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बुधवार, 31 मार्च 2010

अध्यापक दंश:जो बोले व��ी कुण्डी खोले.

यदि 20प्रति शत अध्यापक भी आचरण मेँ कानून- ज्ञान को उतार लेँ,पुलिस- वकील भी. खैर......!?प्रकृति असन्तुलन ,भ्रष्टाचार, कुप्रबन्धन के लिए हम सबकी शूद्रता दोषी है.सिर्फ अर्थ काम की लालसा रखने वाला शूद्र ही है.
पुरूषार्थ की आज अति आवश्यकता है.धर्म ,अर्थ ,काम, मोक्ष मेँ सन्तुलन ही पुरुषार्थ है. परिवार समाज देश व विश्व की बिगड़ती दिशा दशा के लिए हम सब की सोँच ही उत्तरदायी है.मात्र शिक्षा से काम नहीँ चलने वाला शिक्षा के चारो रूपोँ शिक्षा, स्वाध्याय(स्वाध्याय की सीख भगत सिँह से लेनी चाहिए कि जिस दिन उन्हे फाँसी लगने वाली होती है उस दिन भी वह स्वाध्याय करना नहीँ भूलते) , अध्यात्म, ,तत्वज्ञान पर ध्यान देना आवश्यक हैँ. वह सोँच जो सिर्फ अर्थ काम मेँ लिप्त है और सांसारिक चकाचौँध मेँ विचलित हो अपने ऋषियोँ नबियोँ के त्याग समर्पण व परिश्रम को भूल गयी है जो कि मानव को महामानव की यात्रा पर ले जाने के लिए थी.अभी हम सच्चे मायने मेँ मानव नहीँ बन पाये हैँ,महामानव बनना तो काफी दूर है. दुनिया के शास्त्रोँ को रट लेने से कुछ न होगा,अपने को भी जानना होगा.हमारे सनातन नबी ऋषि ने शिक्षा का प्रारम्भ अक्षर ज्ञान से नहीँ वरन योग नैतिक शारीरिक खेल कथा कहानियोँ से प्रारम्भ करवाया था लेकिन आज.....?व्यक्तित्व का निर्माण सिर्फ अंकतालिकाएँ नौकरी धन तक सीमित नहीँ होना चाहिए.विद्या ददाति विनयम् ,लेकिन विद्या किसे विनय देती है?

देश के आदर्श पुरुष डा. ए पी जे अब्दुल कलाम से एक बार एक बालक ने पूछा कि क्या भ्रष्टाचार रहते महाशक्ति बनने का सपना देखा जा सकता है?बालक से कहा कि इस प्रश्न का उत्तर अपने माता पिता से पूछो.राष्ट्रपति जी के सामने बालक के माता पिता घबरा गये. दरअसल मनुष्य के जीवन मेँ बेसिक एजुकेशन व्यक्तित्व निर्माण का आधार ही नहीँ दिशा है.इसलिए डा.ए पी जे अब्दुल कलाम ने कहा माता पिता एवं बेसिक अध्यापक ही व्यक्तित्व निर्माण करता हैँ.

लेकिन......?!
यहाँ पर हमेँ धर्मराज युधिष्ठिर को भी स्मरण मेँ लाना होगा."सदा सत्य बोलो"पाठ याद करने के लिए युधिष्ठिर को काफी दिन लग गये.जिससे उनकी मजाक बनती है.अब तो युधिष्ठिरोँ की मजाक बालक ही नहीँ बड़े भी बनाते हैँ.वर्तमान मेँ हमेशा से ही जो याद कर ' डालते ' हैँ और भौतिक लाभ उठा लेते है वे वर्तमान मेँ सम्माननीय होते हैँ लेकिन जो याद कर 'लेते' हैँ वे मजाक के ही पात्र होते हैँ.जिस कालेज मेँ मैँ अध्यापन कार्य कर रहा हूँ वहाँ एक अध्यापक हैँ- विशाल मिश्रा .वह मन वचन कर्म से एक हैँ,ऐसा सभी का विश्वास है और ऐसा वास्तव मेँ है भी . मन वचन कर्म से एक होना क्या मूर्खता है?वह ड्रामाबाज नहीँ हैँ तो क्या मूर्ख हैँ . कुछ प्रतिष्ठित अध्यापकोँ तक को मुँहपीछे उनकी आलोचना एवं मजाक बनाते देखा गया है.जिन अध्यापकोँ का उद्देश्य विभिन्न माध्यमोँ से धन कमाना है न कि अध्यापन कार्य . जिस वर्ष विशाल मिश्रा कालेज मेँ आये थे उस वर्ष कालेज का माहौल सुधरता दिख रहा था . जिसके लिए प्रतिष्ठित या वरिष्ठ अध्यापक ही सहयोगात्मक नहीँ रहे वरन आलोचनात्मक रहे .मेरा विचार है कि ब्रेन रीडिँग नारको परीक्षण आदि का प्रयोग विभिन्न परिस्थितियोँ मेँ विभिन्न विभागोँ मेँ
अनिवार्य किया जाए.
मनुष्य तो अब न्यायवादी रहा नहीँ. कुप्रबन्धन भ्रष्टाचार की जड़ तो मनुष्योँ के मन मेँ है. ऐसे मेँ जिसका हेतु सिर्फ अर्थ- काम है, वे कुण्डी कैसे खोलेँ ?जो बोले वही कुण्डी खोले.हमेँ जो करना है वह करेँ यदि हम सत्य के पथ पर हैँ.धर्मगुरु रब्बी उल्फ का नाम सुन रखा होगा.किसी ने उसका चाँदी का पात्र चुरा लिया.उसकी पत्ऩी ने अपनी नौकरानी पर आरोप लगा कर मामला यहूदी धर्म न्यायालय मेँ पहुँचा दिया. रब्बी उल्फ नौकरानी के पक्ष मेँ न्यायालय चल दिया.गीता मेँ ठीक ही कहा है कि धर्म के पथ पर अपना कोई नहीँ होता है.हमेँ ताज्जुब होता है कि कोई हमसे कहता है कि मै धार्मिक हूँ या ईश्वर को मानता हूँ.उनका आचरण तो कुछ और ही कह रहा होता है.

