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बुधवार, 29 जुलाई 2020

हम तुम्हारे ग्रंथों को ही हाथ में लिए तुम्हारे धर्मों व धर्म स्थलों के खिलाफ खड़े हैं::अशोकबिन्दु

हम तो तुम्हारे ग्रन्थों को ही हाथ में लिए तुम्हारे धर्मों के खिलाफ खड़े हैं::अशोकबिन्दु
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हे अर्जुन, तू भूतों को भेजेगा तो भूतों को प्राप्त होगा तू पितरों को भेजेगा तो पितरों को प्राप्त होगा तू देवों को भेजेगा तो देवों को प्राप्त होगा तू हमें भजेगा तो हम को प्राप्त होगा। ..... हे अर्जुन उठ दुनिया के सभी धर्म पंथ्यों को त्याग कर मेरी शरण आजा मुझको भजने का मतलब है मुझको प्राप्त हो जाना मुझको प्राप्त होने का मतलब है मुझे जैसा हो जाना  ।आत्मा से ही परम आत्मा...... जाति ,मजहब, धर्मस्थल तेरा उत्थान नहीं कर सकते। अपनी आत्मा को पकड़ ।आत्मा से ही शुरू होती है यात्रा और आत्मा से ही खत्म होती है। यहां पर अर्जुन क्या है? यहां पर अर्जुन है अनुराग। तुममें अनुराग किसके प्रति है? आत्मा से अनुराग है.  . परमात्मा से अनुराग है...
बात है हमारी, हम तो अपने शरीर, शरीरों, स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर की आवश्यकताओं के लिए जी रहे हैं।

रीति रिवाजों को हम धर्म नहीं कह सकते।जाति मजहब को हम धर्म नहीं कह सकते।धर्मस्थल प्रेम को हम धर्म नहीं कह सकते।यहां तक कि हिंदुत्व को भी हम धर्म नहीं कह सकते.....

 धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।

धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।

पहला लक्षण – सदा धैर्य रखना, दूसरा – (क्षमा) जो कि निन्दा – स्तुति मान – अपमान, हानि – लाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना; तीसरा – (दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे, चैथा – चोरीत्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल – कपट, विश्वास – घात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पर – पदार्थ का ग्रहण करना, चोरी और इसको छोड देना साहुकारी कहाती है, पांचवां – राग – द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल, मृत्तिका, मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी, छठा – अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना, सातवां – मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ, दुष्टों का संग, आलस्य, प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास से बुद्धि बढाना; आठवां – (विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना; सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना इससे विपरीत अविद्या है, नववां – (सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी; तथा दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण है । (स० प्र० पंच्चम समु०)

Read more at Aryamantavya: धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । । http://aryamantavya.in/?p=11467


जीव हत्या क्या है/कुर्बानी/त्याग/समर्पण/शरणागति/सन्यास....?!.....:::अशोकबिन्दु





हमें ताजुब्ब होता है, जब कोई मिलता है और कहता है कि हम आस्तिक हैं।



हमारा हाड़मांस/जाति/मजहब/कुल/धन/लोभ लालच/पद/आदि बल की जब हद खत्म हो जाति है तब गुरु/आत्मा/परम् आत्मा/शाश्वत/अनन्त/आदि के बल की शुरुआत होती है।


हमें किसी से प्यार है ही नहीं। हम तो सिर्फ अपने इंद्रियों की आवश्यकता हो जाओ में जी कर अपना जीवन व्यतीत कर लेना चाहते हैं हमें खुदा से प्रेम नहीं है संसार में किसी बात से प्रेम नहीं है हमारे अंदर अभी प्रेम घटित ही नहीं हुआ है हमारे अंदर तो अनेक इच्छाएं बलवती हैं हम उन्हीं में मृत्यु तक और मृत्यु के बाद भी उलझे रहते हैं यह उलझना तो सिर्फ सांसारिक है हम कहते तो हैं हम खुदा के बंदे हैं हम आस्तिक हैं लेकिन वास्तव में हम चाहते क्या हैं हमें क्या खुदा से प्रेम है हमारे स्तर हैं स्थूल ,सूक्ष्म व कारण।
कोई हमसे पूछता है कि आप अपने इस जीवन में जीवन से क्या पाना चाहते हैं किसी का जवाब नहीं है खुदा किसी का जवाब नहीं है परम आत्मा इसका मतलब क्या है हमारी ईश्वर भक्ति हमारी धार्मिकता ढोंग और पाखंड है हमारी नजर में कुर्बानी क्या है हमारी नजर में प्यार क्या है हमारी नजर में समर्पण क्या है हमारी नजर में शरणागत क्या है हमारी नजर में संन्यास क्या है ?इसका उत्तर है हम जिस स्तर पर हैं हम जिस सोच में हैं हम जिस नजरिया में हैं हम जिस भावना में हैं हम जिस समाज में हैं उस स्तर से आगे के स्तर पर अपनी सोच अपना नजरिया अपनी भावना अपने विचार आदि को ले जाना।

