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बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

सारी .ओ माई गाड !

एक फिल्म आयी है-O MY GOD .
जिसे देखने के बाद मैँ चिन्तन करता रहा रात भर.

क्या?


धर्म माया,मोह,लोभ,काम व क्रोध से मुक्त होने की बात करता है लेकिन
धर्मस्थलोँ के ठेकेदार क्या इसमेँ लिप्त नहीँ हैँ ?क्या अदालत मेँ इस बात
को लेकर केस नहीँ होना चाहिए?करोड़ोँ की सम्पत्ति की धर्मस्थलोँ व उनके
ठेकेदारोँ को क्या जरुरत?यदि जरुरत है तो इसका मतलब क्या यह नहीँ कि वे
धार्मिक नहीँ,वे अध्यात्मिक नहीँ?अब इस विषय पर भी क्या अदालत मेँ केस
नहीँ होना चाहिए ?क्या इनसे मनोवैज्ञानिक प्रश्नावलियां भरवा कर अदालत
मेँ जमा नहीँ करवायी जानी चाहिए ?प्रत्याशी चयन ,विभिन्न नियुक्तियोँ आदि
के अलाव इनका भी नारको परीक्षण व ब्रेन मेपिंग आदि नहीँ होना चाहिए ?

हम महापुरुषोँ व धर्मग्रंथोँ की माने या इन धर्मस्थलोँ व
धर्मस्थलोँ के ठेकेदारों की बातोँ को ?

अभी तक के स्वाध्याय,अध्ययन,सत्संग,चिन्तन,स्वपन,मेडिटेशन आदि से
मैँ यही जाना हूँ कि धर्मस्थलोँ व धर्म के ठेकेदारोँ को दान करना आवश्यक
नहीँ है ?दान हाथोँ से नहीँ ह्रदय से होता है ?ईश्वर व धर्म के नाम पर हम
किसे दान करेँ?जिसको दान करने से जिसे संतुष्टि होती हो ?जिसके कष्ट दूर
होते होँ ?ईश्वर,धर्म,अध्यात्म आदि के नाम पर जो भी ग्रंथोँ व महापुरुषोँ
के आधार पर हम कर रहे हैँ ,उसमेँ धर्मस्थलोँ व धर्मस्थलोँ के ठेकेदारोँ
आदि का क्योँ हस्तक्षेप ?ऐसे मेँ क्या हम अदालत की शरण नहीँ ले सकते क्या
?


युरोप क्रान्ति मेँ धार्मिक कारणोँ का महत्व ?


अनेक भाषा मेँ अनुवादित बाइबिल जब आम आदमी के हाथ पहुँची तो आम आदमी ने
जाना कि अरे,लिखा तो ऐसा है और चर्च व पुरोहित पादरी कर ऐसा रहे हैँ
?यहां भी अब ऐसा होने लगा है .शिक्षा का स्तर बढ़ा है ,लोग स्वयं ग्रंथोँ
व महापुरुषोँ की वाणियां पढ़ने लगे हैं .सच्चाई सामने आने लगी है .ग्रंथों
व महापुरुषोँ को पढ़कर लगने लगा है कि ब्राह्मण जाति ,क्षत्रिय जाति व
वैश्य जाति मेँ सभी के आचरण व जीवन लक्ष्य शास्त्रानुकूल नहीँ हैँ?अब
गिने चुने ही सवर्ण देखने को मिलते हैँ .धर्मस्थलोँ व इनके ठेकेदारोँ का
आचरण जरुरी नहीँ ग्रंथोँ के अनुरुप हो ?जरुरी नहीँ इनको सार्वभौमिक ज्ञान
हो ?


ईश्वर का स्मरण क्योँ ?


किसी ने कहा है कि ईश्वर सिर्फ सत्य को पाने का बहाना है.फिर भी,हम पचास
प्रतिशत ब्रह्मांश व पचास प्रतिशत प्रकृतिअंश हैँ.हमारे जीवन का हेतु
पूर्ण तभी है जब हम दोनोँ अंशोँ मेँ समअस्तित्व,समसम्मान व समभोग रखते
हुए दोनोँ की आवश्यकताओँ को समझना चाहिए.अपना सारा जीवन अपने शरीर,अन्य
शरीर,सांसारिक वस्तुओँ आदि मेँ गँवा कर सुख की कामना करना या फिर इसके
साथ साथ ईश्वर,धर्म व अध्यात्म के नाम पर सिर्फ कुछ शारीरिक क्रियाएं
करना मूर्खता है.
मानसिक क्रियाएं व मन प्रबंधन बिना सब निरर्थक है .ईश्वर व अध्यात्म के
लिए अहंकारशून्यता चाहिए.माया मोह लोभ से मुक्ति चाहिए.
स्व का अर्थ है आत्मा या परमात्मा ,जिसका सम्बंध विचार ,ज्ञान ,संकल्प
,स्वपन ,कल्पना आदि के सार्वभौमिक स्तर से है न कि आपके जातीय व मजहबी
शारीरिक आचरणोँ से ?वास्तव मेँ हम ईश्वरभक्त हैँ ही नहीँ.ईश्वरभक्त की
कोई सांसारिक इच्छा नहीँ होती ?हां,वह सुप्रबंधन के लिए परिवार समाज व
विश्व मेँ अपनी शारीरिक हलचल कर सकता है .ईश्वरभक्त होने के लिए
धर्मस्थलोँ,धर्मठेकेदारोँ,जातीय व मजहबी रीतिरिवाजोँ की आवश्यकता जरुरी
नहीँ है .
कस्तूरी मृग की तरह भटकने की जरुरत नहीँ है .