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

: दीन- ए- इलाही:आवश्यकता एक सैकयूलर फोर्स की





देश के समक्ष सभी समस्याओँ की जड़ है -हमारा मन, जो कि अध्यात्मिक शिक्षा एवं विधि साक्षारता के बिना नहीँ संवारा जा सकता है . देश के सामने सबसे बड़ी बिडम्वना यह है कि आदर्शात्मक व्यवहार के लिए साहस का अभाव एवं संविधान के अनरूप चलने वालोँ को पुलिस तथा वकीलोँ की ही मदद न मिल पाना . भ्रष्टाचार ,बहुलवाद, क्षेत्रवाद ,साम्प्रदायिकता, दबंगवाद ,आदि मेँ दब कर व्यवहार मेँ संवैधानिक उद्देश्य समाप्त होने लगते हैँ . ऐसे मेँ संवैधानिक वातावरण बनने के बजाय मनमानी, पक्षपात ,दबंगवाद का शिकार हो अन्दर ही अन्दर मानसिक अशान्ति , असन्तुष्टि एवं अलगाव के बीज उत्पन्ऩ कर देता है.ऐसे मेँ विचलन , पलायन तथा मानसिक दूरियाँ पैदा होकर ऐसे लोगोँ का साथ पा जाती हैँ जो व्यक्ति को या तो अपराध या अध्यात्म की और मोड़ देती हैँ .अध्यात्म की ओर तो विरलोँ का ही झुकाव होता है, हाँ !ऐसा तो हो सकता है कि व्यक्ति तन्हा एवं एकाकी मानसिकता से ग्रस्त हो कर पागल विछिप्त हो जाए या आत्म हत्या कर बैठे . कुप्रबन्धन एवं भ्रष्टाचार के लिए अध्यापक पुलिस वकील नेता एवं आध्यात्मिक नेता दोषी हैँ. जब यह ही संविधान एवं अध्यात्म के प्रति जागरुक नहीँ हैँ तो अन्य से कैसे उम्मीद की जाए? ऐसे मेँ यदि लोग विचलित हो कर अपराध अलगाववाद आतँकवाद नकसलवाद आदि के शिकार हो जाएँ तो ऐसे मेँ अपराध, अलगाववाद, आतँकवाद, नकसलवाद और भी क्या कोई दोषी नहीँ कि अपराधी ,अलगाववादी, आदि ही सिर्फ दोषी है.विभिन्न समस्याओँ के निदानोँ का अध्ययन क्या सिर्फ पढ़कर अंकतालिकाएँ इकट्ठा करने या सेमीनार तक ही रखने एवं उनकी व्यवहार मेँ बात करने वाले को सनकी पागल कहने या उनको झूठ के सहारे फँसा देना है? यदि सभी समस्याओँ की जड़ हमारा मन है तो ऐसे मेँ आध्यात्मिक शारीरिक शिक्षा तथा वकील पुलिस व शिक्षक वर्ग के लिए आचरण मेँ विधि कठोरता आवश्यक है .एक नकसलवादी विचारक का कहना ठीक ही है कि जो कानून का पालन कराने वाले एवं संरक्षक हैँ वे अपने जीवन मेँ कानून का क्या 25 प्रतिशत भी पालन करते है? वकील पुलिस एवं शिक्षक वर्ग का संवैधानिककरण कर भावी सैकयूलर फोर्स का अंग बनाना आव श्यक है. देश मेँ एक ऐसे सैकयूलर फोर्स की आवश्यकता है जो राष्ट्र की विभिन्न समस्याओँ के निदानात्मक व्यवहार या संवैधानिक जीवन मेँ लगे हैँ उनकी हर हालत मेँ मदद करे.जिसके लिए कुर्बानी क्योँ न करनी पड़े. साथ मेँ राजनैतिक स्तर पर वोट की राजनीति से हट सद्भावना एवं भाई चारे की स्थापना के लिए शेर शाह सूरी एवं सम्राट अकबर से प्रेरणा लेनी आवश्यक है. अन्तर्जातीय विवाह प्रेम विवाह जातिवाद विरोधी व्यवहार आदि रखने वाले व्यक्तियोँ को हर हालत मेँ मदद पहुँचायी जाए तथा ऐसोँ को भी आरक्षण दिया जाए. वाह भाई वाह !संविधान विरोधी, जातिगत, क्षेत्रीयगत ,सम्प्रदाय गत, आदि लोगोँ को संरक्षण लेकिन संवैधानिक जीवन जीने वालोँ को दर दर की ठोकरेँ!? हाँ ,दूसरी और यह भी-देश मेँ सबसे सुरक्षित- आतँकवादी कसाब! जिन्दा आम आदमी की कीमत जानवरोँ से भी कम .

