Powered By Blogger

रविवार, 27 जून 2021

अशोकबिन्दु ::दैट इज...?!पार्ट 23...शिक्षण कार्य का 26 वां साल शुरू होने के साथ?!


 01 जुलाई 2021 से हमारे शिक्षण को 26 वां वर्ष शुरू हो जाएगा।

हम इस बात को अपने अंदर काफी गहराई से  सोंचते हैं कि ये दुनिया, कुटुम्ब, संस्थाएं, कुतुब/नेता/मुखिया/परम्परागत समाज के ध्रुव/ठेकेदार आदि का धर्म, सेवा, आचरण आदि से हमें उम्मीदें नहीं रखना चाहिए।


   ये खिन्नता.... बौखलाहट..... भ्रम..... शंकाएं......हमारा भविष्य इंगित करती हैं।


लेकिन तब भी मालिक कृपा कि हम महापुरुषों की वाणियों पर चिंतन मनन करते,मेडिटेशन करते कुछ आगे की उम्मीदों के सहारे जीते आये हैं।

 जो भीड़ की उम्मीदों से हट कर रही हैं।


धर्म, कर्तव्य, दान, दक्षिणा आदि का सिद्धांत पात्रता पर ध्यान देने से पुण्य को साकार करता है।धर्म, कर्तव्य, दान दक्षिणा में भी व्यक्ति भीड़ में अपने अनुकूल व्यक्ति देखता है, पात्र को नहीं।क्यों न फिर वह तमसी प्रवृत्ति, सोच का हो,या आचरण का हो।



हम कहते रहे हैं-सबसे बड़ा भृष्टाचार है हमारी नजर में-शिक्षा।इसलिए हम शिक्षितों के आचरण देख कर कहते है। सबसे बड़ी समस्या हमारे लिए है-"वह प्राणी जो इंसान माना जाता है लेकिन वह इंसानियत नहीं रखता।"


इस सबके लिए दोषी कौन है?वे जो समाज, संस्थाओं, सिस्टम ओ जकड़े बैठे हैं।


चरित्र पर हम कहना चाहेंगे कि चरित्र नहीं है-समाज,अन्य व्यक्तियों, आकाओं आदि की नजर में जीना।


आस्तिकता व धार्मिकता पर सवाल ?!
दुनिया में सबसे बड़े षड्यंत्र कारी यही हैं। लोभ लालच, माया मोह, काम बासना ,जातिवाद, मजहब वाद आदि के लिए जिए जा रहे हैं।आत्माओं का ही अहसास, आभास आदि है नहीं।परम् आत्माओं का  आभास, अहसास आदि क्या?!चेतना व समझ का स्तर कहा पर टिका-सिर्फ बनाबटी चीजों पर।स्थूल के ही सच्चाई पर नहीं, सूक्ष्म व कारण स्तर की बात ही छोंड़ दो।

और अब हम.....
हाड़मास शरीर की क्षमताएं होती है।35-40 के बाद उसकी उल्टी गिनती शुरू हो जाती है।
और....

हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि लोग व सिस्टम हमें क्या समझता है?हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि हम अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभा पा रहे हैं कि नहीं? 

बाबुजी महाराज कहते हैं कि शिक्षित का मतलब है कि अब उसके पास कर्तव्य ही कर्तव्य बचे हैं।अधिकार खत्म हो गए हैं।


सबका कार्य करने, आचरण करने, बोलने न बोलने आदि पर अपना अपना स्तर होता है।हर स्तर की व्यवस्था में जीने का मतलब है कि किसी की प्रतिष्ठा बनाये रखते हुए उसके हिसाब से कैसे काम लिया जाए?कैसे उसे इस्तेमाल किया जाए?

