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गुरुवार, 21 मई 2020

फ़िल्म उद्योग भी माफियाओं से चलता है::मुंशी प्रेम चन्द्र

मुंशी प्रेमचंद ने 1934 में एक फिल्म “मिल मज़दूर” लिखी पर मिल मालिकों ने उसे चलने नहीं दी तब मुंबई छोड़ते हुए उन्होंने कहा था “शराब के धंधे की तरह ही फिल्म का धंधा भी बिज़नेस माफिया चलाता है,
क्या दिखाना है क्या नहीं दिखाना सब वही तय करते हैं। ”
क्या ये बात आज भी लागू है?
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मुंशी प्रेमचंद को 1934 में एक फिल्म लिखने का ऑफर मिला।
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फिल्म का नाम था “मिल मज़दूर”
ये प्रेमचंद की लिखी एक मात्र फिल्म है इतिहास की,
प्रेमचंद को इस फिल्म के लिए उस समय 8000 रुपये मिले थे जो बहुत बड़ी रकम थी तब के हिसाब से ।
प्रेमचंद ने ना केवल फिल्म लिखी थी बल्कि इसमें मजदूरों के नेता का एक छोटा सा रोल भी किया था
फिल्म बना रहा था अजंता प्रोडक्शन नाम का स्टूडियो।
फिल्म 1934 में बनकर तैयार हो गयी, प्रेमचंद इस दौर में मुंबई में ही रहे।
1934 से 1935 तक।
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फिल्म की कहानी ये थी के एक टेक्सटाइल मिल का मालिक मर जाता है, और उसके बेटे को मिल चलाने के लिए मिल जाती है,अब वो नए विचारों का लड़का होता है, और बिज़नेस की बढ़ोत्तरी के लिए इंसान को इंसान नहीं समझता होता है। लोगों को निकालना उन्हें प्रताड़ित करना ये सब मिल में होने लग जाता है। फिल्म की हीरो उसकी बहन है, जो पिता को मिल चलाते देख रही थी मरने से पहले,वो मजदूरों के हकों के लिए खड़ी हो जाती है, उनसे हड़तालें करवाती है।एन्ड में भाई जेल जाता है, और लड़की मिल को वापस शुरू करती है।
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अब फिल्म में लड़की का डायलाग बताते हैं की इतना असरदार था की उस से मुंबई जो उस समय टेक्सटाइल का हब माना जाता था वहां मजदूरों की क्रांति होने लग गयी।
उस समय जिसने फिल्म देखि थी उसका कहना था की प्रेमचंद ने बेहतरीन फिल्म लिखी है।
1935 में फिल्म को रिलीज़ करने की मेहनत शुरू हुई,बोर्ड ने इसे बैन कर दिया,फिल्म को दुबारा नए नाम “सेठ की लड़की” से रिलीज़ करने की कोशिश की,लेकिन बिज़नेस लॉबी ने इसे फिर बैन करवा दिया।
मिल मालिकों ने फिल्म सिनेमा हाल से हटवा दी। कई जगह जोर जबरदस्ती से।
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प्रेमचंद फिर मुंबई छोड़कर चले गए, उन्हें लगा की अब कोई फायदा नहीं है यहां रहने का।
उन्होंने जाते हुए बयान दिया था की “शराब के धंधे की तरह ही फिल्म का धंधा भी बिज़नेस माफिया चलाता है, क्या दिखाना है क्या नहीं दिखाना सब वही तय करते हैं। ”
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और प्रेमचंद की बात सही भी थी।
इंडस्ट्री उस समय बदहाली से गुजर रही थी,
मजदूरों के हकों का कोई ख्याल नहीं रखा जा रहा था,
1929 के ग्रेट डिप्रेशन ने पूरी दुनिया के बिज़नेस को डब्बा कर रखा था।
मजदूरों को तनख्वां नहीं मिल रही थी, भूखे मर रहे थे मजदूर, घर जाएँ कैसे उसके भी पैसे नहीं थे उनके पास!
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1936 में फिल्म को कांट छांट के रिलीज़ किया गया “दया की देवी” नाम से।
फिल्म इक्का दुक्का किसी ने देखि होगी।
फिल्म लाहौर, दिल्ली, और लखनऊ में रिलीज़ हुई थी, लेकिन वहाँ से भी वो फिर हटवा दी गयी।
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फिल्म को बार बार बैन करवाने में बिज़नेस लॉबी का हाथ था,
और उस लॉबी का उस समय लीडर था भयरामजी जीजाभाई, जो उस समय ना केवल सेंसर बोर्ड के मेंबर थे, बल्कि टेक्सटाइल मिल एसोसिएशन के प्रेजिडेंट भी थे !
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इस से केवल प्रेमचंद ही मुंबई से वापस नहीं गए, फिल्म को बनाने वाला अजंता प्रोडक्शन भी दिवालिया हो गया।
फिल्म की अब कोई कॉपी नहीं है दुनिया में। सब लॉस्ट हो चुकी हैं, अब इसके बारे में केवल उस समय की ख़बरों में पढ़ा जा सकता है।
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इस समय ये शेयर करने का मकसद ये है के इस से आपको बिज़नेस लॉबी की मीडिया पर पकड़ का अंदाजा हो जाएगा की ये film/news मीडिया अभी नहीं बिका है, हमेशा से बिका रहा है।
बिज़नेस लॉबी इसे शुरू से ड्राइव कर रही है, खबरें फिल्में आप तक फ़िल्टर होकर ही पहुँचती है, उनमे से आपको कम बुरा और ज्यादा बुरा में से कुछ चूज़ करना होता हो।
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आज जिस तरह से मज़दूरों की सडकों पर मौत हो रही है और उन्हें घर नहीं जाने दे रही सरकार, ऐसे समय में परदे के पीछे के विलन पहचानना जरूरी हो जाता है, की क्यों नहीं बस और ट्रैन में भेजे गए मजदूर जबकि देश में बस और ट्रैन दोनों इस समय खाली खड़ी हैं।
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फिल्म से जुडी एक इंटरेस्टिंग बात ये और है की प्रेमचंद की फिल्म से ना केवल मुंबई की मिलों में हड़ताल हुई, बल्कि बनारस में खुद प्रेमचंद की प्रेस में हड़ताल हो गयी थी।
William Thomas

विलियम थॉमस

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