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शनिवार, 20 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया :: दैट इज ...?! पार्ट 07

हमारे तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण!

ये सब प्राकृतिक अभियान का हिस्सा है।प्राकृतिक प्रबन्धन है।
हम स्वयं क्या है? हम मानवों की व्यवस्थाएं स्वयं प्रकृति अभियान व प्रबन्धन के सामने क्या हैं?

शांति... मौन ....कितना सुकून है?
हम  एस एस कालेज से मिली हुई नहर के किनारे हम बैठे बैठे हुए थे।सुबह का वक्त था।


मानव समाज के अलाबा कहाँ सुकून नहीं है?समस्याएं प्रकृति में नहीं हैं,मानव के जीवन में हैं।अशांत विश्व नहीं है, मानव है।प्रकृति व विश्व में तो सब सहज है।जो है, सब असल है।बनाबटी नहीं,अप्राकृतिक नहीं।


एक दिन हम कमरे से कालेज की ओर पैदल जा रहे थे।
हमारे पास एक पुस्तक-शिक्षा में क्रांति थी ।साथ में एक कॉपी।
मुंह के अंदर बेतुका सा लग रहा था।हमने अपने गालों को अंदर की ओर दांतों को दबा कर सिकोड़ा, मुंह से खून निकल पड़ा।हम घबरा से गये। रास्ते में एक आयुर्वेदिक डॉक्टर बैठते थे।हम उनके पास जा पहुंचे।उनसे नमस्ते की,पड़ोस में नल लगा था, कुल्ला कर बैंच पर बैठ गया।कुछ देर बैठा रहा, मालिक को याद किया।मन को शांत किया और फिर आगे बढ़ गया।

हम कालेज जाकर पुस्तकालय पहुंच गए।
तुरन्त ही वहां से आ बीएड संकाय की ओर और आ गया।।फील्ड में बैठ कापी में कुछ लिखने लगा। थोड़ी देर में अनुपम श्री वास्तव आकर बैठ गया।वह वहां से बी एस सी कर रहा था। हमारी सामने निगाह पड़ी। हमारे बैच के लड़के लड़कियां आने लगे थे।एम एड का क्लास इस वक्त चल रहा था।जब आकुल जी आफिस में आकर बैठ गए तो हम क्लास में जा बैठ ही पाए कि हमारे बैच में टॉपर अंशु अग्रवाल हमारे पास आ पहुंची कुछ देर हमारी कापी व किताब देखती रही।क्लास में कब आकुल जी आये तो हम सब अपनी अपनी सीट पर व्यवस्थित बैठ गए।


सभी पीरियड अटैंड करने के बाद जब हम कालेज से बाहर चल दिए तो नागेश पांडेय संजय भी हमारे साथ चल दिए।
"आज हम आपके कमरे पर चल रहे हैं।"

"चलो।"

हम दोनों पैदल ही चल पड़े।

साथ में कुछ अन्य लड़के लड़कियां भी थे।

कमरे पर पँहुच हमने शीशा में अपना मुंह देखा।मुंह के अंदर तो सब सामान्य था।लेकिन बायां जबड़े से अपने को अच्छा महसूस नहीं कर रहा था।  दिन तो गुजर गया।रात अनेक शंकाओं में बीती।बायीं ओर एक दाढ़ तीन साल पहले ही उखड़ चुकी थी।उसके ऊपर मसूड़ा का मास आ गया था।कोई समस्या न थी लेकिन अब...?! ये खून क्यों?!खैर, दो तीन दिन बाद सब सामान्य हो गया।

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 नींद या अर्द्ध निद्रा में कुछ स्वपन हमारे लिए खास हो गए थे। जो एक से थे और महीनेमें पांच छह बार उन्हें देख लेता था।



अजीजगंज, गर्रा पुल से लेकर बरेली मोड़ तक का प्राकृतिक क्षेत्र (उन दिनों खेत खलिहान, बाग उपस्थित थे) हमारे साधना, अंतर्चेतना के स्तर के विकासशीलता की प्रयोगशाला बन गए थे।

