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बुधवार, 3 जून 2020

अशोक बिंदु भईया : दैट इज....?! पार्ट 01

योग/सम्पूर्णता(all/अल) की कृति!
तीन स्तर-स्थूल, सूक्ष्म व कारण!
तीनों की आवश्यकताओं के लिए जीना ही कर्म/यज्ञ/प्रकृति अभियान!
किशोरावस्था हालांकि तूफानी अवस्था होती है।

हमारी शिक्षा की शुरुआत सन्तों के बीच शुरू हुई।
नर्सरी एजुकेशन में संतो के अतिरिक्त पूरनलाल गंगवार, टीकाराम गंगवार, हरिपाल सिंह आदि का योगदान रहा जोकि सरस्वती शिशु मंदिर योजना में आचार्य थे ।
सरस्वती शिशु मंदिर योजना में शिक्षा प्रारंभ के वक्त ठाकुर दास प्रजापति की समीपता में भी आए ।

आर्य समाज ,शांतिकुंज ,जय गुरुदेव संस्था ,निरंकारी समाज आदि के कार्यक्रमों में  सहभागिता बनी रहती थी।
श्री रामचंद्र मिशन, शाहजहांपुर से अभ्यासियों से  भी मैसेज आते रहते थे।


सन1983 ई0!

पाठ्यक्रम तथ्यों विशेष कर कबीर ,रहीम ,रैदास के दोहे ,गीता के श्लोक ,सुभाषितानि के श्लोक ,गौतम बुद्ध ,सम्राट अशोक ,चंद्रगुप्त मौर्य ,गुरु गोविंद सिंह व उनके पुत्र आदि से चिंतन मनन कल्पना सपना माध्यम अपना वैचारिक स्थल सजाती जा रहे थे ।

किशोरावस्था में प्रवेश करते ही समाज की अनेक धारणाएं जातिवाद ,मजहबवाद, धर्मस्थलवाद आदि अटपटी लगने लगी थी।

 प्रकृति ,पुस्तकें ,बच्चे .....ये  स्थितियों में ही हमारा वक्त गुजरता था ।

सारी कायनात में मैत्री मनोदशा थी ।
डर ,भ्रम आदि तो प्रकृति में थे जो मानव निर्मित व मानव के बीच थी ।
तीनों स्तरों- स्थूल, सूक्ष्म व  कारण के एहसास किसी ने आमंत्रित करना शुरू कर दिए थे ।

मूर्ति पूजा शुरुआत करने के साथ ही छूट चुकी थी सिर्फ दिखावा रह गया था ।
अंदर कुछ क्षण ऐसे आने लगे थे जोकि हमें आनंदित कर देते थे ।

वे आनंद की लहरें.... तरंगे.। स्पंदन ...!
परिवार ,पास पड़ोस, विद्यालय से कुछ मैसेज ऐसे ग्रहण होने शुरू हुए जो सहज ज्ञान में विपरीत है ।

ऊर्जा तो गतिमान है स्थिर भी है हालांकि ।
लेकिन हमारे लिए गतिमान ही थी कभी मूलाधार पर तो कभी माथे पर ।
परिवार ,समाज के भेद ,संकीर्णताएं ,विकार ,अशुद्धियों के प्रभाव में बे वे अहसास, स्पंदन ,कंपन .... जो निष्पक्ष हैं पक्ष या विपक्ष में होकर जीवन यात्रा उन्नति में बाधक होते रहे !
यहां पर महसूस हुआ विद्यार्थी जीवन के लिए महत्वपूर्ण है वातावरण,आवासीय शिक्षा व्यवस्था, कुछ समय के लिए समाज से दूर कुछ शिविर ....... फिर जाना विद्यार्थी जीवन आखिर ब्रह्मचर्य जीवन क्यों है? बाहरी ज्ञान बाहरी प्रकाश से ही नहीं अंदरूनी प्रकाश अंदरूनी ज्ञान से जुड़ना ही ब्रह्मचर्य है।
 योग प्रथम  आवश्यकता है विद्यार्थी जीवन की।
 आगे बढ़ते रहें .....मन  बिखरता भी रहा.... एकाग्र होने की कोशिश करते रहे !आध्यात्मिक चिंतन मनन भी होता रहा !




