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सोमवार, 30 अगस्त 2010

यूरोपीय नस्लेँ : आधुन��क दुनियाँ

यूरोप क्रान्ति के बाद 17 वीँ सदी से भौतिक परिवर्तन तो प्रारम्भ हुए सोँचने व सांसारिक तथ्योँ से प्रेरणा लेने ढंग मेँ भी बदलाव हुए.सत्तावाद व पूँजीवाद ; जो कि स्वार्थी , श्वेतवसन अपराधियोँ और असमाजिक तत्वोँ को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप सहारा दे कर समाज मेँ सच्चे भोले व्यक्तियोँ को बड़ी खूबसूरती के साथ ठगते रहे हैँ.समाज के ढर्रे से हट कर विभिन्न हृदयजीवी,बुद्धिजीवी प्रतिभाओँ के अवसरोँ पर आघात करते रहे. अपने से आगे बढ़ने वालोँ को देख उनके रास्ते पर अवरोध लगाते रहे.कुछ वर्ग विशेष समाज के बहुसंख्यक तबकोँ के साथ दबाववादी नीतियाँ अपनाते रहे.दास प्रथा,बन्धुआ मजदूरी,छुआ छूत, आदि इसके उदाहरण हैँ.




सैकड़ोँ वर्ष पहले वराह मिहिर व कुछ दशक पूर्व मुंशी प्रेम चन्द्र यूरोपीय नस्लोँ की प्रशन्सा कर चुके हैँ.वराह मिहिर ने कहा था कि हमे यूनान के लोगोँ का सम्मान करना चाहिए क्योँकि वे विज्ञान मेँ पारंगत होते हैँ.मुंशी प्रेमचन्द्र ने कहा है कि भारतीय नस्लोँ की अपेक्षा यूरोपीय नस्लेँ बेहतर होती हैँ.ओशो ने 'नये भारत की खोज 'कहा है कि समस्याओँ की मुख्य जड़ है आदर्श व आचरण एक दूसरे के विपरीत खड़े हैँ.भारत का व्यक्ति सब कुछ जानने के बाद भी वह नहीँ कर सकता जो कि आदर्श है,जो कि उसकी प्रतिभा है जो उसकी क्षमता व कर्त्तव्य है.दवंगता व मनमानी करने की स्वतन्त्रता जरूर है यहाँ,लेकिन अपने कर्त्तव्योँ,ईमानदारी ,न्याय,आदि के आधार पर चलने की नहीँ,अपने प्रतिभा या अन्वेषण के आधार पर नहीँ.




आधुनिक दुनिया मेँ साहसिक यात्राओँ व दुर्गम खोजोँ का इतिहास यूरोप का इतिहास है.




हालांकि...



द्वितीय विश्व के बाद यूरोपीय उपनिवेशवाद का स्थान अमेरीकी भौतिक उपनिवेशवाद ने लिया.आज विश्व के अनेक स्थितियोँ के लिए अमेरीका जिम्मेदार है.खैर....


16वर्षीय किशोरी व अमेरिकी नाविक एबी सदरलैँड के प्रति मेरी हमदर्दी है. उसके सलामती की दुआएँ हैँ.जो कि अकेले दुनिया का चक्कर लगाने निकली है.अभी जल्द उसे आस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट से करीब 3700किमी दूर देखा गया.आस्ट्रेलियाई मीडिया मेँ एबी सदरलैण्ड के पिता लारेँस के हवाले से कहा गया कि वह पूरी तरह ठीक है और अपनी नौका पर सवार है.इससे कुछ दिन पूर्व गुरुवार सुबह कैलिफोर्निया स्थित अपने परिवार से सेटेलाइट फोन सम्पर्क टूट गया था.आस्ट्रेलियाई अधिकारियोँ ने एबी सदरलैण्ड को चेता दिया था कि महासागर के सुदूर इलाकोँ मेँ सेटेलाइट फोन काम नहीँ करता .इन इलाकोँ मेँ 90 किमी प्रति घण्टे की रफ्तार से हवाएँ चलती हैँ और छह मीटर तक तक ऊँची तरंगे उठती हैँ.



इस अमेरिकी किशोरी की दीवानगी को मेरा शत शत नमन !



जिन्दगी मेँ कुछ खास करने के लिए दीवानगी आवश्यक है.मैँ विद्यार्थियोँ से कहता हूँ कि


अभी आप लोग पढ़ रहे हैँ,पढ़ाई पूरी करने के बाद आप चाहेँगे कि आय का साधन प्राप्त हो,फिर शादी,इसके बाद परिवार का पालन पोषण-आय प्राप्ति के क्षेत्र मेँ कार्य भ्रमण,आदि.आप सब हमेँ ऐसे महापुरुष का नाम बताओ जो इस सब के कारण प्रसिद्ध हुआ.नहीँ न,तभी तो कहता हूँ मैँ कुछ खास करने के लिए कुछ खास की दीवानगी या नशा पालना होगा.नशा ? हाँ,नशा.नशा कला का ,नशा संगीत या साहित्य का,नशा अन्वेषण का,नशा किसी खेल का,नशा राजनीति या समाज सेवा का,आदि.