यह क्षेत्र कभी हमारे पिताजी प्रेम राज वर्मा का भी अध्ययन क्षेत्र भी रहा था। पिता जी का सत्य पाल यादव व हरि शंकर सिंह गुजर से सम्पर्क यहीं हुआ था।

प्रकृति हमें आकर्षित करती रही है।बाग बगीचों से हमें लगाव रहा है।


जगदीश चन्द्र बसु को हम हाईस्कूल व   इंटर क्लास इस दौरान ही पढ़ चुके थे। हम भी उनकी तरह प्रकृति के बीच सर्व व्याप्त अंतर चेतन आत्म संवेदना स्थिति को महसूस करने का प्रयत्न करने लगे थे  ।
हम कक्षा पांच से ही शांतिकुंज साहित्य ,अखंड ज्योति पत्रिका, युग निर्माण योजना आदि को पढ़ने लगे थे ।

कबीलाई संस्कृति ,सहकारिता संस्कृति को हम भूल चुके हैं ।इसकी पेठ सूक्ष्म जगत में भी है लेकिन हम भौतिक सांसारिक जगत में अपने इंद्रिय जगत में इतने रंग हैं कि परिवार के अंदर ही हम कुटुंब भावना की मर्यादा को भुला चुके हैं। हम सब चारों ओर प्रकृति वनस्पति जीव जंतु की डूब या ल य ता संस्कृति ,सागर में कुंभ कुंभ में सागर ....सागर में लहरों की स्थिति बीच अपने को लहर से तुलना, सूरज की किरणों बीच अपने को किरण से तुलना,आदि को लेकर सारी दुनिया व सारा ब्रह्मांड को देखने की सोच ,कल्पना, चिंतन आज  खो चुके हैं ।प्रकाश में हम हम में प्रकाश.... हम सब में प्रकाश..... हम सब में मैं, मैं में हम सब....?!अरण्य जीवन हमारी स्थूलता... हमारा हाड़मांस..!? हम उससे दूर जाकर अंतरसंबन्धों की नैसर्गिकता, एक जंजीर में कड़ियों के सम्बंध... एक एक कड़ी के बीच सम्बंध..!? ये सब क्या यथार्थ नहीं... आध्यत्म भी सूक्ष्म फिजिक्स है।


हम कमरे में बसुधैव कुटुम्बकम व कुरान की एक आयत जिसका अर्थ-सभी एक जमात हैं, लिखे पृथ्वी व प्रकृति को दर्शाती स्वयं बना एक चित्र लगाने लगे थे।



इंटर क्लासेज के दौरान से ही हम अनन्त यात्रा की कल्पना करने लगे थे।उस अनन्त यात्रा की कल्पना से जोड़ कर सारे जगत, वनस्पति, जीव जंतु, प्रकृति को देखने लगे थे।


लेकिन ये काम व खिन्नता ?!

कुछ कहते हैं-काम व क्रोध खत्म नहीं होता।उसे नियंत्रित किया जा सकता है।लोभ, लालच, बेईमानी आदि खत्म हो सकती है।कामनाएं(इच्छाएं)जो हम जीवन में प्राप्त करना चाहते है,जो सांसारिक हैं, उसके लिए हम रास्ता न देख रहे थे।

आध्यत्मिकता, मानवता, सुप्रबन्धन का हम कहीं भी माहौल मानव समाज व संस्थाओं में नहीं देख रहे थे। अभी तक हम विद्यार्थी जीवन में थे। अब स्थितियां बदलने वालीं थीं।कालेज की ओर से हमे  रोटी गोदाम, बहादुर गंज  भेजा गया।वहां कक्षा07में गणित व कक्षा छह में इतिहास पढ़ाना शुरू किया।दोनों में 21 - 21 पाठ योजना पढ़ानी पड़ी।





खबर मिली कि 05 अक्टूबर 1994ई0 से संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व शिक्षक दिवस मनाना शुरू करेगा। हमें इस पर प्रसन्नता हुई।





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