हम अपने सिर्फ हाड मास शरीरों या फिर हम अपने परिवार अपनी जाति अपने मजहब अपने देश के सिर्फ हाड़ मास शरीरों व इसकी आवश्यकताओं के लिए ही सिर्फ न जीना।
हमें अपना पेट पालना है हमें अपने बच्चे पालने अब अब इसके लिए हम झूठ भी बोलते हैं इसके लिए हम षड्यंत्र रखते हैं लेकिन एक कब तक चलेगा हम सिर्फ हाड मास शरीर नहीं है जगत में जो दिख रहा है वह सिर्फ स्थूल नहीं है वह सिर्फ हमारा जाति मजहब नहीं है हम जो सोच रखते हैं हम जो समझ सकते हैं हम जो नजरिया रखते हैं उसके इस तरह से आगे भी अनेक स्तर हैं अनंत स्तर हैं अरे भाई जीवन को समझो अभी हम मानवता की ओर ही नहीं हैं आत्मा की ओर कैसे होंगे परमात्मा की ओर कैसे होंगे अनंत यात्रा की और कैसे होंगे ऐसे में कुर्बानी कैसी त्याग कैसा समर्पण कैसा शरणागति कैसी सन्यास कैसा हम आगे बढ़ नहीं रहे हैं हम परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर रहे हैं हम संसार की वस्तुओं से अपने हाड़ मास शरीर,अन्य शरीर ,शरीरों से संबंध बनाए हुए हैं हम अभी आत्मा की ओर ही नहीं पहुंचे हैं परमात्मा की बात कर रहे हैं यह धोखा है किसी ने ठीक कहा है इस दुनिया में सबसे बड़ा षड्यंत्र है खुदा के नाम से षड्यंत्र ईश्वर के नाम पर षड्यंत्र परमात्मा के नाम से षड्यंत्र।

नैतिकता शिक्षा संतवाणी गुरु आदि के लिए भौतिकता ,इन्द्रिय लालसा,शरीर आवश्यकताओं आदि को नजरअंदाज कर देना।

पार्थ सारथी राज गोपालाचारी ने 'प्यार और मृत्यु' को एक ही कहा है। किसी ने आचार्य का मतलब मृत्यु कहा है? योग का मतलब योग के पहले अंग यम को मृत्यु कहा है? मृत्यु क्या है ?ओशो कहते हैं -मैं मृत्यु सिखाता हूं ।आखिर मृत्यु क्या सिखाता हूं? राजा हरिश्चंद्र किस हद तक पहुंच गए ?कौन था वह दान करता करता स्वयं अभाव में आ गया ?पैगंबर से अपने प्रिय की कुर्बानी करने को कहा गया है ?ये प्रिय क्या है ?हमारा वर्तमान सांसारिक सुख , वस्तुएं हाड़ मास,इंद्रिय आवश्यकताओं आदि प्रति तटस्थ होकर अपने आत्मा, परम् आत्मा के प्रबंधन का साक्षी होना। धर्म स्थलों में जाकर एक दो घंटा परम आत्मा को याद कर लिया और इसके बाद जो मन में आया वह किया कहते हो कि हम खुदा के बंदे हैं हम परमात्मा को मानते हैं इससे क्या ?परमात्मा पर विश्वास है ?खुदा पर  विश्वास है तो उस पर ही छोड़ो। तुम स्वयं जिम्मेदारी क्यों लेते हो ?खुदा की क्या काफिरों पर नहीं चलती ?किसी ने हमारा नुकसान कर दिया ,खुदा के बंदे हो ?उस पर बौखला ना क्या ?हिंसा क्या? खुदा पर छोड़ो सब। सत्य, अहिंसा ,अस्तेय, अपरिग्रह ,ब्रह्मचर्य का मतलब क्या है ?यम का मतलब क्या है ?मृत्यु को जीतना है तो महामृत्यु को स्वीकार कर लो।


हमारे वैश्विक मार्गदर्शक कमलेश डी पटेल कहते हैं -महत्वपूर्ण नहीं है अपने को कौन आस्तिक मानता है या नास्तिक मानता है ?महत्वपूर्ण है कि महसूस क्या किया जा रहा है? अनुभव क्या किया जा रहा है? आगे के स्तरों पर अनंत स्तरों पर क्या यात्रा शुरू हुई है?


प्यार में सभी मर्यादाएं खत्म हो जाती हैं।चाहे कुल मर्यादा हो या लोक मर्यादा सब खत्म। भक्त मीरा क्या कहती हैं-मैंने तो ऐसी लग्न लगाई है जिसमें चाह कर भी मैं कुल मर्यादा व लोक मर्यादा  mनहीं बन्ध पाती।समझो, भाई।हमें तो ताजुब्ब होता है किसी आस्तिक को देख कर?आस्तिक की कोई मर्यादा नहीं, कुल मर्यादा, कुल मर्यादा, जाति मर्यादा, मजहब मर्यादा, धर्म स्थल मर्यादा..... न जाने कितनी मर्यादाएं?बस, आस्तिक मर्यादा छोड़ कर ?हमें ताज्जुब होता है, ऐसे में जब हमें कोई खुद को आस्तिक कहता नजर आता है।



हमारी नजर में हाड़ मास शरीर की जहां से हद खत्म हो जाती है वही से आत्मा का प्रबंधन शुरू होता है।इस हद पर पहुँचना ही त्याग है,कुर्बानी है। इस हद को पार नहीं किए तो आत्मा तक कैसे??फिर परम् आत्मा तक कैसे?



           आत्मा को मानो या न मानो लेकिन कुछ तो है । उसे चाहे कुछ भी नाम दे दो इससे फर्क नहीं पड़ता। महत्वपूर्ण बात हैं, तुम महसूस क्या करते हो? तुम अनुभव क्या करते हैं? हमारे अंदर कुछ तो है, कुछ न कुछ तो है। हम तो उसी को जीवन कहते हैं ।उसको हम हाड मास शरीर, हाड मास शरीरों से भी ऊपर व्यापक और सूक्ष्म मानते हैं। हमारे हाड़मास शरीर की हद जहां पर खत्म हो जाती है वहीं से हमारी सूक्ष्म यात्रा शुरू होती है ।वहीं से हमारी आत्मा की ओर यात्रा शुरू होती है।... और फिर ऐसे में हमारा नजरिया बदल जाता है ।हमारी समझ बदल जाती है, अनेकों भ्रम टूट जाते हैं।

 आत्मा सनातन है उससे जुड़ने से हम साहसी होते हैं इस हार मास शरीर के वृक्ष से पूर्व हम उस आत्मा से जुड़ जाएं उसे अनुभव करने लगे हम देखेंगे कि वास्तव में वही ज्ञान है वही जीवन है वही सर्वत्र व्याप्त है हम स्वत: पूरे जगत से जुड़ जाएंगे। #खुदसेखुदाकीओर  विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचारी जीवन कहा गया था ब्रह्मचर्य जीवन क्यों कहा गया इसलिए ही क्योंकि हम जिसे अंतर्ज्ञान कहते हैं हम जिसे अंतर दीप कहते हैं वह क्या है उसे आत्मा नाम तो या और कोई नाम तो कुछ तो है?ज्ञान से लय हुए बिना विद्यार्थी कैसा?

आत्मा ही हमें सभी से जोड़ता है पूरे जगत से जोड़ता है विश्व बंधुत्व की भावना पैदा करता है #वसुधैवकुटुंबकम की भावना पैदा करता है आत्मा से ही आता है पेड़ पौधों में जगदीश चंद्र बोस के अनुसार जो संवेदना है वह यही आत्मा है हार्टफुलनेस का मतलब क्या है यही ना बचपन से लेकर अब तक अनेक घटनाएं हम भूल चुके हैं अनेक घटनाएं याद भी हैं कौन सी घटना याद हैं वे घटनाएं याद हैं जो हमारे दिल की गहराई तक उतर गई हैं जो हमारे अंदर गहराई तक पहुंच चुकी हैं इसीलिए #हार्टफुलनेसएजुकेशन में कहां जाता 16 वी शताब्दी से जो विकास चला है उसने मानव सभ्यता को विक्षिप्त किया है मानव को मानवता से दूर किया है । #गीता में भी लिखा है आस्था और नजरिया महत्वपूर्ण । वर्तमान विकास अभी तक यहां तक नहीं पहुंचा अफसोस की बात स्कूलों से भी विद्यार्थियों के जीवन से भी शिक्षकों के जीवन शैली से भी ज्ञान के प्रति सच्चाई के प्रति आस्था का नजरिया खत्म हो चुका है।


जीव हत्या क्या है?