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

उग्रवाद के खिलाफ त्य��ग भावना

मानव व्यवहारोँ का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि मानव अब भी मानसिक रूप से गुलाम है अर्थात द्वेषभावना,स्व शारीरिक-ऐन्द्रिक हित के लिए ही सिर्फ जातिवाद,साम्प्रदायिकता,क्षेत्रवाद,आदि का इस्तेमाल कर समाज की विविधता के अपमान मेँ हिंसा पर तक उतर आता है.यहाँ तक कि कुछ सत्तावादी इसका प्रयोग सत्ता प्राप्ति के लिए भी करते हैँ.सर्बजनहिताय उदारता अति आवश्यक है न कि स्व शारीरिक व ऐन्द्रिक आवश्यकताओँ के लिए दूसरोँ को कष्ट देना.धर्म तो उदारता सिखाता है,जो धर्म के नाम पर हिँसा का सहारा लेते हैँ वे कदापि धार्मिक नहीँ हो सकते .इस धरती पर धर्म के नाम पर जितना अत्याचार हुआ है,शायद उतना अन्य के नाम पर नहीँ.ऐसे मेँ समाज या भीड़ के धर्म को मैँ धर्म नहीँ कह सकता.




प्राचीन काल से ही कश्मीर हिँसा का शिकार रहा है.मध्यकाल मेँ औरंगजेब काल मेँ शासकीय कर्मचारियोँ द्वारा अत्याचार की घटनाएँ होती रहीँ. अत्याचारोँ से प्रभावित कश्मीरी पण्डित गुरु तेगबहादुर सिँह के पास अपनी फरियाद ले कर आते रहे थे. एक दिन गुरु तेगबहादुर सिँह ने कश्मीरी पण्डितोँ की सभा बुलाई.जिसमेँ उन्होँने कहा कि त्याग व समर्पण के बिना कुछ भी सम्भव नहीँ.तब बालक गोविन्द बोल बैठा -" पिता जी,"इसके लिए आप से ज्यादा अच्छी शुरुआत कौन कर सकता है." गुरु तेगबहादुर सिँह की आँखे खुल गयीँ.



मिशन या लक्ष्य के पक्ष या विपक्ष मेँ जाने बात बाद की है, अपने मिशन या लक्ष्य के प्रति कैसा होना चाहिए?इसकी सीख हमेँ गुरु गोविन्द सिँह सेँ लेनी चाहिए.जिनका जीवन कुरुशान (गीता) की कसौटी पर खरा उतरता है.समाज के सुप्रबन्धन के लिए त्याग व समर्पण आवश्यक है.



कश्मीर मेँ कश्मीरी पण्डितोँ के बाद अब अलगाववादी कश्मीरी सिक्खोँ पर अत्याचार करने मेँ लगे हैँ.दूसरी ओर देश के अन्दर कुप्रबन्धन , भ्रष्टाचार,आतंकवाद,नक्सलवाद,क्षेत्रवाद,जातिवाद,
साम्प्रदायिकता,
आदि ; इससे कैसे निपटा जा सकता है ?इसके लिए भी हमेँ कुरुशान(गीता) ,गुरू गोविन्द सिंह,आदि से सीख ले सकते हैँ.


अफसोस की बात कि अपनी धुन मेँ जीते जीते हम अपने परिवार को विखराव की स्थिति तक जब ले जा सकते हैँ,त्याग व समर्पण का पाठ नहीँ सीख सकते .घर से बाहर निकल कर सामूहिकता मेँ जीने धर्म के लिए त्याग,समर्पण,कानून,आदि की भावना मेँ जीना ऐसे मेँ काफी दूर की बात हो जाती है.ऐसे मेँ तीसरा फायदा उठाएगा ही.राजपूत काल से अब तक होता क्या आया है?यही तो होता आया है. जम्बूद्वीप (एशिया) से वर्तमान भारत तक और फिर अब भी अलगाववाद ,उग्रवाद, क्षेत्रवाद से प्रभावित इस देश की वर्तमान स्थिति तक आने कारण मात्र क्या है?हमारे पूर्वज कितने भी योग्य रहे होँ लेकिन.....?हमारे मन आपस के लिए ही द्वेष भावना,मत भेद,आदि मेँ जीते आये हैँ.यहां तो कीँचड़ ही कीँचड़ है. हाँ ,यह जरूर है कि कीँचड़ मेँ कमल खिलते आये हैँ.भारत का अर्थ है-प्रकाश मेँ रत,धन्य!धन्य आध्यात्मिक देश!धन्य यहाँ धर्मिक लोग!धन्य कृष्ण के अनुआयी!धन्य अपने को हिन्दू कहने वाले!कुरुशान (गीता) के संदेशोँ को नजर अन्दाज करने वाले.इनकी अपेक्षा तो आतंकवादी,अलगाववादी,आदि अप्रत्यक्ष रुप से कुरूशान(गीता) को आचरण मेँ उतार रहे हैँ और अपने लक्ष्य के लिए त्याग व समर्पण कर रहे हैँ.हम इससे भी सीख नहीँ ले सकते कि अफगानिस्तान मेँ अलगाववादियोँ से लड़ रहे सैनिकोँ को गीता का पाठ सिखाया जा रहा है,एक अमेरीकी विश्वविद्यालय मेँ गीता का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाता है.