जैन ,बुद्ध , हजरत,कबीर,रहीम,नानक आदि की वाणियां ?

ईश्वरता,धार्मिकता व अध्यात्मिकता समझने के लिए
जैन,बुद्ध,हजरत,कबीर,रहीम,नानक आदि की वाणियां समझना अति आवश्यक है
.हमारा नजरिया इन सबसे हटकर ही है तो कैसी आपकी ईश्वरता,धार्मिकता व
आध्यात्मिकता ?आपतो इनके विपरीत खड़े हो .नानक अपना खेत रखाने जाता है तो
वह अपने खेतोँ मेँ से दाना चुंगती चिड़ियोँ को भगाता नहीँ.हजरत के ऊपर एक
औरत कूड़ा डालती है लेकिन वे उस औरत से नाराज नहीँ होते .उदारता व
अहंकारशून्यता बिना आप हम कैसे ईश्वरता,धार्मिकता व आध्पयात्मिकता
स्वीकारे माने जा सकते हैँ.हमारा हेतु मोझ न रह कर काम है .

ईश्वर ज्ञान से जुड़ेँ ?


हम बच्चे ही होते हैँ ,सांसारिक लालसाओँ मेँ ढकेले जाने लगते हैँ.ईश्वरीय
ज्ञान ,विचार ,भाव आदि से हमेँ दूर ही रखा जाता है .वह कुछ शारीरिक
क्रियाओँ के अतिरिक्त . मानसिक क्रियाएं हमारी शारीरिक ऐन्द्रिक लालसाओँ
मेँ ही लगी होती हैँ .ईश्वरीय ज्ञान हमारे सिर के ऊपर से निकल जाता है
.हम जीवन भर इसी सोँच मेँ रहते हैँ कि हमारे यहां ये होता है ,हमारे यहां
ये नहीँ होता है .क्या हम जानते हैँ कि ईश्वर हमसे क्या चाहता है ?मनुष्य
के बनाये नियमोँ से क्या उसे मतलब है ?कि उसे प्रकृति व मन की स्थिति से
मतलब है?

धर्मस्थलोँ मेँ करोड़ोँ की सम्पत्ति का क्या हो?


ब्राह्मण,धर्मस्थल व धर्मठेकेदारोँ का उद्देश्य धन व सम्पत्तिलोलुपता
नहीँ होता,मैने तो यही सीखा है.क्षत्रीय का उद्देश्य समाज व धर्म की
रक्षा करना होता है.धर्म स्थलोँ मेँ करोड़ोँ की सम्पत्ति व धन है,जिससे
गरीबी मिटायी जा सकती है.इस सम्पत्ति व धन पर किसका अधिकार है?क्या ये
फिर मोहम्मद गजनबियोँ की तलाश मेँ है?या ऐसे शासकोँ की तलाश मेँ जो इस
सम्पत्ति को अपने कब्जे मेँ कर गरीबोँ व विकलांगों को बाँट दे? इस
सम्पत्ति व धन की ईश भक्तोँ ,धार्मिकोँ व आध्यात्मिकोँ क्या जरुरत ?जिसे
इसकी जरुरत है उसे ये बांट नहीँ देनी चाहिए क्या?

महापुरुषोँ की वाणियोँ व ग्रंथोँ के आधार पर क्या इन सवालोँ के जबाब
चाहने के लिए हमेँ अदलात का दरबाजा नहीँ खटखटाना चाहिए?


जैन के त्रिरत्न व पंचमहाव्रतोँ को कैसे भुलाया जा सकता है?बुद्ध के चार
आर्य सत्य,अष्टांगिक मार्ग,दस शील व आचरण को कैसे भुलाया जा सकता है?अब
जो मतभेदोँ मेँ जीते हैँ वे हमेँ जैन या बुद्ध से जोड़कर देख सकते
हैँ.लेकिन सत्य सत्य है चाहे वो आपको किसी भी के पक्ष मेँ जाता दिखाई
दे.
सारी !

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