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रविवार, 25 अप्रैल 2010

वैज्ञानिक अध्यात्म: ब्रह्मवर्चस शोध संस्थ���न

05जून1979ई0 को मेँ लगभग छ: वर्ष का था.बीसलपुर (पीलीभीत)स्थित बाला जी की मढ़ी,जहाँ सरस्वती शिशु मन्दिर विद्यालय भी स्थित था.जहाँ हमारे पड़ोस मेँ रहने वाला एक हमउम्र बालक सन्तोष गंगवार कक्षा दो पास होकर तीन मेँ आया था.मैँ उसके साथ वहाँ जाने लगा था.गायत्री परिवार एवं आर्य समाज के लोगोँ के सम्पर्क मेँ भी आ चुका था.इसी दौरान.....?!

शान्ति कुञ्ज द्वारा वैज्ञानिक अध्यात्म की अध्ययन अनुसंधान यात्रा की शुरुआत 05जून1979ई0 को ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना के साथ हुई.उस वक्त पं. श्री राम शर्मा आचार्य ने कहा था

" आज हम सब ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के रूप मेँ जिस वैज्ञानिक अध्यात्म की अनुसंधानशाला की स्थापना कर रहे हैँ,वह कल इक्कीसवीँ सदी के उज्जवल भविष्य का वैचारिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक आधार बनेगी..... ...भविष्य मेँ इसी का विकास महान विश्वविद्यालय के रुप मेँ होगा." श्री राम शर्मा आचार्य का स्वपन साकार हुआ.देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना हुई.जहाँ अब 'वैज्ञानिक अध्यात्म विभाग' की स्थापना भी हो चुकी है.


काफी वर्ष पहले रुस मेँ एक ऐसा कैमरा विकसित हुआ जो व्यक्ति के आभा मण्डल की तश्वीर खीँचता है.जिसके माध्यम से हम विविध जानकारियाँ प्राप्त कर सकते हैँ-व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर किस स्तर का है,उसे भविष्य मेँ कौन से रोग हो सकते हैँ.आभा मण्डल के माध्यम से अनेक निष्कर्षोँ तक पहुँचा जा सकता है.आप सब को ज्ञात होना चाहिए कि रंग सुगन्ध ध्वनि प्रकाश तरंग आदि का सूक्ष्म जगत मेँ काफी महत्व है जो स्थूल शरीर व जगत को भी प्रभावित करता है.इसी सिद्धान्त के तहत अब कलर थेरेपी ,साउण्ड थेरेपी, सुगन्ध थेरेपी, आदि का विकास सम्भव हो सका है.तरंग ,प्रकाश व रंग को प्रभावित करने वाली भौगोलिक घटनाओँ ,ग्रहोँ, आदि की स्थितियोँ ने ज्योतिष विज्ञान, रत्न विज्ञान ,आदि को जन्म दिया.शरीर जिन पंच तत्वोँ से बना है,उन पाँच तत्वोँ का भी अपना अपना रंग होता है.

अमेरीका स्थित एक संस्था सूक्ष्म शरीर पर शोध कर रही है जिसे भूत कहा जा सकता है.एक पुस्तक' लाइफ आफ द लाइफ'मेँ ऐसे व्यक्तियोँ के अनुभवोँ को संकलित किया गया है जो चिकित्सकोँ की दृष्टि मेँ मर चुके थे लेकिन फिर जिन्दा हो गये. विज्ञानवेत्ता स्टुअर्ट हाल रायड ने अपनी पुस्तक 'मिस्ट्रीज आफ इनरसेल्फ'मेँ कहा है कि ओ .ब .ई( शरीर से बाहर अनुभव)की अधिकतर घटनाएँ दूरी का अतिक्रमण करके स्थान के सम्बन्ध मेँ पायी गयी हैँ,लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी भी पाई गई हैँ जिसमेँ समय का भी अतिक्रमण हो सकता है.दुनियां के तमाम पन्थ आत्मा और सूक्ष्म शरीर(भूत)के अस्तित्व को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करते हैँ.खैर.....


अन्ध विश्वासोँ से निकल कर अपने पन्थ -जाति, आदि के रीतिरिवाजोँ -विचारों को वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतारने के बाद जो शेष बचता है वही वैज्ञानिक अध्यात्म है. वैज्ञानिक अध्यात्म के जगत मेँ
ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान का योगदान सराहनीय रहेगा जिसने वैज्ञानिक अध्यात्म युग का श्रीगणेश किया है.हाँ अब कुछ गाय पर भी कुछ कह दूँ.


जब व्यक्ति के मन मेँ विकार आते हैँ व्यक्ति सिर्फ भोगवादी भौतिकवाद मेँ जीता है-प्रकृति का विदोहन बढ़ जाता है.
धर्म व मोक्ष से हट अर्थ व काम महत्वपूर्ण हो जाता है.प्रकृति असन्तुलन बढ़ जाता है.मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगती है.कहते हैँ कि गाय के सीँगोँ पर पृथ्वी टिकी है....क्या कहा गाय के सींगोँ पर..?!हाँ!जरा इसे विज्ञान की कसौटी पय कसिए तो....

हजरत मोहम्मद साहब ने कहा है कि गाय का दूध गिजा है घी दबा और गोस्त बीमारी है.महात्मा गाँधी ने कहा है कि गाय की रक्षा करना ईश्वर की सारी मूक सृष्टि की रक्षा करना है.

गाय का सम्मान(सीँग)जब थक जाते है अर्थात कमजोर पड़ जाते हैँ तब धरती हिलती है.समृद्ध भारत का इतिहास गाय के सम्मान व सेवा के जिक्र के बिना अपूर्ण है. अनेक वैज्ञानिक सिद्ध कर चुके हैँ कि कृत्रिम वर्षा कराने मेँ सहायक प्रोपलीन आक्साइड गैस हमेँ गाय के घी को हवन से प्राप्त होती है.गाय के दूध मेँ STRONTIONतत्व पाया जाता है जो अणु विकरण का प्रतिरोधक है.कोलेस्ट्राल की मात्रा बढ़ जाने पर भी गाय के दूध से बना घी नुकसानदायक नहीँ होता है. गाय के मूत्र मेँ विटामिन बी तथा कार्बोलिक एसिड होता है जो रोगाणुओँ का नाश करता है.

वैज्ञानिक कहते
है कि अगला युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा मै कहता हूँ कि इसके बाद का युद्ध गाय के लिए लड़ा जाएगा.मनुष्योँ मेँ प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने तथा भावी पीड़ी के स्वास्थ्य के लिए हर घर मेँ गाय का पालन आवश्यक है.प्रति व्यक्ति पाँच वृक्षोँ अर्थात पंचवटी का निर्माण आवश्यक है.

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

कलि औरतेँ-2

'सद्भावना'इमारत के समीप ही एक इमारत थी,जिसके मुख्य गेट पर लिखा था -अतिथि कक्ष.अफस्केदीरन अर्थात आरदीस्वन्दी की माँ नारायण के साथ अतिथि कक्ष मेँ पहुँची .


