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गुरुवार, 4 जून 2020

अशोकबिन्दु भईया:दैट इज...?! पार्ट02

किशोरावस्था!
विचारक्रांति का केंद्र-हरितक्रांति विद्यामन्दिर!!
स्वयं!
सु+अयम!!
इस संधि को बनाने का नियम::उ+अ=व्+अ!

क्या?

यदि-
स्वागत=सु+आगत
जहां उ+आ=व्+आ, तो.

अयम का अर्थ?
सु का अर्थ?
स्वतंत्र?!
स्वतंत्र के साथ क्या होगा?
अरविंद घोष ने कहा है-स्वतंत्र को आत्मा ।


मैं सोंच रहा था।
हम सब एक बाग में उपस्थित थे।
कुछ लड़के आम तोड़ रहे थे।
दीपक सिंह विष्ट हमारे साथ बैठा था।उसने इसी साल बाहर से आकर एडमिशन कराया था। उसके पिता sbi में थे।
हम दोनों एक ही क्लास में थे।



चिंतन, मनन, कल्पना,स्वप्न हमारे जीवन के अहम पहलू बन गए थे।
यही अपनापन व अच्छा समय का अहसास करा रहे थे।
ये हमें गहराई दे रहे थे।हमारे समझ व चेतना को भी।समझ व चेतना के विस्तार को।


अब हमारा क्लास में दूसरा स्थान रहने लगा था।
राजीव तिवारी प्रथम व अनुभव सक्सेना तृतीय। गणित अध्यापक होरी लाल शर्मा बढही अभी जल्द ही हमे पढ़ाना शुरू किया था। वे हमारे पिताजी व हमसे काफी लगाव रखते थे उनके गांव में पिता जी के मित्र थे। आगे चल कर उनकी रोडवेज में नौकरी लग गयी। वे हमें गणित में बेहतर विद्यार्थी मानते थे।दरअसल ये था कि उनकी बातों को हम क्लास में अन्य विद्यार्थियों के अपेक्षा जल्दी समझ जाते थे।लेकिन उसको बाद में अपने में रख नहीं पाते थे।इसका भी कारण था।,वर्तमान में रहना या भविष्य में रहना।वास्तव में जीवन की गति भी यही है।


विद्यालय की ओर से हमें थाना, रेलवे, गन्ना फैक्ट्री, दूरभाष केंद्र आदि में जानकारियों के लिए लिए ले जाया जाता था। वजन7हम सब सम्बंधित कर्मचारियों व अधिकारियों से सवाल करते थे।हम अंतर्मुखी थे लेकिन दिमाग चलता खूब था।इतना कि फिर  थक भी जाए। बहिर्मुखता में हम शारीरिक सक्रियता में हम सहमा सहमा पन महसूस करते थे।इस पर भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है-अति बैद्धिक सक्रियता वर्तमान समाज मनोबिज्ञान  से ऊपर होती है या नीचे।ऊर्जा गति मान होती है।ठहराव में नहीं।जीवन गतिशीलता है, विकासशीलता है, अनन्त यात्रा है।अब स्वाध्याय में रुचि बढ़ गयी थी। घर में चन्दामामा, चंपक, बाल भारती, नंदन, धर्मयुग, सोवियतसंघ आदि पत्रिकाओं का भी अध्ययन करने लगे थे।


सन  1994 ई0!

ब्रह्मा, विष्णु व महेश आंख बंद कर क्या प्राप्त करना चाहते?

प्रार्थना सत्र के दौरान पांच मिनट करवाए जाने वाले 'ब्रह्मनाद' से हमें आंख बंद कर बैठने की प्रेरणा मिली। ज्ञान की शुरुआत उपनिषद से होती है।इसका मतलब बैठने से भी है।

आंख बंद कर हम शांति, सुकून की ओर बढ़ना शुरू करते हैं।

अन्य विद्यार्थियों ,बच्चों से अलग हमारी दुनिया बनने लगी।

कुछ हूं जो सभी में है,दुनिया में है।जो सबको एक मे बांधे है।उससे दूरियां ही हम सब की समस्या है।

आर्यसमाज में होने वाले तीन चार दिवसीय वार्षिक उत्सव में हम जाने लगे थे। यज्ञ(हवन) में धुंआ सामने बैठना तो मुश्किल था लेकिन संवाद, वार्ता आदि में बेहतरी महसूस होती थी।


मोहल्ले के ही सुशील वर्मा के साथ एज दो बार जयगुरुदेव सत्संग में भी पहुंचा था।

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अक्टूबर 1994 ई0!



