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गुरुवार, 25 मार्च 2010

परिवार के दंश

परिवार समाज की प्रथम इकाई है ही ,व्यक्ति की प्रथम पाठशाला भी है.कहते हैँ - बालक अपने परिवार का प्रतिबिम्ब होता है.किसी भी परिवार का आधार खुश- मिजाज, शान्तिपूर्ण, उत्साहपूर्ण आदि होने पर अपनी सुख- समृद्धि, एकता तथा प्रतिष्ठा टिकाये होता है. परिवार का मुखिया हँसमुख ,खुश मिजाज, समन्वयक, जागरुक ,कुशलनेतृत्ववान, परोपकारी ,आदि होना आवश्यक है.अपनी धुन मेँ रह जब वह इससे अन्जान रह जाये कि कोई परिजन हम से मानसिक दूरियाँ बनाता जा रहा है तो यह मुखिया की अप्रत्यक्ष असफलता है.यह मुखिया की कमजोरी ही है कि कोई परिजन अपने दब्बूपन, निरूत्साह, कायरता ,अस्वस्थता, आदि के लिए उसे ही दोषी ठहराये.अभिभावक का उद्देश्य बच्चोँ के पालन पोषण के साथ साथ संरक्षण भी है. जब कोई परिजन परिवार मेँ खुद को उपेक्षित, अकेला ,अस्वस्थ ,आदि समझने लगे तो क्या यह अभिभावकोँ की असफलता नहीँ है?
परिवार के मुखिया को अपने परिवार के अन्दर ही कहते सुना है कि दूहती गाय को ही चारा डाला जाता है.चलो ठीक है दूहती गाय के सामने चारा डालना लेकिन सम्मान एवं स्वास्थ्य सभी को चाहिए. तो फिर किसी का ठीक कहना है कि माता पिता बनने का अधिकार सभी को नहीँ मिलना चाहिए.बच्चोँ का स्वास्थ्य संरक्षण अभिभावकोँ का कर्त्तव्य है.जब मेँ कहूँ कि अभिभावकोँ का तो कर्त्तव्य है बच्चोँ के प्रति लेकिन बच्चे अपने अभिभावकोँ के प्रति कर्त्तव्य न निभायेँ तो यह भी अभिभावकोँ का ही दोष है.यदि बच्चोँ के संस्कार पूर्वजन्मोँ का प्रारब्ध हैँ तो क्यो फिर बच्चोँ को उपेक्षित करना या बच्चोँ मेँ दोष देखना ?बच्चोँ को स्ऩेह एवं सहानुति देना आप का कर्त्तव्य है.

हमने ऐसे कुछ मूर्ख अभिभावक देखे हैँ जिन्होँने अपने बच्चोँ के कष्टोँ को कभी न जाना .बस,अपनी धुन मेँ रहना.ऐसे मेँ हमने बचपन से ही लोगोँ को अपने परिजनोँ के बीच ही तन्हा देखा है.अपने घर से ही मानसिक दूरियाँ बनाते देखा है.परिवार एवं अपने पराये की परिभाषा खोजते देखा है.

निर्माणोँ मेँ महत्वपूर्ण निर्माण है- व्यक्तित्व निर्माण .हमने देखा है कि परिवार के मुखिया धन दौलत मकान आदि बनाने मेँ ही जीवन गँवा देते हैँ लेकिन.....?!लेकिन बच्चे अस्वस्थ्ता ,निराशा ,अस्थिरता ,अशान्ति ,आदि मेँ अपना जीवन गँवा रहे होते हैँ.यहाँ तक स्वयं भी अशान्ति के शिकार हो जाते हैँ.

शेष फिर....

1 टिप्पणी:

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

आपकी बात पूर्णतया स्‍पष्‍ट नहीं हुई। परिवार अकेले मुखिया से नहीं चलता। सभी के प्रेम और सदभाव से परिवार चलता है। जैसे-जैसे हम व्‍यक्तिवादी होते जा रहे हैं परिवारों में भी बिखराव आ रहा है। पूर्व में परिवार का कर्तव्‍य था कि बच्‍चे को समाज के लिए उपयोगी बनाना लेकिन आज उसका केरियर ही प्रमुख है। आज का पिता कल बच्‍चा ही था। यदि वह केरियरवादी था तो आज उसका सारा ध्‍यान स्‍वयं पर ही होगा ना कि परिवार पर। परिवार और व्‍यक्ति, यह विषय लम्‍बी बहस का है। आप अपनी पोस्‍ट पर स्‍पष्‍ट करें तो कुछ सार्थक चर्चा की जा सकती है।