नारायण के गुरु अर्थात ' महागुरु' जिन्होंने 'सद्भावना' इमारत का निर्माण करवाया था,आखिर उन्होँने सद्भावना मेँ रोबेट स्त्रियाँ अर्थात 'ह्यूमोनायड' क्योँ रखे?

अब से 220वर्ष पूर्व अर्थात सन 4800ई0 के19जनवरी , एक पिरामिड आकार की भव्य बिल्डिँग मेँ मैरून वस्त्रोँ मेँ स्त्री -पुरुष मेडिटेशन मेँ बैठे थे.महागुरु की उम्र उस वक्त 30 वर्ष थी.आज उसके छोटे भाई की शादी लेकिन वह स्वयं बड़ा होकर भी अभी अविवाहित ?क्या लोक मर्यादाएँ- परिवार मर्यादाएँ?गरीब व मजबूर जनता के लिए तो सब घोर कलियुग का परिणाम ..!मुट्ठी भर दस प्रतिशत लोग सिर्फ एश्वर्यवान व सभी शक्तियोँ के अधिकारी थे.अन्तरिक्ष की अन्य धरतियोँ पर यहाँ के पूँजीपति व वैज्ञानिक लगभग सन 2150ई0 से ही जा जा कर रहने लगे थे .विभिन्न कारणोँ से धरती पर आक्सीजन ,आनाज ,फल, सब्जियोँ ,आदि की उपलब्धता नाम मात्र की रह गयी थी .मध्यम वर्ग बिल्कुल समाप्त हो चुका था.उच्च वर्ग व निम्न वर्ग;दो मेँ समाज विभाजित हो चुका था.प्राकृतिक मनुष्योँ से कई गुनी ज्यादा संख्या कृत्रिम मनुष्योँ , साइबोर्ग व ह्यूमोनायड की थी.सन2165ई0 मेँ भारतीय उपमहाद्वीप व चीन को दो भागोँ मेँ विभाजित करने वाली घटना ,जिसने अरब की खाड़ी को चीन के सागर से होकर प्रशान्त महासागर से मिला दिया था; के दौरान भूकम्प मेँ पूरे के पूरे शहर नष्ट हो गये थे.अनेक धर्म स्थल नष्ट हो गये थे .वैसे भी प्रकृति योग स्वास्थ्य मानवता आदि के सामने बाइसवीँ सदी के प्रथम दशक तक स्थापित धर्म स्थलोँ महत्व कमजोर पड़ गया था तथा आश्रम, आक्सीजन केन्द्र, योग केन्द्र का महत्व बढ़ गया था.इक्कीसवीँ सदी के आदर्श पुरुषोँ मेँ से एक डा.ए पी जे अब्दुल कलाम का यह कथन सत्य साबित होने की ओर था कि आने वाली
नस्लेँ हमेँ इस लिए याद नहीँ करने वाली कि हम जाति ,पन्थ, रीति रिवाजोँ के लिए सिर्फ संघर्ष करते रहेँ.इक्कीसवी सदी तक पूजे जाने वाले अनेक जातीय व मजहबी नेता आदि नकारे जा चुके थे.विश्व को सार्बभौमिक ज्ञान, भाईचारा, आदि की ले जाने वालोँ का ही अब सिर्फ सम्मान बचा था.अब फिर जाति के स्थान पर वर्ण व्यवस्था का
महत्व बढ़ गया था.




"आर्य,उन्मुक्त!तुम ख्वाब छोड़ दो कि कोई मिलेगी .ऐसे मेँ तुम्हेँ कोई नहीँ मिलनी .फिर अब वैसे भी सब स्त्री पुरुष मिल जुल कर बेटोक रहते हैँ ."


" फिर भी....."



"तुम जिन अर्थात जितेन्द्रिय नहीँ हो ?कामुकता तुम्मे जोर मार रही है ?अब जब हर परिस्थितियोँ मेँ स्त्री पुरुष के साथ साथ रहने के अवसर है तो काहे की खिन्नता ?जरूर तुम काम के वशीभूत हो?सन्तानोत्पत्ति तुम करना नहीँ चाहते.गृहस्थ जीवन के परम्परागत दायित्वोँ व मर्यादाओँ मेँ भी जी नहीँ सकते ,तब तो फिर वही मेडिटेशन , गीता व कुरआन"

महागुरु का वास्तविक नाम था-उन्मुक्त जिन.


उन्मुक्त जिन मेडिटेशन हाल मेँ अनेक स्त्री पुरुषोँ के बीच मेडिटेशन मेँ बैठा था.मेडिटेशन मेँ वह बैठा जरूर था लेकिन.....उसके कानोँ मेँ आवाज गूँज रही थी -

" आर्य,उन्मुक्त!तुम अभी जिन नहीँ हुए हो ,जिन के नाम पर तुम पाखड़ी हो.तुमको अभी और कठोर तपस्या करनी होगी."

* * * *


उन्मुक्त जिन के अज्ञातबास मेँ जाने के बाद कुख्यात औरतेँ ब्राह्माण्ड मेँ बेखौफ हो आतंक मचाने लगीँ .इन कुख्यात औरतोँ के बीच एक पाँच वर्षीय बालक ठहाके लगा रहा था.

इधर तीन नेत्र धारियोँ की धरती सनडेक्सरन पर आपात कालीन बैठक मेँ अनेक धरतियोँ के प्रतिनिधि उपस्थित थे.जिसमेँ औरतोँ की बहुलता थी.सभी इस बात के लिए चिन्तित थे कि कैसे ब्राह्माण्ड महा सभा मेँ अपना बहुमत बनाया जाये जो कि उन्मुक्त जिन के अज्ञातबास मेँ जाने के बाद कमजोर पड़ने लगा था और कुख्यात शक्तियाँ अपना मुँह फैलाने लगी थीँ.

एपीसोड-2
www.antaryahoo.blogspot.com
लेखक:अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

सेव अर्थ:बस,अभी कागज, ��ाषण, रंगारंग कार्यक्��म!