भक्त हनुमान को जब श्री लंका में भेजा जाता है।तो उनसे यह नहीं कहा जाता है कि तुम्हें क्या करना है?कैसे जाना है?कैसी परिस्थितियों में कैसा कैसा करना है... आदि आदि। बस, तुम्हें जाना है और सीता का पता लगाना है। अब उसके लिए कितनी भी कीमत चुकानी पड़े?कितना भी समय गवाना पड़े?कुछ भी झेलना पड़े ?आदि से कोई मतलब नहीं।

आज की तारीख में सबसे बड़ा भृष्टाचार है-शिक्षा। शिक्षालयों, शिक्षितों, शिक्षकों, अभिवावकों आदि का शिक्षा के प्रति तरीका क्या हो गया है?नजरिया क्या हो गया है? 
यह भी सत्य है कि किसी की आत्म प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाए ईमानदारी से शिक्षा को सुचारू रूप से चालू नहीं रखा जा सकता लेकिन शिक्षा का सम्बंध स्वतन्त्रता से है ,सहजता से है, शांति से है।
इसमें वैश्य धर्म ,गृहस्थ आश्रम धर्म, राज्य सेवा धर्म आदि का हस्तक्षेप भृष्टाचार है। शिक्षा दो के बीच का विनिमय है।जिसकी के व्यबस्था,समाधान आदि का दायित्व राज्य व समाज का है।लेकिन राज्य व समाज शिक्षा में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।जब भारत जगद्गुरु था तो शिक्षा आचार्यों व ऋषियों के हाथ में थी ।उसमें अन्य किसी का हस्तक्षेप नाजायज था। आचार्य व ऋषि समाज, राज्य के नौकर, कर्मचारी नहीं होते थे। आचार्य, ऋषियों के सुरक्षा, व्यवस्था आदि के लिए समाज, राज्य उत्साहित रहता था। आज भी जहां खुशहाली है वहाँ शिक्षा, शिक्षित सिस्टम का केंद्र है।