पिता श्री प्रेम राज वर्मा के नाना ठाकुरदास राय व मामा रेवती प्रसाद ,खजुरिया नवी राम बिलसंडा पीलीभीत, ताऊ कह्मारा पुवायां, फूफा जी पौरिया बिलसंडा, सक्सेना जी प्राचार्य एसएस कॉलेज शाहजहांपुर आदि  की सांसारिक मदद के साथ बाबूजी महाराज , आर्य समाज व  शांतिकुंज की प्रेरणा से आगे बढ़े ।
वैसे तो वे जब  बे 5 साल के थे तभी उनके पिताजी अर्थात हमारे बाबा मूलाराम मृत्यु हो गई थी ।गांव छोड़कर ही विकास करना मजबूरी बन चुकी थी ।ऐसे में हम सभी की परवरिश भी बड़ी प्रतिकूलताओं, दुर्गमताओं के बीच हुई। पिताजी के चाचा फतेह चंद की नीतियां व आचरण तामसी प्रवृतियां, षड्यंत्र कार्य थे ।


हमने जब सांसारिकता में होश संभाला तो हम उस वक्त खजुरिया नवी राम बिलसंडा में रह रहे थे। वहां भी जमीन जायदाद, तामसी प्रवृतियां ,व्यक्तियों ,आर्थिक समस्याओं आदि के चलते स्थिति संघर्ष मे थी । केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी ।आपातकाल लागू था। पुलिस की मनमानी से भी आसपास लोग, रिश्तेदार आदि शिकार हो रहे थे । उस समय सरस्वती शिशु मंदिर योजना में आचार्य हरपाल सिंह जिन्होंने बाद में हरित क्रांति विद्या मंदिर बीसलपुर पीलीभीत की स्थापना की; उनका व उनके परिजनों का बड़ा सहयोग रहा ।पुरोहितबाद, जातिवाद, अनेक अंधविश्वासों से संघर्ष भी जारी रहा ।इसके लिए शुरुआती प्रेरणा मोहिउद्दीनपुर बण्डा में आर्य समाजी गतिविधियों से मिली जहां हमारी ननिहाल (रोशनलाल गंगवार, रवि गंगवार, अश्वनी गंगवार ) भी है ।

अप्रैल सन 1983 ईस्वी !
हम कक्षा 5 परीक्षा कार्यक्रम में व्यस्त थे।
 राजीव तिवारी ,प्रसून गुप्ता, राजेश गुप्ता, मनोज गंगवार, अनुभव सक्सेना ,आनंद सक्सेना ,धर्मेंद्र सक्सेना, राजेश शर्मा ,दीपक सिंह बिष्ट ,नीतू शर्मा ,अर्चना तिवारी ,उमा गंगवार आदि हमजोली या सहपाठी हमारे करीबी थे ।इस वक्त हम अपना एकांत ब्रह्मनाद( मेडिटेशन ),गीता अध्ययन ,ओम नमो भगवते वासुदेवाय जाप आदि में व्यतीत करने लगे थे ।इस वक्त हम संत परंपरा में लगे अनेक व्यक्तियों के संपर्क में थे।

 कक्षा 6:00 में आते आते हैं हमारी मित्र मंडली में सर्वेश सिंह कुशवाहा, दिनेश सिंह, रजनीश सिंह आदि भी जुड़ गए थे। संभलने - सवरने हेतु स्थितियां नाजुक थी। नेगेटिव ऊर्जा से साक्षात्कार ज्यादा होता था ।जिसका प्रभाव मन मस्तिष्क पर था ।लेकिन उसको काटते हुए हम आध्यात्मिक चिंतन में लग गए थे ।लेकिन सांसारिक आकर्षण, हमजोलीओ के आचरण ,परिवार की स्थिति आदि प्रभावित करने की कोशिश करते रहे। उस वक्त सांसारिक ख्याल सिर्फ मैत्री तक सीमित थे उस वक्त कोई ख्वाब मित्रता के सिवा नहीं था या फिर सत्संग....





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