आखिर जीव हत्या क्या है जीव हत्या का मतलब सिर्फ हार्मा शरीर को मार देना है लेकिन हमारी दुनिया में जीव हत्या का मतलब इससे भी आगे हमारे लिए आचार्य है मृत्यु हमारे लिए योग का पहला अंग है- यम!यम का मतलब है मृत्यु।
आत्मा शरीर के हद को पार कर सूक्ष्म यात्रा में प्रवेश कर जाना मृत्यु है। ये मृत्यु जीव हत्या है,जीव से भी दूर हो ब्रह्म की ओर बढ़ जाना।





मंगलवार, 28 जुलाई 2020

अनन्त यात्रा में सुर बनाम असुर::अशोकबिन्दु





हम सब इस भाव में रहने का प्रयत्न करते हैं कि सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर। हमारे अंदर आत्मा है जो अनंत यात्रा का द्वार है सभी प्राणियों में सभी में प्राणशक्ति मौजूद है इसलिए निरंतर स्वयं ही प्राण आहुति में रहना अपने अंदर सबके अंदर प्रणाहूति को महसूस करने का अभ्यास करना उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता इसको एहसास करने का प्रयत्न करना हमारे वैश्विक मार्गदर्शक कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं लोग मतभेद में रहते हैं ईश्वर है कि नहीं मैं तो कहना चाहूंगा तुम आस्तिक हो या नास्तिक यह महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण है कि तुम महसूस क्या कर रहे हो अनुभव क्या कर रहे हो महसूस करने अनुभव करने से ही हम शुरुआत करते हैं परमात्मा की ओर जाने की अनंत यात्रा की ओर जाने की।

एक असुर वे भी थे जो ब्रह्म,विष्णु महेश को भी खुश कर लेते थे लेकिन दुनिया की सभी नगेटिव हरकतों में व्यस्त रहते थे।आज भी हैं।यज्ञ भी करते हैं, धर्म स्थलों पर भी जाते हैं, जागरण कराते हैं, धर्म व ईश्वर के नाम पर न जाने क्या क्या करते हैं लेकिन उन्हें असुर क्यों न कहा जाए?

शनिवार, 11 जुलाई 2020

11जुलाई जनसंख्या दिवस::आखिर जनसंख्या को आदर्श बनाने की जिम्मेदारी किसकी:::अशोकबिन्दु

विश्व जनसंख्या दिवस::11जुलाई:::

आखिर सरकारें जनसंख्या को आदर्श, मानवीय बनाने को खर्च ,वातावरण,तन्त्र स्थापित क्यों नहीं करती?यूनेस्को, सँयुक्त राष्ट्र संघ सन2002ई0 में ही मूल्य आधारित शिक्षा की वकालत कर चुका है ।जिस पर अनेक देश 10 साल पहले ही संज्ञान ले चुके हैं।
इस सम्बन्ध में दक्षिण एशिया की स्थिति बड़ी चिंतनीय है। भारत के अंदर इस सम्बंध में सन 2014ई0 से कुछ राज्यों में बातावरण बना है।हम आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगना, मध्यप्रदेश, उत्तरांचल, नई दिल्ली आदि राज्यों को धन्यवाद देते हैं।जहां इस पर ध्यान दिया जा रहा है।मध्यप्रदेश सरकार तो इस हेतु अलग से एक विभाग स्थापित कर चुकी है-आनन्द संस्थान। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि कुछ देशों में इसे शिक्षा जगत में अनिवार्य कर दिया गया है।वहां की एक युनिवर्सटी में गीता का अध्ययन भी अनिवार्य कर दिया है। अमेरिकी एक सैन्य बल को गीता का अध्ययन अनिवार्य है।हांगकांग  में गीता के आधार पर मैनेजमेंट में एक पेपर अनिवार्य कर दिया गया है।कलकत्ता विश्व विद्यालय ने प्रेम पर एक पेपर स्नातक स्तर पर अनिवार्य कर दिया है।जिसमें सन्तों की वाणियों का अध्ययन कराया जाता है।
अनेक राज्यों व देश में www.heartfulness.org/education  व हार्टफुलनेस ट्रस्ट सँयुक्त राष्ट्र संघ सूचना केंद्र भारत व भूटान के सहयोग से इस पर कार्य कर रहा है। जिसके अंतर्गत लगभग 3000 से ऊपर शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जा चुका है। राज्यों व देशों को जनसंख्या को आदर्श बनाने हेतु अपने बजट में प्रथम या द्वितीय वरीयता देने की आवश्यकता है।

कहाँ है लोकतंत्र/जनतंत्र?!
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हमें तो हर जगह पर सत्तावाद,पूंजीवाद, माफ़ियावाद, जातिवाद, पुरोहितवाद,सामन्तवाद आदि दिखाई देता है।
आम आदमी के स्वाभिमान, सम्मान, आत्मनिर्भरता आदि को जगाने ,विकास के अवसर की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने कहा था-हमारी सबसे बड़ी धरोहर है देश का नागरिक व प्रकृति।देश के नागरिकों का आत्मसम्मान ,प्रकृति का संरक्षण होना चाहिए।

कैसे भारतीय संस्कृति के संवाहक ? ये क्या है?मानवीय, नैतिक मूल्यों, शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था ,सेवा भाव, सम्विधान प्रस्तावना आदि के लिए नागरिकों को निशुल्क वातावरण, प्रेरणा, प्रबन्धन, तन्त्र स्थापित करने की जिम्मेदारी आखिर सरकारें क्यों नहीं लेती।किसी देश के स्तर की पहचान उस देश के नागरिकों के आचरण, नजरिया से होती। इजराइल,जापान आदि देश के बच्चों का उद्देश्य क्या होता है?या वह  किस कार्य के लिए तत्पर रहता है?वहां कक्षा सात का बच्चा से जब पूछा जाता है कि वह क्या करना चाहता है?उत्तर होता है-देश सेवा। हमारी सरकारें बच्चों व बच्चों के भविष्य ,शिक्षकों की बेहतर स्थिति के लिए चिंतित नहीं दिखती। सरकार चाहें कोई दल की हो,सब की सब थाना राजनीति, माफियाओं, जातिबलों, मजहब बलों, नशा व्यापार,पूंजीपतियों के चारों ओर मंडराती रहती है। उसकी निगाह इस पर नहीं होती कि हमें देश का भावी नागरिक कैसा चाहिए?अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता।

कोरोना संक्रमण के दौरान सब कुछ हो रहा है लेकिन बच्चे नहीं पढ़ रहे हैं। कक्षा 06 तक बच्चों के अध्ययन के स्थिति अति चिंतनीय है। ये ठीक है वास्तव में पाठ्यक्रम ज्ञान पिपासु ,दीवानगी की दृष्टि से विद्यार्थी सिर्फ 02 प्रतिशत ही होते हैं।लेकिन 98 प्रतिशत के लिए वातावरण तो मिलना ही चाहिए। गांधी  कहते थे,वातावरण ऐसा होना चाहिए कि कोई गुंडा मनमानी न कर पाए। वर्तमान में देश के अंदर प्राइवेट  अध्यापको की स्थिति अति चिंतनीय है जिन पर देश की 80 प्रतिशत शिक्षा निर्भर है।
# अशोकबिन्दु



सोमवार, 6 जुलाई 2020

शहर व गांव में सिर्फ पांच ही काफी हैं।बस, उन्हें एक श्रीकृष्ण चाहिए::अशोकबिन्दु

वार्ड, मोहल्ले, नगर, गांव के साहसी कैसे हैं?
वे जातिवाद के खिलाफ नहीं खड़े हो सकते।
वे मजहबवाद के खिलाफ खड़े नहीं हो सकते।
वे नशा व्यापार के खिलाफ नहीं खड़े हो सकते।
वे अपसंस्कृति के खिलाफ नहीं खड़े हो सकते।
वे माफ़ियावाद के खिलाफ खड़े नहीं हो सकते।
वे खाद्यमिलावट के खिलाफ खड़े नहीं हो सकते।

हां, झूठ फरेब, लोभ लालच, आदि के लिए हिंसा तक फैला सकते हैं।जाति मजहब के लिए हिंसा फैला सकते हैं।
उनका किसी को दिया सम्मान भी झूठा होता है।साल में 10 बार एक ही व्यक्ति अच्छा भी और बुरा भी हो जाता है।


ऐसे लोग किसको सम्माननीय हो सकते हैं?
जय गुरुदेव ठीक कहते हैं-देश का भला दिल्ली कर ही नहीं सकती।वर्तमान तन्त्र कर ही नहीं सकता।


आत्म केंद्रित पांच व्यक्ति ही एक नगर एक गांव में काफी हैं।
उनका साहस ही वास्तव में शास्त्रीय साहस पूर्ण होता है। बाबूजी महाराज कहते हैं,आध्यात्म व्यक्ति  को साहसी बनाता है,वही वास्तव में ब्राह्मणत्व व क्षत्रियत्व में होता है।क्यों न वह दुनिया की नजर में ब्राह्मण, क्षत्रिय न हो। एक व्यक्ति के लिए पांच तत्व उसके पांडव है,उसका शरीर द्रोपदी व आत्मा श्रीकृष्ण।




विद्यार्थी जीवन जिसमें उलझा उससे निकलने की फोर्स कहाँ है::अशोकबिन्दु

विद्यार्थी जीवन जिसमें उलझा है,उससे उबरने के लिए उसके पास परिस्थितियां नहीं होती।

बच्चे घर में बड़ों के संग टीवी पर वे सीरियल देखते हैं, जो बच्चे को विद्यार्थियत्व में नहीं ले जाते।


