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शुक्रवार, 5 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया :दैट इज...?!पार्ट03

दिनेश सिंह व रजनीश सिंह!
दोनों भाई भाई थे।जो हमारे साथ ही पढ़ते थे।
कक्षा08 पास करने के बाद वे दोनों सपरिवार सहित तिलहर के मो0 पचासा में आ गये थे।

दीपक सिंह विष्ट!

वह खटीमा आकर रहने लगा था।

सर्वेशसिंह कुशवाह ,राजेश शर्मा ही अब नजदीक थे।
मोहल्ले में एक परिवार और भी था।जिसमें एक लड़का जसकरन सिंह के साथ हमारा मिलना जुलना था।




कक्षा नौ में आते आते जीवविज्ञान में रुचि हो गयी थी।
दर्शन,आध्यत्म की पुस्तकें वक्त वेवक्त पढ़ते ही रहते थे।


नफरत!द्वेष!भय!!



घर से बाहर निकलने के बाद चारो ओर अनेक मनुष्य, बच्चे, स्त्री पुरुष, जीवजन्तु, वनस्पति।

मन ही मन महसूस होने लगा था अनेक से व्यवहार नहीं,बोलना नहीं।अनेक से भय भी। 

लेकिन नफरत कैसी, द्वेष कैसा?सबकी अपनी अपनी दुनिया।कुछ मुश्लिम लड़के लड़कियां भी करीब में थे, मन में उनके प्रति कोई दुर्भावना न थी लेकिन उनकी कुछ बातें व आचरण हमें अखरता था।एक दो के घर भी जाना होता था लेकिन कोई मन को दिक्कत नहीं।

सभी से बोलने को अवसर की तलाश!



कक्षा पांच से ही शांति कुंज व आर्य समाज का साहित्य पढ़ने लगे थे।अखंड ज्योति पत्रिका, गीता आदि का भी अध्ययन करने लगे  थे।विचार बने थे-दुश्मनी किससे?सब हालात है।सबसे व्यवहार रखने की कोशिश रखो।सबसे बोलने जी गुंजाइश रखो।

नमस्ते-अभिवादन सबसे अच्छा माध्यम।
सुबह सुबह जब टहलने निकलते थे तो कुछ चेहरे रोज नजर आते थे।उनसे रोज नमस्ते शुरू हो गयी थी।
हमजोली तोअपने कुछ बड़ों से भी नमस्ते।लड़कियों से भी नमस्ते।
हमारे प्रेरक हरिपाल सिंह, हम देखते थे हम जब स्कूल जाते थे तो जो बच्चे नमस्ते नहीं करते थे, उनसे वे ही नमस्ते कर लेते थे।रमेश भैया नमस्ते... अर्चना बहिन नमस्ते..... बगैरा बगैरा....!!



बसुधैव कुटुम्बकम!



साहित्य को पढ़ कर इस पद को समझने लगे थे।
अंदर ही अंदर महसूस भी होता था-सारी कायनात को सोचने पर।

कोई जातिवाद नहीं!कोई मजहब वाद नहीं!कोई छुआ छूत नहीं!!



विद्यालय में साथ साथ रहना-समाज में भी आ गया।साथ साथ खाना पीना भी।


समाज से ही भेद मतभेद का मैसेज मिला।
घर से भी नहीं।
हां, घर में बाहर वालों  में से कुछ के लिए गिलास बर्तन अलग थे।हम बड़े हुए तो ये भी सब हटा दिया।


परहेज काहे का?छुआ छूत कहे का?गांव छोड़ने से पिता जी दो कदम आगे बढ़ गए । हम चार कदम इस मामले में। हम महसूस करते थे तथाकथित ब्राह्मण जाति से लोग हम सब से परहेज करते थे।कोई उनमे से घर नहीं आता था।हालांकि पड़ोस में उनके घर कम नहीं थे।


आर एस एस के स्वयंसेवकों से नजदीकियां थी तो लेकिन हम उनके जन्मजात उच्च होने के भाव व विचार से नफरत करते थे।

स्तर-स्थूल,सूक्ष्म व कारण!

