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शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

सत्यार्थी::दुर्योधन संस्कृति?!भाग 01#कृष्ण कांत शर्मा

 

यह सत्य कि हाड़ मास शरीर, मांस हड्डी, आत्मा, दिल, दिमाग,मन, विचार, भाव आदि जातिवाद, मजहबवाद, धर्मस्थलवाद आदि का मोहताज नहीं है। इसकी आवश्यकताओं के लिए जीना प्राकृतिक, नैसर्गिक कर्तव्य है।हम सबका, जीव जंतुओं,प्रकृति के बीच अनेक स्तर, विभिन्नता, विविधता है।लेकिन इस सब विविधता के बीच एकत्व तन्त्र को समझना आवश्यक है, जिसके बिना जीवन निरर्थक है।नेतृत्व के लिए महत्वपूर्ण कार्य होता है-कैसे विविधता, विभिन्न स्तरों के बीच सन्तुलन बना कर कार्य किया जाए?ईश्वरीय सत्ता के केंद्रीयकरण व विकेंद्रीयकरण की समझ के बिना नेतृत्व अधूरा है। संस्थाओं, समाज, देश, विश्व शांति व कल्याण के लिए विभिन्नता में एकता, सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर आदि की स्थिति को समझना आवश्यक है।मुट्ठी के महत्व को समझना आवश्यक है।हथेली की अंगुलियों की भांति संस्थाओं,समाज,प्रकृति में विभिन्नता रहती है, छोटे बड़े स्तर रहते हैं लेकिन ये विभिन्नता ही मुट्ठी बनाने, सुप्रबन्धन हेतु आवश्यक हो जाती। 


अब सवाल उठता है, नेतृत्व कैसा हो?किसी ने कहा है -यथा राजा तथा प्रजा। अफसोस आजकल भी  नेतृत्व दुर्योधन कल्चर के ही साथ खड़ा होता है।इतिहास बारबार दोहराया जाता है।

आखिर क्या है?दुर्योधन कल्चर?!दुर्योधन संस्कृति?! हालांकि अनन्त यात्रा में तो सब समाहित है।गीता के विराट रूप से क्या स्पष्ट होता है?जगत की विभिन्नताओं से हट कर अनन्त की ओर जाती धाराएं नजर आती है।

               



सत्य/यथार्थ
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स्थूल                 सूक्ष्म         कारण
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बनावटी     नैसर्गिक
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भौतिक   आध्यात्मिक    सन्तुलित
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कुप्रबंधन            सुप्रबन्धन

             



हमें इस पोस्ट पर दुर्योधन कल्चर पर बोलना है, अभिव्यक्ति में जाना है। आखिर दुर्योधन कल्चर क्या है ?इस पर जाने के लिए हमें समझना होगा हम अपने को कुछ भी समझे ब्राह्मण या  शूद्र ,किसी भी मजहब या देश से अपने को जोड़ें, इस सब को हम ताख पर रख कर      यथार्थ पर जाना चाहेंगे। हम वास्तव में दुनिया की नजर में,जाति, मजहब की नजर में,सस्थाओं की नजर में क्या दिखते हैं?यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण ये है कि हम वास्तव में हैं क्या असलियत की नजर में,कुदरत की नजर में,आत्मा - परम् आत्मा की नजर में?      


अशोकबिन्दु कहते रहे हैं, जो भी है; हम उसको तीन स्तरों से देख सकते हैं। हमारी आवश्यकताए ...?! हम अपनी आवश्यकताओं को भी तीन भागों में बांट सकते हैं!



         आवश्यकताएं
 
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स्थूल                 सूक्ष्म         कारण
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बनावटी     नैसर्गिक
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भौतिक   आध्यात्मिक    सन्तुलित
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कुप्रबंधन            सुप्रबन्धन



दुर्योधन संस्कृति में हमारी आवश्यकताएं क्या होती हैं?दुर्योधन संस्कृति में हमारा सत्य/यथार्थ क्या होता है?

हे अर्जुन (अनुराग) उठ ! मैं आत्मा के रूप में तेरे साथ हूँ! आत्मा रूपी सिंहासन को अपना स्थान बना।
यहां पर  अनुराग से मतलब क्या है? अनुराग से मतलब है दुर्योधन संस्कृति के विपरीत !!

......तो फिर दुर्योधन कल्चर से क्या मतलब है?

