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गुरुवार, 25 मार्च 2010

प्रतिष्ठित अध्यापको�� के दंश

किसी ने कहा है कि अध्यापक (ब्राह्मण) समाज का मस्तिष्क होता है.वह भविष्य निर्माता है. ऐसे मेँ यदि कहा जाये कि समाज व देश के कुप्रबन्धन एवं भृष्टाचार के लिए अध्यापक ही दोषी है तो यह कहना गलत न होगा. अध्यापक स्वभाव से ब्राहमण है न कि वैश्य और शूद्र. वर्तमान मेँ 80 प्रतिशत से ज्यादा अध्यापक वैश्य एंव शूद्र हैँ. जिनके कारण शिक्षा का स्तर गिरा हुआ है. शिक्षा व्यक्तित्व -निर्माण का आधार है जो नैतिक- आध्यात्मिक विकास व सात्विक मन- वचन-कर्म के बिना अपूर्ण है.जब सोँच नियति भौतिक हो तो आध्यात्मिक मानवीय गुणोँ की उम्मीद कैसे की जाए?प्रशासन के द्वारा नकल विहीन परीक्षा के लिए सारी की सारी व्यवस्थाएँ सिर्फ बयानबाजी व कागजोँ तक सीमित रह जाती है जिसके लिए पूर्णतया कुछ अध्यापक ही दोषी होते हैँ या विद्यालय प्रबन्ध कमेटी दोषी होती है. कुप्रबन्धन के विरोध मेँ प्रधानाचार्य व कुछ अध्यापक साहस दिखाते भी हैँ तो उन्हे किसी का सहयोग नहीँ मिल पाता.उल्टे दवंग अध्यापकोँ या अभिभावकोँ से प्रभावित होकर या मनमानी के आधार पर या चेहरा देख व्य वहार करने की प्रवृत्ति आदि कारण कोप भाजन के शिकार होते हैँ.शिक्षा जगत से जुड़े मुझे लगभग 14 वर्ष हो गये हैँ मेरा अनुभव कहता है कि शिक्षा जगत से जुड़े 80 प्रतिशत लोग शिक्षा माफिया हैँ जो कि सोँच नियति स्वभाव से ज्ञानी व बुद्धिजीवी नहीँ हैँ .वे आम आदमी से भी ज्यादा गिरे नजर आ सकते हैँ. ऐसी ऐसी अशिष्ट बातेँ करते हैँ जो समाज के गिरे से गिरे व्यक्ति ने अभी तक हम से नहीँ की है. बस,अच्छाई इनमेँ यह है कि यह प्रदर्शन अच्छा कर लेते हैँ. उनके अध्यापक बनने के हेतू मेँ भौतिकता ,वैश्यपन एवं शूद्रता है न कि आदर्शत्मकता,ब्राह्म णता एवं ब्राह्मणता को संरक्षण देने वाली क्षत्रियता.धन के लिए अध्यापक बनते हैँ न कि अध्यापन मेँ रूचि के लिए.


विचारकोँ अन्वेषकोँ आदि का जीवन तलवार की धार पर होता है.वास्तव मेँ जो मस्तिष्क सत्य के अन्वेषण मेँ लग जाता है वह दुनियाँ से अलग थलग पड़ जाता है.उसके जिन्दा रहते दुनिया उसके खिलाफ हो जाती है लेकिन अपनी कमजोरी की ओर नहीँ देखती.असत्य को असत्य कहने पर सब विरोध मेँआ जाते हैँ लेकिन सत्य को कितना न्याय दे पाते हैँ? इन छ: वर्षोँ मेँ जिन मुद्दोँ को लेकर परेशान रहा,उनमेँ से एक मुद्दा है-अनुतीर्ण विद्यार्थी को उत्तीर्ण करना अर्थात ऐसे विद्यार्थी को उत्तीर्ण करना जिससे अधिक अंक रखने वाले अन्याय के शिकार हो जाते हैँ.छ: वर्षोँ पूर्व मेरे साथ यह समस्या नहीँ आयी .अब इन छ:वर्षोँ मेँ मैँ इस मुद्दे पर मार्च आते आते दबाव मेँ आ जाता हूँ.जिन अध्यापकोँ के कारण ऐसा होता है,भाई!वे होशियार हैँ प्रतिष्ठित हैँ, धार्मिक हैँ ,अच्छी सोँच के हैँ....... और मैँ.....?!
मैँ तो ठहरा एक मूर्ख व्यक्ति.भाई!सबकी अपनी अपनी दुनिया है.



शेष फिर....

JAI...HO.....OM...AAMEEN.

6 टिप्‍पणियां:

राम बंसल/Ram Bansal ने कहा…

१. अब कोई ब्राह्मण भारत में नहीं हैं, जो हैं वे सब वामन हैं. वामनावतार का अर्थ छल-कपट का उत्परेरक है..
२. ब्राह्मण रचनाकार थे उनका शिक्षण से कोई विशेष संबंध नहीं था. शिक्षण कार्य प्रत्येक क्षेत्र में उसी क्षेत्र के विशेषाग्यों द्वारा किया जाता था.

alka mishra ने कहा…

इसीलिए तो देश की ये दुर्दशा है
संस्कारहीन नागरिक और अशिक्षित नागरिक देश को कहाँ ले जायेंगे

RAJ SINH ने कहा…

अब शिक्छा व्यवसाय हो गयी है,हर चीज़ की तरह .हम आप कितना भी रो लें.

अच्छा लेख.

आपका स्वागत है.

अजय कुमार ने कहा…

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

संगीता पुरी ने कहा…

इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

रौशन जसवाल विक्षिप्त ने कहा…

लेख अच्छा है जहां तक मैं समझा वैश्य और शुद्र से आपका अभिप्राय कर्म से है ना की जाति से?