'जय शिवानी' उपन्यास की भूमिका




मैँ प्रत्येक देव शक्ति, अवतार, ,पैगम्बर ,आदि का सम्मान करता हूँ लेकिन इन सब शक्तियोँ से ऊपर भी एक सुप्रीम पावर है.उससे जुड़ने का प्रत्यन हर व्यक्ति का होना चाहिए.समस्त देव अवतारी पैगम्बर शक्तियाँ सिर्फ सांसारिक जीवन को बेहतर बनाती हैँ लेकिन धर्म एवं अध्यात्म की यात्रा काफी लम्बी है,अन्तस्थ है.एक पौराणिक प्रसंग है-राम लक्ष्मण सीता जी की तलाश मेँ जंगल मेँ भटक रहे हैँ.शिव जी जब उनको प्रणाम करते है तो पार्वती जी को यह बर्दाश्त नहीँ होता.पार्वती को शिव जी राम लक्ष्मण की असलियत बताते हैँ लेकिन पर्वती जी तब भी सीता का स्वरुप धारण कर उनकी परीक्षा लेने निकल पड़ती है.लक्ष्मण जी उन्हेँ पहचान जाते हैँ. इस कथा के साथ ही शुरु होती है-हमारी कथा-'जय शिवानी' !

"नारायण! नारायण!"-नारद जी एक युवा सन्यासी के पास आ पहुँचते हैँ.नारद जी बोलते है कि आप निर्गुण साधक अपने पथ से भटक कर पत्थर को काट काट कर किस युवती की मूर्ति बनाने मेँ लग गये हैँ?


"इस मूर्ति को मैने पार्वती मान कर......"

"पार्वती ?मैँ तो समझता था कि यह अपनी प्रेमिका की मूर्ति बना रहे हो ."


"शिवानी ?अब मेरी शिवानी मेरी पार्वती है.अब मेरे लिए शिवानी पार्वती का स्वरुप."

"औह ,तो यह बात? लेकिन क्या अब आप मूर्ति उपासना को बल दोगे?"

"नहीँ देव !यह तो एकाग्रता के लिए . अभी मन बालक की भाँति चलायमान है."

"बालक की भाँति?"
" अब तो बालक स्वभाव मेँ ही जीना चाहता हूँ.परमचेतना को माँ के रूप मेँ पूजना चाहता हूँ ."

"मेरा आशीर्वाद साथ है-वत्स. लेकिन काम देव से सतर्क रहना."

"काम देव से ?"

"बुरा न मानना,कामनाएँ अभी और आक्रमण करेँगी आपके मन पर.नारायण - नारायण....!"

शेष फिर.....

चरित्र वम्मा की कलम से






नक्सलवादी चरित्र वम्मा से सम्पर्क स्थापित करने लगे थे.उनके कुछ लीडर चाहते थे कि चरित्र वम्मा हमसे हाथ मिला ले.

"जो जबाब मेरे चाचा आलोक वम्मा का था वही मेरा है.आपने बहुत कोशिस की उन्हेँ अपने से जोड़ऩे की लेकिन न जोड़ सके.हाँ,आपने उनकी हत्या जरुर करवा दी. "
"ऐसा नहीँ है. हम लोग क्योँ आलोक वम्मा की हत्या करेँगे?वह हमारे हिँसक आन्दोलन का विरोधी जरूर था लेकिन उसकी वैचारिक क्रान्ति हमारे पक्ष मेँ थी.हम क्योँ उसका मर्डर करवाते.?"

"आप माने या न माने आप लोगोँ मेँ से ही किसी ने उनकी हत्या की है.हम हाथ जोड़ते हैँ ,आप लोग हमसे न मिला करेँ.जानते हो यह देश....... "

"हमसे कोई दुख पहुँचा हौ तो माफ करना.वैसे हम लोगो की कभी भी जरूरत पड़े तो हमेँ याद करना. "

"देखा जाएगा. "

" देखा नहीँ जाएगा.इस देश मेँ निर्दोषोँ को फाँसी पर लटकाया जा सकता है,अफजल को फाँसी से रोका जा सकता है. "

" जानता हूँ,षड़यन्त्रकारी एवं दुष्ट व्यक्ति ऐसे खेल खेलने लिए स्वतन्त्र हैँ."

" न्याय यहाँ पक्षपात जातितात सम्प्रदायवाद का शिकार हो जाता है. "

"और फिर यहाँ कानून के रखवाले ही कानून की शपथ लेने वाले ही अपने जीवन मेँ 20प्रतिशत भी कानून का पलन नहीँ कर.वहीँ दूसरी ओर घिसी पिटी परम्पराएँ रीतिरिवाज, ,जातिवाद, पक्षपात, दबंगता, मनमानी आदि. "


"हूँ!कानून का कोई भाई बान्धव नहीँ होता लेकिन यहाँ वकील एवं सिपाई के कानून का भाई.......? "

" खैर छोड़ो."



नक्सलवादी लीडर जो कि चार कमाण्डो के साथ था चरित्र वम्मा से मिल कर चला गया था.अभी वह चैन की श्वास ले ही पाया था कि-


एक सिपाही ने आकर कहा कि आपको डीएम साहिबा ने बुलाया है.

