो बहिष्कार करो,चलता हैँ.भाई यह नहीँ चलना चाहिए.आखिर कब खुलेँगे दिमाग व हृदय के दरबाजे?मात्र स्कूली शिक्षा काफी नहीँ है और फिर स्कूली शिक्षा का उद्देश्य मात्र भौतिक कैरियर रह गया है.कुरीतियोँ के खिलाफ मुहिम न चला पाने के लिए तो अभिभावक व अध्यापक दोषी हैँ,जो स्वयं अभी कूपमण्डूक ज्ञान से भरे हैँ. मैँ तो सर्व शिक्षा अभियान को असफल मान रहा हूँ.इसका उद्देश्य मात्र मुझे व्यवहारिक रुप मेँ इतना दिख रहा है कि विश्वबैँक की नजर मेँ कागजी आंकड़े ठीक हो रहे हैं और बम्पर अध्यापकोँ की आवश्यकताओँ से कुछ घरोँ की आर्थिक समस्या खत्म हो रही है.हाँ ,यह सत्य है कि सामाजिक सुधार आन्दोलन के लिए शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है लेकिन वर्तमान शिक्षा का माडल व आम आदमी के शिक्षित होने के उद्देश्य को बहुद्देश्यीय होना आवश्यक है.सिर्फ भौतिक सोँच से भला होने वाला नहीँ.17वीँ सदी को पैदा हुई विकास की सोंच दूरगामी घातक परिणाम लाने वाली है.


ऐरे- गैरे सभी के हाथोँ मेँ अंक तालिकाएँ पकड़ा देने से विश्व बैंक की नजर मैँ आप साक्षरता के आंकड़े तो ठीक कर लेँगे लेकिन शिक्षित बेरोजगारी से आप कैसे निपटेँगे?आज की तारीख मेँ प्रति वर्ष महाविद्यालयोँ से लाखोँ लोग स्नातक- स्नातकोत्तर की डिग्री ले कर सड़क पर आ जाते हैँ. जिनमेँ से 90 प्रतिशत से ज्यादा युवक युवतियाँ सामाजिक सुधार आन्दोलन मेँ निर्रथक होते ही हैँ .शारीरिक परिश्रम व परम्परागत व्यवसाय की आदत /रुचि न होने कारण मजदूर/चाट खोँचे वालोँ/किसान/आदि से भी बदतर स्थिति मेँ पहुँच जाते हैँ और कम्पटीशन निकाल नहीँ पाते,मैरिट मेँ भी आ नहीँ पाते.हाँ,कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार का हिस्सा जरूर बन जाते हैँ.


बुरा न मानना,मैँ जाति व्यवस्था का तो विरोधी हूँ लेकिन वर्ण व्यवस्था का नहीँ.मैँ अब भी इस बात का समर्थक हूँ कि शिक्षा का हकदार ब्राह्मण ही है.बात है प्राथमिक विद्यालयोँ मेँ दलित रसोईयोँ के द्वार पकाए भोजन के बहिष्कार की,बहिष्कार करने वालोँ तटस्थ किया जाए या फिर उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जाए.जिन्हेँ संवैधानिक कार्यो से आपत्ति है ,उनको नागरिकता व अन्य सरकारी योजनाओँ से वंचित करने का कानून आना चाहिए.नागरिकता की परिभाषा मेँ संशोधन किया जाये.वोट की राजनीति के खिलाफ कार्यवाही किए बिना देश मेँ कुप्रन्धन से नहीँ लड़ा जा सकता. मात्र भौतिक विकास के लिए योजनाएँ बना लेने से क्या है?हमारे सामने चीन देश है तो ,उसने 50 सालोँ मेँ अपनी समस्यायोँ का निदान कर लिया है और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ भी मुहिम चला दी है.यहाँ कागजी आंकड़े ही ठीक करने मेँ लगे हैँ

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

बहुसंख्यक मुसलमान:या���ि कि........