सरदार बल्लभ भाई पटेल जयंती में हम उपस्थित थे। सायंकाल होने को आयी थी।पता चला कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही अंगरक्षकों ने ही हत्या कर दी।



यहां से अब हमें राजनीति में कुछ कुछ रुझान होना शुरू हुआ।

अब रात्रि हो चली थी।
अच्छा बुरा के अहसास से परे की स्थिति थी।आंखें नम थीं।
सूक्ष्म व कारण शरीर में हमारी अन्तर्मुखीता कभी कभी अति गहराई में पहुंचा देती थी।


22मार्च 2020ई0!एक दिवसीय लॉक डाउन !

किसी को महसूस हो या न हो, हम महसूस कर रहे थे-प्रकृति में शांति, सहजता आदि पहले से ज्यादा। यथार्थयथार्थ, वर्तमान पहले से ज्यादा। इसी तरह उन दिनों??उन दिनों वर्तमान की तरह हाल नहीं थे। गांव व शहर से बाहर निकलने के बाद बाग ही बाग।खूब हरियाली2।बरसात भी खूब1।इंसान को भी एक दूसरे के लिए वक्त ज्यादा।वर्तमान से ज्यादा उस वक्त प्रकृति शांत व सहज में।

कुछ और भी...


इंसानी भागदौड़ जिधर है उधर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण उसके विपरीत भी कुछ है।

मई जून की छुट्टियां में हम ननिहाल मोहिउद्दीनपुर चले2 जाया करते थे।अपने पैतृक गांव जाना नहीं होता था।साल दो साल में एक दो दिन के अलावा।

हमारा पेट गड़बड़ रहता था।खाने पीने में डरा डरा सा रहता था।
ननिहाल में ये डर गायब हो जाता था।

नाना बेसिक में टीचर के अलावा वैद्य जी ज्यादा माने जाते थे।चूर्ण गोलियां की कमी नहीं थी।और भी कुछ...!?सहज सा, सब सँवरा सा लगता था।


हरित क्रांति विद्या मंदिर!
हम हरित क्रांति विद्या मंदिर में विद्यार्थी थे।कक्षा 08 तक हम वहीं पढ़े थे।हमारे वैचारिक धरातल को आधार देने मेँ वहां हरिपाल सिंह की बोध कथाएं बड़ा योगदान दिए। जो पहले सरस्वती शिशुमन्दिर योजना में थे।


लेकिन अपनी समस्याएं अपनी ही होती हैं।वे जिस स्तर से उभरती है,उसी स्तर पर ही समाधान भी आवश्यक है।समाधान भी अपना ही काम आता है।परिवार, समाज, स्कूल आदि में प्रेरणा के लिए काफी कुछ होता है लेकिन हमने महसूस किया उत्साह, सामर्थ्य विकास, साहसिक कार्य क्षमता, कर्मठता विकास, लक्ष्य प्रति सजगता व ततपरता,प्रतिकूलताओं में भी अपने कर्तव्यों की अडिगता आदि कैसे?किशोरावस्था में हमारी ये समस्याएं थीं।


एक साधे सब सधे!


सिर्फ आत्मा से परम् आत्मा!सिर्फ तत्व से व्यक्तित्व!

आध्यत्म, मानवता, सम्विधान ही हमें उस वक्त से ही समाधान दिखने लगे थे।


स्व से ही स्वाभिमान!
स्व से ही स्वतन्त्रता!
स्व से ही स्वास्थ्य!
आत्मा वसे ही आत्म निर्भरता!
आत्मा से ही आत्मसम्मान!
आत्मा से ही अध्यत्म!!!


आर्यसमाज में एक विद्वान ने कहा था-स्वयं ही हम सबकुछ हैं।


विद्यार्थी जीवन कैसे ब्रह्मचर्य जीवन बने?इस पर अभिवावकों, स्कूलों व सरकारों को विचार करना चाहिए।

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