जब पुलिस की गाड़ी से चरित्र वम्मा डीएम आफिस पहुँचा तो -"ओह,तो आप हैँ साहिबा. "


डीएम की कुर्सी पर बैठी मानसी कश्यप बोली कि कल शाम को ही तो ट्रांसफर होकर यहाँ आयी हूँ.

" मैँ तो गया आने को ही करता रहा . "

"आप न आ सके मेँ आगयी. बैठो,सब ठीक तो है? "

कुर्सी पर बैठते हुए-" ठीक हूँ,लेकिन हमसे ज्यादा न मिलना.मेरी तरह आप भी विवादस्पद हो जायेँगी.हाँ, अपने सर जी की सुनाओ."

मानसी कश्यप खामोश ही रही.

"सब ठीक तो है न? "

मानसी कश्यप न भावुक होगयी.

"महेन्द्र सर ने हमारे लिए क्या क्या नहीँ सहा?मैँ जब अपने लक्ष्य को पा गयी तो............. "


"तो ,तो क्या? "

"मैँ जब उनसे मिलने आश्रम गयी तो......आश्रम मेँ बताया गया कि वह कहीँ अज्ञातबास मेँ चले गये हैँ. "

लोगोँ का कहना था कि मानसी कश्यप के आफीसर बनने के बाद सर जी का सांसारिक लक्ष्य पूरा हो गया था.अब....आखिर अब कहाँ गये होँगे -सर जी?चरित्र वम्मा अब खामोश.....सर महेन्द्र मिश्रा की डायरी के पृष्ठ पलटने लगा था.

HAPPY HOLI ! ....JAI HO....OM...AAMEEN.

लघु कथा: नक्सली छाँव.......





1857 क्राति की 150वीँ वर्षगाँठ पूरे देश मेँ मनायी जा रही थी.इस अवसर पर कुछ भारतीय युवक युवतियोँ नेँ भारतीय संविधान की शपथ ले कर एक दल 'सैक्यूलर फोर्स'की स्थापना कर रखी थी.जिस पर नक्सली दबाव डाल रहे थे कि हमसे मिल जाओ लेकिन निर्दोष लोगोँ की हत्या करने वाले नक्सलियोँ से देशभक्त कैसे मिल सकते थे?सैक्यूलर फोर्स का एक युवा सदस्य आलोक वम्मा को किसी काम से शहर राँची जाना हुआ जहाँ उसक़ी एक युवा शिष्या शिवानी ने उसे राजो मण्डल से मिलवाया.आलोक वम्मा ने उससे पूछा-"आखिर ऐसी क्या मजबूरियाँ थीँ कि तुम्हेँ नक्सलियोँ की शरण मेँ जाना पड़ा?"राजो मण्डल बोली-"मैने किशोरावस्था मेँ कदम ही रखे थे.मेरी भाभी ने पूरे परिवार पर दहेज एक्ट लगा रखा था.सब जेल मेँ थे .बस मैँ ही घर मेँ अकेली बची थी.गाँव मेँ मेरा एक मुँहबोला भाई था. मैँ उसी के साथ कचहरी अदालत आदि के चक्कर लगा रही थी और खेती के कार्य देख रही थी.एक दिन मुझे अकेले ही अदालत जाना था. जाने के लिए कोई सवारी नहीँ मिल रही थी.जल्दी के चक्कर मेँ मेँ एक ट्रक पर बैठ गयी . हमेँ क्या पता था कि यह ट्रक ड्राईवर कामान्ध होते हैँ. " फिर राजो महतो की आँखोँ मेँ आँसू आ गये.वह फिर सिसकते हुए बोली-"पहले ट्रक मेँ ही फिर आगे जा एक ढाबा पर अनेक ट्रक ड्राईबरोँ ने मेरे साथ कुकर्म किया.मैँ बेहोश हो चुकी थी जब मुझे होश आया तो फिर मैने एक कमरे मेँ युवकोँ एवं किशोरोँ से अपने को घिरा पाया जो दारू पी रहे थे.जिन्होंने फिर हमारे शरीर के साथ खूब मनमानी की .जब छक गये तो मुझे बाहर निकाल एक चौराहे पर छोड़ आये.सुबह जब कुछ टहलने वालोँ ने देखा तो मुझे पुलिस के अधीन कर दिया गया . थाने मेँ मुझे दो दिन रखा गया फिर पुलिस वाले एवं शायद कुछ नेता बारी बारी से मेरे ऊपर उतरते गये.इत्तफाक से उस थाने पर नक्सलियोँ ने धावा बोल दिया.थाने मेँ कुछ नक्सली बन्द थे.नक्सली मुझे भी साथ लेकर जंगल मेँ अपने ठिकाने पर आ गये. मेरे स्वस्थ हो जाने पर मुझे अन्य किशोरियोँ युवतियोँ के साथ ट्रेनिँग दी जाने लगी. मैने दोषियोँ को खोज खोज कर विकलांग बना दिया एवं अपने परिवार को न्याय दिलवा दिया लेकिन सात आठ सालोँ के दैरान नक्सलियोँ के द्वारा निर्दोष लोगो की हत्याऔ पर विचलित एवँ परेशान होती रही.अभी एक महीना पहले मेरी शिवानी से मुकालात हुई. पहली मुलाकात तब हुई थी जब इसे नक्सलियो के बीच लाया गया था लेकिन आप इसे तथा इसके भाई अरमान को राँची मेँ ला आये थे और इनके पढाई की व्यवस्था की थी.जब दुवारा मेरी शिवानी से मुलाकात हुई तो मैने अपनी भड़ास निकाल डाली. तब शिवानी बोली-सब ठीक हो जाएगा , सर जी को आने दो.मैँ तो गुजरात के गोसार की रहने वाली थी . गोधरा काण्ड के बाद मेरे साथ क्या क्या नहीँ हुआ तुम्से कुछ छिपा नहीँ है.हाँलाकि कुप्रबन्धन भ्रष्टाचार अन्याय आदि के कारण नक्सलवाद को बड़ावा मिल रहा है लेकिन उनके द्वारा निर्दोषोँ के कत्ल एवं परेशान करना मुझे दिल गवाही नहीँ देता."आलोक वम्मा बोला-हम पर तो वे काफी दबाव डाल रहे है हमे अपने साथ लेने के लिए लेकिन वहाँ की छाँव छाँव है नहीँ.