यह सत्य है कि संसार की कोई वस्तु एक अवस्था मेँ नहीँ रहती लेकिन हम बुद्धिमान प्राणी हैँ . किसी वस्तु के एक अवस्था मेँ न रहने की प्रक्रिया को धीमा जरुर रख सकते हैँ . पूँजीवादी व्यवस्था सत्तावाद भोगवाद आदि ने हमेँ विचलित किया .अरण्य सहचर्य या प्रकृति सहचर्य की जो व्यवस्था दी गयी थी ,उस पर अवरोध लगते गये . ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ, वानप्रस्थ ,सन्यास;इन चारो आश्रमोँ का महत्व अरण्य (प्रकृति)सहचर्य के बिना नहीँ था . जीवन को सुन्दर बनाने के लिए काम ,अर्थ ,धर्म, मोक्ष मेँ सन्तुलन आवश्यक था .जब सिर्फ काम व अर्थ को महत्व बढ़ा तो पूँजीवाद तथा सत्तावाद का भी दबाव बढ़ना प्रारम्भ हुआ . स्वनिर्मित वस्तुएँ बढ़ती गयीँ,प्रकृति सहचर्य टूटता गया,विदोहन व भोग बढ़ता गया ,आदि आदि. अब परिणाम सामने हैँ.हमारे मन विकार युक्त हो ही चुके हैँ,प्रकृति को भी विकार युक्त कर दिया है . हम अपने को नहीँ सुधार सकते तो क्या ?प्रकृति अपना सन्तुलन बैठाएगी ही,जिसमे हमारा विनाश होगा ही.
अब जो प्रलय की प्रक्रिया शुरू हुई है उसके लिए मनुष्य ही दोषी है.लेकिन ब्राह्माण्ड मेँ अनेक पृथ्वियाँ बनती बिगड़ती हैँ . पूरी की पूरी आकाश गंगा विशाल प्रकाश मेँ सिमट कर अपना अस्तित्व खो देती है. यह सत्य है कि संसार की वस्तुएँ एक अवस्था मेँ नहीँ रहती लेकिन प्रकृति की जिस अवस्था को हम अब झेलते जा रहे हैँ उसमेँ रुकावट अवश्य पैदा की जा सकती है .काम व अर्थ मेँ लिप्त होने के कारण मनुष्य ने अपने मन की दशा दिशा बिगाड़ ली है.जिसकी आखिरी हद प्रकृति एवं मानव के विनाश पर जा टिकती है .हम त्याग बलिदान की भावना से मुक्त हो चुके हैँ,क्योँ न हम प्रति वर्ष त्याग बलिदान के पर्व मनाते होँ.हम स्थानीय स्तर पर देखते हैँ कि निज स्वार्थ मेँ मनुष्य कितना गिर चुका है ?जब उनसे बात करो तो वे कुतर्क दे अपना बचाव करते हैँ.वैज्ञानिक आविष्कारोँ के बाद से सत्रहवीँ सदी से जो वातावरण बना उसने हमारी पुरातन सोच को बिगाड़ दिया है कि जो जहाँ जैसा है ,प्रकृति को उसे वैसा रखा जाए.


अपने वैचारिक मित्र सुनील सम्वेदी ,राजेन्द्र प्रसाद शर्मा ,आदि के सहयोग से हम पर्यावरण सन्तुलन, वृक्षारोपण ,जल बचाव ,आदि के लिए जनता को जागरुक करने का प्रयत्न करते रहे हैँ . लेकिन लगता है कि ' सेव अर्थ:जीवन बचाओ'अभियान एक प्रकार का महासंग्राम है .जो त्याग व समर्पण के बिना नहीँ जीता जा सकता. हम देख रहे हैँ कि कैसे कैसे लोग सब कुछ जानने के बाद भी परम्पराओँ के नाम पर या अन्य बहाने या निज स्वार्थ अब भी प्रकृति विदोहन मे लगे रहते हैँ.शासन प्रशासन कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार मेँ संलिप्त हो कर खामोश रह जाता है तथा नेता गण वोटोँ के स्वार्थ मेँ.मानव की सोँच बदले बिना हम धरती के सँकट से नहीँ उबर सकते.हमे लगता है कि 95प्रतिशत से अधिक जनता को धरती के सँकट से कोई मतलब नहीँ है.बस,उसे अपने स्वार्थ सिद्ध होँ.ओह!मनुष्य की संकीर्ण सोँच,भ्रष्टाचार व कुप्रबन्धन के रहते नेताशाही नौकरशाही भी भी ईमानदारी से आन्दोलनकारियोँ को सहयोग नहीँ दे पाते.निज स्वार्थी एवँ निज कैरियरवादी लोगोँ के बीच जागरुकता व अन्वेषणात्मक बातेँ करना अपनी मजाक बनवाना ,आदि हैँ.तब क्या हम भी खामोश हो कर बैठ जाएँ?नहीँ, हरगिज नहीँ.. जब वे अपनी मनमानी कर सकते है तो हम धर्म , सत्य, धरती पर जीवन, आदि के लिए मनमानी नहीँ कर सकते. इस शरीर को मर जाना ही है तो फिर क्योँ न त्याग व समर्पण के साथ धरती को बचाने के लिए लगा जाएँ .इसके साथ ही जरूरत है हम सब को अपने जीवन शैली को बदलने की.मन को उदार बनाने की.बच्चोँ को अभी से सार्बभौमिक ज्ञान व प्रकृति संरक्षण प्रति लालायित करने की.


अशोक कुमार वर्मा 'बिन्दु'

www.slydoe163.blogspot.com

22अप्रैल,अर्थ डे:बस,भाषण, रंगारंग कार्यक्रम!

पूँजीवादी व्यवस्था, सत्तावाद भोगवाद आदि ने हमेँ विचलित किया .अरण्य सहचर्य या प्रकृति सहचर्य की जो व्यवस्था दी गयी थी ,उस पर अवरोध लगते गये . ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ, वानप्रस्थ ,सन्यास;इन चारो आश्रमोँ का महत्व अरण्य (प्रकृति)सहचर्य के बिना नहीँ था . जीवन को सुन्दर बनाने के लिए काम ,अर्थ ,धर्म, मोक्ष मेँ सन्तुलन आवश्यक था .जब सिर्फ काम व अर्थ को महत्व बढ़ा तो पूँजीवाद तथा सत्तावाद का भी दबाव बढ़ना प्रारम्भ हुआ . स्वनिर्मित वस्तुएँ बढ़ती गयीँ,प्रकृति सहचर्य टूटता गया,विदोहन व भोग बढ़ता गया ,आदि आदि. अब परिणाम सामने हैँ.हमारे मन विकार युक्त हो ही चुके हैँ,प्रकृति को भी विकार युक्त कर दिया है . हम अपने को नहीँ सुधार सकते तो क्या ?प्रकृति अपना सन्तुलन बैठाएगी ही,जिसमे हमारा विनाश होगा ही.
अब जो प्रलय की प्रक्रिया शुरू हुई है उसके लिए मनुष्य ही दोषी है.लेकिन ब्राह्माण्ड मेँ अनेक पृथ्वियाँ बनती बिगड़ती हैँ . पूरी की पूरी आकाश गंगा विशाल प्रकाश मेँ सिमट कर अपना अस्तित्व खो देती है. यह सत्य है कि संसार की वस्तुएँ एक अवस्था मेँ नहीँ रहती लेकिन प्रकृति की जिस अवस्था को हम अब झेलते जा रहे हैँ उसमेँ रुकावट अवश्य पैदा की जा सकती है .काम व अर्थ मेँ लिप्त होने के कारण मनुष्य ने अपने मन की दशा दिशा बिगाड़ ली है.जिसकी आखिरी हद प्रकृति एवं मानव के विनाश पर जा टिकती है .हम त्याग बलिदान की भावना से मुक्त हो चुके हैँ,क्योँ न हम प्रति वर्ष त्याग बलिदान के पर्व मनाते होँ.हम स्थानीय स्तर पर देखते हैँ कि निज स्वार्थ मेँ मनुष्य कितना गिर चुका है ?जब उनसे बात करो तो वे कुतर्क दे अपना बचाव करते हैँ.वैज्ञानिक आविष्कारोँ के बाद से सत्रहवीँ सदी से जो वातावरण बना उसने हमारी पुरातन सोच को बिगाड़ दिया है कि जो जहाँ जैसा है ,प्रकृति को उसे वैसा रखा जाए.


अपने वैचारिक मित्र सुनील सम्वेदी ,राजेन्द्र प्रसाद शर्मा ,आदि के सहयोग से हम पर्यावरण सन्तुलन, वृक्षारोपण ,जल बचाव ,आदि के लिए जनता को जागरुक करने का प्रयत्न करते रहे हैँ . लेकिन लगता है कि ' सेव अर्थ:जीवन बचाओ'अभियान एक प्रकार का महासंग्राम है .जो त्याग व समर्पण के बिना नहीँ जीता जा सकता. हम देख रहे हैँ कि कैसे कैसे लोग सब कुछ जानने के बाद भी परम्पराओँ के नाम पर या अन्य बहाने या निज स्वार्थ अब भी प्रकृति विदोहन मे लगे रहते हैँ.शासन प्रशासन कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार मेँ संलिप्त हो कर खामोश रह जाता है तथा नेता गण वोटोँ के स्वार्थ मेँ.मानव की सोँच बदले बिना हम धरती के सँकट से नहीँ उबर सकते.हमे लगता है कि 95प्रतिशत से अधिक जनता को धरती के सँकट से कोई मतलब नहीँ है.बस,उसे अपने स्वार्थ सिद्ध होँ.ओह!मनुष्य की संकीर्ण सोँच,भ्रष्टाचार व कुप्रबन्धन के रहते नेताशाही नौकरशाही भी भी ईमानदारी से आन्दोलनकारियोँ को सहयोग नहीँ दे पाते.निज स्वार्थी एवँ निज कैरियरवादी लोगोँ के बीच जागरुकता व अन्वेषणात्मक बातेँ करना अपनी मजाक बनवाना ,आदि हैँ.तब क्या हम भी खामोश हो कर बैठ जाएँ?नहीँ, हरगिज नहीँ.. जब वे अपनी मनमानी कर सकते है तो हम धर्म , सत्य, धरती पर जीवन, आदि के लिए मनमानी क्योँ नहीँ कर सकते? इस शरीर को मर जाना ही है तो फिर क्योँ न त्याग व समर्पण के साथ धरती को बचाने के लिए लगा जाएँ .इसके साथ ही जरूरत है हम सब को अपने जीवन शैली को बदलने की.मन को उदार बनाने की.बच्चोँ को अभी से सार्बभौमिक ज्ञान व प्रकृति संरक्षण प्रति लालायित करने की.


अशोक कुमार वर्मा 'बिन्दु'

www.slydoe163.blogspot.com

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

लघु कथा :शिल्पा से सेर���ना (कोई है मेरी कल्पन��ओँ का खरीददार?जिसको म���लेगा कुछ शर्तोँ के आधार पर मेरे जीवन भर की मेरी कल्पनाओँ पर कापीराइट,चाहेँ होँ तश्वीरे कहानी उपन्यास मानचित्र या अन्य)

सन2165ई0की मार्च!

भविष्य त्रिपाठी राघवेन्द्र खन्ना के साथ उपस्थित था.जो कि दोनोँ अब
'साईबोर्ग' थे.

दोनोँ के बीच सम्वाद चल रहा था-
"दस करोड़ इक्कीस वर्ष पहले टेथिस सागर द्वारा विभाजित इण्डो आस्ट्रेलियन और यूरेशियन प्लेट,जो पहली बार करीब छ: करोड़ वर्ष पहले टकरायी.जो प्रति वर्ष एक दूसरे के तरफ दो इंच खिसकती रही थी.लेकिन...."

" एक पुस्तक' जय कुरुशान जय कुरुआन'से जानकारी मिलती है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के नष्ट होने एवं आर्योँ के हिन्दुकुश क्षेत्र से पलायन का कारण इण्डो आस्ट्रेलियन और यूरेशियन प्लेट के करीब आने से आया भूकम्प ही था. "

"यह सत्य हो सकता है लेकिन.... "


"अरे छोड़ो!हाँ,भविष्य ! ...तो पुष्प कन्नौजिया को फिर आप मरने से क्योँ नहीँ बचा पाये?उसको भी साईबोर्ग बनाया जा सकता था. "



" पुष्प साईबोर्ग बनने के खिलाफ था.प्रकृति पर अपनी इच्छाएँ थोपने के खिलाफ था. हालाँकि विज्ञान के सहयोग से वह एक सौ सात वर्ष तक जिया था."


" तो इस हिसाब से........ "


"वह 26जून2100ई0को इस दुनिया से चला गया. "


"सेरेना 'आज्ञा'की बड़ी बहिन थी लेकिन..... "


" जब मै मीरानपुर कटरा मेँ था तो आज्ञा से मेरी मुलाकात होती रहती थी.हालाँकि वह आदर्श इण्टर कालेज मेँ पढ़ती थी और मैँ श्री बलवन्त सिँह इण्टर कालेज मेँ . उसने एक बार मुझे अपनी बड़ी बहिन सेरेना के बारे मेँ बताया था. "


"क्या? "


" अपना घर छोड़ने से पहले सेरेना का नाम था-शिल्पा सिँह . "


"तो सेरेना अर्थात शिल्पा सिँह को अपना घर क्योँ छोड़ना पड़ा?"



"दरअसल......"


फिर--


सेरेना उर्फ शिल्पा सिँह.....?!


अब वह एक शोध छात्रा थी.हालाँकि वह अभी शादी नहीँ करना चाहती थी लेकिन माता पिता के दबाव मेँ आकर शादी करनी पड़ी . उसे अपना पति पसन्द न आया,वह दारू पीता था और हर रात नई नई लड़कियोँ से सम्बन्ध स्थापित करता था . जब शिल्पा सिँह ने विरोध करना शुरू कर दिया तो वह उसे पीटने लगा .

जीवन जीने का मतलब यह तो नहीँ कि घुट घुट कर जिओ और फिर क्या व्यक्तिगत जीवन?कम से कम व्यक्तिगत जीवन तो सहज रहे ! यह तथाकथित अपने या परिजन कैसे?जब अपने करीब के लोगोँ का दुख दर्द तथा भावनाओँ को न समझ पायेँ.जब समाज से भी हमदर्दी न मिले तो.....!?मनुष्य तो सामाजिक प्राणी है लेकिन जब वह निर्दोष हो कर भी समाज से अलग थलग पड़ने लगे तो क्या स्थान परिवर्तन आवश्यक नहीँ हो जाता?सम्मान से अपना जीवन जीने का हक सभी को है.

फिर--

शिल्पा सिँह ने अपने पति से तलाक ले लिया.

ससुराल पक्ष एवं मायके वाले उससे नाराज हो ही गये ,समाज मेँ भी उस पे लोग उँगलियाँ उठाने लगे.वह एक प्राइवेट स्कूल मेँ पढ़ाने लगी और अपने शोध कार्य मेँ लग गयी लेकिन समाज की और से मिलने वाले कमेन्टस उसे परेशान करने लगे.

एक दिन उसकी मुलाकात जी एफ कालेज शाहजहाँपुर मेँ एक सेमीनार कार्यक्रम के दौरान एक पादरी से हुई.जिसके दार्शनिक भाषण से वह काफी प्रभावित हुई.फिर वह सम्बन्धित चर्च मेँ प्रति रविवार प्रार्थना सभा मेँ जाने लगी.लगभग एक वर्ष बाद वह मतान्तरण कर शिल्पा सिँह से सेरेना बन गयी.


