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शनिवार, 12 जून 2021

विश्व के सभी कुटम्बियों के पूर्वजों के अतीत का संज्ञान, विश्व बंधुत्व,बसुधैव कुटुम्बकम -भाव आदि में देश द्रोह, राज्य द्रोह, देश भक्ति, राज भक्ति के मायने क्या::अशोकबिन्दु

 हम इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं।अब भी इतिहास का अध्ययन करते रहे हैं। हर युग में सत्ता पक्ष ने इतिहास के साथ ज़्यादती की है। इतिहास को युद्धों, युद्धों में हार जीत का दस्तावेज सिर्फ बना दिया गया है। देश के आजादी के बाद तो इतिहास के साथ बहुत ही बड़ा कुचक्र रचा गया।सत्यों को छिपा दिया गया। इतिहास के अनेक पृष्ठों को पढ़ कर हम खिन्नता,बौखलाहट का शिकार हो जाते हैं। जो इतिहास, गौरबशाली अतीत, आपसी संघर्ष, विदेशी शासकों के सामने भी लोभ के लिए आपसी मतभेद आदि की गंदी राजनीति, सत्तावाद, सामन्तवाद आदि को ही स्पष्ट करता है। राज्य विरोध, भक्ति आदि को हम सिर्फ राजनीति, सत्तावाद, सामन्तवाद आदि की नजर से देखते है।उसे मजहब की नजर से देखने की कोशिश नहीं करते। जो राजा मुगल, अंग्रेजो आदि के खिलाफ संघर्ष करते रहे, जिनके हम गुणगान करते नहीं थकते और मुगलों, अंग्रेजों का विरोध करते हैं।ऐसे में हम कहना चाहेंगे कि उन राजाओं के दरबार या सेना में क्या मुगल, अंग्रेज आदि नगरिक कार्यरत नहीं थे?उनकी लड़ाइयां सिर्फ क्या धर्म के लिए थीं?मन्दिरों आदि के लिए लड़ाइयों को छोड़ कर। औऱ फिर देश के अंदर जब विदेशी राजनैतिक ,सत्ता हस्तक्षेप न था तो किनसे लड़ाइयां होती थीं?उन लड़ाइयों को हम ज्यादा फोकस करना चाहते हैं। जब देश के अंदर विदेश्यों का सत्ता में हस्तक्षेप न था तब किससे लड़ाइयां?ये लड़ाइयां हमें काफी चुभती हैं, उन लड़ाइयों से जो विदेशी शासकों के साथ लड़ी गयीं। वर्तमान में जो त्रिवर्ण है, सामने है-ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य।जिसकी संख्या लगभग 15-20 प्रतिशत है। शेष 85-80 प्रतिशत क्या शुद्र थे?उनका राजनीति, सत्ता, सामंत में कोई प्रभाव न था?इन 85-80 प्रतिशत के पूर्वजों का इतिहास क्या है?इसको विद्यार्थियों के करीब आने जरूरी है। हम तो कहेंगे कि इतिहास को आज के परिपेक्ष्य में ,आज के परिपेक्ष्य में महत्व के साथ परोसा जाना चाहिए।भारत के अंदर विदेशीयों के प्रभाव ,युद्ध, षड्यंत्र आदि के अलावा पहले के इतिहास को भी स्पष्ट रूप से विद्यार्थियों को परोसना जरूरी है। और फिर इतिहास को राजनीतिक युद्धों के इतिहास, राज्य भूमि के लिए संघर्ष के इतिहास के रूप में सिर्फ दिखाने के अलावा अन्य घटक जो शांति, मानवता, बसुधैव कुटुम्बकम, विश्वन्धुत्व, विश्व व्यापार, संस्कृति विनिमय,विदेशी भूमि पर भारतीयों की दस्तक आदि की ओर संकेत करते हैं, उन्हें विद्यार्थियों को परोसा जाना चाहिए। जैसे कि ईसा पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य