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मंगलवार, 20 जुलाई 2021

प्रिय की कुर्बानी बनाम प्रिय की कुर वाणी ::अशोकबिन्दु

   कुरआन की शुरुआती सात आयतें हमें काफी प्रभावित करती रही है।


उसके हिसाब से हमने जो चिंतन मनन करते हैं,उसको लिखने की कोशिश कर रहे हैं।


आखिर प्रिय क्या है?

हमारे जीवन में 'प्रिय' के  भी अनेक स्तर हैं।उस स्तर के आधार पर ही हमारी बरक्कत होती है।


'सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर'- की स्थिति से पूर्व अनेक दशाएं हैं।उत्तरार्ध भी अनेक दशाएं हैं।चेतना के वर्तमान स्तर से नीचे व ऊपर अनन्त स्तर हैं।


संसार,प्रकृति में हमें जो प्रिय है, पसन्द है।उसमें हमरा ठहराव हमारी रुकावट, हमारी गुलामी है।हम कहते रहे हैं, आगे अनन्त स्तर हैं। प्रिय, आत्मियता, आत्मा आकर्षण, गुण आदि अनन्त से आते धारा का परिणाम है।लेकिन हम जिस स्तर/बिंदु पर होते है।उससे आगे नहीं जाना चाहते। स्थूल, सूक्ष्म व कारण..... हम स्थूल स्तर पर ही निम्न/पशुवत स्तर पर होते हैं।तो हम अनन्त से आती ऊर्जा, आकर्षण, प्रेम ,पसन्द को  उसी स्तर पर अपने लोभलालच, मोह, काम, अपराध ,हिंसा, जबरदस्ती, मनमानी, चापलूसी आदि पर टिका देते हैं। ऐसे में हम आगे के स्तरों की अनन्त यात्रा के गबाह नहीं हो पाते। 


जगत में प्रिय की कुर्बानी का मतलब है, जगत की कोई चीज हमारे लिए पसन्द न पसन्द से परे हो।अच्छा बुरा से परे हो।हम बस एक व्यबस्था के लिए, अपने कर्तव्यों के लिए जीते रहे जो हमारी चेतना, समझ के स्तर को आगे अनन्त स्तर/बिंदुओं की ओर ले जाए।इसके लिए निरन्तर अभ्यास, नियमित दिनचर्या, सतत स्मरण, नियमित साधन आवश्यक है।



महाभारत युद्ध के बाद आ अनेक कबीले/कुटुम्ब शांति से अपना जीवन गुजर बसर करने के लिए स्थान परिवर्तन किए।जंगलो, पहाड़ों, गुप्त स्थानों का सहारा लिया ही अपनी पहचान को छिपा कर जीवन यापन अपने जीवन की आवश्यकताओं में लग गए। जीवन प्रबन्धन है, यज्ञ है.. आवश्यकताओं के प्रबन्धन के लिए जीते रहना।
ये  प्रबन्धन हमारी पूर्णता/सम्पूर्णता/योग/all/अल/इला/आदि के लिए होना चाहिए।हद तो तब होती है जब हम आत्माओं, परम् आत्माओं के लिए जीने से पहले हाड़ मास शरीरों के लिए इस हद तक गिर जाते हैं कि हिंसा, अपराध,पर निंदा, पर शोषण, अन्याय आदि में ही उलझ जाते हैं।


कुर्बानी या बलिदान, सन्यास या त्याग, वैराग्य या भक्ति आदि का मतलब सांसारिक बस्तुओं के लिए जी कर जीवन उसी में न गंवा देना है।जिसके लिए प्रयोगशाला ग्रहस्थ जीवन है।जिसमें निरन्तर अभ्यास वर्तमान स्तर से उबरना है। जगत व कुटुम्ब में जीने का मतलब लोभ लालच, पसन्द नापसन्द में जीना नहीं वरन अपने सामर्थ्य, स्तर, औकात में जीते हुए अपने सामर्थ्य, स्तर, औकात को विस्तार हेतु निरन्तर अभ्यास में रहना है।इसके लिए आत्मा ही द्वारा है जो हमें अनन्त, निरन्तर, शाश्वत, स्वतः आदि से जोड़ता है।जीवन पटरी पर आ जाता है।तब ये हाड़ मास शरीर क्यों न साथ छोड़ जाए लेकिन तब भी हम अभ्यास में बने रहते हैं।आदी हो जाते हैं।तब...
#भगत के बस में हैं भगवान #आदत संवर गयी हो गया भजन....!?
#उसके सारथी होने का मतलब समझ में आने लगेगा।


प्रिय की कुर्बानी को हम दो रूप में लेते है-(१) संसार के बीच पसन्द नापसन्द से परे होकर जीना।प्रिय अप्रिय के भाव से मुक्त हो जीना  सिर्फ सुप्रबन्धन व  कर्तव्य के लिए(२) प्रिय की वाणी को पकड़ना, उस पर चलना।आकाश तत्व से हमें अपने अपने अन्तर में अनेक मैसेज मिलते रहते हैं।उनको पकड़ कर उस आधार पर चलना।
(क्रमशः)

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