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शनिवार, 10 अप्रैल 2010

धर्मेण हीना:पशुभि:समाना:

जवानी तक सब ठीक रहता है.ऊर्जा जोश भ्रम ख्वाब उम्मीद आदि मेँ जीवन का यथार्थ भूल जाते हैँ.अहंकार एवं काम जवानी का पर्याय बन जाता है.धर्म से मानसिक लगाव नहीँ होता.लगाव तो दुनिया की चमक धमक से होता हैँ.सांसारिक माया मोह को मन मेँ रखते चले जाते हैँ.धर्म से शून्य मन की दशा दिशा काम की ओर हो जाती है.30उम्र पार करते करते इन्द्रियाँ एवं शरीर कमजोर मन जबाब देने लगता है.अभी तक हम मान रहे थे कि अभी क्या रोगियोँ जैसा भोजन आचार विचार,हर वक्त धार्मिक आध्यात्मिक बातेँ!वही फूकी हुई पुरानी बातेँ,बुजुर्गो की बातेँ!लेकिन उम्र ढलने के साथ ही.....

वही फुकी हुई बुजुर्गोँ वाली बातेँ इधर उधर लिखे सुवचन अच्छे लगने लगते हैँ फिर महसूस होता है कि धर्म अध्यात्म की ओर रुझान किशोरावस्था मेँ ही हो जाना चाहिए.अब समझ मेँ आता है कि ऋषियोँ नबियोँ ने 25वर्ष तक की अवस्था तक ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिए क्योँ कहा?वास्तव मेँ हम विद्यार्थी या ब्रह्मचर्य जीवन जीये ही न थे.कर्म व आचरण से ठीक थे तो क्या?मन से क्या थे?चलो कोई बात नहीँ,जब जाग जाओ तभी सबेरा.


यह क्या?बच्चे अब शादी के लायक होगये लेकिन मन अब भी अतृप्त एवं अशान्त !अपने मन को जानने या आत्म दर्शन का साहस नहीँ.अन्दर तो अँधेरा ही अँधेरा .और फिर नाच न आवे आँगन टेँढ़ा.अपनी कमजोरियोँ को छिपाने के लिए अनेक बहाने तथा अन्य की कमजोरियोँ के बहाने अपनी सफाई रखना.हमने ऐसे कुछ बुजुर्गोँ को देखा है जिन्हेँ चलना मुश्किल है या चारपाई पर पड़े रहते हैँ या मौत का इन्तजार कर रहे हैँ लेकिन उनके मन से माया मोह कामना बासना आदि निकली नहीँ है.
हम तो यही मानते है कि इन्होने जीवन मेँ अपने लिए कुछ नहीँ किया है.ऐसा देखने को आया है कि कुछ सेवानिवृत्त के बाद अपना फण्ड आदि आश्रम मेँ दान कर अपना जीवन आश्रम मेँ व्यतीत करने लगते हैँ लेकिन सब निर्रथक,जब तक मन को बहलाए रखते हैँ या भजन आदि मेँ रहते हैँ तब तक ठीक .नहीँ तो मन की गहराई तक वहीँ पूर्वाग्रह कामुकता खिन्नता अशान्ति आदि.
हमारे सनातन ऋषियोँ नबियोँ ने जीवन का उद्देश्य धर्म अर्थ काम मोक्ष मेँ सन्तुलन बताया है.सिर्फ काम के लिए जीवनी शक्ति लगा देने से आत्मा को कब चैन मिलने वाला?पानी सूख जाये तो क्या कमल की नार कम हो जाय?मन मेँ दुनियादारी भर लेने से ,सार्वभौमिकहीनता,पूर्वाग्रह,आदिभर लेने से शेष धर्म आध्यात्मिकता हमारी धर्म आध्यात्मिकता नहीँ हमारी,कोशिस होती है सिर्फ धर्म आध्यात्मिकता की ओर जाने की.

धर्म क्या है?समाज जिसे धर्म मानता है,वह धर्म नहीँ हैँ.हिन्दू हो या अन्य , सबका धर्म तो एक ही है.

मनुस्मृति कहती है कि-

धृति क्षमादमास्तेयंशौचममिन्द्रिय निग्रह .

धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशम् धर्म लक्षणम् ..

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