जन्माष्टमी के उपलक्ष्य पर हम यदि कुरुशान(गीता ) से यह सीख नहीँ ले सकते तो काहे को कृष्ण भक्ति....!?तब तो सच्चे भक्तोँ(दीवानोँ) को सनकी, पागल,आदि कह कर उपेक्षित करते हो.धन्य....!?तुम्हारी धार्मिकता तो सिर्फ धर्मस्थलोँ की राजनीति,जाति पात , साम्प्रदायिकता,छुआ छूत,आदि के आलावा और क्या सिखा सकती है?बस ,धर्म के नाम पर एक दो मिनट दे दिए फिर चौबीस घण्टे....खो जाता है धर्म.तब वे मूर्ख लगते है जो कहते है कि सुबह से शाम तक हम जो सोँचते करते हैँ,वही हमारा धर्म है.


JAI HO ....OM...AAMEEN!

शनिवार, 21 अगस्त 2010

नक्सली कहानी: संघर्ष ��र विराम [क्या कोई है-भ��माशाह,जो कि हमारी इस मानसिकता पर आधारित हमारे अप्रकाशित कहानी संकलन व उपन्यासोँ को प्रकाशित करवा सके.हमेँ ��ोई पारिश्रमिक नहीँ च��हिए.]

चे ग्वेरा,सुभाष चन्द्र बोस,लेनिन,आदि की तश्वीरेँ जंगल के बीच झोपड़ी मेँ टंगी थी.


दो युवक बैठे बातचीत कर रहे थे-



" ललक ने अपने भाई की हत्या कर दी."


" विराम!तुम तो कृष्ण के भक्त हो? क्या नहीँ जानते कि कुरुशान(गीता)मेँ क्या लिखा है?धर्म के रास्ते पर अपना कोई नहीँ होता. "


" अधर्म का भी तो कोई अपना होता है क्या ? "



" हूँ,सच कहते हो-विराम.ललक ने क्या वास्तव मेँ धर्म मेँ जाकर अपने अत्याचारी व विधर्मी भाई की हत्या की या फिर बचपन से सहते आ रहे उपेक्षा,अकेलापन, तनाव,आदि के आखिरी हद के परिणाम स्वरूप समाज मेँ प्रदर्शन के लिए ? "



"जो भी हो.......संघर्ष!यार संघर्ष! बचपन से ही शान्ति सुकून की तलाश मेँ मैँ ' विराम ' कहाँ से कहाँ आ पहुँचा ? कभी कभार सोँचता रहा कि शान्ति का उपाय है-' इच्छाओँ की शान्ति ' ."



"विराम! तुम ऊपर से शान्ति की बात करते हो लेकिन मन से अशान्त हो.मैँ 'संघर्ष'मन से शान्त हूँ. हाँ, यह जरुर है कि मैँ नक्सली ग्रुप मेँ शामिल हो कर ' तथाकथित झूठे कानून रक्षकोँ ' की नजर मेँ अपराधी हूँ लेकिन भ्रष्टाचार व कुप्रबन्धन के खिलाफ संघर्ष से मुझे सुकून मिलता है.असाह्य गरीब मजदूर दुखी आदि लोगोँ की दुआएँ. कानून के रक्षकोँ से ईमानदार सीधे साधे शोषित आदि लोग कितना खुश होते हैँ? और बात है ललक की........."




"हाँ,संघर्ष! ललक की बात हो रही थी."




"पिछले महीने उन्नीस नवम्बर को ललक यादव ने अपने भाई मर्म यादव की हत्या कर दी.क्या गलत किया?पूरा का पूरा शहर उससे परेशान हो चुक था.पुलिस भी खामोश थी."



"तो वो कौन होता था मर्म यादव को सजा देने वाला ?"



