Powered By Blogger

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

जो जिस स्तर का है उसे उस स्तर पर जाकर ही अगले स्तर पर ले जाओ, यथार्थ को समझो::अशोकबिन्दु


 सामने वाले को उसी के आधार पर समझो तुलना उचित नहीं ।सामने वाला व्यक्ति जिस स्तर का उस स्तर से उठाने का वातावरण तैयार करो।

 एक उपदेशक थे ।

उनसे किसी ने पूछा महावीर बड़े थे कि बुद्ध बड़े थे।
 उस संत ने कहा यदि आप जान भी गए कि बुद्ध बड़ेे हैं या जैन तो क्या आपके चेतना का स्तर आपकी समझ वर्तमान स्तर से ऊपर उठ जाएगी याआगे बढ़ जाएगी या अनंत से जुड़ जाएगी या फिर तुम बुुद्ध या जैन के स्तर पर हो जाएंगे?

मिठाई को मिठाई के आधार पर ही समझो।खटाई को खटाई के आधार पर ही समझो। सामने जो है, सो है।उसे उसके आधार पर ही समझो। सुनने को मिल तो जाता है कि किसी के माथे पर क्या लिखा है कौन चोर है कौन साहूकार?और फिर दूसरी ओर दूसरे का चरित्र प्रमाण पत्र लिए फिरते हो। आप गाँधी और भगतसिंह को अलग अलग रास्ते का समझते होंगे लेकिन हम नहीं। भगतसिंह ने यथार्थ वाद को स्वीकार किया।यथार्थ की आवश्यकताओं के प्रबंधन को ही जिया। यथार्थ व सत्य को हम एक ही मानते हैं।उसके तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।उन्होंने आपके ईश्वरवाद को भी अस्वीकार कर दिया।अपने दिल से पूछो आप ईश्वर से प्रेम करते हैं कि अपने हाड़ मास शरीर व इन्द्रियों,इच्छओं के लिए जीते हो?परिवार व बच्चों की परवरिश का भी सिर्फ बहाना होता है,मन की गहराई में कहीं अपनी इच्छाएं ही होती हैं।न कि शरणागति , समर्पण न ही तटस्थता।जो कि गीता आदि ग्रन्थों में बताई गई है।


भिक्षुक आनंद अपने गुरु महात्मा बुद्ध से पूंछता है-क्या बात महात्मन?एक दिन आपने एक व्यक्ति के प्रश्न के उत्तर में कह दिया-हां, हो सकता है।आज उससे उल्टा प्रश्न एक व्यक्ति ने पूछा तो फिर आपने कहा दिया कि हां, हो सकता है। क्या चक्कर? 
अनन्त !आपने क्या महसूस नहीं किया कि पहले व्यक्ति को भी ईश्वर के होने या न होने से कोई मतलब न था और दूसरे को भी।
हालांकि पहला अपने को नास्तिक दूसरा अपने को आस्तिक जता रहा था। दोनों तटस्थ नहीं थे, समर्पण में, शरणागति में नहीं थे।दोनों संसार में ही लिप्त थे।लोभ लालच में थे।


हमारा अनेक लोगों से सामना होता है, जो हम लिखते हैं उसके प्रति न तटस्थ होते न शरणागति, समर्पण।वे पहले से उस के प्रति मन में खिलाफत या हमारे विरोध में खड़े होते हैं।

