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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

वर्तमान समय में धर्म स्थलों का क्या औचित्य:::प्रस्तुति अशोकबिन्दु भैया

मानवता, आध्यत्म के उत्थान में धर्मस्थलों का अब क्या महत्व!!
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""प्रस्तुति अशोकबिन्दु भैया


मानव नहीं होगा तो धर्म स्थलों का क्या औचित्य?समय समय की अलग अलग मांग होती है।हम तो अपने जीवन में धर्म स्थलों को कोई महत्व नहीं देते। वर्तमान में विश्व स्तर पर कोरो-ना संक्रमण ने धर्मस्थलों का क्या महत्व है?जता दिया है।


धर्म स्थलों से ज्यादा धर्म को ,साधु को,सन्त को ,,ब्राह्मण को,धार्मिकता को,आध्यत्म को,मानवता को समझने की जरूरत है। धन संग्रह का धर्म स्थलों, साधु,सन्त, ब्राह्मण को क्या जरूरत? धर्म का एक लक्षण -अपरिग्रह का मतलब क्या है?




'अपरिग्रह' से सुहाना बनता संसार


अनिरुद्ध जोशी 'शतायु' के अनुसार-
योग के प्रथम अंग ‍यम के पांचवे उपांग अपरिग्रह का जीवन में अत्यधिक महत्व है। जैन धर्म में इसे बहुत महत्व दिया गया है। संसार को सहजता और प्रसन्नता से भोगने के लिए अपरिग्रह की भावना होना जरूरी है। इसे सामान्य भाषा में लोग त्याग की भावना समझते हैं, लेकिन यह त्याग से अलग है।

अपरिग्रह को साधने से व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आ जाता है साथ ही वह शारीरिक और मानसिक रोग से स्वत: ही छूट जाता है। अपरिग्रह की भावना रखने वालों को किसी भी प्रकार का संताप नहीं सताता और उसे संसार एक सफर की तरह सुहाना लगता है। सफर में बहुत से खयाल, फूल-कांटे और दृश्य आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनके प्रति आसक्ति रखने वाले दुखी हो जाते हैं और यह दुख आगे के सफर के सुहाने नजारों को नजरअंदाज करता जाता है।

अपरिग्रह का अर्थ है किसी भी विचार, व्यक्ति या वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रखना या मोह नहीं रखना ही अपरिग्रह है। जो व्यक्ति निरपेक्ष भाव से जीता है वह शरीर, मन और मस्तिष्क के आधे से ज्यादा संकट को दूर भगा देता है। जब व्यक्ति किसी से मोह रखता है तो मोह रखने की आदत के चलते यह मोह चिंता में बदल जाता है और चिंता से सभी तरह की समस्याओं का जन्म होने लगता है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि 70 प्रतिशत से अधिक रोग व्यक्ति की खराब मानसिकता के कारण होते हैं। योग मानता है कि रोगों की उत्पत्ति की शुरुआत मन और मस्तिष्क में ही होती है। यही जानकर योग सर्वप्रथम यम और नियम द्वारा व्यक्ति के मन और मस्तिष्क को ही ठीक करने की सलाह देता है।

योग और आयुर्वेद में भाव और भावना का बहुत महत्व है। यदि अच्छे भाव दशा से जहर भी पीया तो अमृत बन जाएगा।

अपरिग्रह : इसे अनासक्ति भी कहते हैं अर्थात किसी भी विचार, वस्तु और व्यक्ति के प्रति मोह न रखना ही अपरिग्रह है। कुछ लोगों में संग्रह करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे मन में भी व्यर्थ की बातें या चीजें संग्रहित होने लगती हैं। इससे मन में संकुचन पैदा होता है। इससे कृपणता या कंजूसी का जन्म होता है। आसक्ति से ही आदतों का जन्म भी होता है। मन, वचन और कर्म से इस प्रवृत्ति को त्यागना ही अपरिग्रही होना है।

इसका लाभ : यदि आपमें अपरिग्रह का भाव है तो यह मृत्युकाल में शरीर के कष्टों से बचा लेता है। किसी भी विचार और वस्तु का संग्रह करने की प्रवृत्ति छोड़ने से व्यक्ति के शरीर से संकुचन हट जाता है जिसके कारण शरीर शांति को महसूस करता है। इससे मन खुला और शांत बनता है। छोड़ने और त्यागने की प्रवृत्ति के चलते मृत्युकाल में शरीर के किसी भी प्रकार के कष्ट नहीं होते। कितनी ही महान वस्तु हो या कितना ही महान विचार हो, लेकिन आपकी आत्मा से महान कुछ भी नहीं।

धर्म किसे कहते हैं?


धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना । परमात्मा की सृष्टि को धारण करने या बनाये रखने के लिए जो कर्म और कर्तव्य आवश्यक हैं वही मूलत: धर्म के अंग या लक्षण हैं । उदाहरण के लिए निम्न श्लोक में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं :-

धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।




धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।

विपत्ति में धीरज रखना, अपराधी को क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन ये छ: उत्तम कर्म हैं और मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये चार उत्तम अकर्म हैं ।

अहिंसा परमो धर्म: सर्वप्राणभृतां वर ।
तस्मात् प्राणभृत: सर्वान् न हिंस्यान्मानुष: क्वचित् ।

अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है, इसलिए मनुष्य को कभी भी, कहीं भी,किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।

न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते ।
तस्माद् दयां नर: कुर्यात् यथात्मनि तथा परे ।

जगत् में अपने प्राण से प्यारी दूसरी कोई वस्तु नहीं है । इसीलिए मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे ।

जिस समाज में एकता है, सुमति है, वहाँ शान्ति है, समृद्धि है, सुख है, और जहाँ स्वार्थ की प्रधानता है वहाँ कलह है, संघर्ष है, बिखराव है, दु:ख है, तृष्णा है ।

धर्म उचित और अनुचित का भेद बताता है । उचित क्या है और अनुचित क्या है यह देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है । हमें जीवनऱ्यापन के लिए आर्थिक क्रिया करना है या कामना की पूर्ति करना है तो इसके लिए धर्मसम्मत मार्ग या उचित तरीका ही अपनाया जाना चाहिए । हिन्दुत्व कहता है -

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वत: ।
नित्यं सन्निहितो मृत्यु: कर्र्तव्यो धर्मसंग्रह: ।

यह शरीर नश्वर है, वैभव अथवा धन भी टिकने वाला नहीं है, एक दिन मृत्यु का होना ही निश्चित है, इसलिए धर्मसंग्रह ही परम कर्त्तव्य है ।

साधु कौन है?सन्त कौन है?ब्राह्मण कौन है?धार्मिकता क्या है₹आध्यत्मिकता क्या है?इनका धन संग्रह करने से कितना सम्वन्ध है?क्या धर्म स्थलों के बिना काम नहीं चल सकता ?इसका उत्तर अब ग्रंथो में खोजने की जरूरत है। हमें खुशी है कि इन दिनों पुरोहितबाद में संलिप्त व्यक्तियों के अलावा शेष सब अब धर्म स्थलों के औचित्य पर सवाल करने लगे हैं।

हम सोच रहे हैं कि योग के आठ अंगों में से पहला अंग-यम को किसी ने आखिर मृत्यु कहा तो क्यों कहा?आचार्य को किसी ने मृत्यु कहा तो क्यों कहा??

लेखक::अज्ञात




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