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रविवार, 20 मार्च 2022

परिजनों, धर्मों, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रतिरूपों में पुनरावलोकन की आवश्यकता :: आत्महत्या या अस्वस्थ सामाजिक परिवेश

   सन 1996 ई0 तक हर 80 सेकंड में एक आत्महत्या हो रही थी।अर्थात वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के अनुसार विश्व में 11000 आत्महत्याएं प्रतिदिन हो रही थीं। इन दो वर्षों में आत्महत्या करने की दर में 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जब हम समाजशास्त्र से एम ए कर रहे थे तो आत्महत्या पर एक अध्याय हुआ करता था।जिसमें अध्ययन से हमें ज्ञात हुआ कि आत्महत्या का कारण  परिवार, समाज, रिश्तेनातों ,आर्थिक, सामाजिक,सांस्कृतिक प्रतिरूप ही दोषी होते हैं।



हम इस निष्कर्ष पर निकले हैं कि आर्थिक, सांस्कृतिक व कार्यात्मक संरचना के बीच हमारी इच्छाओं,हमारे प्रति अन्य की उम्मीदों का हमारे सामर्थ्य से संघर्ष  हमें निरुत्साह, हताशा में डाल देता है।परिवार, कार्यात्मक क्षेत्र ,समाज आदि में लोगों के साथ होने के बाबजूद हम मानसिक रूप से जब अकेले खड़े होते हैं तो हमारी स्थिति भयंकर हो जाती है। ओशो प्रेमी स्वामी आत्मो मनीष कहते हैं कि किसी परिवार में अगर किसी कारण वश आत्महत्या हुई हो तो उस परिवार में बहुत एहतियात रखने की जरूरत है। ऐसा परिवार मानसिक और शारीरिक रूप से रुग्ण हो सकता है। बेल्जियम की थेरेपिस्ट मा प्रेम नारायणी कहती हैं कि ऐसे परिवार में सच्चाई का साक्षात्कार करने की समझ होनी चाहिए। अपनी समस्यायों को व्यक्त करते रहना चाहिए। लेकिन इसके लिए सँवरना कैसे हो?कैसे अपनी समस्याओं व दर्द को हम मानवता के लिए मंच बना लें?





देखा जाए तो वर्तमान सामजिकता व सहयोगात्मक संरचना मानवता  व मानव के प्रति सम्वेदी नहीं रह गयी है। ऐसे में हम नितांत अकेले ,नितांत अकेले होते हैं।हमें अपना सङ्घर्ष अकेले स्वयं अंदर ही अंदर झेलना होता है।  यह कहना तो आसान है कि ऐसे व्यक्ति व परिवार को अपनी समस्याएं कहते रहना चाहिए।लेकिन कहाँ कहे ?किससे कहे? हमने स्वयं अपने जीवन से सीखा है कि साहित्य व कला की विविध विधाएं व उनसे शौक हमें मुश्किलों से उबार ही नहीं लेता हम व परिवार अन्य व अन्य परिवारों तक का उद्धारक हो जाता है।देखा गया है कि कोई व्यक्ति या परिवार सङ्घर्ष करते हुए लोगों के दुख दर्द में सहायक होते हुए मानवता व रूहानी आंदोलन में महारथी हो जाता है।

कैसे हमारा दर्द व सङ्घर्ष सारी मानवता के लिए सहायक हो सकता है?हम व निशान्त दास पार्थ जैसे युवक भली भांति समझ सकते हैं।


लेकिन अमेरिकन थेरेपिस्ट अनिशा कहती हैं कि अपने शरीर को कई प्रकार के कष्ट देने से सूक्ष्म रुप से आत्महत्या का उदय होता है। 



हम तो कहेंगे स्वयं का नजरिया, आस्था ,निर्णयों ,प्राथमिकताओं की बड़ी जिम्मेदारी बन जाती है आत्मा हत्या की दशा की ओर पहुंचने को। स्वेट मॉर्डन कहते हैं कि जिन हालातों में कोई दुखी है, उसी हालत में भी कोई सुखी देखा गया है। हमारा नजरिया, आस्था, हमारे सोंचने का ढंग इसमें काफी महत्वपूर्ण है।ओशो कहते हैं -सुख दुख हमारा नजरिया है। 


तब भी सामजिकता की बड़ी जिम्मेदारी है यदि वास्तव में सामजिकता जिंदा है। इसी तरह हम सब को समाज ,धर्म के ठेकेदारों को पुनरावलोकन की आवश्यकता है। दान, सेवा ,सामजिकता, धर्म, संस्कृति आदि का क्या औचित्य जब मानव समाज में ही मानव को समपेथी न मिल सके या बदले या तुलना की भावना से जिया जाए।किसी ने कहा है कि सच्चा मानव के कर्तव्य ही कर्तव्य हैं अधिकार नहीं। मुखिया, नेता, नेतृत्व आदि का मतलब क्या है?


किसी ने कहा है कि रोगी भी इलाज करवाते करवाते व इलाज के उपायों में जीते जीते दूसरों के लिए सहायक  हो जाता है। किसी ने यह भी कहा है कि समस्याओं में नहीं समाधान व भगवान में जीना चाहिए। ऐसे में हमे स्वयं आत्म साक्षत्कार की जरूरत होती है।अपना यथार्थ समझने की जरूरत होती है। समाज में प्रचलित  प्रतिरूप हो सकता है कि हमें समाधान न दें। घर से बाहर निकलने के बाद वास्तव में शायद ही कोई बिना मतलब कोई हमारी मदद करने के लिए कोई तैयार हो।समाज में यह भी देखने को मिलता है कि समाज में जो वास्तव में प्रतिष्ठित होता है वह उसकी मदद करता नजर नहीं आता, उसको दान करता नजर नहीं आता, उसको उत्सव में बुलाता नजर नहीं आता वास्तव में जिसको आवश्यकता है।

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