और ऊपर से-"ये बड़ा आलसी है, इसकी शादी तो ऐसी लड़की से कराएंगे जो चौका बासन भी इससे भी कराए"-ऊपर से ऐसे कमेंट्स,या इसके समकक्ष अन्य कमेंट्स।

कुछ ऐसे वातावरण बन जाते हैं, बच्चों की समझ जिधर जानी चाहिए उधर नहीं जाती।हम उसके लिए परिवार का वातावरण, आस पड़ोस का वातावरण, स्कूल का वातावरण महत्वपूर्ण मानते हैं।उपदेश आदेश महत्वपूर्ण होते तो न जाने कब ये दुनिया में सब सुप्रबन्धन में होता।


वर्तमान का जो भी विद्यार्थी है, उसमें नब्बे प्रतिशत को हम विद्यार्थी ही नहीं मानते। हमने टॉपर व्यक्तियों को भी अपराधी रैंक, सामाजिक रैंक, मजहबी रैंक, भीड़ हिंसा रैंक, जातिवादी रैंक आदि में देखा है। वह आचरण से ज्ञान में नहीं होता, साहस से ज्ञान की ओर नहीं,मानवता की ओर नहीं, संवैधानिक वातावरण की ओर नहीं।

विद्यार्थियों ,किशोर किशोरियों, युवक युवतियों को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला उलझाने वाला विषय विपरीतलिंगाकर्षण व प्रेम होता है। इस उलझन से निकलने के प्रति अभिवावकों, अधयापकों, समाज के ठेकेदारों, समाज,तन्त्र के पास उपदेश, आदेश, दण्ड आदि के तो प्रावधान हो सकते हैं लेकिन वातावरण नहीं।

देश की एक यूनिवर्सटी व विश्व की कुछ यूनिवर्सिटीज ने अब इस विषय पर भी सच्चाई को सामने लाने के लिए पाठ्यक्रम रखा है।समाज व उसके ठेकेदार तो स्वयं उसमें उलझे हैं, वे क्या इस उलझन से विद्यार्थियों, युवक युवतियों को बचाएंगे? इस विषय पर न्याय करना तो बड़ा मुश्किल।

शिक्षा व प्रतिभाओं के लिए वातावरण कितना है?इस पर भी जाते हैं। एक युवक को विकास हेतु विभिन्न प्रोजेक्ट्स पर कार्य करने का जज्बा था।बड़ी मुश्किल से उसे एक राज्य के मुख्यमंत्री से मिलने का अवसर मिला लेकिन निरर्थक। उसे देश से जब कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो,उसने अमेरिका प्रस्थान किया। अमेरिका से वह एक संस्था का डायरेक्टर बन कर भारत आया।अब वह भारत में काम तो कर रहा था लेकिन दूसरे देश के बैनर तले।उसे फिर उस व्यक्ति से मिलने का अवसर मिला जो मुख्यमंत्री था।उस मुख्यमंत्री को कोई अफसोस न था।दरअसल देश व समाज का सिस्टम दलालों, माफियाओं, कुछ परिवारों तक सीमित है। 165करोड़ का देश मुश्किल से ओलम्पिक में एक स्वर्ण पदक जीत पाता है वहीं एक करोड़ का देश 10 -10 स्वर्ण पदक तक जीत लेता है। वहीं शोध कर्म पर, देश में  इस पर भी बेईमानी है।जो स्नातन, परास्नातक नहीं है,या कम नम्बर  रखता है वह क्या नई खोज नई किताब नहीं लिख सकता है?देश एक मुठ्ठी भर लोग रेवड़ियां बांट कर खा रहे है।

समाज व देश के ठेकेदार ,संस्थाओं के मुखिया,तन्त्र आदि  विद्यार्थियों, युवाओं को उलझन,भ्रम आदि से निकाल कर देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं करना चाहते। एक विधायक कहते हैं,हमें भी तो हां में हां मिलाने वाले चाहिए।समाज व देश में अब भी क्षेत्र के कुछ परिवार होते हैं, जो कि ज्ञान, सम्विधान, मानवता आदि के आधार पर नहीं माफिया, नशा, जाति, धन, अपराध, थाना राजनीति, षड्यंत्र आदि आधारित होते है। जो समाज, राजनीति को प्रभावित करते ही हैं,क्षेत्र के अपराधी उनका आश्रय पाते हैं।

क्षेत्र में, देश में विपरीत लिंगाकर्षण,प्रेम के नाम पर जो जवानियों को बर्बाद कर लेते है उसके लिए क्या समाज व देश के ठेकेदारों का कोई दायित्व नहीं है? ठेकेदार ऐसा वातावरण देने में असमर्थ क्यों हैं, जो विपरीतलिंगाकर्षण व प्रेम पर फ़ोकस डाल कर जीवन मे जीवन प्रति आवश्यक आधार खड़ा कर सके।