"बस, यही सोँच तो देश को कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार के दलदल मेँ फँसाए हुए है.किसी न किसी को कुछ न कुछ तो करना ही होगा."




"तो इसके लिए गाँधीगिरी का भी रास्ता है."




"महत्वपूर्ण उद्देश्य है रास्ता नहीँ .मैँ अभी गाँधीवादी बन जाऊँगा यदि समाज धर्म कानून के ठेकेदार देश की व्यवस्थाओँ मेँ बदलाव करके दिखायेँ.यह लोग भाषण देते है,कागजोँ पर आंकड़े बनाते है लेकिन हम'करने'पर विश्वास करते हैँ."



पुन: -



"विराम! तुम न जाने कितनी बार राज्य सरकार के प्रतिनिधि मण्डल के साथ बात चीत के लिए हम नक्सलियोँ के पास आ चुके हो? युद्द विराम की. घोषणाओँ से सिर्फ कुछ नहीँ होने वाला. कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ त्याग समर्पण व ईमानदारी कौन दिखाना चाहता है.?और फिर मन, ......जरा रुकना,टीवी पर यह.......हाँ,आज ओशो जन्म दिन है."



एक प्राइवेट टीवी चैनल का किसी पर्वतीय क्षेत्र के ओशो ध्यान शिविर से सीधा प्रसारण था. एक सन्यासी बोल रहे थे-" ओशो चाहते थे कि दुनिया ऐसी हो जाए कि किसी सुकरात ,मीरा को जहर न पीना पड़े , ईसा को सूली न लगे.....हाँ,हर समस्या की जड़ है हमारा मन.मन प्रबन्धन की भी......"



संघर्ष बोल पड़ा -"चाहने से क्या होता है ? आचरण चाहिए.हाँ,यह सत्य है कि मन को बैरागी और शरीय को परहित कर्मशील रखना चाहिए लेकिन, हूँ......इन्सान के सामने ऐसे हालात न आयेँ कि उसके सामने खुदकशी,विछिप्तता या अपराध के सिवा कोई रास्ता न दिखे.(कुछ रुक कर) आखिर फूलन देवी कुख्यात क्योँ न हो ? तब कहाँ सब सो जाते हैँ समाज व कानून के ठेकेदार ? विराम तो सब चाहते हैँ,शान्ति तो सब चाहते हैँ लेकिन आचरण....?! सभी समस्याओँ की जड़ मन तो है ही ,यथार्थ मेँ सभी समस्याओँ की जड़ है-आदर्श व आचरण का एक दूसरे के विपरीत खड़े होना."


बुधवार, 18 अगस्त 2010

सुभाष चन्द्र कुशवाह ��ा गीत:कैद मेँ है जिन्दगी

अब परिन्दोँ को चहचहाना होगा

फिर से गुलशन को सजाना होगा.



ये नदी दूर जाकर बहक जायेगी

इस पर एक बाँध बनाना होगा.



ये धुआँ जो निकल रहा है विकास का

इससे आबोहवा को बचाना होगा.



बचपन मेँ ये बच्चे जवान न होँ

इन्हेँ टेलीविजन से हटाना होगा.


कुतर रहे है इस देश को जो

उन चुहोँ को अब भगाना होगा.



किसने उसकी रोटी छिपा रखी है

अब इस राज को बताना होगा.



अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'

आदर्श इण्टर कालेज

मीरानपुर कटरा, शाहजहाँपुर,उप्र

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

15 अगस्त:क्या युवक स्वतन्त्र है?

मंगलवार,10 अगस्त 2010 ! कालेज पहुंचते ही कक्षा 8C की दो छात्राएँ महिमा सिँह व नित्या मिश्रा मेरे पास आकर बोलीँ," सर,आप तो लिखते रहते हैँ.आप क्या इस विषय पर लिख देँगे कि क्या युवक स्वतन्त्र है."



क्या युवक स्वतन्त्र है?इस पर कुछ भी कहने से पूर्व युवक व स्वतन्त्र शव्द को समझना आवश्यक है.शरीर से युवा हुए तो क्या हुए अन्तस से युवा होना आवश्यक है.मन की दशा दिशा सृजनात्मक -सकारात्मक -उत्साहपूर्ण नहीँ तो शरीर से युवा होने से क्या ?



अरविन्द घोष ने कहा है कि आत्मा ही स्वतन्त्रता है.गीता मेँ स्व से अभिप्राय है आत्मा या परमात्मा.हम आत्मा हैँ,हम स्वतन्त्र हैँ.हम सिर्फ शरीर ही नहीँ मन ही नहीँ ,आत्मा हैँ.अरविन्द घोष ने कहा है कि आत्मा ही स्वतन्त्रता है,ठीक ही कहा है.हमारी अब आत्मा से पकड़ दूर हो गयी है.हम शारीरिक व ऐन्द्रिक आवश्यकताओँ के वशीभूत हो कर अपनी स्थिति अर्थात अपनी आत्मा से दूर हो जाते हैँ.