स्थूलताओं से तो जुड़े ही थे।
सूक्ष्म से व कारण से भी जुड़ने लगे थे।हालत ही ऐसे थे। समाधियों, कब्रों आदि से कोई भेद न, भय न था।


भूगोल की पुस्तकों में जब पृथ्वी व अंतरिक्ष की तश्वीरें, विज्ञान प्रगति पत्रिका से भी देखते थे, दूर काफी दूर छितिज का.... धुंध.... अदृश्य.... अनेक जिज्ञासाएं... बेचैनी सी पैदा हो जाती थी।
मन के किसी कोने से वैज्ञानिकता भी उठने लगी थी।खामोशी हमें वो अहसास कराने लगी थी कि हमें ताज्जुब होता था।


कभी कभी लगता था-हम और कहीं के हैं? कुछ अपना खोया सा है,जिसकी तलाश है। अंतरिक्ष में कोई धरती है।जहां भी हम हैं।आगे चल कर पढ़ा, पढ़कर सुकून मिला कि भूमध्यसागरीय जंगलों में कुछ कबीले है, जो अपना पूर्वज किसी लुन्धक धरती से आया बताते हैं जो कि मत्स्य मानव थे। मानव के आदिपूर्वज  रामापिथेक्स के अवशेष वहां, अफ्रीका में व भारत में शिवालिक पहाड़ियों में मिले हैं। हम खामोशी के रहस्यों को समझने लगे थे।ऋषि मुनि ठीक करते थे कि आत्मा पूर्ण ज्ञानी है।विद्यार्थी जीवन ब्रह्मचर्य जीवन इसलिए है कि बाहर के अलाबा अंदर भी ज्ञान छिपा है,उस ज्ञान तक विद्यार्थी जाए।



मोहल्ले में रामबिलास, एक वैद्य जी ,जो बुजुर्ग थे....उनके साथ शाम तीन चार बजे मीटिंग हो जाती थी। सर्वेश सिंह कुशवाह के मकान पर दिन मु दे अधिकतर जाना होता था, वहां सामने एक बुजुर्ग से सत्संग होता रहता था। कबीर, बुद्ध, भक्त काल आदि का जो कि पढ़ा समझ मे आने लगा था-उस पर चर्चा करने लगा था।



सगुन निर्गुण को जानने लगा था।

हम उम्र लड़के लड़कियों से बातें नहीं हो पाती थीं।उनकी बातें तो दुनियादारी की,फिल्मों की।

उस समय जो खेल थे, वे तो अब समाप्त ही हो गए।

लेकिन हमारी रुचि खेल में न थी।


बस, चिंतन,मनन, कल्पना, स्वप्न.....


आर्य समाज में जाना-25 साल तक का जीवन ब्रह्मचर्य जीवन लेकिन...!?


लेकिन!!?



कोई भी अंतर्ज्ञान में?!


देखा जाए तो कोई हमजोली हमें न भाया।

बुजुर्गों, सन्तों के बीच ही ठीक था।

लेकिन वे भी!?

उनमें से भी कुछ में विकृतियां!?

क्या कहें?खजुराहो मन्दिर की दीवारों की तश्वीरें फेल!समझने वालों के लिए इशारा ही काफी।




बाजार में जब जाते थे तो कपड़े की एक दुकान थी-देशबन्धु गुप्ता की।उनके घर पर भी जाता था।उनका व्यक्तित्व काफी आकर्षक था। उनके घर भी सब ठीक था।सब कुछ संस्कारवान, शालीन लगता था। पड़ोस के रामबिलास गंगवार उन्हीं  के यहाँ मुनीम आदि का काम देखते थे।


देशबन्धु गुप्ता ने जब शरीर त्याग दिया तब हम उनका अहसास अपने करीब करते रहे। उनसे अनेक मार्गदर्शन भी मिलते रहे। अभी तक कटरा में भी।


कटरा के कुछ फैमिली का अहसास स्वप्न में उन्होंने कराया था।




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