किसी ने कहा है- ईमानदार श्रोता बनो, ईमानदार दृष्टा बनो।तभी यथार्थ को समझ सकते हो।सत्य को समझ सकते हो।और फिर समझना ही काफी नहीं है।महसूस करना भी आबश्यक है। यथार्थ भी सत्य भी अनेक स्तरीय होता है।आप पहले से ही कोई अपना एक नजरिया पाले हो,तो कैसे समझोगे उसे जो है।हरा चश्मा वाले को हरा हरा ,लाल रंग के चश्मा वाले को लाल लाल दिखाई देगा।आपकी चेतना व समझ जिस बिंदु/जिस स्तर पर है, उसी स्तर का दिखाई देगा।जो आधा गिलास खाली ही देख पाता है, उसे आधा गिलास भरा कैसे दिखाई देगा?और फिर इस आधा-आधा के पीछे भी परिस्थितियां व कारण अलग अलग होते हैं। हम अनेक बार महसूस किये हैं- तीनों काल में समाज ,संस्थाओं , धर्म के ठेकेदारों के द्वारा यथार्थ/सत्य आदि को समझा न गया जो वो था।और भविष्य में वे नायक से खलनायक बन गए। आज कल भी ऐसा हो रहा है, परिवार, पास पड़ोस, संस्थाओं, समाज में जो नायक हैं, ठेकेदार है वे भविष्य में खलनायक होने वाले हैं। ऐसा राष्ट्र व विश्व स्तर पर भी है। क्योंकि आज हम जिस स्तर/बिंदु पर अपनी चेतना व समझ को उलझाए हुए हैं, उससे ऊपर भी अनेक स्तर/बिंदु हैं, अनन्त स्तर/बिंदु हैं। पूर्णता नहीं, विकसित नहीं.....वरना विकासशील, निरन्तरता..... हर बिंदु/स्तर पर सुधार की गुंजाइश। इस लिए हम सन्त परम्परा को स्वीकर करते हैं।वह अंगुलिमानों की गलियों से नफरत नहीं करता न ही दण्ड व पुरस्कार की लालसा रखता है।वरन सबका साथ सबका सम्मान।हर अपराध का विरोध,चाहे वह अपने अंदर हो या बाहर।अपने घर हो या दूसरे घर। अपनी जाति में हो या दूसरी जाति में..... सन्तों ने विरोध की शुरुआत अपने से बताई है।अपने घर, अपने संस्था से बताई है।वह विश्वास घात नहीं है। आज कल धर्म व दूसरों को सुधारने के ठेकेदार ही दूसरों की बुराइयों के ठेकेदार ही अपनी किसी बुराई के विरोध पर सुलग जाते हैं।
हम ऐसा भी देखते हैं परिवार, पासपड़ोस, संस्थाओं आदि में कुछ लोग सिर्फ हॉबी रहते हैं।दूसरे को शांति से सुनना नहीं चाहते पहले।

हम जब विद्याभारती,सेवा भारती में थे तो हमने देखा कि समूह ,संस्था के हर व्यक्ति के न्यूनतम क्षमता, कार्यक्रम,कार्य क्षेत्र, न्युनतम लक्ष्य को टारगेट किया जाता था।प्रत्येक क्लास के विद्यार्थी ने न्यूनतम लक्ष्य को भी टारगेट किया जाता था।अधिकतम की तो कोई सीमा ही नहीं।इसलिए तुलना भी ठीक नहीं।सबका अपना अपना स्तर.....




गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

सँभलो!उनसे दूर रहो, फ़िजिकल डिस्टेंसिंग व होम डिस्टेंसिंग::अशोकबिन्दु


 हम प्रकृति अंश और ब्रह्म अंश हैं।जिसकी कोई जाति नहीं कोई मजहब नहीं उसकी आवश्यकताएं हैं उन आवश्यकताओं के लिए हमें एक प्रकार की व्यवस्था में जीना है जो अध्यात्म मानवता संविधान संविधान की प्रस्तावना आदि से होकर गुजरता है।