सेरेना की आत्म कथा -'मेरे जीवन के कुछ पल ' दीवार मेँ फिट स्क्रीन पर थी . सेरेना की आत्म कथा के आधार पर--
सेरेना के एक मार्गदर्शक थे,जिन्हेँ वह 'सर जी' कह कर पुकारती थी.उससे मिलने वाली लड़कियोँ मेँ एक थी शिवानी.उसे और सर जी को लेकर समाज विद्यालय एवं स्वयं शिवानी मेँ भ्रम शंका पैदा हो गयीँ थी.शिवानी की तरह पुष्प भी सर जी के स्ऩेह के पात्र बन चुके थे.

* * * *


अब सन5020ई0 की 10 सितम्बर !

आरदीस्वन्दी का जन्म दिन ! लाखोँ प्रकाश दूर सनडेक्सरन धरती पर पिरामिड आकार की एक भव्य बिल्डिँग मेँ आरदीस्वन्दी किशोरी का जन्म दिन मनाया जाना था .

अग्नि क्लोन पद्धति का स्पेशलिस्ट था.अपनी प्रयोगशाला मेँ वह एक क्लोन के सामने उपस्थित था .

यह युवक सम्कदेल वम्मा का प्रतिरुप !जिसे ले कर अग्नि आरदीस्वन्दी की बर्थ डे पार्टी मेँ उपस्थित हुआ.जब आरदीस्वन्दी ने इस प्रतिरुप को देखा तो-

"सम्कदेल ! "

वह तेजी के साथ सम्कदेल वम्मा के प्रतिरुप के पास जा पहुँची लेकिन फिर -

"सम्कदेल !वह तो मर चुका है तो फिर आप ........!क्षमा! "

तेजी से अग्नि के पास आकर -

"अग्नि अण्कल!जरुर यह आपकी कृति होगी लेकिन यह हमारे उस सम्कदेल का स्थान नहीँ ले सकती."


" आरदीस्वन्दी! जैसा तुम सम्कदेल वम्मा से व्यवहार करती थी वैसा ही इसके साथ करके देखो . पता चल जायेगा कि यह बिल्कुल सम्कदेल वम्मा ही है."

" अच्छा,तो ऐसी बात ! देखूँगी."


लेखक:अशोक कुमार वर्मा 'बिन्दु'

E.MAIL:akvashokbindu@gmail.com

शेष फिर....

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

धर्मेण हीना:पशुभि:समाना:

जवानी तक सब ठीक रहता है.ऊर्जा जोश भ्रम ख्वाब उम्मीद आदि मेँ जीवन का यथार्थ भूल जाते हैँ.अहंकार एवं काम जवानी का पर्याय बन जाता है.धर्म से मानसिक लगाव नहीँ होता.लगाव तो दुनिया की चमक धमक से होता हैँ.सांसारिक माया मोह को मन मेँ रखते चले जाते हैँ.धर्म से शून्य मन की दशा दिशा काम की ओर हो जाती है.30उम्र पार करते करते इन्द्रियाँ एवं शरीर कमजोर मन जबाब देने लगता है.अभी तक हम मान रहे थे कि अभी क्या रोगियोँ जैसा भोजन आचार विचार,हर वक्त धार्मिक आध्यात्मिक बातेँ!वही फूकी हुई पुरानी बातेँ,बुजुर्गो की बातेँ!लेकिन उम्र ढलने के साथ ही.....

वही फुकी हुई बुजुर्गोँ वाली बातेँ इधर उधर लिखे सुवचन अच्छे लगने लगते हैँ फिर महसूस होता है कि धर्म अध्यात्म की ओर रुझान किशोरावस्था मेँ ही हो जाना चाहिए.अब समझ मेँ आता है कि ऋषियोँ नबियोँ ने 25वर्ष तक की अवस्था तक ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिए क्योँ कहा?वास्तव मेँ हम विद्यार्थी या ब्रह्मचर्य जीवन जीये ही न थे.कर्म व आचरण से ठीक थे तो क्या?मन से क्या थे?चलो कोई बात नहीँ,जब जाग जाओ तभी सबेरा.


यह क्या?बच्चे अब शादी के लायक होगये लेकिन मन अब भी अतृप्त एवं अशान्त !अपने मन को जानने या आत्म दर्शन का साहस नहीँ.अन्दर तो अँधेरा ही अँधेरा .और फिर नाच न आवे आँगन टेँढ़ा.अपनी कमजोरियोँ को छिपाने के लिए अनेक बहाने तथा अन्य की कमजोरियोँ के बहाने अपनी सफाई रखना.हमने ऐसे कुछ बुजुर्गोँ को देखा है जिन्हेँ चलना मुश्किल है या चारपाई पर पड़े रहते हैँ या मौत का इन्तजार कर रहे हैँ लेकिन उनके मन से माया मोह कामना बासना आदि निकली नहीँ है.
हम तो यही मानते है कि इन्होने जीवन मेँ अपने लिए कुछ नहीँ किया है.ऐसा देखने को आया है कि कुछ सेवानिवृत्त के बाद अपना फण्ड आदि आश्रम मेँ दान कर अपना जीवन आश्रम मेँ व्यतीत करने लगते हैँ लेकिन सब निर्रथक,जब तक मन को बहलाए रखते हैँ या भजन आदि मेँ रहते हैँ तब तक ठीक .नहीँ तो मन की गहराई तक वहीँ पूर्वाग्रह कामुकता खिन्नता अशान्ति आदि.
हमारे सनातन ऋषियोँ नबियोँ ने जीवन का उद्देश्य धर्म अर्थ काम मोक्ष मेँ सन्तुलन बताया है.सिर्फ काम के लिए जीवनी शक्ति लगा देने से आत्मा को कब चैन मिलने वाला?पानी सूख जाये तो क्या कमल की नार कम हो जाय?मन मेँ दुनियादारी भर लेने से ,सार्वभौमिकहीनता,पूर्वाग्रह,आदिभर लेने से शेष धर्म आध्यात्मिकता हमारी धर्म आध्यात्मिकता नहीँ हमारी,कोशिस होती है सिर्फ धर्म आध्यात्मिकता की ओर जाने की.

धर्म क्या है?समाज जिसे धर्म मानता है,वह धर्म नहीँ हैँ.हिन्दू हो या अन्य , सबका धर्म तो एक ही है.

मनुस्मृति कहती है कि-

धृति क्षमादमास्तेयंशौचममिन्द्रिय निग्रह .

धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशम् धर्म लक्षणम् ..

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

लघु कथा : कलि- औरतेँ! (कोई है मेरी कल्पनाओँ का खरीददार ! वादा करता हूँ कि जो मेरी कल्पनाओँ को खरीदेगा मेरी जीवन भर की सारी कल्पनाएँ कुछ शर्तोँ के साथ इस्तेमाल कर सकता है.जिसके पास ही कापी राइट होगा.