सन 570ई0 से पूर्व इस धरती पर शायद 'मुसलमान' शब्द न हो लेकिन 'मुसलमान'शब्द मेँ छिपी फिलासफी पहले भी क्या नहीँ मौजूद थी?आदि काल से चली आ रही सनातन यात्रा का एक पड़ाव है-इस्लाम का उदय.जिसको सजाने सँवारने मेँ लगे हैँ-लाखोँ .हाँ,यह जरुर है कि कुछ लोग इस्लाम को कलंकित करने वाले पैदा होते रहे हैँ और पब्लिक के बीच सामान्य लोगोँ मेँ जरूर अनेक भ्रान्तियां मौजूद हैँ.ऐसा मुसलमानोँ मेँ गैरमुसलमानोँ के लिए तथा गैरमुसलमानोँ मेँ मुसलमानोँ के लिए भी है.इसका कारण मनोवैज्ञानिक विकार व पूर्वाग्रह भी है.धर्म वास्तव मेँ हमेँ करुणा की ओर ले जाता है,जो न ले जाए वह धर्म नहीँ हो सकता .समाज मेँ उपस्थित धर्मोँ को मेँ धर्म नहीँ मानता,ऐ धर्म की ओर ले जाने वाले स्थूल रास्ते हैँ.मनस स्तर पर तो कुछ और ही चाहिए.किसी सूफी सन्त ने ठीक ही कहा है-"मेरा धर्म अन्तस्थ धर्म है".जो वैराग्य,विवेक,समभाव,आदि के बिना सम्भव नहीँ.



हजरत मोहम्मद सा'ब की इस घटना से हमेँ प्रेरणा मिलती रही है कि आप जिस गली से गुजरते थे.गली मेँ एक औरत उनके ऊपर कूड़ा डाल दिया करती थी लेकिन उसके प्रति आप कोई दुर्भावना नहीँ रखते थे.हम आचरण व सोँच से इस किरदार के रूप मेँ कहाँ पर फिट बैठते हैँ ?आम जीवन मेँ यदि हमारे साथ ऐसा हो तो हमारे क्या हालात होँगे?जरा उसको सोँच कर आत्मसाक्षात्कार कीजिए कि हम क्या धर्म मेँ हैँ या धर्म मेँ होने का ढोँग कर रहे हैँ?हमारे मन मेँ यदि माया मोह,लोभ,खिन्नता,द्वेष,जलन,आदि अपना विकास कर चुके हैँ तो हम धार्मिक कैसे? खैर....


रविवार,11.07.2010 ,8.00AM!मैँ एक हेयर कटिँग की दुकान मेँ जा एक कुर्सी पर बैठ गया.अपना मोबाइल निकाल कर मेँ एक मुस्लिम कब्बाली सुनने लगा.दुकानदार इस्लाम मताबलम्वी था.वह बोल पड़ा कि आप यह भी सुनते हो?मैने मन ही मन कहा कि क्योँ नहीँ?मैँ आप लोगोँ की तरह थोड़े ही हूँ.आप लोग कितने सेक्यूलरवादी हो?बहुसंख्यक मुसलमानोँ के बीच कितना जीता है सेक्यूलरवाद?


आज समाचार पत्र मेँ पढ़ा कि मस्जिद के नल से पानी पीने के कारण पाकिस्तान मेँ 400हिन्दुओँ को खदेड़ा गया .एक अन्य समाचार पत्र के मुख्य पृष्ठ पर समाचार था कि 'गोली मार दो ,लेकिन पाक नहीँ जाएंगे'.भारत लौटना चाहते हैँ प्रताड़ना से तंग15से20लाख हिन्दू और सिक्ख.12 साल पहले घर बार छोड़कर कराची,पेशावर और स्यालकोट से लौटे लोगोँ ने सुनाई व्यथा.मैँ एक होटल पर बैठा था .एक व्यक्ति बोला कि यहाँ भी 25 साल बाद देखना,बहुसंख्यक होने दो इन्हेँ.यहाँ पहली बात स्पष्ट सेक्यूलरवाद है नहीँ,जो है भी वह कुछ वर्षोँ के बाद देखना?अभी भी देख रहे हो ,जहाँ पर उनका वर्चस्व है.