काहे को हिन्दू होने प�� गर्व...

रामनवमी के दिन नगर मेँ दुर्गा जागरण एवं धर्म यात्रा को देखा. ऐसे ही एक प्रति क्रिया पर साथ के एक बोले कि क्या हिन्दू नहीँ हो?हिन्दू होने पर क्या गर्व नहीँ है?हिन्दू ,काहे का हिन्दू?इन्सान अब भी धर्म एवं सामाजिकता के नाम पर भ्रम तथा अज्ञान मेँ है.प्रकृति की ओर से हम जन्तु हैँ.यह इत्तफाक है कि हम मनुष्य योनी मेँ हैँ.बस,यही हमारे लिए गर्व की बात है.
हमारे पास बुद्धि है जिससे हम जान सकते हैँ कि हम कौन हैँ?



कौन है हिन्दू? कहाँ है हिन्दू? "अरे साले ,हम ब्राह्मण ! साले चमटा की क्या औकात, हमेँ आँख दिखाये . ........हम ठाकुर हैँ ठाकुर , जानत नाय का? साला कोरी की औलाद, औकात मेँ रह औकात मेँ......गनीमत है कि शाम को आये, चले आये बोट माँगने.धोब्बट्टा,सुबह आये होते बोट माँगने ,पूरा का पूरा दिन खराब हो जाता. चले आये कमबख्त पण्डितन बीच बोट माँगने...." - हूँ, यह डायलाग कौँधते रहते हैँ दिल दिमाग मेँ.

सनातन धर्म काफी पुराना है.जो एक ही है.उसी ओर जाते हैँ सभी सम्प्रदायोँ एवँ महापुरुषोँ के रास्ते. जो अधर्म के खिलाफ थे . उनका रीतिरिवाज अलग अलग हो सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीँ कि रीति रिवाजोँ को लेकर हम ऊँच नीच रखेँ.अपने को ऊँचा दिखाने के लिए दूसरी जाति सम्प्रदाय को नीचा दिखाना धार्मिकता नहीँ है. समझ लो, धर्म का सम्बन्ध भीड़ की नजर मेँ जीना नहीँ है. वरन धर्म का सम्बन्ध हमारी सोँच, नियति ,दृष्टि, ,आचरण ,स्वभाव ,आदतोँ ,परोपकार, उदारता, अहंकारशून्यता ,आदि से है. मनुस्मृति मेँ ठीक ही लिखा है कि-

"धृतिक्षादमास्तेयम्शौचममिन्द्रियम निग्रह.
धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकम् धर्म लक्षणम्. "

हमे ताज्जुब होता है कि लोग खुद को धार्मिक कहते हैँ.हमेँ धार्मिक होने मेँ शायद चार पाँच दिन लगेँगे.हमेँ इस पर भी ताज्जुब होता है कि लोग ईश्वर को मानते हैँ.लेकिन उनके जीवन मेँ झाँकते हैँ तो.....?!धर्म यात्रा व जागरण मेँ जी जान से लगे लोगोँ की धार्मिकता को देख कर हमेँ ताज्जुब होता है.
खैर...?!हिन्दू शब्द की उत्पत्ति हुए कितना समय हुआ है?हिन्दू शब्द से पुराने शब्द क्या बौद्ध, जैन, ईसाई ,मुस्लिम, यहुदी ,पारसी ,आदि नहीँ हैँ?हिन्दू शब्द स्वयं एक विदेशी शब्द है.

और......

अब कि इस धरती पर ईश्वर ने अवतार लिया तो-वह किन्हे चाहेगा?उन लोगोँ को जो धर्म स्थलोँ जातियोँ सम्प्रदायोँ मतभेदोँ निजस्वार्थ अहंकार दबंगता आदि मेँ जीते है या जो प्रेम उदारता परोपकार अहंकारशून्यता आदि मेँ जीते हैँ?वह तुम्हारी बुराईओँ को पसन्द करेगा या अच्छाईयोँ को ?

हम कौन हैँ?अभी हम जाने नहीँ.आप कहते हैँ कि हम हिन्दू होने पर गर्व करेँ ? मेरी बातेँ सुन वह चलते बने.वह समझे होँगे कि हम नहीँ सुनाई देगा लेकिन हमने सुन लिया था-वह कह रहे थे कि अरे पागल है बकता रहता है.