 



जंगल के बीच एक विशालकाय इमारत ! इमारत के बाहर अनेक जीव जन्तुओँ एवं महापुरूषोँ-कृष्ण विदुर ,महावीर जैन ,बुद्ध, चाणक्य, ईसामसीह ,सुकरात, कालिदास ,दाराशिकोह, कबीर, शेरशाहसूरी ,गुरूनानक ,राजा राममोहनराय, साबित्री फूले ,राम कृष्णपरमहंस ,महात्मा गाँधी, एपीजे अब्दुल कलाम, साँई बाबा, ओशो , अन्ना हजारे, आदि की प्रतिमाएँ पेँड़ पौधोँ के बीच स्थापित थीँ . इमारत के अन्दर बातावरण आध्यात्मिक था.वेद कुरान बाइबिल आदि से लिए गये अमर वचन जहाँ -तहाँ दीवारोँ पर लिखे थे.इसके साथ ही सभी पन्थोँ के प्रतीक चिह्न अंकित थे.मन्द मन्द 'ओ3म -आमीन' की ध्वनि गूँज रही थी.जहाँ अनेक औरतेँ नजर आ रही थीँ पुरुष कहीँ भी नजर नहीँ आ रहे थे. हाँ,इस इस इमारत के अन्दर एक अधेड़ पुरुष उपस्थित था जो श्वेत वस्त्र धारी था .इस इमारत का नाम था-'सद्भावना' .एक अण्डाकार यान आकाश मेँ चक्कर लगा रहा था. एक कमरेँ के अन्दर दीवारोँ पर फिट स्क्रीनस के सामन किशोरियाँ एवं युवतियाँ उपस्थित थे.अधेड़ पुरुष के सामने उपस्थित स्क्रीन पर अण्डाकार यान को देख कर उसने अपना हाथ घुमाया और वह स्क्रीन गायब होगयी.सामने रखी माचिस के बराबर एक यन्त्र लेकर फिर वह उठ बैठा.इधर अण्डाकार यान हवाई अड्डे पर उतर चुका था.
* * * * पृथ्वी से लाखोँ प्रकाश वर्ष दूर एक धरती-सनडेक्सरन . जहाँ मनुष्य रहता तो था लेकिन ग्यारह फुट लम्बे और तीन नेत्रधारी .एक बालिका 'आरदीस्वन्दी'जो तीननेत्र धारी थी , वह बोली -देखो ,माँ पहुँची पृथ्वी पर क्या?एक किशोर 'सम्केदल वम्मा' दीवार मेँ फिट स्क्रीन पर अतीत के एक वैज्ञानिक, जिन्हेँ लोग त्रिपाठी जी कहकर पुकारते थे, को सुन रहा था . जो कह रहे थे कि आज से लगभग एक सौ छप्पन वर्ष पूर्व इस ( पृथ्वी) पर एक वैज्ञानिक हुए थे एपीजे अब्दुल कलाम.उन्होने कहा था कि हमेँ इस लिए याद नहीँ किया जायेगा कि हम धर्म स्थलोँ जातियोँ के लिए संघर्ष करते रहे थे.आज सन 2164ईँ0 की दो अक्टूबर! विश्व अहिँसा दिवस . आज मैँ इस सेमीनार मेँ कहना चाहूगा कि कुछ भू सर्वेक्षक बता रहे हैँ कि सूरत , ग्वालियर,मुरादाबाद, हरिद्वार ,उत्तरकाशी, बद्रीनाथ ,मानसरोवर, चीन स्थित साचे ,हामी, लांचाव, बीजिँग, त्सियांगटाव ,उत्तरी- द्क्षणी कोरिया, आदि की भूमि के नीचे एक दरार बन कर ऊपर आ रही है,
जो हिन्दप्राय द्वीप को दो भागोँ मेँ बाँट देगी.यह दरार एक सागर का रुप धारण कर लेगी जिसमेँ यह शहर समा जाएँगे.इस भौगोलिक परिवर्तन से भारत और चीन क्षेत्र की भारी तबाही होगी जिससे एक हजार वर्ष बाद भी उबरना मुश्किल होगा.
सम्केदल वम्मा आरदीस्वन्दी से बोला -" त्रिपाठी जी कहते रहे लेकिन पूँजीवादी सत्तावादी व स्वार्थी तत्वोँ के सामने उनकी न चली.सन2165ई0 की फरवरी! इस चटक ने अरब की खाड़ी और उधर चीन के सागर से होकर प्रशान्त महासागर को मिला दिया.भारतीय उप महाद्वीप की चट्टान खिसक कर पूर्व की ओर बढ़ गयी थी.म्यामार,वियतनाम आदि बरबादी के गवाह बन चुके थे."
बालिका बोली कि देखो न,माँ पृथ्वी पर पहुँची कि नही
आज सन 5010ई0 की 19 जनवरी! उस अण्डाकार यान से एक तीन नेत्र धारी युवती के साथ एक बालिका बाहर आयी जो कि तीन नेत्रधारी ही थी.अधेड़ व्यक्ति कुछ युवतियोँ के साथ जिनके स्वागत मेँ खड़ा था.
* * * *
"सर ! आपके इस इमारत 'सद्भावना' मेँ तो मेँ प्रवेश नहीँ कर सकूँगी?"- सनडेक्सरन से आयी महिला बोली. तो अधेड़ व्यक्ति बोला कि अफस्केदीरन !तुम ऐसा क्योँ सोँचती हो?
अफस्केदीरन बोल पड़ी-"सोँचते होँगे आपकी धरती के लोग,आप जानते हैँ मैँ किस धरती से हूँ?"
जेटसूट से एक वृद्धा उड़ कर धरती पर आ पहुँची.
"नारायण!"
वृद्धा को देख कर अधेड़ व्यक्ति बोला- "मात श्री !"फिर नारायण उसके पैर छूने लगा.
" मैँ कह चुकी हूँ मेरे पैर न छुआ करो."
"तब भी......" नारयण ने वृद्धा के पैर छू लिए.
इमारत'सद्भावना' के समीप ही बने अतिथिकक्ष मेँ सभी प्रवेश कर गये. आखिर अफस्केदीरन ने ऐसा क्योँ कहा कि सद्भावना मेँ तो मैँ प्रवेश नहीँ कर सकूँगी?
दरअसल सद्भावना मेँ औरतोँ का प्रवेश वर्जित था.क्योँ आखिर क्योँ ?इस इमारत को महागुरु ने बनवाया था.जहाँ उन्होँने अपना सारा जीवन गुजार दिया.उन्होँने ही यह नियम बनाया कि इस इमारत मेँ कोई औरत प्रवेश नहीँ करेगी.यह क्या कहते हो आप ? एक को छोड़ कर सब औरतेँ हैँ.तब भी......
बात तब की है जब महागुरु युवावस्था मेँ थे.वह अपनी शादी के लिए लेट होते जा रहे थे. परम्परागत समाज मेँ लोग तरह तरह की बात करने लगे थे.तब वह मन ही मन चिड़चिड़े होने लगे थे कि कोई लड़की हमसे बात करना तक पसन्द नहीँ करती,हमेँ अपने जीवन मेँ पसन्द करना दूर की बात. सामने वाले पर अपनी इच्छाएँ थोपना क्या प्रेम होता है?सद्भावना मेँ उपस्थित स्त्रियाँ ह्यूमोनायड थे.