की विश्व स्तरीय शादी, उनका ईरान इराक यूनान तक प्रभाव आदि, सिंधु से लेकर भूमध्य सागर तक कु रूस,कम्बोज आदि का शासन, पामीरा(ताड़ मरु) में भारतीयों का शासन,प्रियव्रत के द्वारा रोम की स्थापना, रोम सम्राज्य में प्रतापी उप सम्राट उदयनाथ, मेसोपोटामिया सभ्यता,भू मध्य सागरीय दलदली क्षेत्रों में वरुण (मनु) के रूप में आवास योग्य भूमि निर्माण,कुरूस(साइरस),उसके पुत्र कम्बुज(कमिबसेस)आदि साम्राज्य,सार सेन यूरोप व मंगोलिया में,कुलोत्तुंग प्रथम(1070-1120) आदि व जावा सुमात्रा चीन आदि से सबन्ध,पुरानी सेन, रस(रूस), पुल(पिलर, पिलेसर,कादेशअर्थात पामीरा, अल अप्प ओ नगर, हेल इयो पोल इस(सूर्यपुरी)आदि के संदर्भ में), तुंग,वर्मन, वर्मा आदि उपाधियों के पीछे का इतिहास आदि को हम बसुधैव कुटुम्बकम, विश्वन्धुत्व के वैश्विक भारतीय राजनीति व प्रभाव के रूप में देखते हैं। सिंधु के उस पार #यहराम , #एरम #यलह #अल/एला/इला #रामल्लाह आदि में हम भारतीय दर्शन को देखते हैं।रोम, अमेरिका, अफ्रीका मे में मिले सूर्य मन्दिरों के खण्डहरों, विश्व की विभिन्न सभ्यता ओं को हम एक वैश्विक नजर में देखते है यदि भाषा, रीति रिवाजों,भेष भूषा को अलग थलग कर दिया जाए।देवता वही है, आदि दर्शन वही है।दक्षिण भारत से भी कहीं ज्यादा शिव मंदिर, शिव लिंग सिंधु के उस पार भूमध्य सागर, कृष्ण सागर, कश्यप सागर के तटीय क्षेत्रों में मौजूद थे। अपने पूर्वजों को याद रखने की कट्टरता तो इन 700 वर्षों में आयी है, धर्म का।मजहबी करण इन 700 वर्षों में आया है।जातीय व मजहबी जटिलता इन700 वर्षों में आयी है। यवन, अवन कौन थे?तुर्वसु के पुत्र भोज यवन के वंशज?जो मनु वंशी राजाओं के दरबार में।में भी स्थान पाते रहे।झूसी/इलावती/इलाहाबाद की स्थापना इला(इक्ष्वाकु बहिन) ने अपने पति बुध के साथ की थी। जो सनातनी भेद, कट्टर ता आदि के दायरे में रहकर विश्व, समाज आदि को देखते हैं, वे गलत है। एक समय वह था जब विश्व के सभी कुलों/कुटुम्बों को अपना अतीत पता था ।इसलिए वे किसी से परहेज नहीं करते थे।संघर्ष व युद्ध सिर्फ सत्ता, राजनीति, भौतिक लाभ आदि के लिए होते थे। हम बसुधैव कुटुम्बकम, विश्व बंधुत्व की भावना को सिर्फ अध्यात्म,मानवता, प्रकृति अभियान(यज्ञ) आदि में जा कर नहीं देखना चाहिए उसे अपने राजनैतिक व पूर्वजों के अतीत की नजर में देखना चाहिए।हम यदि अपने पूर्वजों के अतीत को जान जाएं तो भी हम वैश्वीकरण, विश्व बंधुत्व,बसुधैव कुटुम्बकम आदि के भाव मे देख सकते हैं।और विश्व शांति, मानव कल्याण, विश्व सरकार की ओर हम बढ़ सकते हैं।ऐसे में देश द्रोह, राज्य द्रोह, देश भक्ति के मायने भी बदल जाएंगे।हम सब विश्व स्तर मानवीय सम्बन्धों, वैश्विक सहयोग के माध्यम विश्व शांति, मानवता विकास को अंजाम देंगे। #अशोकबिन्दु


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