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मंगलवार, 18 जनवरी 2022

हम जीवित महापुरुषों का सम्मान करें, उनकी शरण में आएं::अशोकबिन्दु

 हम चाहें कोई भी हों , जीवित महापुरुषों का सम्मान करें। आज जो भीड़ में अकेला खड़ा है वह भी ईश्वर की बनायी श्रेष्ठ मूर्ति है जिसे स्वयं ईश्वर ने ही प्राण प्रतिष्ठित किया है। बहुमत के चक्कर में मत पड़ो वरन अपने कर्तव्य निभाते रहो। अपने जिंदा रहते सुकरात अल्पसंख्यक थे ,उनको जब जहर दिया गया वह बहुमत ने दिया था लेकिन आज वह बहुमत खलनायक है। ईसा को जब सूली पर लटकाया जा रहा था तब बहुमत उनके साथ न था वरन अल्पसंख्यक उनके साथ था।



एक समय वह भी था जब पश्चिमभारत बहुमत/बहुसंख्यकों के अत्याचारों से हा हा कार करने लगा लेकिन उनकी हा हा कार ने आत्माओं को झकझोर दिया । आत्माओं ने मिशन ने ,रूहानी आंदोलन ने और तीब्रता पकड़ी। अरे, क्या जाता है अल्पसंख्यक को रौंदने में?इससे हमारा वर्तमान बेहतर हो सकता है लेकिन हमारा भविष्य नहीं।हमारे कर्मों का असर अनेक जन्मों तक रहता है। जीवित महापुरुषों को सम्मान देना आवश्यक है। अल्पसंख्यकों को भी सम्मान देना जरूरी है।हमने इसके प्रभाव को महसूस किया है। पश्चिम भारत ने हमें गुरु नानक दिए, अन्य गुरु दिए।गुरुगोविंद सिंह दिए।उनकी व उनके परिवार के संघर्ष के हम ऋणी है। हम बहुमत में ही न खो जाएं, हम अल्पसंख्यकों की अनसुनी न कर दे। हमारे कर्म व कर्तव्य ही हमारे हैं। उनको ही हम भुना सकते हैं न भविष्य में। 


पुरुषार्थ!!

पुरुष के लिए जीना आखिर कब ?! आखिर पुरूष है क्या ? ऋग्वेद में स्पष्ट है, पुरूष क्या है ? विराट पुरुष क्या है?

पुरुषार्थ चार स्तम्भों पर टिका है।चार दिशाओं पर टिका है।धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष..... जो एक दशा में पांच तत्वों के साथ मिल कर हमारा स्थान निर्मित करता है। हमारे शरीर व जगत की प्रकृति विभिन्नता में वह 10 दिशाएं स्पष्ट करता है। जो हमे चेतना के अनन्त बिन्दुओं, अनन्त स्तरों से गुजरते हुए आगे ले जाता है लेकिन बेहतरी हमारी हमारे अस्तित्व का ऊर्ध्वाधर होने से है।


मूलाधार चक्र पर भी जो ऊर्जा प्रवाहित होती है वह भी  अनन्त से आती महसूस होती है। 

"सागर में कुंभ कुम्भ में सागर !"


लेकिन हमारी गति किधर है। गीता का विराट रूप हैं हर वक्त मौजूद दो सम्भावनाओं से भी ऊपर के अस्तित्व को स्पष्ट करता है।अच्छा बुरा, अनुकूल प्रतिकूल, प्रकृति ब्रह्म ,सुर असुर आदि से ऊपर के अस्तित्व को स्पष्ट करता है।


हे अर्जुन(अनुरागी)!उठ!दुनिया के सभी धर्मों को त्याग मेरे (आत्मा) के शरण आ ।

तू भूतों को भेजेगा अर्थात भूत ,भूत काल की घटनाओं से प्रभावित होगा तो भूत को प्राप्त होगा। तू पितरों को भेजेगा अर्थात अपने पूर्वजों की याद में जिएगा तो पितरों को प्राप्त होगा अर्थात तब भी एक प्रकार से भूत को ही प्राप्त होगा। देवों को भेजेगा तो तू देवों को प्राप्त होगा अर्थात तू इससे ऊपर जो सत्ता है, उसको प्राप्त नहीं हो सकता। तू मुझे(आत्मा) को भेजेगा तो मुझे (आत्मा) को प्राप्त होगा।यह जो विराट स्वरूप / प्रकाश है यह भारत है अर्थात प्रकाश में रत । दुनिया मे सिर्फ आत्मा ही सनातन है। जो अनन्त से जुड़ कर परम् आत्मा की ओर हो जाती है। जो अपने गुण आत्मियता से स्वतः चमकती है। 

स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज 

यथार्थ गीता के प्रणेता परम श्रद्धेय💥 स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी महाराज💥 

श्री श्री  १००८ स्वामी श्री अड़गड़ानन्द जी महाराज 


https://ashokbindu.blogspot.com/2022/01/blog-post.html


7 वीं - 15 वीं सदी::उस वक्त के राजबाड़े अब जातबाड़े ?? अल्पसंख्यक का बजूद क्या?!