हर व्यक्ति व बालक का अपना एक स्तर होता है,उस स्तर से उसे देखने की कोशिश नहीं की जाती।एक क्लास में मुश्किल से 02 प्रतिशत ही उस क्लास के स्तर के लोग होते हैं या फिर रतन्ति विद्या धारक होते है।




रविवार, 5 जुलाई 2020

अशोकबिन्दु : दैट इज ...?! पार्ट 11

समाज में नितांत अकेलापन!
किसी ने कहा है-धर्म में भी व्यक्ति अकेला। अधर्म में भी व्यक्ति अकेला।
भीड़ सम्प्रदायों के साथ होती है,जातिवाद के साथ होती है।
समाज व  सामजिकता के बीच पूंजीवाद, पुरोहितवाद, सामन्तवाद, सत्तावाद,जातिवाद, माफिया तन्त्र आदि शान से खड़ा है।

भीम राव अम्बेडकर कहते हैं, देश के अंदर सामाजिक लोकतन्त्र व आर्थिक लोकतन्त्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र भी खतरा है।
एक अपराधी व्यक्ति के साथ उसकी जाति या मजहब का खड़ा होना देश के लिए खतरनाक है। देश में कभी अच्छे दिन नहीं आ सकते।


सन 1947 में देश सैकड़ों देशों के रूप में होता यदि सरदार बल्लभ भाई पटेल नहीं होते। देश व विश्व की राजनीति मानव कल्याण ,मानवता के कल्याण की व्यवस्था समाज व आर्थिक स्तर पर नहीं कर सकती।

समाज व देश के ठेकेदार,कानून के रखवाले माफ़ियावाद, जातिवाद, पूंजीवाद, सत्तावाद, पुरोहितवाद आदि के साथ खड़े हैं।
हम सन 1990-91में पहली बार राजनीति के गलियारे में घुसे लेकिन हम अपने को सन्तुष्ट नहीं कर पाए।


आध्यत्म व मानवता ही से सबका कल्याण है।कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं-मानव का आध्यात्मिक विकास की देश व विश्व को शांति में धकेल सकता है। इसके लिए हमें मानवता व विश्व बंधुत्व से शुरुआत करनी चाहिए।

हम बचपन से ही देखते आये है कि समाज व सामजिकता में मानवता हमेशा मुश्किल में रही है। हमारे लिए पुस्तकें व महापुरुषों की वाणियों को महत्वपूर्ण स्थान रहा है। हमें तो अधिकतर इंसान असुर से कम नजर नहीं आये हैं लेकिन ये आध्यत्म ही है जो हमें जीवन जीना सिखाता है।सभी को प्रकृति अंश व ब्रह्म अंश मान कर एकता व सद्भावना का संकेत मिलता है।


सन1994ई0 के 05 अक्टूबर को पहला विश्व शिक्षक दिवस मनाया जाना शुरू हुआ।उसी वर्ष से हम शिक्षण कार्य से जुड़े और शिक्षक समाज को करीब से जानना ही नहीं महसूस करना भी शुरू किया।विद्यार्थी समाज को तो हम पहले से ही जानने व महसूस करने की कोशिश करते रहे। दोनों समाजों से वास्तव मे मुश्किल से 1.98 प्रतिशत ही रुझान या दिल से या heartfulness education में हैं।मुश्किल से heartfulness teacher या heartfulness student हैं।ज्ञान को कोई नजरिया, सोंच,श्रद्धा व आचरण बनाने का हम प्रयत्न करते रहे हैं।ऐसे में ज्ञान के आधार पर चिंतन, मनन, स्वप्न, कल्पना आवश्यक थी।

समाज में नितांत अकेलापन!
तभी ठीक कहा गया है कि धर्म हो या अधर्म ,इसमें कोई अपना नहीं होता,न कोई पराया।सन्त भी ठीक कहते है, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। बेटा पिता,बेटी मां,पति पत्नी ,स्त्री पुरुष, कुल समाज ,देश विश्व ..........आदि सब व्यवस्था है, प्रबन्धन है जो कि मानव जीवन का सुप्रबन्धनात्मक कर्तव्य है जो कि स्थूलतात्मक है।इससे आगे.... सूक्ष्म व कारण प्रबन्धन भी है। परिवार व रिश्तेदारी स्तर पर भी स्थिति चिंतनीय है।जो रिश्तेदार हमसे अधिक धन दौलत, पद आदि से ऊंचे हैं वे हमारे दरवाजे पर आना तक पसन्द नहीं करते या फिर वे अधर्म, अमानवता,गैरकानूनी हरकतों, लोभ लालच,भेद, मतभेद आदि का वातावरण बनाने का प्रयत्न करते हैं।अपराधी व्यक्ति के पक्ष में खड़े दिखते है।