यह मूर्ख कि वह मूर्ख?

"तेरा बड़ा लड़का मुड़िया कुर्मियात के मन्दिर मेँ पड़ा पड़ा अपनी जिन्दगी से लड़ता रहा .अरे , बच्चे तो बच्चे है.इन्सान तो वैसे भी गलतियोँ का पुतला है.बच्चोँ को क्या तूने इसलिए पैदा किया कि उन्हेँ उनके हाल पर छोँड़ देँगे? "

"हमेँ तो अपनी धुन मेँ जीना है.भाड़ मेँ जाये बच्चे. कल मरने को होँ आज मर जाएँ.बच्चोँ को तो इस लिए पैदा किया कि वे हमारे हिसाब से जिएँ."

"सुना है कि वह मुड़िया कुर्मियात से भी कहीँ जाने को है. यहीँ घर पर क्योँ नहीँ बुला लेते उसे ?तुम भी बुढ़ापे पे याद करोगे बच्चोँ को,तब सोचोगे कि कोई होता आकर पानी ही पिला जाता."

"हमेँ नहीँ बुलाना उसे. जब मैने उसका उसके बचपन मेँ ध्यान न रखा तो अब क्योँ रखेँ? जो जमीन जायदाद लेगा वह करेगा सेवा.नहीँ तो कोई नौकर कर लेँगे."

" बच्चोँ के भविष्य एवं स्वास्थ्य की चिन्ता नहीँ की,बच्चे आत्म हत्या करने की असफल कोशिस भी कर चुके हैँ.आपका नेतृत्व ही इसके लिए दोषी है.क्योँ पैदा किए बच्चा?"

"बच्चे पैदा होगये तो हम क्या करेँ?हम तो अपनी इच्छाओँ के लिए जिए हैँ,अपनी इच्छाओँ के लिए जीना है.बच्चे आत्म हत्या कर लेँ तो हमारा क्या ,हमारा क्या नुकसान?"

"तुम जैसे मूर्ख अज्ञानी ,संवेदनहीन ,स्वार्थी इन्सान तो कभी भी बाप न हो. "

" तुम्हारे चाहने से क्या ? हम तो चार बच्चोँ के बाप हैँ.तीन तो मर गये नहीँ तो सात बच्चोँ के बाप होते.भाई,हम तुम्हारी तरह नहीँ कि तुमने रूपयोँ के बल पर बच्चोँ को अच्छे अंकोँ से मार्क शीट दिलवा दीँ ,अब वे विशिष्ट बीटीसी मेँ नियुक्त हो गये हैँ.भाई,तुम बच्चोँ के लिए करो.हम धन सम्पत्ति बच्चोँ के भविष्य एवं स्वास्थ्य मेँ नहीँ लगा सकते.हमारे बच्चे घुट घुट जिएँ तो जिएँ,आत्म ह्तया करेँ तो करेँ अपने जिन्दा रहते हम जमीन जायदाद का एक नोँक सूई हिस्सा भी बच्चोँ के भविष्य मेँ नहीँ लगा सकते.हमने तो अपने बच्चोँ को उनके हालात पर छोड़ दिया है."

"ठीक है,हम तो बस सलाह दे सकते हैँ.तुम्हेँ जब अपने बच्चोँ की चिन्ता नहीँ जो तनाव निराशा तन्हाई बीमारी की जिन्दगी जी रहे हैँ और अपने नसीब को कोस रहे हैँ कि ऐसा पिता मिला जो मूर्ख है. "

"जा यहाँ से.......मैँ मूर्ख हूँ तो मूर्ख ही ठीक .मैँ जानता हूँ मेरी भलाई किसमे है?जा यहाँ से......"

" जाता हूँ. तुम्हारा बड़ा बेटा ठीक कहता है कि ईश्वर सभी को माता पिता न बनाये और कानून की और से भी सभी को माता पिता बनाने का अधिकार नहीँ होना चाहिए."

"उसके चाहने से क्या ?हमेँ अपनी धुन मेँ जीना है.मुझे तो अपने लिए जीना है. "