दुर्योधन कल्चर वही है जिसमें हम भी जीते हैं? हम आत्मा के प्रेमी नहीं हैं।हम परम् आत्मा के प्रेमी क्या होंगे ? हम किसी जीवित महापुरुष के भी प्रेमी नहीं हैं। हम सब भी रुपया पैसा, गाड़ी बंगला, यश अपयश, पसन्द नापसन्द, अच्छा बुरा ,लोभ लालच आदि के प्रेमी हैं।




शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

सामूहिक जीवन में स्वतन्त्रता ?!#अशोकबिन्दु

 किसी ने कहा है-उपदेश, आदेश महत्वपूर्ण नहीं है।वातावरण, कार्यक्रम, समय सारणी, दिनचर्या महत्वपूर्ण होती है।हम जिन आश्रमों, शिविरों में जाते हैं।वहां परस्पर सहयोग, सहकारिता,समय सारणी,कार्यक्रम आदि को महत्व होता है।आदेश उपदेश को नहीं।....मुंशी प्रेमचंद ने कहा है-सरकार निरर्थक है।दुनिया को इस पर आश्चर्य हो सकता है।देश के अंदर अनेक लोग कहते हैं, हम अपने परिवार व अपने बच्चों के लिए कर रहे हैं?वहीं हम मराठा, सिक्ख, जाट समुदाय आदि में हम देखते हैं कि समाज, देश आदि से सम्बंधित अपनी समस्याओं के लिए धरना, आंदोलन आदि में अपनी फैमिली के साथ ही अपने कुटुम्ब के साथ ही आ डट ते हैं।#अशोकबिन्दु #ज्ञानान / #तालिबान ...?! #हा हा...?!





स्वतन्त्र बनाम परतन्त्र सामूहिकता के मध्य::अशोकबिन्दु


हमारी स्वतन्त्रता ही हमारी अंतर प्रतिभाओ को उजागर करती है। जो सबमें रमा है,हमारा राम का अस्तित्व वहीं से शुरू होता है। वहीं से द्वार है अनन्त का,अनेकता में एकता का, विविधता में एकता का।हमारी समीपता का हमारे जीवन में प्रभाव होता है।हमारी प्राथमिक समीपता हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे माता पिता,हमारा परिवार, पास पड़ोस, हमारी आवश्यकताए हैं। ऐसे में हमारे चारों ओर एक प्रकार से एक परिवेश, वातावरण, सामूहिकता तैयार रहती है।जिसमें उत्साह, प्रेरणा, सहयोग, सम्मान,आवश्यकताओं के लिए प्रबन्धन भी शामिल है।


स्व का जीवन मे बड़ा महत्व है।हमारा स्व हमारे व्यक्तित्व को खड़ा करता है। वहीं से हमारी कार्य क्षमता के लिए ऊर्जा केंद्रित होती है। स्व ही आत्मा है, स्व ही आत्मियता है, स्व ही अनन्त का द्वार है, स्व से सनातन का प्रारंभ बिंदु है। स्व से ही स्वास्थ्य है।स्व का तन्त्र ही स्वतन्त्रता है।स्व का अभिमान ही स्वाभिमान है।स्व का बल ही आत्मबल है।स्व की निर्भरता ही आत्मनिर्भरता है। जिसके लिए अवसर ही हमारा अवसर है, जिसके लिए ही वातावरण हमारा वातावरण है।जिसके लिए कार्य शैली हमारी कार्यशैली है। ऐसे में परतन्त्रता का कोई औचित्य नहीं।लेकिन यह जब जाति, मजहब, लोभ, लालच, व्यक्तिगत शारिरिक व इंद्रियों की सिर्फ इच्छाओं का जामा पहना लेता है तो समाज में उन्माद, भीड़ हिंसा, द्वेष, भेद आदि का जहर भरता है।अराजक बनाता है।आज कल कुलों, समाज, संस्थाओं आदि में कुछ लोगों  के माध्यम से यही अराजकता, मनमानी, चापलूसी आदि के रूप में समाने आता है लेकिन जो अपने स्व में सहज होते है, या उस सहजता में जीते हैं ,आंतरिक निश्चलता में जीते हैं उन्हें या उपद्रवी या असफल या निरर्थक घोषित कर दिया जाता है।आदि काल से ऐसा वन्य समाज, कृषक आदि के साथ भी होता रहा है।



आध्यत्म अर्थात आत्मा के विज्ञान में आदेशों तक को महत्व नहीं दिया गया है, वरन सुझाव, सहयोग ,परस्पर सहकारिता ,सेवा, कर्तव्य आदि को महत्व दिया गया है।मुंशी प्रेम चन्द्र तो कृत्रिम सरकार को ही निरर्थक मानते है। ऐसे में हमारी योग्यता क्या है?एक नवजात पक्षी की योग्यता क्या है?उसकी शाखा ही, उसका घोसला ही उसकी योग्यता का आधार है।एक बच्चा की योग्यता का आधार उसका बच्चापन ही है। हमारी योग्यता क्या है?