फिर भी....
मैँ गैरमुसलमानोँ से भी सन्तुष्ट नहीँ हूँ.

कहीँ भी धर्म नजर नहीँ आ रहा है.


धर्म धर्मस्थलोँ,मजहबोँ,जातियोँ, रीतिरिवाजोँ,कर्मकाण्डोँ,अहिँसा,दबंगता,कूपमण्डूकता,आदि से नहीँ करुणा, प्रेम, सेवा, त्याग ,समर्पण ,विवेक,आदि से पहचाना जाता है.

जिन्दगी मेँ समाज:घरेलू अपराधोँ मेँ भूमिका

समाज अपनी आत्मा खो चुका है.वह किसके साथ खड़ा है?वह विचलित हो चुका है.वह जन्म, शादी ,आदि अवसर पर जिन्दगी मेँ एक दिन तो आशीर्वाद देना जानता है लेकिन शेष जिन्दगी........?!
जिन्दगी भर समस्यावृद्धिकारक बन कर ही आता है.परिजन ,आसपड़ोस,सम्बन्धी,आदि सब के सब बनी के यार होते जा रहे है. सामूहिकता मेँ जीने गुण समाप्त हो चुके हैँ, हाँ! अवगुण अवश्य विकराल होते जा रहे हैँ.अर्थात निज् स्वार्थ मेँ समूह बनता बिगड़ता है.न्याय व ईमानदारी चेहरा व हालात देख बनती बिगड़ती है.

घरेलू हिँसा के खिलाफ किधर से भी कोई व्यवहारिक कदम नहीँ रखे जा रहेँ.आसपड़ोस,सम्बन्धी,आदि मूक दर्शक बने रहे जाते हैँ , हाँ! बर्बादी मेँ सहायक तो जरुर हो सकते हैँ.अनेक घर की कहानी के अन्त पर कल्पनाएँ भयावह व दर्दनाक नजर आती हैँ.अनेक घर समाप्त न होने वाली आन्तरिक हिँसा के शिकार हो बस बर्बादी का जश्न मनाने मेँ लगे हैँ.हम तो देख रहे हैँ किसी किसी घर मेँ मुखिया की मनमानी तक घर मेँ अशान्ति का कारण बन रही है.कर्त्तव्यविमुखता बढ़ती जा रही है.आखिर घरेलू अपराध के खिलाफ मुहिम कब छिड़ेगी?आखिर कब...?

शनिवार, 10 जुलाई 2010

अध्यापक दंश:अब अध्यापक ही बुद्धिजीवी नहीँ?

बुद्धिवादी बनाम बुद्धिजीवी पर चर्चा बाद मेँ होगी आज इस पर चर्चा हो जाए कि अध्यापक क्या बुद्धिजीवी हैँ?क्या वह बुद्धि मेँ जीता है?या फिर वह भी मन इन्द्रियोँ या शरीर मेँ जीता है?वे भी आम आदमी की तरह अन्धविश्वासोँ कुरीतियोँ कूपमण्डूकता आदि मेँ जीता नजर आता है.यदि अध्यापक के मन की दिशा दशा सार्वभौमिक ज्ञान की ओर नहीँ है तो मैँ उसे अध्यापक नहीँ मानता हूँ.उसकी दृष्टि वैज्ञानिक तर्क के आधार पर होनी ही चाहिए.