किसी ने कहा है कि मनुष्य कोई न कोई प्रतिभा लेकर ही जन्म लेता है और अपनी प्रतिभा के साथ किसी को समझौता नहीँ करना चाहिए.




आज का युवा वर्ग विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद सिर्फ साक्षरोँ की भीड़ बढ़ाने मेँ सहायक है.ऐसी युवा शक्ति की स्वतन्त्रता के मायने क्या हैँ? विसंगतियोँ से भरा व दृष्टिहीन युवा या सिर्फ भौतिकवादी लालसा मेँ जीने वाला युवा स्वतन्त्रता की ओर अग्रसर नहीँ हो सकता.हाँ;स्वच्छन्दता की ओर अवश्य अग्रसर हो सकता है. जो दस प्रतिशत प्रतिभाशाली युवा हैँ,जिनमेँ वास्तव मेँ दीवानगी है -कुछ कर गुजरने की.वे सब कुप्रबन्धन,भ्रष्टाचार,संसाधन अभाव,पारिवारिक स्तर,अभिभावक सोँच,आदिके रहते अपना मन मार कर रह जाते हैँ. इन्हेँ क्या हम परतन्त्र कहेँगे?कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.कौन सा ऐसा महापुरुष है जो सिर्फ अपने पैत्रक स्थान पर रह कर यशस्वी हुआ हो?'पलायन' युवा की प्रतिभा के अनुकृल वातावरण खोजने मेँ सहायक हो सकता है.जो साहसी है,वे अपनी प्रतिभा से समझौता न कर स्थान परिवर्तन कर और महापुरुषोँ के जीवन से प्ररेणा ले आगे बढ़ सकते है.



युवाओँ की स्वतन्त्रता या परतन्त्रता सिर्फ व्यक्ति की सोँच व सोँच की दिशा दशा है.हम अपनी क्षमताओँ व प्रतिभा के साथ समझौता न कर त्याग,समर्पण ,दीवानगी, उत्साह के सहारे आगे बढ़ सकते हैँ. हम समाज से प्रेरणा न लेकर महापुरुषोँ से प्रेरणा लेँ.समाज व संसार तो हमेँ उलझाने वाला है.



ग्रन्थोँ,महापुरुषोँ ,आदि सेँ प्रेरणा लेते हुए अपनी क्षमता व प्रतिभा के अनुरूप आगे बढ़ कर ही स्वतन्त्रता की ओर प्रत्यन कर सकते हैँ. वर्तमान के आदर्शपुरुष डा.ए.पी .जे.अब्दुल कलाम के जीवन से हमेँ प्रेरणा लेनी चाहिए.अपनी प्रतिभा से दीवानगी के सामने अपनी सगाई की तिथि तक भूल गये.अपनी धुन या अपनी निजता मेँ जीते हुए महापुरुषोँ से प्रेरणा लेते रहना ही स्वतन्त्रता है.ऐसा होना अधिकतर लोगोँ का असम्भव है.


माया मोह लोभ के वशीभूत होकर काम करने वाला क्या स्वतन्त्र है?ऐसा व्यक्ति क्या शान्ति व सुकून को प्राप्त कर सकता है?इन्सान को अपनी कमजोरियोँ को छिपाने के लिए बहाने बनाना व अन्य पर कमेण्टस या आलोचना आसान हो सकता है लेकिन आत्मसाक्षात्कार दौरान सामने नजर आने वाला अपना कड़ुवा सच झेलने की सामार्थ्य कितनोँ के पास है?अपनी निजता या स्वतन्त्रता को जानने के लिए आत्म साक्षात्कार आवश्यक है.



न जाने कितने विचार मेरे मनस पर हिलोरे मारने लगे थे.सुकरात व ओशो सम्बन्धी दृष्टान्त मेरे स्मृति मेँ आ चुके थे,जिन्होने क्रमश:17 व21 की उम्र मेँ अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की.


शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

नक्सली कहानी :तन्हाई के कदम

कमरे की एक दीवार पर ओशो की तश्वीर लगी हुई थी.


एक युवती की निगाहेँ जिस पर टिकी हुई थीँ.उसके दाहिने हाथ मेँ हिन्दुस्तान दैनिक समाचार पत्र था,जिसकी मुख्य हैडिँग थी-दस नक्सली एक पुलिस मुठभेड़ मेँ ढेर.साथ मेँ एक फोटो भी छपा था.वह फोटो अमित कन्नौजिया का था.