हमारी योग्यता हमारे स्तर, हमारी समझ, हमारे नजरिया, हमारे चेतना के बिंदु, हमारी ऊर्जा के बिंदु से शुरू होती है।गीता के एक भाष्यकार ने भी कहा है कि व्यक्ति के सुधार व व्यक्ति के अंदर की दिव्यता व प्रतिभाओं का जागरण की शुरुआत उसके ही स्तर से शुरू की जा सकती है।हमारी योग्यता क्या है?आपकी आपके समाज की नजर में हमारी योग्यता कुछ भी नहीं है।हां,वह आपको सनकी नजर आ सकती है। जो अनन्त के द्वार अर्थात आत्म पर बार बार अपने पूरे अस्तित्व को खड़ा कर देना चाहता है, उसकी योग्यता आपकी नजर में क्या है? उस दिन दो अक्टूबर विश्व अहिंसा दिवस..... कार्यक्रम का संचलन पुष्पेंद्र सिंह यादव कर रहे थे। वे बोले -"बोलोगे?हम आपका नाम बोल देंगे?" हमने कह दिया - " नहीं, हम नहीं बोलेंगे।"

वे बोले -"बोलते तो रहते हो?कहेंगे तो नहीं बोलोगे? तब हमने कह दिया-"हमें बोलना होगा तो हम बोल देंगे।" 


अनन्त से जुड़ी प्रबुद्धता अनन्त हो जाती है।निरतंर हो जाती है।ये हाड़ मास शरीर तो थक सकता है लेकिन अनन्त या निरन्तरता से जुड़ी प्रबुद्धता नहीं। ऐसे में हम आपकी नजर में  क्या योग्य?!आप किस स्तर पर काम करना चाहते हो और हम किस स्तर पर कार्य करना चाहते है।हम अपने स्तर पर कभी न थकने वाले हैं, निरन्तर है लेकिन हमें अवसर तो दो।अनन्त यात्रा में तो निरन्तरता है वहां थकान ही नहीं।लेकिन ऐसे लोग आपकी नजर में सनकी है।औऱ उपद्रवी भी है।जब #रामतीर्थ अमेरिका गए तो पत्रकारों में पूछा -यह दुनिया किसने बनाई?उनके मुंह से निकल गया-"हमने"!दूसरे दिन #रामतीर्थ के खिलाफ अनेक अखबारों ने छापा।आप सब व आपको दुनिया क्या जाने -सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर की स्थिति?अनन्त यात्रा व सनातन की स्थिति?!आपको आपके दुनिया को तो हाड़ मास शरीर, लोभ लालच, रुपया पैसा, जाति-मजहब,धर्म स्थलों आदि से ही फुर्सत नहीं।आत्मा के लिए ,परम् आत्मा से जुड़ने उसकी आवश्यकताओं के लिए फुर्सत कब होगी?



निरन्तरता में कोई मंजिल नहीं, पूर्णता नहीँ।वहां विकास नहीं।वहां तो निरन्तरता है, विकास शीलता है।

ऐसे में व्यक्ति के अंदर की निरन्तरता से जुड़ना अति महत्वपूर्ण है।




आत्मा, परम् आत्मा कब सक्रिय होता है।जब उसके अनुकूल वातावरण होता है।उसके लिए मानसिक, भावात्मक स्तर पर पवित्रता चाहिए, सहजता चाहिए, स्वभाविकता चाहिए।सत्य चाहिए।यथार्थ चाहिए।जहां तमासी प्रवृतियां, झूठ, लोभ लालच, मदिरा, मांस भक्षण,शोषण, अपराध, माफियागिरी आदि हो रहा हो वहां आत्मा, परम् आत्मा कैसै उजागर होगा?होगा भी तो किस स्तर पर?15 अगस्त 2021 को हमारे साथ क्या हुआ?स्वतन्त्रता दिवस कार्यक्रम के दौरान अंत में प्रबन्धक महेश चंद्र महरोत्रा जी बोलते बोलते आत्मा पर आ गए।वे मानव के अंदर की आवश्यकताओं पर बोलने लगे।हम इतने उत्साहित हो गए कि हम उठने को करने लगे और हमारी बोलने की इच्छा होने लगी।इसके साथ ही हम अंदर ही अंदर आत्मा के प्रभाव में होने लगे।जिसके बाद सामान्य से हट कर दशा हो जाती है।


