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शनिवार, 4 सितंबर 2010

http://primarykamaster.wordpress.com : हम क्या कहिन!

शिक्षक दिवस; रविवार ,05 सितम्बर 2010 !

इस अवसर पर मुझे एक विचार गोष्ठी मेँ जाना था .इस पर मुझे बोलना पड़ गया तो.......!मैँ चापलूसी भाषा जानता नहीँ,मीडिया या अन्य या स्वयं जो व्यवहारिक जीवन मेँ देखता आया हूँ उसके साथ साथ समाज मेँ प्रचलित शब्दोँ का अभिप्राय समाज से न समझ कर शास्त्रोँ से समझने का प्रयत्न करता आया हूँ .बुद्धिजीवी या हृदयजीवी,धार्मिक या आध्यात्मिक, आदि न पाकर मनुष्य की शक्ल मेँ पशुओँ को ही देखता आया हूँ . अरे,पण्डित आप रोज प्रवचन के दौरान क्या कहते हो.......एषां न विद्या तपो न दानं,ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म : . ...........कला साहित्य संगीतविहीन: , साक्षात पशुपुच्छ विषाणहीन........न जाने क्या क्या ? और,हाँ,...विद्या ददाति विनयम् ......न जाने क्या क्या ? और ठाकुर सा'ब आप ?ठकुरई अब कहा पर दिखाते हो ? गीता मेँ जो क्षत्रिय धर्म बताया है,धर्म के पथ पर न कोई अपना न कोई पराया बताया है.और भाई आप लाला जी ,आप लोगोँ का क्या कहना? और फिर बात है भईया हम लोगोँ की, हम लोग ठहरे पिछड़े दलित शूद्र ........


वैदिक ग्रन्थोँ की बात करता हूँ तो कहते हो ,आज की देखो.मैँ तो आज की भी देखता हूँ, तब यह कहते हैँ अपनी संस्कृति धर्म जाति.....?शायद मुझे कुछ देखना नहीँ आता.यह लोग झूठ मेँ मजाक मेँ ही हमेँ दार्शनिक कहते है.मैँ जब सनातन विचारोँ की बात करता हूँ तब भी गड़बड़ है,जब संवैधानिक विचारोँ की बात करता हूँ, तब भी गड़बड़ है. शायद हमारे देखने के ढंग मेँ ही फर्क है ? वैदिक पुरुषार्थ सिद्धान्त के चारोँ स्तम्भ-धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष के आधार पर बात करुँ तब भी गड़बड़ है.लोग यह सब बाते करेँ तो ठीक है लेकिन.....हमे मक्खन लगाना नहीँ आता जो,फिर मैँ तो मक्खन मेँ मिलावट गैरमिलावट पर सोँच कर रह जाता हूँ.मक्खन लगाऊँ तो कौन सा मक्खन लगाऊँ?अब समझ मेँ आ रहा है कि सुकरात ,मीरा,ओशो,कबीर,आदि के जिन्दा रहते इनके खिलाफ लोग क्योँ थे? मरने के बाद यही खिलाफत करने वाले फिर इनके नाम का धन्धा करने से न चूके.तब भी धन्धा अब भी धन्धा. अब समझ मेँ आया इनके सीना तानने का राज?गाँधी को ट्रेन से फेँकने वाले पीछे गाँधी के नाम पर करोड़ोँ का धन्धा करते हैँ.यह सब उस वक्त भी धन्धा करने वालोँ के साथ थे आज भी साथ हैँ.



एक -
"भाई कलयुग है! तभी तो न का होत है किसानन के संग? पड़ोस का देश चीन अपने विकास के लिए अपने नागरिकोँ पर कितना गोली चलवायो?जै गोली चलान वाले ठीक हैँ, नकसली गलत हैँ?नकसली कोए भारत के संविधान की शपथ खाए कुछ थोड़े करेँ?संविधान की शपथ खाये चाहे कछु भी करवाबौ,चाहेँ किसानन पर गोली चलबाबो ,चाहेँ और कछु.

आज शिक्षक दिवस!हूँ, बओ सरबपलली राधा करषनन......??अरे कागज ठीक रक्खो ,और का.....इन सब के चक्कर मेँ पड़ कर का बन सकेँ?अंग्रेजन से गोली खान बालौ के नाती पोता आज भूखन मरैँ,परमवीर चककर पाउन वाले तक रोटी कौ तरसै.का कही अभई एक वकता कि "अध्यापक समाज का दिमाग होता है?" हूँ,खाली की बकवास ! कि-



"शिक्षक समाज का दिमाग है .शिक्षकोँ की बुद्धिहीनता को देख कर ही शायद सर्व पल्ली राधा कृष्णन ने कहा होगा कि देश के शिक्षकोँ के पास सर्वश्रेष्ठ दिमाग हो . उन्होने कहा था कि शिक्षा प्राप्त कर मात्र नौकरी प्राप्त करना शिक्षा का उद्देश्य नहीँ है ."


