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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

....काहे को जाति,काहे को समाज ?

जब इंसान ही इंसान के लिए बोझ बनता जा रहा है तो फिर काहे को जाति ,काहे को समाज?पुरातन नेटवर्किंग है-,,.....?!अब वैश्वीकरण व अर्थव्यवस्थता में नई तकनीक ने समीकरण बदले हैं.ब्राह्मण जाति में अपने को मानने वाले चर्म व्यवसाय व अन्य व्यवसायों में नजर आ रहे हैं,समाज में शूद्र माने जाने वाले अब शिक्षित हो पठन पाठन मेँ भी नजर आने लगे हैं .भक्ति काल ,सामाजिक सुधारान्दोलनों के बाद अब धर्म,उपदेशकार्य व सन्तों का सम्मान तो रह गया है लेकिन ब्राह्मणों का अन्य जातियों तरह दैनिक आचरणों व व्यवसायों के कारण ब्राह्मण जाति के सभी व्यक्तियों के सम्मान में कमी आयी है.इंसान के नये वर्ग,समूह,संस्थायें बननी प्रारम्भ हो गयी हैं.पुरातन समूहों वर्गों के प्रति आकर्षण कम हुआ है,अपनी जाति के बीच ही लड़के लड़कियों मध्य आकर्षण,प्रेम व विवाह का भाव कमजोर होता जा रहा है.साम्प्रदायिकता की भावना भी कमजोर पड़ रही है.नैतिक,चरित्र,वैराग्य,ज्ञान,मोक्ष,सेवा,आदि का पक्ष न ले अपने निजस्वार्थ चेहरा देख कर आचरण बनते बिगड़ते हैं.वह कमजोर डण्ठल के पत्तों की तरह हो गया है,जब आँधी आयी तो गिर गया.अब जाति,समाज,पन्थ,आदि का इस्तेमाल भी अपने निजस्वार्थों के लिए बनता बिगड़ता है.भक्ति भी का उद्देश्य मुक्ति,वैराग्य,ज्ञान के लिए नहीं भौतिक लालसाओं के लिए होता है.रोजमर्रे की जिन्दगी में अपनी जाति मजहब के लोग ही विश्वासघात का छुरा भोंपने के लिए तैयार बैठे रहते हैं.यहां तक कि एक परिवार के अन्दर ही चार भाईयों के बीच माँ बाप की उपस्थिति मेँ ही अन्याय शोषण देखा गया देखा जा सकता है,जाति मजहब बौने साबित होते हैं.हाँ, बिखण्डन में सहयोग के लिए अनेक सामने आ जाते हैँ.यहां तक कि चन्द भौतिक लालसाओँ में छोंड़कर पति पत्नी तक एक दूसरे के विरोध में खड़े देखे गये हैं.दोष कलियुग को दिया जाता है.कहते हैं,अभी तो कलियुग घुटनो चल रहा है.






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