अमित कन्नौजिया का एक फ्रेम जड़ा फोटो यहाँ इस कमरे मेँ टेबल पर रखा था.युवती ने आगे बढ़कर टेबल से वह फ्रेम मड़ी फोटो उठा ली और सिसकने लगी.



इधर झारखण्ड के एक जंगली इलाके मेँ काफी तादाद मेँ नक्सली पुलिस चौकी पर आक्रमण करके अमित कन्नौजिया व उसके अन्य साथियोँ की लाशेँ उठा लाए थे और अब उनका अन्तिम संस्कार ससम्मान कर रहे थे.



08अगस्त 2014ई0 उत्तर भारत के सीतापुर शहर मेँ स्थित गेस्ट हाउस मेँ भारत परिषद द्वारा आयोजित सम्मेलन मेँ काफी संख्या मेँ लोग एकत्रित थे.वर्तमान मेँ जिसे प्रजातन्त्र सेनानी के प्रमुख इकरामुर्रहमान खां सम्बोधित कर रहे थे.दो युवतियोँ ने आपस मेँ खुसुरफुसुर की,"काल करते हैँ.काफी टाईम होगया.पूजा को अब तक तो आजाना चाहिए था."



"अमित!तुम तन्हा तो मैँ तन्हाई.हालाँकि तुम हालातोँ से त्रस्त हो नक्सली हो गये थे लेकिन इस उम्मीद के साथ मेँ जी तो रही थी कि तुम जिन्दा तो हो.तुम चले गये तो....."फिर युवती अमित कन्नौजिया की तश्वीर सीने सटा कर रोने लगी.


"कुप्रबन्धन, भ्रष्टाचार , मनमानी व अपनी अस्वस्थता को देखते हुए तुम अपने परिवार, समाज , सारे तन्त्र ,आदि के रहते तनाव के शिकार हो गये थे.अपने को तन्हा महसूस करने लगे थे.आप तो हम युवतियोँ के प्रति भी खिन्न रहने लगे थे;कमबख्त यह लड़कियाँ क्या चाहती हैँ?कोई काली कलूटी लूली लंगड़ी ही काश हमेँ पसन्द कर लेती?यही तो न! अमित,तुम वास्तव मेँ मूर्ख थे.मैँ तुम्हेँ कैसे बताती कि मैँ तुम्हेँ चाहती हूँ.तुमने यह कैसे महसूस कर लिया कि कोई लड़की तुम्हेँ पसन्द नहीँ करती थी. तुमने किसी को मौका भी दिया क्या? "




मोबाइल पर किसी की काल आयी तो..

"हैलो"

" हाँ,हैलो! हाँ,मैँ पूजा ही बोल रही हूँ"-सीने पर से अमित की तश्वीर हटाते हुए युवती बोली.



"क्या गेस्ट हाउस नहीँ आना है?सम्मेलन शुरु हुए आधा घण्टे से ज्यादा हो गया है."

"सारी, मैँ नहीँ आ सकती. "



"अरे,पूजा!क्या बात?तुम तो रो रही हो?"


"आज का अखबार देखा है,अमित....."

15अगस्त 2 014 ई0 !



नक्सलियोँ का हस्तक्षेप पूरे देश मेँ बढ़ चुका था.नक्सलियोँ की ओर से जनता के नाम पर्चे पूरे देश मेँ जहाँ तहाँ बाँटे गये थे. जिन पर लिखा था कि-"आप क्या देश की वर्तमान व्यवस्थाओँ से सन्तुष्ट हैँ?यदि नहीँ तो क्या ऐसे ही हाथ पर हाथ धरे रहने से काम चलेगा?उन लोगोँ से क्योँ डरते हो जो कानून के ठेकेदार बनते है लेकिन स्वयं अपने जीवन मेँ कानून का 25 प्रतिशत भी पालन नहीँ करते.देश के अन्दर समस्याओँ का मूल कारण है-आदर्श व आचरण का एक दूसरे के विपरीत खड़े होना.आप कैसे श्री कृष्ण के भक्त हैँ?भूल गये कुरुशान(गीता ) का सन्देश?यदि श्री कृष्ण की शिक्षाओँ को अमल मेँ नहीँ ला सकते तो छोँड़ दो श्री कृष्ण की पूजा करना.गाँन्धीगिरी के खिलाफ मेँ भी कुछ नहीँ कहना चाहता हूँ लेकिन आप को देश की भावी पीढ़ी के लिए कोई स्पष्ट निर्णय लेना ही होगा. नहीँ तो आप ढोँगी पाखण्डी हैँ.उदास निराश युवक युवतियाँ हमसे सम्पर्क करेँ.ऐसे नहीँ तो वैसे ,कैसे भी लेकिन जीवन जियो."