सब बकवास,अरे सब कछु रुपया है रुपया. हम का मास्टर बनन चाहत थो?हमै तौ रूपया चाहो थो. जुगाड़ से अच्छे नम्बर पाये लऔ,दोए लाख रुपया दये कये अच्छे नम्बर से बीएड कर लऔ. सर्ब शिक्षा अभियान को जऔ रुपया.अब का उड़ाबौ गुलछर्रे !भाड़ मेँ जाए मास्टरी,हमेँ कभी पढ़ाउन को शौक नाय रहो. लेकिन रुपया किसे पयारो नाय लग्ये? जा मैरिट चली का चली,ठीक चली.हम जैसे भी गंगा नहाय लए .जै अशोकवा जैसे तओ पागल होएँ.आए हैँ जा विचार गोष्ठी मा तो कान मेँ अँगुरी डाल के बैठ नाए सकत.कोई का कहे कि मास्टर होए के कान मेँ अँगुरी डारे."



मैँ सोँच रहा था कि विचार गोष्ठी मेँ जाऊँ कि न जाऊँ? मुझसे किसी ने बोलने को कह दिया तो लोग मेरे कहे पर क्या सोँचेँगे?पिछले शिक्षक दिवस पर बोला था तो एक सरकारी प्राइमरी मास्टर क्या बोले थे?कुछ मिनट पहले जान चुके होँगे आप.


फिर मैँ तो ठहरा सनकी ...और न जाने क्या क्या?वो तो गनीमत है कि इन दुनिया वालोँ की न सुन कर ग्रन्थोँ महापुरुषोँ की सुनता हूँ.


www.ashokbindu.blogspot.com


अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'

आदर्श इण्टर कालेज,

मीरानपुर कटरा ,

शाहजहाँपुर ,उप्र.

धन्य ! जनता का शासन.

प्रजातन्त्र का मतलब ये नहीँ है कि हर कोई इलेक्शन मेँ खड़ा हो जाए? काहे की संविधान की गरिमा मेँ रहने की शपथ?निष्कर्ष तक जाने की छमता नहीँ.मत मतान्तरोँ मेँ जिए जा रहे हैँ,गुण्डोँ बदमाशोँ आदि को आश्रय दिय जा रहे हैँ,आदि,काहे की संविधान के गरिमा मेँ रहने की शपथ?प्लेटो ने कहा है कि प्रजातन्त्र मूर्खोँ का शासन है.वह भीड़तन्त्र का रुप ध
रण कर लेता है.जिसका कोई धर्म नहीँ होता.पुरानी विचारधारा कि शासक दार्शनिक होना चाहिए.



जिसकी अपनी व्यक्तिगत भूख जागी हुई है,बासना जगी हुई है,जिसका विकास अपने या अपने खानदान या जाति तक ही सीमित है वह क्या करेगा जनता की सेवा? जनता को समूह-समूह,गुट-गुट,जाति-जाति,मजहब-मजहब,आदि मेँ बाँट कर देखने वाले रख सकते हैँ क्या निष्पक्ष सोँच ?



सबसे श्रेष्ठ प्राणी है मनुष्य,लेकिन उसे प्रशिक्षण जरूरी है.विधि साक्षरता के बिना चुनाव लड़ने या वोट डालने की क्या अहमियत?कैसी शपथ ?संविधान के दर्शन को जानते नहीँ, मत मतान्तरोँ के दर्शन मेँ प्रति पल जी रहे है.ऐसे मेँ विभिन्न पदोँ के उम्मीदवारोँ के लिए नारको परीक्षण आदि अनिवार्य किया जाना चाहिए,लेकिन कैसे?संसद विधानसभाओँ मेँ कौन लोग बैठे हैँ?वे ऐसा कभी नहीँ चाह सकते.


किसी भीड़,किसी गुट, किसी एक जाति,किसी एक मजहब,आदि के स्वेर्थोँ के लिए ,वोट बैँक के स्वार्थ मेँ सारे देश , संविधान,आदि के हक प्रति चुप्पी साधने वालोँ का शासन.....?!क्या यही है जनता का शासन...?!धन्य ,भारत का प्रजातन्त्र!