#अशोकबिन्दु  


#लोहिया ने कहा था कि भीड़ में अकेला व्यक्ति भी जब #तन्त्र का महत्वपूर्ण हिस्सा हो उसे भी आगे बढ़ने का अबसर हो,तभी सफल #लोकतन्त्र है।


#दीनदयालउपाध्याय ने कहा था कि पीछे पंक्ति में खड़ा व्यक्ति तक सुविधाएं जाना चाहिए।


#भीमरावअंबेडकर ने कहा था कि #सामाजिकलोकतन्त्र  ,#आर्थिकलोकतन्त्र के बिना #राजनैतिकलोकतन्त्र  हमेशा खतरा में रहेगा।


 हमारी नजर  #अशोकबिंदु  में #सामाजिकलोकतन्त्र का मतलब है जातिवाद, मजहबवाद,परिवारवाद ,जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात निम्नवाद आदि से ऊपर उठ कर समाज में व्यक्ति -व्यक्ति, परिवार -परिवार के बीच सम्बन्ध। #आर्थिकलोकतन्त्र का मतलब है  जतिवाद,मजहबवाद आदि से ऊपर उठ कर आर्थिक क्रियाओं की स्वतंत्रता।देखा गया है कि कुछ लोग शॉपिंग, मार्केटिंग आदि करते वक्त जाति बिरादरी, मजहब को भी देखते हैं कि अरे, उस जाति के उस मजहब के व्यक्ति की दुकान से नहीं खरीदना, उसे भागीदार नहीं बनाना।


वास्तव में हमें आज का लोकतन्त्र समझ में ही नहीं आता ।वोट किसे ? जो हमारी बिरादरी का।टिकट किसे ?बिरादरी को देख कर। 


आदिकाल से ही अल्पसंख्यक के मूलअधिकारों , विकास के अवसर, तन्त्र में भागीदारी,न्याय आदि को नजरअंदाज किया जाता रहा है। राजतंत्र हो लोकतन्त्र।


07 वीं - 15 वीं सदी में आज कल के जातबाड़ों की तरह रजबाड़ों में क्षेत्र व देश की राजनीति उलझी थी। ऐसे में विदेशी, विदेशी प्रतिनिधि अवसरों का फायदा उठा रहे थे सत्ता व सरकारों से चिपक कर। भारतीय संस्कृति, पूरे क्षेत्र में शांति आदि के लिए कुछ मुठ्ठी भर लोग थे, अल्पसंख्यक थे। उस वक्त बहुसंख्यकों के प्रभाव - कु प्रभाव में आकर एक एक लाख लोग, परिवार कुप्रबन्धन, शोषण, अन्याय,गरीबी, विकास के अवसर हीनता आदि को झेलने को मजबूर थे। आज कल भी ऐसा हो रहा है।देश के अंदर लाखों लोग बदतर स्थिति में पहुंचते जा रहे हैं। राजनीति, चुनाब, तन्त्र आदि जातबाड़ों का शिकार हो कर रह जाता है। अल्पसंख्यक कितना भी बेहतर सोंच, आचरण, योजनाबद्ध आदि के साथ हो लेकिन उसका बजूद नहीं है, उसकी भागीदारी नहीं है।उसको आगे बढ़ने का अवसर नहीं है।जनता किस का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार है? जातिबाड़ी बहुसंख्यकता अल्पसंख्यक बेहतरी तो भी कुचलने को तैयार है या उसका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं।


बहुसंख्यक,बहुमत सुकरात को जहर, ईसा को सूली ही देने को तैयार है। बहुमत उस वक्त भी अल्पसंख्यक को राजद्रोह आदि का।मुकदमा लगा कर किसी को जहर, किसी को सूली, किसी को फांसी देने को तैयार खड़ा था, आज भी तैयार खड़ा है। आदि काल से ही अल्पसंख्यक को शहादत का ही अबसर मिला ,कुर्बानी का ही अवसर मिला। यहां तक कि जो अल्पसंख्यक भविष्य में जब बहुसंख्यक हो गए तो उन्होंने भी अल्पसंख्यकों के साथ ज्यादतियां कीं। हम हजरत हुसैन, गुरुगोविंद सिंह व उनके बच्चों, बन्दा बैरागी, वीर हकीकत,महाराणा प्रताप,  छत्रपति शिवा जी ,भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेता जी सुभाषचंद्र बोस आदि के संघर्ष को हम भुला नहीं सकते। 


गुप्त, छापा मार, गोरिल्ला संघर्ष भी आदि काल से अल्पसंख्यक समुदाय चलाने को मजबूर हुए। देश पहला हिंदवी साम्राज्य छत्रपति शिवाजी ने स्थापित किया।उन्हें बहुसंख्यक हिंदुओं - गैर हिंदुओं की करतूतों, जातीय-मजहबी हरकतों के सामने छापा मार नीति अपनानी पड़ी। महाराणा प्रताप को भी को अकेले ही संघर्ष झेलना पड़ा। दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य के माध्यम से हरिहर बुक्का, आचार्य सायण को सीमित हो जाना पड़ा।  क्रांतियों व बदलाव का इतिहास तो अल्पसंख्यकों ने ही लिखा है।जब ये अल्पसंख्यक कफ़न बांध कर निकले हैं, मरने -मिटने को भी तैयार हुए हैं। सूली, जहर, फांसी को भी सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हुए हैं।


भीड़ ,बहुमत तो जाति, मजहब, परिवार, जीवन यापन, लोभ लालच, भीड़ हिंसा, जातीय -मजहबी उन्माद आदि में ही शिकार होकर दम तोड़ता रहा है।पूंजीवाद, सामन्तवाद, जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात निम्नवाद,गरीबी, पुरोहितवाद,मुफ्त की खैरात आदि का शिकार होता रहा है। इतिहास तो अल्पसंख्यक बनाता है। भविष्य के लिए चंद लोगों के साथ क्रांति अर्थात परिवर्तन वही लिखता है। भविष्य आखिर में उसी को ही स्वीकार करता है क्योंकि वर्तमान हालतों से संतुष्ट आखिर होता कौन है।सब के सब जाति, मजहब, लोभ लालच, जीवन यापन आदि के बहाने जैसे तैसे सिर्फ जीवन जीते है या जिंदा रहने की कोशिश में रहते हैं।

भारतीयता ही हमारा धर्म::#अशोकबिन्दु



मेरा कन्हैया भी बोले - मेरी शरण तू आ जा जग धर्म तज!! #मूला राम




 7 वीं - 15 वीं सदी::उस वक्त के राजबाड़े अब जातबाड़े ?? अल्पसंख्यक का बजूद क्या?!


#अशोकबिन्दु  


#लोहिया ने कहा था कि भीड़ में अकेला व्यक्ति भी जब #तन्त्र का महत्वपूर्ण हिस्सा हो उसे भी आगे बढ़ने का अबसर हो,तभी सफल #लोकतन्त्र है।


#दीनदयालउपाध्याय ने कहा था कि पीछे पंक्ति में खड़ा व्यक्ति तक सुविधाएं जाना चाहिए।


#भीमरावअंबेडकर ने कहा था कि #सामाजिकलोकतन्त्र  ,#आर्थिकलोकतन्त्र के बिना #राजनैतिकलोकतन्त्र  हमेशा खतरा में रहेगा।


 हमारी नजर  #अशोकबिंदु  में #सामाजिकलोकतन्त्र का मतलब है जातिवाद, मजहबवाद,परिवारवाद ,जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात निम्नवाद आदि से ऊपर उठ कर समाज में व्यक्ति -व्यक्ति, परिवार -परिवार के बीच सम्बन्ध। #आर्थिकलोकतन्त्र का मतलब है  जतिवाद,मजहबवाद आदि से ऊपर उठ कर आर्थिक क्रियाओं की स्वतंत्रता।देखा गया है कि कुछ लोग शॉपिंग, मार्केटिंग आदि करते वक्त जाति बिरादरी, मजहब को भी देखते हैं कि अरे, उस जाति के उस मजहब के व्यक्ति की दुकान से नहीं खरीदना, उसे भागीदार नहीं बनाना।


वास्तव में हमें आज का लोकतन्त्र समझ में ही नहीं आता ।वोट किसे ? जो हमारी बिरादरी का।टिकट किसे ?बिरादरी को देख कर। 


आदिकाल से ही अल्पसंख्यक के मूलअधिकारों , विकास के अवसर, तन्त्र में भागीदारी,न्याय आदि को नजरअंदाज किया जाता रहा है। राजतंत्र हो लोकतन्त्र।


07 वीं - 15 वीं सदी में आज कल के जातबाड़ों की तरह रजबाड़ों में क्षेत्र व देश की राजनीति उलझी थी। ऐसे में विदेशी, विदेशी प्रतिनिधि अवसरों का फायदा उठा रहे थे सत्ता व सरकारों से चिपक कर। भारतीय संस्कृति, पूरे क्षेत्र में शांति आदि के लिए कुछ मुठ्ठी भर लोग थे, अल्पसंख्यक थे। उस वक्त बहुसंख्यकों के प्रभाव - कु प्रभाव में आकर एक एक लाख लोग, परिवार कुप्रबन्धन, शोषण, अन्याय,गरीबी, विकास के अवसर हीनता आदि को झेलने को मजबूर थे। आज कल भी ऐसा हो रहा है।देश के अंदर लाखों लोग बदतर स्थिति में पहुंचते जा रहे हैं। राजनीति, चुनाब, तन्त्र आदि जातबाड़ों का शिकार हो कर रह जाता है। अल्पसंख्यक कितना भी बेहतर सोंच, आचरण, योजनाबद्ध आदि के साथ हो लेकिन उसका बजूद नहीं है, उसकी भागीदारी नहीं है।उसको आगे बढ़ने का अवसर नहीं है।जनता किस का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार है? जातिबाड़ी बहुसंख्यकता अल्पसंख्यक बेहतरी तो भी कुचलने को तैयार है या उसका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं।


बहुसंख्यक,बहुमत सुकरात को जहर, ईसा को सूली ही देने को तैयार है। बहुमत उस वक्त भी अल्पसंख्यक को राजद्रोह आदि का।मुकदमा लगा कर किसी को जहर, किसी को सूली, किसी को फांसी देने को तैयार खड़ा था, आज भी तैयार खड़ा है। आदि काल से ही अल्पसंख्यक को शहादत का ही अबसर मिला ,कुर्बानी का ही अवसर मिला। यहां तक कि जो अल्पसंख्यक भविष्य में जब बहुसंख्यक हो गए तो उन्होंने भी अल्पसंख्यकों के साथ ज्यादतियां कीं। हम हजरत हुसैन, गुरुगोविंद सिंह व उनके बच्चों, बन्दा बैरागी, वीर हकीकत,महाराणा प्रताप,  छत्रपति शिवा जी ,भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेता जी सुभाषचंद्र बोस आदि के संघर्ष को हम भुला नहीं सकते। 


गुप्त, छापा मार, गोरिल्ला संघर्ष भी आदि काल से अल्पसंख्यक समुदाय चलाने को मजबूर हुए। देश पहला हिंदवी साम्राज्य छत्रपति शिवाजी ने स्थापित किया।उन्हें बहुसंख्यक हिंदुओं - गैर हिंदुओं की करतूतों, जातीय-मजहबी हरकतों के सामने छापा मार नीति अपनानी पड़ी। महाराणा प्रताप को भी को अकेले ही संघर्ष झेलना पड़ा। दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य के माध्यम से हरिहर बुक्का, आचार्य सायण को सीमित हो जाना पड़ा।  क्रांतियों व बदलाव का इतिहास तो अल्पसंख्यकों ने ही लिखा है।जब ये अल्पसंख्यक कफ़न बांध कर निकले हैं, मरने -मिटने को भी तैयार हुए हैं। सूली, जहर, फांसी को भी सहर्ष स्वीकार करने को तैयार हुए हैं।


भीड़ ,बहुमत तो जाति, मजहब, परिवार, जीवन यापन, लोभ लालच, भीड़ हिंसा, जातीय -मजहबी उन्माद आदि में ही शिकार होकर दम तोड़ता रहा है।पूंजीवाद, सामन्तवाद, जन्मजात उच्चवाद, जन्मजात निम्नवाद,गरीबी, पुरोहितवाद,मुफ्त की खैरात आदि का शिकार होता रहा है। इतिहास तो अल्पसंख्यक बनाता है। भविष्य के लिए चंद लोगों के साथ क्रांति अर्थात परिवर्तन वही लिखता है। भविष्य आखिर में उसी को ही स्वीकार करता है क्योंकि वर्तमान हालतों से संतुष्ट आखिर होता कौन है।सब के सब जाति, मजहब, लोभ लालच, जीवन यापन आदि के बहाने जैसे तैसे सिर्फ जीवन जीते है या जिंदा रहने की कोशिश में रहते हैं।