किसी ने अध्यापक को समाज का मस्तिष्क कहा है लेकिन हमेँ नहीँ लगता कि वह अब समाज का मस्तिष्क रह गया है.आज व्यक्ति परिवार समाज की दशा दिशा का आधार बुद्दि व हृदय नहीँ वरन मन इन्द्रियोँ व शरीर है.मन की दशा दिशा इन्द्रियोँ व शरीर के आधार पर विकास की ओर है न कि बुद्दि व हृदय के आधार पर.अभी हम सब अपने मन को प्रशिक्षित करने की कला नहीँ सीख पाये हैँ.अपने शरीर को प्रशिक्षित करने के सह दुनिया को प्रशिक्षण के साथ साथ अपने मन को प्रशिक्षित करना आवश्यक है.पर उपदेश कुशल बहुतेरे...........?!बीटीसी विशिष्ट बीटीसी आदि के माध्यम से युवक युवतियां अधयापक इसलिए नहीँ बन रहे कि वे अध्यापन के प्रति रूचि रखते हैँ वरन इसलिए कि आय का एक माध्यम मिल रहा है.बी टेक,बी बी ए,एम सी ए,आदि जैसे प्रोफेशनल कोर्स किए भी बीटीसी विशिष्ट बीटीसी आदि करके अध्यापक बनने की राह पर हैँ.आज भी लाखोँ युवक युवतियाँ हैँ जो उच्च शिक्षा प्राप्त या प्रोफेशनल कोर्स करने के बाद भी विचलित हैँ और किसी क्षेत्र प्रति रुचि न रखकर आय स्रोतो की तलाश मेँ हैँ और अरुचिकर क्षेत्र मेँ पहुँच रहे हैँ.ऐसे मेँ वे स्वयँ अपने साथ धौखा दे ही रहे हैँ,अन्य को भी धोखा दे रहे हैँ.

खैर.....


क्या सिर्फ पेट की आवश्याकताएँ काफी है?आज के भौतिकवाद मेँ कैरियर ने आदमी को अन्धा बना दिया है.अध्यापक वर्ण(स्वभाव ,मन की दिशा दिशा व व्यवहार) से ब्राह्मण होना चाहिए न कि वैश्य लेकिन जब ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से हीन होता जा रहा तो अन्य से क्या उम्मीद रखी जाए?

सोमवार, 5 जुलाई 2010

मनीष तिवारी:पेड़ वाले ��ाबा

प्रकृति नहीँ तो हम नहीँ.हमारा शरीर जो स्वयं प्रकृति है,प्रकृति के बिना संरक्षित कैसे?17वीँ सदी से विकास की जो दौड़ प्रारम्भ हुई ,उसने प्रकृति की प्राकृतिकता को समाप्त ही किया है.ऐसे मेँ कुछ लोग हमेँ जागरुक करने का प्रयत्न करते रहे हैँ लेकिन हम उनकी एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकालते रहे हैँ.महत्वपूर्ण तो हमारे मन का रूझान है,जिसके विपरीत हम कुछ कर ही नहीँ सकते या फिर दबाव मेँ आकर.बरेली मेँ एक पर्यावरणविद् पंचवटी अभियान चलाये पड़े है .अन्य शहरोँ मेँ भी लोग जागरुक हो रहे हैँ.मनीष तिवारी !मनीष तिवारी नाम पर्यावरण बचाओ आन्दोलन के जगत मेँ एक नक्षत्र हैँ.जो बिहार के गोपालगंज के निबासी हैँ .राष्ट्रीय सहारा ने आज पृष्ठ 11पर उन सम्बन्धित समाचार एवं फोटो प्रकाशित कर सराहनीय कार्य किया है.मीडिया को ऐसी हैशियतेँ विश्व पटल पर अवश्य लानी चाहिए.

रविवार, 4 जुलाई 2010

विवेकानन्द पुण्यतिथ��:04जुलाई

आषाढ़ कृष्ण 08,शीतलाष्टमी,दिनरविवार !

अन्त: प्रशिक्षण....