एपीसोड-1

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

DANSH : बोर्ड परीक्षा: ऐसे मेँ कैसे हो नकल विहीन परीक्षा?



                              नकल विहीन परीक्षा करवाने सम्बन्धी प्रशासन की बयान प्रति वर्ष मीडिया के सामने आती है लेकिन क्या नकलविहीन परीक्षाएँ ईमानदारी से सम्भव हो सकी हैँ? मैँ अनेक वर्षोँ से कक्ष निरीक्षक बन कर किसी न किसी कालेज मेँ डयूटी करता आया हूँ.मुझे तो कभी नहीँ लगा कि परीक्षाएँ ईमानदारी से नकलविहीन हुई हैँ.कालेज के चपरासी से लेकर प्रधानाचार्य केन्द्र व्यवस्थापक तक अप्रत्यक्ष रुप से भागीदार होते हैँ.दबंग अध्यापक या अभिभावक के सामने तटस्थ हो कर.जब स्थानीय केन्द्र थे तो परीक्षार्थियोँ को इमला बोल कर लिखवाते तक देखा गया. अब जब स्थानीय केन्द्र नहीँ रहते तो भी नकल माफियाओँ की ही चलती है.उनके विद्यालय का जहाँ परीक्षा केन्द्र होता है वहाँ वे इधर उधर की जुगाड़ से अपने माफिक कक्ष निरीक्षक बना कर भेज देते हैँ और वहीँ के कुछ अध्यापकोँ से साँठगाँठ कर अपने कार्य को अन्जाम देते हैँ.जिसकी जानकारी कभी कभी प्रधानाचार्य एवँ केन्द्रव्यवस्थापक तक को नहीँ होती.ईमानदारी से सिर्फ डयूटी करने वाले कक्ष निरीक्षक ऐसे मेँ परेशान होते हैँ.


एक दृश्य --"कुछ वर्ष पहले मैँ एक विद्यालय के एक कक्ष मेँ डयूटी कर रहा होता हूँ कि एक अध्यापक बार बार आकर कुछ परीक्षार्थियोँ को आकर कुछ न कुछ बता कर चले जाते हैँ.मेरे विरोध का असर नहीँ पड़ता .हाँ , हमेँ धमकियाँ जरूर मिलती है.


दूसरा दृश्य--"मैँ एक कमरे मेँ डयूटी कर रहा होता हूँ कि केन्द्रव्यवस्थापक हमेँ बुलवाकर कहते हैँ कि आप का विष्य हिन्दी है जरा बच्चोँ की मदद कर देना. मैँ यह कह कर वापस कक्ष मेँ आगया कि मेरा विषय हिन्दी नहीँ है."

तीसरा दृश्य-- "बिन्दु जी की डयूटी कक्ष मेँ न लगवाओ(भविष्य मेँ आप पढ़ेँगे मेरा ब्लाग-'प्रतिष्ठित अध्यापकोँ के दंश'). "


चतुर्थ दृश्य:हमेँ एक दो बार यह देखने का अवसर मिला है कि कैसे एक कक्ष मेँ एक अच्छे विद्यार्थी के साथ अन्याय होता है?उससे हर हालत मेँ सहयोग लेने के लिए कक्ष निरीक्षक तक तैयार रह व्यवधान पैदा करने की कोशिस करते हैँ.



दृश्य पाँच:कालेज मेँ एक कमरा बन्द होता है.जिसमेँ बाहर से ताला लगा होता है.एक दो गाड़ियाँ कालेज मेँ आकर सब ओके कर चली जाती हैँ.लेकिन........?! उस बन्द कमरे मेँ?! उससे क्या मतलब?वह तो बन्द है?वह बन्द है तो क्या उसमेँ कुछ नहीँ हो सकता?उसमेँ एक अध्यापक प्रश्न पत्र हल कर रहे होते हैँ.कुछ देर बाद वह कमरा खुलता है......एक अध्यापक एक कमरे मेँ पहुँचते हैँ,एक परीक्षार्थी की कापी उठाते हैँ जिसके अन्दर के पन्ने निकाल कर अपने पास रख लेते हैँ,अपनी और से लिखी एक अन्य कापी उस परीक्षार्थी को दे देते हैँ.एक दूसरे अध्यापक हर कक्ष मेँ जा कर इमला बोलने लगते हैँ.




दृश्य छ: :कालेज मेँ कहीँ न कहीँ किसी न किसी के पास मोबाइल तो रहता ही है केन्द्रव्यवस्थापक प्रधानाचार्य आदि से बचते हुए मोबाइल प्रश्नोँ के उत्तर जानने मेँ सहायक हो जाता है.





दृश्य सात: एक कमरे मेँ मैँ डयूटी कर रहा होता हूँ . जहाँ एक अध्यापक एक परीक्षार्थी के पास खड़े पेपर हल करवा रहे थे जिसका मैने विरोध किया.कुछ मिनट बाद जब वह परीक्षार्थी की कापी पर लिखने लगे तो मैँने फिर विरोध किया.बाहर घूम रहे सर्च दस्ते के एक अध्यापक को मैने अन्दर बुला अपनी आपत्ति बतायी तो सम्बन्धित अध्यापक की डयूटी कैँसिल कर दी गयी लेकिन
विद्यालय के कुछ प्रतिष्ठित अध्यापक इस घटना के विरोध मेँ आगये थे.


दृश्य आठ:जो छिनरा वही डोली के संग.......कुछ प्रतिष्ठित अध्यापक जो किसी न किसी माध्यम से विद्यालय प्रशासन पर हावी रहते हैँ और मनमानी कर परीक्षार्थियोँ के साथ पक्षपात करते हैँ एवं ईमानदार या अपने प्रतिकूल अध्यापकोँ उनकी छोटी गलती पर भी प्रतिक्रिया करते फिरते हैँ.



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गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

वैज्ञानिक अध्यात्मवाद से उपाय

विभिन्न समस्याओँ की जड़ मनुष्य का मन है जो भौतिक चकाचौँध मेँ विचलित हो चुका है और शान्ति व सन्तुष्टि के पथ से अन्जान है.सुख दुख तो मन का खेल है.संसार की वस्तुओँ से प्रभावित मन कब तक प्रफुल्लित रख सकता है?संसार मेँ तो रहना ही है लेकिन संसार को मन मेँ रखना ठीक नहीँ.गीता मेँ ठीक कहा गया है कि-


"कर्मेँन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् !
इंद्रियार्थान्विमूढ़ात्मा मिथ्याचार स उच्चते !!"

जिसके मन की दिशा दशा धर्म व मोक्ष के स्थान परअर्थ व काम की ओर रहती है एवं धर्म अर्थ काम मोक्ष मेँ सन्तुलन नहीँ रहता ,वह आखिर मेँ दुख व रोगोँ को प्राप्त होता है.