* * *


गुरुवार, 25 मार्च 2010

परिवार के दंश

परिवार समाज की प्रथम इकाई है ही ,व्यक्ति की प्रथम पाठशाला भी है.कहते हैँ - बालक अपने परिवार का प्रतिबिम्ब होता है.किसी भी परिवार का आधार खुश- मिजाज, शान्तिपूर्ण, उत्साहपूर्ण आदि होने पर अपनी सुख- समृद्धि, एकता तथा प्रतिष्ठा टिकाये होता है. परिवार का मुखिया हँसमुख ,खुश मिजाज, समन्वयक, जागरुक ,कुशलनेतृत्ववान, परोपकारी ,आदि होना आवश्यक है.अपनी धुन मेँ रह जब वह इससे अन्जान रह जाये कि कोई परिजन हम से मानसिक दूरियाँ बनाता जा रहा है तो यह मुखिया की अप्रत्यक्ष असफलता है.यह मुखिया की कमजोरी ही है कि कोई परिजन अपने दब्बूपन, निरूत्साह, कायरता ,अस्वस्थता, आदि के लिए उसे ही दोषी ठहराये.अभिभावक का उद्देश्य बच्चोँ के पालन पोषण के साथ साथ संरक्षण भी है. जब कोई परिजन परिवार मेँ खुद को उपेक्षित, अकेला ,अस्वस्थ ,आदि समझने लगे तो क्या यह अभिभावकोँ की असफलता नहीँ है?
परिवार के मुखिया को अपने परिवार के अन्दर ही कहते सुना है कि दूहती गाय को ही चारा डाला जाता है.चलो ठीक है दूहती गाय के सामने चारा डालना लेकिन सम्मान एवं स्वास्थ्य सभी को चाहिए. तो फिर किसी का ठीक कहना है कि माता पिता बनने का अधिकार सभी को नहीँ मिलना चाहिए.बच्चोँ का स्वास्थ्य संरक्षण अभिभावकोँ का कर्त्तव्य है.जब मेँ कहूँ कि अभिभावकोँ का तो कर्त्तव्य है बच्चोँ के प्रति लेकिन बच्चे अपने अभिभावकोँ के प्रति कर्त्तव्य न निभायेँ तो यह भी अभिभावकोँ का ही दोष है.यदि बच्चोँ के संस्कार पूर्वजन्मोँ का प्रारब्ध हैँ तो क्यो फिर बच्चोँ को उपेक्षित करना या बच्चोँ मेँ दोष देखना ?बच्चोँ को स्ऩेह एवं सहानुति देना आप का कर्त्तव्य है.

हमने ऐसे कुछ मूर्ख अभिभावक देखे हैँ जिन्होँने अपने बच्चोँ के कष्टोँ को कभी न जाना .बस,अपनी धुन मेँ रहना.ऐसे मेँ हमने बचपन से ही लोगोँ को अपने परिजनोँ के बीच ही तन्हा देखा है.अपने घर से ही मानसिक दूरियाँ बनाते देखा है.परिवार एवं अपने पराये की परिभाषा खोजते देखा है.

निर्माणोँ मेँ महत्वपूर्ण निर्माण है- व्यक्तित्व निर्माण .हमने देखा है कि परिवार के मुखिया धन दौलत मकान आदि बनाने मेँ ही जीवन गँवा देते हैँ लेकिन.....?!लेकिन बच्चे अस्वस्थ्ता ,निराशा ,अस्थिरता ,अशान्ति ,आदि मेँ अपना जीवन गँवा रहे होते हैँ.यहाँ तक स्वयं भी अशान्ति के शिकार हो जाते हैँ.

शेष फिर....

प्रतिष्ठित अध्यापको�� के दंश

किसी ने कहा है कि अध्यापक (ब्राह्मण) समाज का मस्तिष्क होता है.वह भविष्य निर्माता है. ऐसे मेँ यदि कहा जाये कि समाज व देश के कुप्रबन्धन एवं भृष्टाचार के लिए अध्यापक ही दोषी है तो यह कहना गलत न होगा. अध्यापक स्वभाव से ब्राहमण है न कि वैश्य और शूद्र. वर्तमान मेँ 80 प्रतिशत से ज्यादा अध्यापक वैश्य एंव शूद्र हैँ. जिनके कारण शिक्षा का स्तर गिरा हुआ है. शिक्षा व्यक्तित्व -निर्माण का आधार है जो नैतिक- आध्यात्मिक विकास व सात्विक मन- वचन-कर्म के बिना अपूर्ण है.जब सोँच नियति भौतिक हो तो आध्यात्मिक मानवीय गुणोँ की उम्मीद कैसे की जाए?प्रशासन के द्वारा नकल विहीन परीक्षा के लिए सारी की सारी व्यवस्थाएँ सिर्फ बयानबाजी व कागजोँ तक सीमित रह जाती है जिसके लिए पूर्णतया कुछ अध्यापक ही दोषी होते हैँ या विद्यालय प्रबन्ध कमेटी दोषी होती है. कुप्रबन्धन के विरोध मेँ प्रधानाचार्य व कुछ अध्यापक साहस दिखाते भी हैँ तो उन्हे किसी का सहयोग नहीँ मिल पाता.उल्टे दवंग अध्यापकोँ या अभिभावकोँ से प्रभावित होकर या मनमानी के आधार पर या चेहरा देख व्य वहार करने की प्रवृत्ति आदि कारण कोप भाजन के शिकार होते हैँ.शिक्षा जगत से जुड़े मुझे लगभग 14 वर्ष हो गये हैँ मेरा अनुभव कहता है कि शिक्षा जगत से जुड़े 80 प्रतिशत लोग शिक्षा माफिया हैँ जो कि सोँच नियति स्वभाव से ज्ञानी व बुद्धिजीवी नहीँ हैँ .वे आम आदमी से भी ज्यादा गिरे नजर आ सकते हैँ. ऐसी ऐसी अशिष्ट बातेँ करते हैँ जो समाज के गिरे से गिरे व्यक्ति ने अभी तक हम से नहीँ की है. बस,अच्छाई इनमेँ यह है कि यह प्रदर्शन अच्छा कर लेते हैँ. उनके अध्यापक बनने के हेतू मेँ भौतिकता ,वैश्यपन एवं शूद्रता है न कि आदर्शत्मकता,ब्राह्म णता एवं ब्राह्मणता को संरक्षण देने वाली क्षत्रियता.धन के लिए अध्यापक बनते हैँ न कि अध्यापन मेँ रूचि के लिए.


