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रविवार, 12 अप्रैल 2020

महत्वपूर्ण ये नहीं कि कोई आस्तिक है या नास्तिक, महत्वपूर्ण है-हम महसूस क्या करते है? अशोकबिन्दु भइया

महत्वपूर्ण ये नहीं कि कौन।नास्तिक है आस्तिक।महत्वपूर्ण है-व्यक्ति का अनुभव।अनुभव से असल की ओर बढ़ना।क्रांतिकारी भगत सिंह ने आस्तिक नास्तिक से परे हो यथार्थवाद को माना ,सहज मार्ग को माना।जो है सो है।लेकिन वह महसूस होना चाहिए, दिल से होना चाहिए।
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उनका नजरिया किताबों के पाठ्यक्रमों में नहीं रमता।विद्यार्थी सिर्फ वही है जो किताबों के पाठ्यक्रम में अपना नजरिया, चिंतन, मनन करता है ।समाज नहीं प्रकृति, सामजिकता नहीं मानवता, इच्छाओ में नहीं आवश्यकता ,भेद नहीं अभेद, जाति नहीं अपने माफिक व्यक्ति ,नेता नहीं सेवक, राजनीति नहीं सेवा,नशा नहीं वरन अपने लक्ष्य की दीवानगी आदि की ओर अग्रसर  हो वही युवा है।युवा सिर्फ चेतना है।युवा सिर्फ आत्मा है।व्यक्ति की विद्या वही है जो व्यक्ति को विनय शील बनाए और मन की गतिशीलता को आत्मा के गुणों से जोड़े।न कि सिर्फ हाड़मांस शरीर व इंद्रियों की आवश्यकताओं में जीवन गंवा दे,दुनिया की नजर में  बेहतर दिखने की कोशिश करता रहे।चरित्र है।महापुरुष की नजर में जीना न कि सत्तावाद, जातिवाद, पूंजीवाद, पुरोहितबाद, सामन्तवाद आदि का शिकार हो जाना।किसी ने कहा है व्यक्ति के प्रथम मित्र है प्रकृति, पुस्तकें, बच्चे, उत्साहपूर्ण मन, साहसी आत्मा, मानवता,अनुशासन, राज्य सुप्रबन्धन।

धर्म स्थल किसे कहते है?
वह धर्म स्थल नहीं जो संचय करे।

 लेकिन धर्म अपरिग्रह की बात करता है।

हम आज के 99प्रतिशत को शिक्षित नहीं मानते!


भक्ति के दो ही मार्ग हैं-ज्ञान व प्रेम!!ज्ञान ये नहीं कहता हम हिन्दू है या मुसलमान या  हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी !प्रेम तो ज्ञान से भी ऊपर है...सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर!!! भक्ति में तो लोक मर्यादा व कुल मर्यादा भी नही ....भक्त मीरा से तो यही संदेश मिलता है!!!


पं. हरिप्रसाद उपाध्याय खतिवडा

धृति,क्षमा,दमाे स्तेयम्,साैचम्, इन्द्रियनिग्रह,
धी, विद्या, सत्यम, अक्राेध दशकम् धर्मलक्षणम् ।

मनुस्मृतिः
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धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम्॥

धर्म का दश लक्षण छन् - धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न गर्नु, स्वच्छता, इन्द्रियहरू वश गर्नु, बुद्धि, विद्या, सत्य र क्रोध न गर्नु ( अक्रोध ) ।


हमें तो सामने वाले के उन पुस्तकों।महापुरूषो के सन्देशों से मतलब है जिन्हें वह पूजता है।वह भी सिर्फ उसके लिए ही।हमारे लिए नहीं।उसे उन सन्देशों पर चलना चाहिए।

शिक्षित होना तो स्वयं में परंपरागत समाज के लिए खतरनाक व क्रांति पूर्ण है।यदि वह वास्तव में शिक्षित है।हम राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, कबीर,एपी जे अब्दुल कलाम आदि को ही मानते हैं

व्यक्ति के शिक्षित होने का सम्बन्ध व्यक्ति के नजरिया, विचार, भाव, आचरण के स्तर से है।

जिस पन्थ का धर्म स्थल है, उस पन्थ के ग्रंथों को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।अब बात आती है मंदिरों की,मंदिरों को स्वीकर
 करने वालों के ग्रन्थ क्या कहते है?हम इसको नहीं भुला सकते!



योरोप का धार्मिक सुधार आंदोलन में मार्टिन क्या कहते हैं?हमें परमात्मा व ग्रंथो से मतलब है पुरोहित क्या कहते है इससे नहीं!


अभी तक हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे है, भीड़ का धर्म होता ही नहीं।भीड़ का सम्प्रदाय होता है।धर्म ही सिर्फ व्यक्ति का होता है।वह भी व्यक्तिगत, निजी।आत्मा के गुण, नजरिया।।चेतना का स्तर को आगे बिंदुओं पर लें जाना.....


@अशोक कुमार वर्मा बिन्दु



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