धर्म व अध्यात्म का सम्बन्ध रीतिरिवाजोँ कर्मकाण्डोँ से नहीँ वरन आचरण व्यवहार व मन की स्थिति से है.ऐसे मेँ वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का महत्व कम नहीँ है. अध्यात्म का सम्बन्ध ईश्वर को मानने या न मानने वालोँ के विरोध से नहीँ वरन आत्म दर्शन तथा अपनी चेतना पर पकड़ बनाने से है.वैज्ञानिक प्रफुल्लचन्द्र राय का कहना था कि आध्यात्मिक साधना से मन:स्थिति मेँ एवं आध्यात्मिक वातावरण से परिस्थिति मेँ सृजनशीलता अंकुरित होती है.फ्रांस से वाल्टेयर का कहना था कि ईश्वर अनुभूति है लेकिन वर्तमान मेँ कितनोँ को ईश्वर की अनुभूति है?ताज्जुब है किप्रभुभक्त या धार्मिक बनते है लेकिन अहँकार मेँ है और दुखी हैँ.विज्ञान के माध्यम से निरन्तर आध्यात्मिक प्रयोगोँ व अभ्यास के बिना ईश्वरता को प्राप्त होना असम्भव है.

यह भी देखेँ...
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शिक्षा का अधिकार:शिक्षा के हकदार कौन?

वाह!शिक्षा का अधिकार का कानून आज से?नई तश्वीर की शुरुआत आज से!अनेक वर्षोँ से सर्बशिक्षा अभियान के नाम से भला हो रहा है?गलत कहते थे हमारे एक सर जी कि सब खाने पीने की स्कीमेँ हैँ?कितनोँ का भला हो रहा है?विश्व बैँक के रुपयोँ से गुलछर्रे उड़ा रहे हैँ,हम का करेँ देश के भविष्य की चिन्ता?मौज आगया ,बीएड़ का किया लाटरी खुल गयी.विशिष्ट बीटीसी से अपुन का भाग्य बदल गया.रुपयोँ के बल पर अच्छे नम्बरोँ से बीएड़ का लाभ मिल गया.डायट मेँ ही एक छोरी पटा ली,डवल का फायदा.अपना काम बनता भाड़ मेँ जाए जनता.रुपये किसे नहीँ प्यारे हैँ?अपनी जेब गर्म बच्चे पढ़ेँ या भाड़ मेँ जाएँ.पढ़ने का शौक नहीँ तो ऐसे मेँ कैसे पढ़ जाये सब बच्चे?हाथ मेँ पाँचवेँ की मार्कशीट होगी स्कूल से निकलते वक्त! और चाहिए भी क्या?हम ही हैँ हर तिगड़म कर अच्छे अंकोँ से मार्कशीटस पाते रहे.हूँ, हम भी.....देखेँ आज अशोका ने क्या लिखा है?यह भी......'शिक्षा के अधिकार: शिक्षा के हकदार कौन?'अरे, यह क्या ?मेरे डायलागस से शुरुआत?अब तो अशोका के सामने बोलना भी धर्म नाय रहाय.का लिखो आज.....






"शिक्षा का हकदार ब्राह्मण (वर्ण व्यवस्था)है .जो ब्राह्मण (कर्म एवँ स्वभाव से) नहीँ,वह कभी क्या ज्ञान के प्रति जिज्ञासु भी हो सकता है? विद्यार्थी वास्तव मेँ कौन हैँ?
विद्या ददाति विनयम् , लेकिन...,?
विनयशील कौन?

मानसिक रुप से विद्यार्थी कौन है?शिक्षा का हकदार विद्यार्थी है लेकिन विद्यार्थी कौन है?तीन
हजार वर्ष पहले माना जाता था कि शिक्षा का हकदार ब्राह्मण है अर्थात विशेष कर्म एवं स्वभाव वाला.जिसका मन अभी तैयार ही नहीँ है शिक्षा प्राप्त करने के लिए उसे शिक्षा देने का क्या औचित्य? अन्य के चाहने से क्या होता है? आज जो चल रहा है,भ्रष्टाचार का कारण यह भी है. ज्ञान के प्रति जिज्ञासा नहीँ,धर्म या मोक्ष के प्रति जिज्ञासा नहीँ.....सिर्फ काम एवं अर्थ मेँ लीन है मन की दिशा -दशा ,उसे शिक्षित करने का मतलब क्या भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना?काम व अर्थ को सर्फ मन एवं व्यवहार मेँ जगह देने वाले आज शिक्षित होकर अपराध व भ्रष्टाचार की नई -नई तकनीकी सीख रहे हैँ.जब सिर्फ काम व अर्थ को चाहने वालोँ के हाथ बड़े बड़े शास्त्र सौप दिए जाएंगे तो क्या होगा ?ऐसे मेँ माता पिता एवं बेसिक अध्यापकोँ का दायित्व महत्वपूर्ण है.बेसिक एजुकेशन का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए बालक को विद्यार्थी बनाना.पाचवेँ क्लास की मार्कशीट आने के बाबजूद बालक मेँ शिक्षा के प्रति रूचि नहीँ तो यह विचारणीय विषय है.यहाँ तक आते आते बालक सुपात्र हो जाने चाहिए. शिक्षा का प्रारम्भ सिर्फ अक्षर ज्ञान से नहीँ होना चाहिए.
आज हर व्यक्ति शूद्र हो रहा है.बड़े बड़े शास्त्रोँ को पढ़ने का उद्देश्य जब आज काम व अर्थ है तो क्या परिणाम होगा?13-14वीँ सदी से तथा विशेष रुप से17-18वीँ सदी से जो सोँच पैदा हुई है उसने हमेँ छोड़ो प्रकृति तक को विकारयुक्त कर दिया है.हमारे मन की दशा दिशा तो कहीँ और है,हमेँ लगाया कहीँ और जा रहा है या मजबूरी मेँ कहीँ अन्य जगह. मन वचन कर्म से एक न होना ही भ्रष्टाचार व कुप्रबन्धन का कारण है.

बच्चोँ की इच्छा नहीँ है,बच्चोँ का पढ़ने मेँ मन नहीँ लग
रहा है लेकिन तब भी ....?कहा जा रहा है कि भय बिन होए न प्रीति.हमारी समझ मेँ नहीँ आता है यह.भय व प्रीति दोनोँ अलग अलग भावना हैँ.जहाँ दोनोँ साथ हैँ वहाँ ड्रामा है.
क्या बच्चोँ को रटन्तिविद्या तक सीमित रखना चाहते हैँ?बच्चोँ को भयभीत करके आप क्या प्रदर्शित करना चाहते हैँ?मन मस्तिष्क की परिपक्वता के लिए भी प्रशिक्षण आवश्यक है.
चलो ठीक है शिक्षा अधिकार कानून लेकिन अभी बहुत कुछ तय होना बाकी है.निष्कर्ष यह है कि हमारे मन को भी प्रशिक्षित किया जाना जरुरी है.हमेँ मन- प्रबन्धन को भी सीखना होगा जिसके लिए 'योगमनोविज्ञान' का अध्ययन अनिवार्य किया जाना आवश्यक है.वैज्ञानिक अध्यात्मवाद ,अर्थात आध्यात्मिकता धार्मिकता को प्रयोगोँ व अनुभवोँ से गुजारना आवश्यक है."

धत् !यह पागल अशोका भी,बोलत बच्चोँ के
सामने भी साँस फूलत और लिखन को रोग लगाये बैठो.न जाने क्या क्या लिखता रहता है?मेरी समझ मेँ कुछ आता नहीँ.