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मंगलवार, 3 मार्च 2020

जहां हम सब परस्पर सम रहें ,वही हमारा सम+आज,=समाज

हमारा समाज वह है जहां हम सम रहें।
हमें खुशी होती है कि कुछ लोग अब होली दिवाली आदि पर्व को  अब वर्तमान समाज व सामजिकता के बीच न मना कर  सैनिकों  के बीच, आश्रम में मनाते हैं या कहीं अन्यत्र तीर्थ आदि पर।ऐसा करने वालों की संख्या अवश्य कम है लेकिन ये अन्ध विश्वासों, कु प्रथाओं आदि को तोड़ने की परंपरा में सराहनीय कदम है।
हम देख रहे हैं समाज को सनातन धर्म से कोई मतलब नहीं है।
समाज व सामजिकता तो चेतना व समझ के अन्य अग्रिम बिंदुओं को न पकड़ कर विकास शीलता का परिचय न देकर भौतिक ता के अग्रिम बिंदुओं को ही स्वीकार कर सिर्फ विकसित होने ठहरने का ख्वाब रखती है।भविष्य की ओर या विकास शीलता के साथ अपनी चेतना अपनी सम्पूर्णता की ओर के अग्रिम बिंदुओं की ओर नहीं।


समाज व सामजिकता भविष्य की ओर है तो ठहराव के साथ अपनी स्थूलताओं में सिर्फ न कि आगे भी सूक्ष्म व कारण की ओर अर्थात पिंड दान सिर्फ ढोंग!!!


हालांकि कुछ लोगों को इस बात को लेकर  ऋषियों मुनियों से शिकायत रही है कि वे समाज को उसके ही हाल पर छोड़ कर अन्यत्र या जंगल जाते रहे।समाज में असल की क्रांति नहीं जगाए।

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