किसी ने कहा है कि उपदेश आदेश।महत्व पूर्ण नहीं है।वातावरण महत्वपूर्ण है।व्यक्ति जिस वातावरण में रहता है, उसमे दिनचर्या, समय सारिणी, कार्यक्रम महत्व पूर्ण है।महात्मा गांधी ने कहा है कि वातावरण ऐसा होना चाहिए जिसमें एक गुंडा भी मनमानी न कर सके।जिसमें हर स्तर के लोग, हर व्यक्ति एक आभा में बंध सके।इसके लिए सामूहिकता, सहकारिता का बड़ा महत्व है। संविधान सभा को सम्विधान में स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति के लिए कानून की आवश्यकता की जरूरत क्यों पड़ी?जरूर समाज, संस्थाएं अभिव्यक्ति को महत्व नहीं देती है।कुछ मुट्ठीभर लोगो के आदेशों, उपदेशों से समाज प्रभावित है। हम कुछ शिविरों में गए हैं, वहां किसी पर कुछ भी थोपा नहीं जाता।वरन चर्चा होती है, सभी के विचार लिए जाते हैं फिर उस पर फैसला होता है।लेकिन वह फैसला का हेतु सर्वव्यापक हो,सभी की भागीदारी के हिसाब से,सबके कल्याण के हिसाब से हो,महापुरुषों की प्रेरणा के आधार पर हो। एक प्रसंग है- एक युवक आत्महत्या करते कुछ साधक पकड़ लेते हैं और उसे आश्रम ले आते है।आश्रम के स्वामी कहते है-तुम आत्महत्या करना चाहते थे।अब भली भांति यहाँ आत्महत्या होगी।तुमको करना ये है कि जब तक आश्रम में रहो मौन रहना होगा।किसी से भी कुछ भी बोलना नहीं।यहां की दिनचर्या, कार्यक्रम में तटस्थ भाव से शामिल होना है।जब तक चाहो तब तक यहाँ रह सकते हो। जब यहां से जाओ, गांव ही जाना अपने।वहां वह करना जो अंदर से आपकी इच्छा उठे।लेकिन वह न करना जो यहां की सीख, ग्रन्थों, वाणियों के खिलाफ हो। वह युवक काफी समय तक वहां रहा।एक दिन उसने स्वामी से आज्ञा ले अपने गांव लौट गया। गांव जाकर वह फ्री स्टाइल रहने लगा।जो मन में होता वह करता।लेकिन महापुरुषों के वाणियों के खिलाफ कोई कार्य नहीं करता।धीरे धीरे समय बीत गया।एक दो वर्ष बाद वह फिर आश्रम पहुंचा।उससे स्वामी जी ने हाल चाल पूंछा।वह युवक बोला-"सब ठीक है लेकिन अब लोग हमें सनकी, पागल आदि कहने लगे हैं।"स्वामी जी (ओशो) बोले-"जो तुम्हे सनकी पागल कहते हैं वे स्वयं क्या है?उनका लक्ष्य क्या वही है जो तुम्हारा है?यदि नहीं है तो कोई बात नहीं, उन्हें कहने दो।"


विजयनगर साम्राज्य के राजपुरोहित, सेनापति व प्रथम वेद भाष्यकार आचार्य #सायण ने कहा है कि तुंबी कूर्मि/एक कुटम्बी सर्वशक्तिमान होता है। ऐसा कैसे? आदिकाल में जो झुंड बना कर रहते थे वह धरती पर वर्चस्व स्थापित करते थे।समय बदलें के साथ उन झुंडों ने कुल, जन, जनपद का स्थान ले लिया। सन2012 की सामाजिक आर्थिक जनगणना में हम भी सहयोगी रहे थे। उसकी रिपोर्ट के अनुसार सिक्ख, जाट व मराठा अब भी बेहतर स्थिति में थे। अब हम सांकेतिक करना चाहते हैं कि इन समुदायों की नजर में इनके परिवार किस शैली में जीते हैं?


साभार::अशोक कुमार वर्मा 'बिंदु'