वसुधैव कुटुंबकम,विश्व बंधुत्व, सागर में कुंभ कुंभ में सागर ,मानवता आदि में जीने का मतलब क्या है? जाति, मजहब ,धर्म स्थलों आदि की राजनीति से ऊपर उठकर एक दूसरे के सहयोग के लिए सहकारिता के लिए एक दूसरे के कल्याण के लिए जीवन जीना । लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सामने वाले को हम अपने करीब लाएं उनसे घरेलू संबंध बनाएं क्योंकि हमें इस पर भी ध्यान देना चाहिए। हम रोजमर्रा की जिंदगी में घरेलू संबंध किसके साथ रखें किसके साथ नहीं रखते? प्रदूषण बहुत है, वैचारिक प्रदूषण भी है, मानसिक प्रदूषण भी है ,शारीरिक प्रदूषण भी है ।ऐसे में फिजिकल डिस्टेंसिंग रखना अति आवश्यक है। होम डिस्टेंसिंग रखना अति आवश्यक है। चलो ठीक है हम जात पात को नहीं मानते ,हम मजहबवाद को नहीं मानते ,हम दूसरे की बेटियों बहुओं माताओं का अंदर दिल से सम्मान भी करते हैं लेकिन तब भी हम सभी से घरेलू संबंध स्थापित नहीं कर सकते । उनके नजदीक बैठकर हम व्यवहार नहीं कर सकते क्योंकि हम आपसे कहना चाहेंगे समाज क्या है आखिर समाज क्या है ? हमारी नजर में हमारा समाज है- वह लोग जो परस्पर प्रतिदिन शारीरिक मानसिक वैचारिक सद्भावना आदि से समान हो । हम जात पात नहीं मानते हम मजहबवाद नहीं मानते, हम दूसरों की बहू बेटियों का भी सम्मान करना जानते हैं लेकिन सामने वाला यादि जात पात को मानता है ,मजहब वाद को मानता है ,जात पात के नाम पर हिंसा भी कर सकता है , लालच के लिए जो दुर्व्यवहार रखने की भी संभावना रखता है तो ऐसे लोगों से फिजिकल डिस्टेंस  रखना आवश्यक है होम डिस्टेंस रखना आवश्यक है ।उनका भोजन ,उनका खानपान यदि तामसी है और हमें दिक्कत करता है तो हमें उनसे दूरी बना कर ही रहना है । वे यदि जाति मजहब के नाम पर अपराधियों को बचाते हैं तो उनसे दूर रहना है दूसरी जाति दूसरे मजहब की बहू बेटियों से जो दुर्व्यवहार करना जेहाद मानते हैं ऐसे लोगों से दूर रहना है ।समाज का मतलब यही है -सम प्लस आज, प्रतिदिन हम जिसके साथ हर स्तर पर समान रहें। उसी के साथ हम आएं और रहें। हां ,इतना है- एक वक्त होता है सत्संग का पूजा पाठ आराधना का ध्यान मेडिटेशन का उस वक्त हमारे दरबार में कोई भी आ सकता है कोई भी जा सकता है लेकिन इस पर ध्यान देने की जरूरत है बे किस लिए आ रहे हैं बे किस भावना से आ रहे हैं? जरूरी नहीं उनका उद्देश्य  वह हो जो हमारा है । हम देख रहे हैं रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे पास पड़ोस संस्था में परिवार में हम जिस विचारधारा में हमारा जो लक्ष्य है उससे उन लोगों को कोई मतलब नहीं होता वह सिर्फ नुक्ताचीनी करना जानते हैं । ऐसे लोगों से दूर रहने की जरूरत है हमारा उद्देश्य दूसरा है उनका उद्देश्य दूसरा है ऐसे में अभी वह हमारे नजदीक आते हैं तब वह हमारे लक्ष्य में बा धा ही बनेंगे ।


गीता में श्री कृष्ण क्या कहते हैं जो भूतों को भेजेगा वह भूतों को प्राप्त होगा जो पितरों को भाजेगा, जो देवों को भजेगा वह देवों को प्राप्त होगा। भूतों, पितरों, देवों से ऊपर भी स्थिति है। उसको प्राप्त करने को लालसयित हो।

सनातन क्या है?
भूतों को भजना?
पितरों को भजना?
देवों को भजना?
ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भजना?
कि-आत्मा , परम् आत्मा को भजना?!
गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
"तू भूतों को भजेगा तो भूतों को प्राप्त होगा, तू पितरों को भजेगा तो पितरों को प्राप्त होगा, तू देवो को भजेगा तो देवों को प्राप्त होगा।"

आखिर हम किसको प्राप्त हो रहे हैं?हम क्या हो रहे हैं?कोई कहता है-98.8प्रतिशत भूत योनि की संभावनाओं में ही जी रहे हैं। आखिर सनातन का मतलब किसको प्राप्त होना है।मृत्यु के वक्त 98.8 प्रतिशत किसको प्राप्त होते हैं?सनातन का मतलब क्या जाति, मजहब, बनाबतों, कृत्रिमता ओं में उलझ जाना है?बसुधैवकुटुम्बकम, विश्व बंधुत्व आदि का मतलब क्या है?