पूजा नक्सलियोँ के बीच खामोश खड़ी थीँ.

" पूजा! अमित मौत के वक्त भी तुम्हारा नाम ले रहा था."

पूजा की आँखोँ मेँ आँसू थे.


वह अपने ढाढस बँधाते हुए बोली-"मैँ तो आत्म हत्या का मन बनाये बैठी थी लेकिन अमित की डायरी ने मेरी आँखे खोल दी हैँ.मैँ दुनिया के हिसाब से नहीँ जी सकती न ही ध्यान भजन मेँ मन लगा सकती.हाँ,आत्महत्या कर सकती हूँ लेकिन ......"


"अमित के काम को आगे बढ़ाना ही होगा.हमेँ सर आलोक वम्मा के प्रत्येक कथन याद हैँ,मैँ नक्सल आन्दोलन के साथ हूँ लेकिन नक्सली हिँसक आन्दोलन के खिलाफ हूँ."

लेखक:अशोक कुमार वर्मा "बिन्दु"

आदर्श इण्टर कालेज

मीरानपुर कटरा, शाहाजहाँपुर (उप्र)

बुधवार, 4 अगस्त 2010

संगीता शुक्ला का पत्��:प्रतिभा पलायन

मंगलवार 3अगस्त2010 राष्ट्रीय सहारा मेँ पृष्ठ 15 पर ठीक ही लिखती हैँ कि-



" नौजवान गांव छोँड़ कर शहरोँ का रुख क्योँ करते हैँ?....शहर से विदेशोँ को पलायन कर रहे हैँ?.......जब यही युवा विदेशोँ मेँ जाकर अपने काबिलियत के बूते देश का नाम रोशन करते हैँ तो हम झट से उनका नाम बड़े बड़े अक्षरोँ मेँ अखबार या फिर टेलीवीजन पर दिखाते और खुश हो जाते हैँ."

आदि काल से ही परिवार ,समाज,आदि स्तर पर प्रतिभाओँ का किसी न किसी स्तर पर दम घोटनेँ की कोशिस की जाती रही है.जो अपनी प्रतिभा से समझौता न कर आगे बढ़ते रहे हैँ वे यशवान हुए हैँ और फिर कमल तो कीँचड़ मेँ ही तो खिलते हैँ न .संगीता जी जिसे आप पलायन कहती हैँ ,मैँ उसे पलायन नहीँ मानता.अपनी प्रतिभा से समझौता वैसे भी नहीँ करना चाहिए.अपनी प्रतिभा की दिशा दशा मेँ प्रवाहित होते ही रहना चाहिए.तथा कथित अपने ही निजता को मारते रहे हैँ.निन्यानवे प्रतिशत से भी ज्यादा लोग अपनी निजता से का फी दूर होते हैँ.कुछ मामले मेँ पश्चिम के लोग हम भारतीयोँ से बेहतर होते हैँ,जैसा कि मुंशी प्रेमचन्द्र ने भी कहा है.

कुछ प्रतिभाएँ ऐसी हुईँ जिन्हेँ उनके माता पिता ने तक पागल कह डाला लेकिन विदेश जाने के बाद अपनी प्रतिभा के सहारे ही वे यशवान हुईँ . अभिभावक अपनी सन्तानोँ को अपनी सन्तानोँ को सुकून देनी वाली प्रतिभा के अनकूल बनते नहीँ देखना चाहता. जिसने कहा है भारत आध्यात्मिक देश है,क्या देख कर कहा है ?यहाँ का व्यक्ति क्या चाहता है?उसके मन की दिशा दशा क्या है?जरा,अन्वेषण तो करेँ.वैज्ञानिक अध्यात्म के बिना समाज का स्तर नहीँ उठने वाला.कोरे भौतिकवाद का परिणाम देख तो रहे हो,जो कि योरोपीय क्रान्ति के बाद सत्तरहवीँ सदी से प्रारम्भ हुआ है.

6 साल पहले एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि अनुसंधानशालाओँ मेँ वैज्ञानिकोँ की कमी. जिसके बाद मेरा लेख प्रकाशित हुआ था .आखिर भारत के अनुसंधानशालाओँ मेँ वैज्ञानिकोँ कमी क्योँ न हो?वैज्ञानिक बनने के जो हालात हैँ,उन हालातोँ के खिलाफ खड़ा है अभिभावक.अभी कुछ दिन पूर्व एक समाचार के अनुसार एक विश्वविद्यालय अपने छात्रोँ मेँ से ऐसे तीन वैज्ञानिक नहीँ खोजने मेँ असफल रहा जिसे वह दिल्ली भेज सके.
ओशो ने ठीक ही कहा है कि सभी पाठशालाएँ स्मृतिशालाएँ हैँ.लाखोँ लोग प्रतिवर्ष विज्ञान की डिग्रियाँ ले सड़क पर आ जाते हैँ लेकिन उनमेँ से कितने वैज्ञानिक बन पाते हैँ या वैज्ञानिक सोँच के होते हैँ? विभिन्न मुद्दोँ पर आम आदमी और उनकी सोँच मेँ क्या फर्क होता है?