मन को कैसा रखेँ?कौन कितना जानता है?शरीर व इन्द्रियोँ के लिए जिए जा रहे हैँ.शान्ति,सन्तुष्टि,आनन्द,अध्यात्म,प्रेम,प्रार्थना,उदारता,आदि का सम्बन्ध मन से है.जिन्हेँ सिर्फ शारीरिक ऐन्द्रिक सुख व सांसारिक वस्तुओँ से प्राप्त नहीँ किया जा सकता.भाग्यहीनता,भाग्य,असफलता,सफलता,आदि तो सिर्फ हमारा नजरिया हो सकता है.ऋणात्मक विचार वाले जीवन मेँ कभी भी आनन्दित नहीँ हो सकते.तभी तो मेँ कहता रहा हूँ कि विचारोँ का बड़ा महत्व है.हमेँ निरन्तर विभिन्न माध्यमोँ से विचारोँ से साक्षात्कार आवश्यक है.जोकि अन्तर्प्रशिक्षण के लिए आवश्यक है.जो मेडिटेशन के आदि हो चुके हैँ ,उन्हेँ विचारोँ की दुनिया मेँ भी जाने की जरूरत नहीँ है.ऐसा तो ऋणात्मक विचार रखने वाले वहिर्मुखी व्यक्तियोँ को जरुरत होती है.ऋणात्मक विचार रखने वाले अन्तर्मुखी व्यक्तियोँ के लिए तो मेडिटेशन काफी है.पारिवारिक व सामाजिक कर्त्तव्योँ का निर्वाहन इस सब से हट कर है.यहाँ तो अन्त: प्रशिक्षण मूल केन्द्रित है.

अन्त: प्रशिक्षण कैसे?


इसके लिए पहले अपने मन के अन्दर पैदा होने वाले विचारोँ,भावनाओँ,इच्छाओँ,आदि का परिणाम व उनका विपक्ष भी जानना आवश्यक है.किस सोँच के कारण मन अशान्ति व खिन्नता मेँ आया ,इसका चिन्तन आवश्यक है.अशान्ति व खिन्नता के विरोध मेँ मन पर विचार हावी करना आवश्यक है.जिसके लिए कल्पनाशील होना भी आवश्यक है. जैसे कि मेरे मन मेँ किसी कारण से खिन्नता उत्पन्न हो जाती है तो मै अपने मन मेँ विचार ले आता हूँ कि खिन्नता न रखने से हमारा क्या नुकसान हो जाएगा?या खिन्नता रखने से क्या फायदा हो जाएगा?अपराधोँ के लिए कौन दोषी है-शरीर,इन्द्रियाँ या मन?

खैर....

देश का युवा वर्ग अपने जीवन के लिए क्या स्वामी विवेकानन्द के विचारोँ को महत्वपूर्ण मानता है ?क्या स्वामी विवेकान्द जी से प्रभावित है? क्या वह उनसे अपने जीवन के लिए प्रेरणा लेना चाहता है? क्या क्या स्वामी जी के जन्म दिवस को युवा दिवस मनाने की गलती की गयी ?जवानी है कुछ करने की ,वह भी क्या रुखे सूखे पुराने विचारोँ मेँ गवाँ देँ?बाइक.......मोबाइल....और गर्ल.....यह नहीँ तो जवानी नहीँ!
अरे,वैदिक विद्वानोँ का क्या कहना?......मेरा वश चले तो मैँ(आज के युवा) तो सलमान खाँ ,शाहरूख खान, रितिक रोशन,आदि के जन्मदिनोँ को युवा दिवस मनाने की माँग करता? बुरा लगा हो तो क्षमा करना.


हूँ.........आज का दिन मैने जहानी खेड़ा -मोहम्मदी रोड स्थित मकसूदपुर (लखीमपुर) मेँ बिताया.जहाँ मेँ कल 4.00PM पर पहुँचा था.यह मेरा वहाँ जाना पहली बार था.अभी कुछ देर पहले ही मैँ वहाँ से कटरा लैटा था.