हर रात्रि नौ बजे हम सार्वभौमिक प्रार्थना के लिए बैठते हैं। उस वक्त हमारी प्रार्थना सभी के कल्याण के लिए होती है।और24घण्टा उसी भाव में रहने की कोशिस में रहते हैं। लेकिन हमें अफसोस है कि वार्ड, गाँव में एक ग्रुप ऐसा होता है, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो  जातिवादी, मजहबी, अपराधी, दबंग, माफिया, नशा व्यापारी आदि होते हैं किसी न किसी नेता, दल से जुड़े होते हैं। जो समाज व राष्ट्र के लिए खतरनाक होते है।
हमने देखा है- परिवार,पास पड़ोस, संस्थाओं ,समाज आदि में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो सद्भावना से मुक्त होते है।वे सिर्फ किसी न किसी तरह अपना अस्तित्व चाहते हैं कृत्रिम व्यबस्था में।वे बड़े चतुर होते है।दिखाते ये हैं कि वे परिवार, पास पड़ोस, संस्थाओं मे अति हतैषी हैं-सुप्रबन्धन के लेकिन अंदर से वे बड़े चतुर होते हैं सिर्फ अपना हित सिद्ध करने के लिए।ऐसे लोगों के द्वारा सामने वाला सुधरता भी नहीं है सिर्फ सुधार का दिखाबा सिवा या खुली खमोशी सिबा। वे कोई बुद्ध नहीं होते जो अंगुलिमान की गलियों में जाएं।मनोविज्ञान की नजर में वे अंदर से विकार युक्त होते है।उनकी व्यक्तिगत असफलता चिड़चिड़ा पन, ईर्ष्या, खिन्नता आदि में उनके मन को बदल चुकी होती है। वे तू तड़ाक की भाषा जानते है ।उसी में बात करते हैं।भगत सिंह की तरह वे शांत चित्त हो हर सच्चाई के प्रति ईमानदार भी नहीं होते।न ही सच्चाई के लिए लोभ, लालच आदि कीकुर्बानी का जज्बा रखते है। न ही ये लोग तटस्थता, शरणागति में होते हैं सच्चाई के प्रति।

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

05 अक्तूबर ::विश्व शिक्षक दिवस पर विशेष::शिक्षक से महान कौन?!:::अशोकबिन्दु



वर्तमान में जब हम  विद्यार्थियों, शिक्षितों,शिक्षकों आदि को देखते हैं तो अफसोस होता है। 
हम कहते रहे हैं कि समाज देश और विश्व के लिए तथाकथित शिक्षित एवं शिक्षक व्यक्ति कलंक है । यदि ज्ञान के आधार पर नहीं चलते हैं और उनकी समझ,चेतना, भावना, विचार आदि का स्तर आम आदमी से ऊपर उठकर नहीं है । समाज ,व्यक्ति, प्रकृति विभिन्न घटनाओं को देखने का नजरिया यदि आम आदमी से हटकर नहीं है जातीय जयवीर माफियाओं आदि से हटकर नहीं है तो है समाज देश विश्व के लिए कलंक है। सरकारों को बैठकर निश्चित करना चाहिए संयुक्त राष्ट्र संघ को बैठकर निश्चित करना चाहिए शिक्षित व्यक्ति एवं शिक्षक आचरण से विचार सोच से कैसा होना चाहिए? अनेक लोगों को हमारे लिखने से शिकायत है । लेकिन लिखना ए ? इसका विरोध शिक्षक समाज करें तो चिंतनीय है । हमने अनेक विद्वान अनेक संतो की जीवनी पढ़ी है तो पता चलता है । उनके विरोध में कौन खड़े होते हैं ? जन्मजातउच्चवाद, पुरोहितवाद आदि आखिर ऐसा क्यों? शिक्षक महानता बुनता है.

किसी ने कहा ने कहा है कि न कोई हारा हुआ है न कोई जीता हुआ है। सब अनन्त यात्रा का हिसाब है। धरती की कोई चीज निरर्थक नहीं है। 25 वर्ष तक का जीवन प्रयत्न व प्रयास का जीवन है ही वह ब्रह्मचर्य जीवन भी है अर्थात अन्तरदीप को प्रज्वलित करने का जीवन है। अंतर्ज्ञान को प्रकाशित करने का जीवन है इसके लिए एक अवसर की , एक बातावरण की आवश्यकता है।
 



 आखिर बाबूजीमहाराज ने ऐसा क्यों कहा है कि शिक्षित के अधिकार नहीं होते। सिर्फ कर्तव्य होते हैं। आखिर ऐसा क्यों?