विचारकोँ अन्वेषकोँ आदि का जीवन तलवार की धार पर होता है.वास्तव मेँ जो मस्तिष्क सत्य के अन्वेषण मेँ लग जाता है वह दुनियाँ से अलग थलग पड़ जाता है.उसके जिन्दा रहते दुनिया उसके खिलाफ हो जाती है लेकिन अपनी कमजोरी की ओर नहीँ देखती.असत्य को असत्य कहने पर सब विरोध मेँआ जाते हैँ लेकिन सत्य को कितना न्याय दे पाते हैँ? इन छ: वर्षोँ मेँ जिन मुद्दोँ को लेकर परेशान रहा,उनमेँ से एक मुद्दा है-अनुतीर्ण विद्यार्थी को उत्तीर्ण करना अर्थात ऐसे विद्यार्थी को उत्तीर्ण करना जिससे अधिक अंक रखने वाले अन्याय के शिकार हो जाते हैँ.छ: वर्षोँ पूर्व मेरे साथ यह समस्या नहीँ आयी .अब इन छ:वर्षोँ मेँ मैँ इस मुद्दे पर मार्च आते आते दबाव मेँ आ जाता हूँ.जिन अध्यापकोँ के कारण ऐसा होता है,भाई!वे होशियार हैँ प्रतिष्ठित हैँ, धार्मिक हैँ ,अच्छी सोँच के हैँ....... और मैँ.....?!
मैँ तो ठहरा एक मूर्ख व्यक्ति.भाई!सबकी अपनी अपनी दुनिया है.



शेष फिर....

JAI...HO.....OM...AAMEEN.

जीवन जीने की कला

अच्छा इन्सान होना और धनवान होना दोनोँ अलग अलग बातेँ हो सकती हैँ.इसी तरह धन की उधैड़बुन मेँ रहना अलग बात है और जीवन जीना अलग बात है.धन -दौलत आदि भौतिक संसाधन साधन हैँ लक्ष्य नहीँ. जो इसे लक्ष्य मान कर जीते हैँ और रिश्तोँ को निभाना नहीँ जानते, मतभेद मेँ जीते हैँ ,मन को शान्त या खुश मिजाज रहने की कला से अपरिचित होते हैँ, दूसरोँ के कष्टोँ को महसूस करना नहीँ जानते, जाने अन्जानेँ परिजन ही आप से मानसिक दूरियाँ बना बैठते हैँ और परिजनोँ को उनकी बातोँ को रखने का मौका न दे या उनकी बातोँ का शान्तिपूर्ण ढंग से जबाब न दे बौखला जाना एवं सन्तुष्ट न कर पाना , स्वास्थ्य के प्रति जागरुक न होना,आदि का होना व्यक्ति की कमजोरी है.

उदारता, परोपकार ,ईमानदारी , परिश्रम, योगासन ,सौहार्द,ज्ञान, आदि मेँ जीने वाले ही जगत मेँ श्रेष्ठ हैँ.परिश्रमी धनवान आदि होने के बाबजूद जो निराशा, कुण्ठा, खिन्नता ,ईर्ष्या ,विवेकहीनता, अस्वस्थता ,अज्ञानता, निजस्वार्थ, आदि मेँ जीता है -उसका जीवन क्या जीवन...?इनसे तो अच्छे वे हैँ जो रोज कमाते हैँ रोज खर्च करते हैँ.जिस दिन नहीँ कमा पाते उस दिन ठण्डा पानी पी कर काम चला अपना वर्तमान मस्त रखने की कोशिस रखते हैँ लेकिन .....?
व्यक्ति निर्माण मेँ परिवार एवं परिवार के मुखिया का बड़ा योगदान होता है.खुश मिजाज शान्तिपूर्ण आध्यात्मिक वातावरण व मुखिया व्यक्तियोँ मेँ आदर्श गुण बनाये रखने मेँ सहायक हो सकते हैँ लेकिन ऐसा सम्भव हो नहीँ पाता.अभिभावक ही स्वयं अज्ञानता- निजधुन -पूर्वाग्रह- निष्ठुरता -आदि से ग्रस्त होते हैँ. वे दर असल अपने सनातन नबियोँ- मुनियोँ के उद्देश्य को भूल गये हैँ .धर्म -अर्थ -काम -मोक्ष मेँ सन्तुलन की कला को भूल गये हैँ.जीवन का उद्देश्य जब काम एवं अर्थ रह गया हो तो धर्म व मोक्ष की उम्मीद नहीँ की जा सकती . आदमी का स्तर इतना गिर गया है कि उसे किसी के इस कथन को समझना मुश्किल है कि माता पिता बनने का अधिकार सभी को नहीँ होना चाहिए.विवाह का मतलब यह तो नहीँ अभिभावक बनने का मतलब यह तो नहीँ कि अपनी मनमानी के लिए जीना या अपनी मजबूरी दिखा सामने वाले को निरुत्साहित कर देना या सामने वाला तुम्हारे करीब रहते हुए आपसे मानसिक दूरी बना बैठे.हमारा जीना तभी जीना है जब हम परिवार एवं समाज मेँ शान्ति व्यवस्था बनाये रखते हुए दूसरे के मन का भी जानते हुए उसके दिल मेँ जगह बनाए रखेँ.

बुधवार, 24 मार्च 2010

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