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बुधवार, 13 अप्रैल 2011

साम्प्रदायिक उन्म��द के दंश बीच सौहार्द!

पूर्व की पोस्ट पर प्रतिक्रिया मेँ
अरविन्द जी ठीक बताया लेकिन
आशुतोष जी मेरी इस बात पर सन्तुष्ट नहीं हैं.उनका कहना भी ठीक है कि जम्मू के आगे देखो.




मैने जो लिखा है ,अपने आस पड़ोस के स्तर पर रोज मर्रे की जिन्दगी का कुछ लम्हा लिखा है.

व्यापक तौर पर नहीँ.

हम लोग रोज मर्रे की जिन्दगी मेँ कुछ मुस्लिमों के साथ भी सहज जिन्दगी जीते है,इतना हिन्दुओं के साथ नहीँ.

होली हो या ईद कुछ गैर हिन्दू व गैरमुस्लिम मिल जुल कर खुशियों का इजहार करते हैँ.





बरेली स्थित नबाबगंज नगरपालिका परिषद द्वार प्रति वर्ष होली व ईद मिलन समारोह का आयोजन होता है.



हाँ,यह सत्य है कट्टरवाद समाज मेँ विष घोलता रहा है.

1 टिप्पणी:

आशुतोष की कलम ने कहा…

"हम लोग रोज मर्रे की जिन्दगी मेँ कुछ मुस्लिमों के साथ भी सहज जिन्दगी जीते है,इतना हिन्दुओं के साथ नहीँ."

1 आप ने कहा---- कुछ मुस्लिमों के साथ... नहीं श्रीमान मैं एक कदम आगे आप के समर्थन में बोलता हूँ ..
हम ९८% मुस्लिमों के साथ सहज ही रहते हैं..वो भी हमारी तरह भारतीय हैं हमारे पूर्वज एक हैं..और हमे आपत्ति नहीं उनसे..
कुछ १-२% हैं जो नाम बदनाम कर रहें है मुस्लिमों का उनको तो भागना होगा इस देश से वो सबसे जायद नुकसान हमारे मुस्लिम भाइयों का ही कर रहें है..

2

ये अतिम शब्द समझ में नहीं आये :"इतना हिन्दुओं के साथ नहीं" : हिन्दुओं के साथ आप ज्यादा आसानी से रह सकते है श्रीमान..
एक उदाहरण देता हूँ आप को ::आप हिन्दू है और आप के सामने एक मकबरा पड़ता है तो आप क्या करते है??? सर झुकाते हैं श्रधा से..ये स्वाभाविक हिन्दू गुण है..
लेकिन क्या सभी मुश्लिम बंधू सर झुका सकते है मदिर के सामने ....नहीं क्युकी उनका धर्म इजाजत नहीं देता..
आप की अंतिम हिन्दुओं वाली पंक्तियों से असहमत हूँ.

आशा है मेरी ये टिपण्णी प्रकाशित होगी..