सिक्ख/शिष्य/अभ्यासी!! गुरु शिष्य एक मानसिक सम्बन्ध है। जो धरती पर महानता को बुनता है।ऐसे में सिक्ख होना एक महान घटना है।जिसमें गुरु की झलक होती है।अतः वही शिष्य है जो अपने गुरु की चमक अपने आचरण, विचार व भाव में रखता है। हमारा सिक्ख कौन है? कहने के लिए हमारे शिष्यों की भीड़ की भीड़ है।लेकिन हम उन्हें शिष्य नहीं मानते। हम चाहे किसी भी स्तर के गुरु हों लेकिन जो हमारा शिष्य है तो उसका हमारा शिष्य होने का मतलब है-जो मानसिक, विचार, भाव, नजरिया से हमारे सामने शरणागति कर चुका है, समर्पित हो चुका है। आज कल की विद्यालय शिक्षा को हम 'गुरु-शिष्य' परम्परा की नहीं मानते।वहां शरणागति, समर्पण का भाव ही नहीं है। वहां अब सिर्फ ऊपरी स्तर की शिक्षा है।उससे से तो बेहतर शिक्षा या प्रशिक्षण की गहराई अन्यत्र होती है। हम जहां जिससे किए चीज प्राप्त करना चाहते है तो हम उसके सामने, उसके वातावरण में नम्र, शालीन, अनुशासित होते है।हमारा ग्रहण करने का स्तर व समझ, नजरिया क्या है?यह अलग बात। गुरु शिष्य के बीच का सम्बंध!! यह सम्बंध वैश्य का, वैश्यत्व का नहीं है।। मानसिक, रुझान, रुचि का है।ज्ञान के प्रति लालायित होने का है। #हार्टफुलनेसएजुकेशन का मतलब क्या है? निःशुल्क अर्थात वैश्य, वैश्यपन के धर्म से मुक्त। इसलिए हम दुनिया में सबसे बड़ा भृष्टाचार मानते हैं-वर्तमान शिक्षा। गुरु व शिष्य के बीच वैश्य धर्म नहीं होना चाहिए। इसलिए वैदिक परंपरा में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था मिलती है।जिसमें शुरू में बच्चे का स्तर, रुचि, स्वभाव,रुझान आदि को परखा जाता था और उसके आधार पर निशुल्क शिक्षा दी जाती थी,वह भी सेवा, शरणागति, समर्पण, अनुशासन आदि के भाव में।गुरु स्वयं तय करता था कि कब किसे क्या कहाँ किन परिस्थितियों में सिखाया जाए।जिसमें तीसरे का हस्तक्षेप नहीं होता था।हम अनेक बार कह चुके हैं कि शिक्षा दो के बीच का सम्बंध है।तीसरे का सम्बंध सिर्फ शिक्षा हेतु वातावरण, संसाधन आदि जुटाने का होता है। गुरुकुल, शिष्य कुल का महत्व!! कोरोना संक्रमण में स्कूलों को बंद कर देना हम नई पीढ़ी के साथ खिलवाड़ मानते है। मानव जीवन में सबसे महान घटना हम गुरुत्व व शिष्यत्व की परंपरा में रहना ही है।वही जीवन, समाज, देश व विश्व को बेहतर मुकाम देती है। हमे अफसोस है कि भौतिक भोगवाद, पूंजीवाद, सत्तावाद में उसे नगण्य कर दिया गया है। समाज, समाज के ठेकेदारों, सरकारों की प्राथमिकता में भी यह महत्वपूर्ण नहीं है। फिजिक्ल डिस्टेंसिग की कहीं भी परवाह नहीं है। फिजिकल चाहतों, लोभ लालच के लिए अब कुछ जायज है।उस देश में जिसे दुनिया अब भी आध्यात्मिक/आत्मा अध्ययन/आत्मा गुणों, मानवता,धर्म मूल्यों में मार्गदर्शक है लेकिन यहां हालात उल्टी है। जो शक्तियां फिजिकल से काफी ऊपर हैं।जो जगत व ब्रह्मांड को भी नियंत्रित करती हैं।जिसमें कोरोना आदि की भी कोई औकात नहीं है।जिसमें सब समाया हुआ है।उसके लिए हम अवसर नहीं देना चाहते।हम गीता के विराट रूप को आचरण में उतारने का मानव समाज को अवसर नहीं देना चाहते।सागर में कुम्भ कुंभ में सागर.... की दशा को अबसर नहीं देना चाहते।हम अनन्त प्रवृतियो को अबसर न दे क्षणिक अवसरों में खोने का अबसर दिए है,सत्तावाद, पूंजीवाद, लोभ लालच आदि के कारण। हम नहीं जानते कि हमारी वर्तमान समझ, बुद्धि, नजरिया आदि की क्षमता से भी बेहतर अन्य दशाएं भी है जो हमे अनन्त क्षमता से जोड़ती हैं। हम औऱ ट्यूशन कल्चर!! पार्थ सारथी राजगोपालाचारी जी कहते हैं आत्म प्रतिष्ठा को दांव पर लगा कर शिक्षा असम्भव है। आज कल ट्यूशन भी विद्यार्थी जीवन का आवश्यक अंग बन गया है।गुरुकुल परम्परा व आवासीय विद्यालयों में भी इसका रूप मिलता है।कक्षाकरण,विद्यालयकरण की भांति ट्यूशन भी एक मनोवैज्ञानिक स्थिति है।उसकी अपनी एक सहजता है।इसमें जबरदस्ती कब तक चलेगी? निशुल्क शिक्षण परम्परा का मतलब है ज्ञान के प्रति रुझान न कि जीविका के लिए सिर्फ ज्ञान का इस्तेमाल करना। किसी से जबरदस्ती शिक्षा प्राप्त करना या जबरदस्ती शिक्षा देना कब तक कामयाब रहेगा? गुरु -शिष्य, शिक्षक की व्यक्तिगत भौतिक व्यबस्था की जिम्मेदारी?! प्लेटो ने कहा है कि शिक्षक का तन मन सब कुछ समाज, नई पीढ़ी के उत्थान, शोध, ज्ञान में ही लगना चाहिए।एक विद्यार्थी या शिष्य होने का मतलब है कि वह सिर्फ गुरु व शिक्षक को ही समर्पित हो।उनके निर्देशों को समर्पित हो।विद्यार्थी जीवन व शिक्षक जीवन को कभी ब्रह्यचर्य जीवन/ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता था तो इसका मतलब था -अंतर्ज्ञान, अन्तरदीप के प्रज्जवलन के लिए लालायित रहना। गुरु/शिक्षक किसी के नौकर नहीं, वरन लोग व शासक उनके नौकर बने। प्लेटो ने कहा है कि समाज, सरकार का फर्ज है कि गुरु/शिक्षक अपने व्यक्तिगत समस्याओं व परिवार की समस्याओं में न उलझे।वह समाज, नई पीढ़ी के स्तर को सुधारने के लिए ही हर वक्त तन मन से लगें।चिंतन मनन करे।ऐसा तभी सम्भव है जब गुरु व शिक्षक अपनी व अपने परिवार की समस्याओं व उनके समाधानों के प्रति निश्चित रहे।



#अशोकबिन्दु

कोई टिप्पणी नहीं: