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बुधवार, 5 दिसंबर 2012

11दिसम्बर ओशो जन्मदिन : जीवन व मनुष्यता के श्रेष्ठ व्याख्याकार !

आंखेँ न जाने क्या क्या देखती हैँ?मन न जाने क्या क्या महसूस करता
है?शरीर को न जाने क्या क्या करना पड़ जाता है ?लेकिन कब तक ? व क्योँ ?
अज्ञानता व कूपमण्डूकता बस या फिर सर्वोच्च ज्ञान व सार्वभौमिक सत्य
बस?मनुष्य जाति क्या सत्य व स्वस्थ नजरिये की ओर है ?मनुष्य अभी क्या
मनुष्य के पद पर भी क्या पहुंच पाया है?महानता व सार्वभौमिक सत्य की ओर
अग्रसर होना तो काफी दूर की बात.मनुष्य प्रतिदिन जिन शब्दोँ का इस्तेमाल
करता है,उनके अर्थ,परिभाषा व दर्शन से भी क्या परिचित रह गया है?मनुष्योँ
के कुछ ऐसे मनुष्य आते रहे हैँ जो भीड़ व भीड़ को नेतृत्व करने वालोँ से
हट कर अपना व्यक्तित्व रखते हैँ.एक गांव के करीब एक रेलवेस्टेशन पर से
गुजरने वाली एक ट्रेन से एक दिन महात्मा गांधी को निकलना था.गांव के
काफी लोग महात्मा गांधी के स्वागत के लिए इकट्ठे हो गये थे लेकिन महात्मा
गांधी नहीँ आये.ग्रामीण इन्तजार कर कर वापस चले गये.दिन गुजरा रात होने
को आयी.बस,एक किशोर अब भी खड़ा था.सूनसान स्टेशन पर वह अकेला खड़ा था.कुछ
रेलवे कर्मियोँ ने उसे वापस जाने को कहा.सबको नहीँ लग रहा था कि महात्मा
गांधी अब आयेंगे भी लेकिन उस किशोर को विश्वास था कि महात्मा गांधी अवश्य
आयेंगे. आखिर आये,कस्तूरबा के साथ वे ट्रेन से उतरे.उस किशोर से उनकी
बात हुई.महात्मा गांधी बोले कि बा,अब मुझे कोई अपने टक्कर का मिला है.

समय गुजरा,अनेक वर्ष बीत गये.अधेड़ावस्था मेँ एक सन्यासी भाँति वस्त्र
पहने ट्रेन यात्रा पर थे.

एक दम्पत्ति ने अपने बच्चे से कहा पैर छुओ,बाबा जी हैँ.साधुओँ का सम्मान
करना चाहिए.


''मैँ कोई सन्यासी या साधू नहीँ हूँ .''


'' हिन्दू तो हो?"


"हिन्दू भी नहीँ हूँ ."


"तो कौन हो ? "

"इन्सान हूँ ."


दम्पत्ति खामोश हो गये?वे आपस मेँ बात कर रहे थे.


"ऐसे सन्यासी खतरनाक होते हैँ."


वह किशोर ही अब ये अधेड़ सन्यासी था.ऐसे सन्यासी खतरनाक क्योँ होते
हैँ?इसलिए क्योँकि ये तुम्हारे नजरिया,मर्यादा,रीतिरिवाज,कूपमण्डूकता आदि
पर सवाल करने वाले होते हैँ.जब ऐसे लोग धरती पर होते हैँ तो इनके धरती पर
होते इन्हेँ कुछ लोग ही समझ पाते हैँ. पढ़े लिखे तक इन्हेँ नहीँ समझ
पाते.इन ओशो के प्रति पढ़े लिखोँ की क्या सोँच थी?व्यक्त करता हूँ.मैने
ओशो की पुस्तकोँ लेकर कुछ प्रयोग किये हैँ.जो ओशो की पुस्तकेँ पढ़ना तो
दूर देखना तक पसंद नहीँ करते थे.ओशो को अफवाहोँ के आधार बुरा कहते रहते
थे.उनके साथ मैने एक प्रयोग किया.डबल प्रतियोँ मेँ मैँ ओशो की कुछ
पुस्तकेँ रखता था.एक एक प्रति का मुख्य कवर व अन्दर के कुछ पृष्ठ इस तरह
फाड़ कर अलग कर देता था कि कोई पहचान न पाये कि ये ओशो की हैँ.जिन्हेँ
मैँ पुस्तक प्रेमियोँ को पढ़ने के लिए देता .वे रुचि से पढ़ते.जब वे कुछ
दिनोँ मेँ पुस्तक पढ़ लेते तो मैँ उनसे कहता ये उन्हीँ ओशो की पुस्तक
है,जिनसे तुम घृणा करते हो.विश्वास न हो तो ये पुस्तक देखो .मैँ दूसरी
प्रति देते हुए कहता.ऐसा है तुम्हारा समाज व तुम्हारे समाज के शिक्षित.

बच्चोँ! मैँ आप से कहना चाहूँगा कि आपसब सुनो सब की लेकिन करो अपने
विवेक की.मेडिटेशन व स्वाध्याय से अपने को सदा जोड़े रखो.समाज के आधार पर
नहीँ ,समाज के ही महापुरुषोँ व ग्रंथोँ की सुन समाज को जबाब देना
सीखो.ओशो जीवन से जुड़े तथ्योँ व नई मनुष्यता के एक श्रेष्ठ व्याख्याकार
थे.लेकिन उन्होने स्वयं कहा था न हमेँ याद करो न ही हमेँ
भूलो.बच्चोँ!अपना विकास चाहते हो तो अपने को पहचानो.हमारी कोई जाति नहीँ
न कोई मजहब.हम सब सजीव पचास प्रतिशत ब्रह्मांश व पचास प्रतिशत प्रकृतिअंश
हैँ .निर्जीव व क्रत्रिम वस्तुओँ व व्यवस्थाओँ का उसी हद तक पीछा करो जब
तक ब्रह्मांश व प्रकृतिअंश अधिकारोँ का हनन न हो.ब्रह्मांश व प्रकृतिअंश
का समअस्तित्व व समसम्मान ही हिन्दू पौराणिक परिकल्पना
श्रीअर्द्धनारीश्वरशक्ति का हेतु है .

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