शनिवार, 4 जुलाई 2020

जिंदा हूँ तो जी लेने दो:: अशोकबिन्दु

जिंदा हूँ तो जी लेने दो।
आज हम ये नहीं कह रहे हैं-"जिंदा हूँ तो जी लेने दो।"
कोरोना संक्रमण के दौरान शुरू के इक्कीस दिन लॉक डाउन ने हमें जीवन की ओर से ये महसूस कराया है।


आप क्या महसूस करते हैं?
हम भी ये महसूस करते है-रोटी, कपड़ा, मकान... बगैरा बगैरा।
अब से 30 साल पहले जो चीजें थीं, उनसे ही हमारी आवश्यकताएं पूरी हो जाती थीं।अब जब घर से बाहर निकलते हैं तो चीजें ज्यादा होती हैं और जेब में सामर्थ्य कम। पूंजीवाद ने जो मार्केट खड़ा कर दिया है, उसने हमें बौना साबित कर ही दिया है।कुदरत को नजरअंदाज कर दिया है ।

हमारे व कुदरत के अंदर कुछ है, जो स्वतः है, निरन्तर है।लेकिन हम उसके अहसास से दूर जा चुके हैं।हम अपने अस्तित्व के अहसास से दूर जा चुके हैं। जीवन की नैसर्गिकता से दूर जा चुके हैं। हम किस व्यवस्था के साक्षी हो जाना चाहते हैं? हम महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं कि हम प्रकृति अभियान/यज्ञ के खिलाफ खड़े हैं।जन्म, मृत्यु, जीवन जीना, जिंदा रहना आदि सब कुदरत है।आयुर्वेद क्या है?आयु का विज्ञान, अवस्था का विज्ञान, प्रबंध का विज्ञान न कि हमारी इच्छाओं का विज्ञान।



हम इस अहसास में नहीं है, विश्वास में नहीं हैं कि उसके बिना पत्ता तक नहीं हिलता।हम बदले की भावना से जीना ही ,कार्य करना उचित समझते हैं न कि अपना कर्तव्य समझ कर। व्यक्ति का कोई स्तर नहीं है।हम जो करते है,उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है ।वही को दूसरा करता है तो उसकी हां में हां मिलता है। किसी में दम नहीं सत्य को जीने की।


कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं, महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप आस्तिक या नास्तिक हैं।महत्वपूर्ण है कि आप महसूस क्या करते हैं?वे 'नियति का निर्माण द हार्टफुलनेस वे '- में कमलेश डी पटेल दाजी क्या कहते हैं?आखिर 'बायोलॉजी ऑफ बिलीफ'में डॉ ब्रूस लिप्टन क्या कहते हैं?'द एक्ट ऑफ क्रियेशन'-में  आर्थर कोसलर क्या कहते है? वे भी ऋषियों के दर्शन पर पहुंचते हैं।हमारी इच्छाओं, तृष्णाओं आदि का जीवन अभियान से सम्बन्ध ही नहीं है।वह तो एक सूक्ष्म से सूक्ष्म व्यवस्था है। जीवन तो अनन्त यात्रा की व्यवस्था है, जिसमें हमारी भूमिका  कर्तव्य निभाने की है न कि इच्छाओं, तृष्णाओं में जीने की।

कुदरत में कोई समस्या नहीं है।समस्या स्वयं मनुष्य है।
माल्थस कहते हैं-मनुष्य जब नियंत्रण में नहीं जीता तो कुदरत नियंत्रण करती है। कुदरत के सामने कोई समस्या नहीं है।वह तो सन्तुलन करना जानती है लेकिन स्वयं मनुष्य समझे।नहीं समझे तो भुगते। इस धरती पर जो भी है वह निरर्थक नहीं है बेकार नहीं है और यदि कोई चीज कोई व्यक्ति हमारेे काम का नहीं है  तो इसका मतलब  यह भी नहीं है  कि हम उसके खिलाफ खड़े हो जाएं  हम उसको जीने ना दे हम उसके अस्तित्व को हम उसकी आवश्यकता ओंं को खलल में डालें यदि हमें अपने दर्दों का अपनी समस्याओं का निदान करना है तो हमें  अन्य के दर्द अंध की समस्याओं प्रति कम से कम  तटस्थ तो रहना ही चाहिए  ऐसा नहीं  कि हम  उसकी मजबूरियों का फायदा उठाएं उसे हम जीने ना दे हम इतने अमीर भी ना बन जाएं  कि लोगों को  खरीदने की  औकात दिखाने लगे  या फिर  सामने वाले को इतना नीचा भी ना कर दें  कि वह  बिकने को तैयार हो जाए ।