ऐसे फिर पलायन क्योँ न हो?


और फिर चाणक्य ने क्या कहा है?मनुष्य को कहाँ रहना चाहिए? फिर मैँ कहूँगा ,अपने विद्यार्थियोँ से भी मेँ यही कहता हूँ कि अपनी प्रतिभा के साथ कभी समझौता न करना.महापुरुषोँ के जीवन को स्मरण करना कभी न भूलना.चाहेँ क्योँ न हमेँ अपने परिवार समाज व देश से पलायन करना पड़े.

इसके लिए गीता से भी सीख ले सकते हैँ.आज दुख का कारण यह भी है कि हम 'स्व' से परिचित नहीँ हैँ,उसकी सुनना तो दूर की बात.

शेष फिर....

अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'

आदर्श इण्टर कालेज

मीरानपुर कटरा,शाहजहाँपुर(उप्र)

अन ्तरिक्ष मेँ भारत !

भारत एक सनातन यात्रा का नाम है.पौराणिक कथाओँ से स्पष्ट है कि हम विश्व मेँ ही नहीँ अन्तरिक्ष मेँ भी उत्साहित तथा जागरूक रहे हैँ.अन्तरिक्ष विज्ञान से हमारा उतना पुराना नाता है जितना पुराना नाता हमारा हमारी देवसंस्कृति का इस धरती से.विभिन्न प्राचीन सभ्यताओँ के अवशेषोँ मेँ मातृ देवि के प्रमाण मिले हैँ.एक लेखिका साधना सक्सेना का कुछ वर्ष पहले एक समाचार पत्र मेँ लेख
प्रकाशित हुआ था-'धरती पर आ चुके है परलोकबासी'.


अमेरिका ,वोल्गा ,आदि कीअनेक जगह से प्राप्त अवशेषोँ से ज्ञात होता है कि वहाँ कभी भारतीय आ चुके थे.भूमध्यसागरीय सभ्यता के कबीला किसी परलोकबासी शक्ति की ओर संकेत करते हैँ.वर्तमान के एक वैज्ञानिक का तो यह मानना है कि अंशावतार ब्रह्मा, विष्णु ,महेश परलोक बासी ही रहे होँ?


मध्य अमेरिका की प्राचीन सभ्यता मय के लोगोँ को कलैण्डर व्यवस्था किसी अन्य ग्रह के प्राणियोँ से बतौर उपहार प्राप्त हुई थी. इसी प्रकार पेरु की प्राचीन सभ्यता इंका के अवशेषोँ मेँ एक स्थान पर पत्थरोँ की जड़ाई से बनी सीधी और वृताकार रेखाएँ दिखाई पड़ती हैँ.ये पत्थर आकार मेँ इतने बड़े है कि इन रेखाओँ को हवाई जहाज से ही देखा जा सकता है.अनुमान लगाया जाता है कि शायद परलोकबासी अपना
यान उतारने के लिए इन रेखाओँ को लैण्ड मार्क की तरह इस्तेमाल करते थे.इसी सभ्यता के एक प्राचीन मन्दिर की दीवार पर एक राकेट बना हुआ है.राकेट के बीच मेँ एक आदमी बैठा है,जो आश्चर्यजनक रुप से हैलमेट लगाए हुए है.

पेरु मेँ कुछ प्राचीन पत्थर मिले हैँ जिन पर अनोखी लिपि मेँ कुछ खुदा है और उड़न तश्तरी का चित्र भी बना है.दुनिया के अनेक हिस्सोँ मेँ मौजूद गुफाओँ मेँ अन्तरिक्ष यात्री जैसी पोशाक पहने मानवोँ की आकृति बनाई या उकेरी गई है.कुछ प्राचीन मूर्तियोँ को भी यही पोशाक धारण किए हुए बनाया गया है.जापान मेँ ऐसी मूर्तियोँ की तादाद काफी है.सिन्धु घाटी की सभ्यता और मौर्य काल मेँ भी कुछ ऐसी
ही मूर्तियाँ गढ़ी गयी थीँ.इन्हेँ मातृदेवि कहा जाता है.जिनके असाधारण पोशाक की कल्पना की उत्पत्ति अभी भी पहेली बनी हुई है.


ASHOK KUMAR VERMA'BINDU'

A.B.V. INTER COLLEGE,
KATRA, SHAHAJAHANPUR, U.P.