जनता का अनुशासन...?!जनता गुटो भीड़ोँ समूहोँ जातियोँ मजहबोँ आदि मेँ विभक्त है. हर कोई भ्रष्टाचार व कुप्रबन्धन मेँ सहायक बना हुआ है.



5 सितम्बर,शिक्षक दिवस!मैँ कहना चाहूँगा कि शिक्षक वर्ण से वैश्य नहीँ होता, समाज का दिमाग होता है-ब्राहमण होता है. अफसोस,जब ब्राहमण जाति के लोग ब्राह्मण वर्ण के नहीँ नजर आते तो अन्य से क्या उम्मीद रखेँ.अब भी देश को विश्वमित्र,चाणक्य,आदि की आवश्यकता है.


JAI ...HO...OM...AAMEEN.

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

विमल वर्मा बीसलपुर निवासी का लेख:बिखरता पर��वार

एक दौर था जब चाचा ताऊ और भतीजे के समूह से परिवार की पहचान होती थी.सुख दुख मेँ सभी एक साथ एकत्र होते थे.......लेकिन वक्त बदलने के साथ संयुक्त परिवारोँ मेँ बिखराव आने लगा.नतीजन अधिकतर लोगोँ ने एकल परिवार की राह पकड़ ली.वह प्रत्येक निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र हैँ तो वह किसी और पर क्योँ आश्रित रहेँ?कुछ युवाओँ का यहाँ तक कहना है कि वे आर्थिक रूप से जब मजबूत हैँ तो दूसरोँ की क्योँ सुने?आज युवाओँ के मौजूदा रुख से परिवार टूट रहे हैँ.इन्हेँ पाल पोस कर बड़ा करने वाले तथा इन्हेँ अच्छी शिक्षा दिलाकर अपने पैरोँ पर खड़े होने की क्षमता देने वाले माता पिता इनकी एकल परिवार की सोँच के चलते उपेक्षित हो रहे है.भाई भाई मेँ द्वेष उत्पन्न हो रहा है.एक दूसरे के प्रति भरोसे मेँ कमी आ रही है.चाचा दादा की बात तो दूर अब अपने सगे भाई बहिनोँ से भी लोग गुरेज रखने लगे हैँ.भौतिकवादी सोँच मेँ डूबे युवाओँ को अपनी पत्नी और बच्चोँ के अलावा कोई भी अपना नहीँ लगता.



यही वजह है कि वे परिवार से नाता तोड़ने मेँ भी थोड़ी भी हिचक नहीँ रखते,लेकिन ऐसा करते वक्त वे शायद भूल जाते हैँ कि कल उनके बच्चे भी बड़े होँगे......,युवाओँ को मेरी सलाह है कि संयुक्त परिवार की सोँच ही बेहतर सोँच होती है.



¤मेरी प्रतिक्रिया....

विमल जी आप ठीक लिखते हैँ,लेकिन नई पीढ़ी की विचलित दिशा के लिए क्या नई पीढ़ी ही दोषी है?
माता पिता की सेवा करना युवाओँ का कर्त्तव्य है.हाँ,यदि युवा अपने बुजुर्ग माता पिता की सेवा नहीँ करते तो इसके लिए उनके संस्कार दोषी है या बुजुर्ग माता पिता द्वारा पिछले वर्षोँ मेँ प्रस्तुत किए गये पारिवारिक वातावरण भी दोषी हो सकता है.कायर,निराश,अशान्त,सदभाव हीन,उदारहीन,आदि से युक्त व्यवहार रखने वाले कब परिवार को आदर्श दिशा दे सकते हैँ.त्याग,मधुरता,सामञ्जस्य,परस्पर एक दूसरे का सम्मान,भावनाओँ का शेयर,एक दूसरे के लिए उपयोगी होना,एक दूसरे की समस्याओँ के निदान के लिए सजग रहना,एक दूसरे का उत्साहवर्धन करते रहना,आदि अति आवश्यकता होती है.हमने देखा है कि परिवार का मुखिया ही परिजनोँ की समस्याओँ या अस्वस्थता से अपने को बिलकुल दूर कर लेते हैँ और सहयोगी साबित नहीँ होते.हाँ,उनसे उम्मीदेँ रखते हैँ.विभिन्न स्वभाव,स्थितियोँ,आदि मेँ रहने वालोँ की मजबूरियोँ को न समझ एक विशेष स्वभाव,स्थितियोँ,आदि मेँ जीने वालोँ से तुलना करते हैँ.
यहाँ पर भी वर्ण श्रम विभाजन की प्रासांगिकता है.


शेष फिर....


अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'


आदर्श इण्टर कालेज

मीरानपुर कटरा

शाहजहाँपुर उप्र