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शनिवार, 15 जून 2013

हम भी मुसलमान नहीँ क्या?

हमारा नाम अब्दुल,फहीम,शहबाज आदि नहीँ है.अशोक,सुरेश आदि है.हम मस्जिद
आदि धर्मस्थलोँ पर नहीँ जाते.मुस्लिम रीति रिवाज,वेषभूषा आदि इस्तेमाल
नहीँ करता.तो भी क्या हम मुसलमान नहीँ हो सकते?
हर आत्मा मुसलमान ही है.परमात्मा एक है व उसकी फिलासपी भी एक है.सत्य के
व्यक्त की भाषा चाहेँ कोई भी हो,उस पर खड़े मजहब चाहें कितने भी हो लेकिन
निर्गुण आधार एक ही है.जो मुस्लिम है.मुस्लिम होने से पूर्व सनातन है.एक
प्रश्न है वर्तमान हिन्दू क्या सनातन आधार पर है?क्या उसका नजरिया
भाव,विचार आदि निर्गुण धारामय है?किसी ने कहा है कि यदि मुसलमान शाकाहारी
हो जाए तो हिन्दू से पहले मुसलमान सनातन हैँ .हमारी इस विचार धारा से
<www.vedquran.blogspot.com>के मुस्लिम संस्थापक
हमारे इन विचारोँ से संतुष्ट है .हम कहते रहे हैँ शब्दोँ व वाक्योँ की
भाषा या उसे कहने वाले व्यक्ति पर मत जाओ,शब्द व वाक्य मेँ छिपी फिलासपी
पर जाओ.हमसे कोई पूछे 'हिन्दू' व 'मुसलमान' शब्द मेँ से कौन सा शब्द
स्वीकार्य है?हमारा उत्तर है -'मुसलमान'.हिन्दू शब्द का क्या मतलब
है?मुसलमान शब्द क्या मतलब है?हिन्दू शब्द क्षेत्रीयता का प्रतीक है
लेकिन मुसलमान शब्द एक आध्यात्मिक व आर्य गुण है-सत पर अडिग रहना.हम क्या
सत पर अडिग नहीँ हो सकते ?वेशभूषा,रीतिरिवाज,जाति,मजहब,धर्मस्थल आदि तो
मानव निर्मित हैँ.इनका क्या?महत्वपूर्ण तो व्यक्ति का नजरिया,भाव,विचार
आदि है.

हम कौन हैँ?
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अपने को पहचाने बिना ज्ञान अधूरा है.हम कौन हैँ?जाति मजहब से निकलकर
सार्वभौमिक ज्ञान के आधार पर हमेँ अपना परिचय प्राप्त करना ही चाहिए.हम
सिर्फ हड्डी मांस का बना शरीर नहीँ हैँ .हम व जगत निरन्तर प्रकृति के भोग
मेँ है.प्रकृति के साथ हम व जगत दो समभाग (श्री
अर्द्धनारीश्वर)हैँ-प्रकृतिअंश व ब्रह्मांश.परमात्मांश अर्थात आत्मा से
पहले हम अर्थात आत्मा प्रकृति के साथ चार स्तर पर हैँ-स्थूल,भाव,सूक्ष्म
व मनस जगत.कुदरत व ईश्वर की नजर मेँ हमारी कोई जाति या मजहब या कोई भाषा
नहीँ.


संसारिक माया मोह से निकल:स्वलोक बनाम अन्तर्लोक
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निरा भौतिकवाद या सांसारिक माया मोह या निर्जीव वस्तुओँ से लगाव सिर्फ
मानव जीवन को खूबसूरत नहीँ बना सकता.ईश्वर का द्वार है आत्मा .आत्मा पर
पकड़ बनाये बिना हम ईश्वर तक नहीँ पहुँच सकते.मोहम्मद साहब रमजान के महीने
मेँ हिरा की पहाड़ी पर जाकर सपरिवार रहते थे और खुदा के शरण मेँ रहते थे
संसार को भुलाकर.संसार को भुलाकर अर्थात बाह्य जगत से निकलकर अन्तरजगत या
आत्म जगत मेँ पहुँचना अति आवश्यक है.


'स्व'क्या है?स्व है आत्मा या परमात्मा.हम जीवन भर व्यस्त रहते हैँ
लेकिन सांसारिक वस्तुओँ के लिए ,जिनका सम्बंध स्व से नहीँ है
.रोटी,कपड़ा,मकान आदि का सम्बंध स्थूल शरीर से है अन्तर्शरीर से
नहीँ.अखिलेश आर्येन्दी का कहना है कि प्रभु से प्राप्त ऊर्जा 'स्वलोक'की
ऊर्जा कही जाती है .प्रमाण,विकल्प,विपर्यय,निद्रा व स्मृति के लिये जो
ऊर्जा मिलती है वह सीधे परमपिता परमेश्वर से प्राप्त होती है.स्व क्या
है?स्व है आत्मा या परमात्मा.स्व के करीब हम कैसे पहुँच सकते
हैँ?सांसारिक वस्तुओँ या निर्जीव
वस्तुओँ,शरीर,इन्द्रिय,जाति,मजहब,धर्मस्थल आदि से चिपक कर क्या हम स्व तक
पहुँच सकते हैँ.स्व के लिए कौन जीता है?जिन्दगी निर्जीव वस्तुओँ के लिए
गँवा देते हैँ,पचास साल से ऊपर की उम्र मेँ आते हैँ तो टाँय टाँय
फिस्स.तब महसूस होता है न ही राम का आनन्द लिया न ही माया का .प्रकृति व
ब्रह्म दोनोँ मेँ समभोग आवश्यक है .सिर्फ प्रकृति या ब्रह्म मेँ जीने से
जीवन की सम्पूर्णता को नहीँ जिया जा सकता.हिन्दू पौराणिक दर्शन मेँ श्री
अर्द्धनारिश्वर स्वरुप के पीछे निर्गुण यही है कि प्रकृति व ब्रह्म दोनोँ
के सम अस्तित्व का समसम्मान.

कोई पंथ जब खड़ा होता है?
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जगत का आधार एक ही है .परमसत्ता एक ही है.बस,उसको व्यक्त करने का तरीका
अलग अलग है.सनातन से निकल कर जगत मेँ कुछ भी नहीँ.बस,मानव निर्मित
बस्तुओँ को छोँड़कर.शाश्वत व अनन्त शक्तियां,सार्वभौमिक सत्य,पंच तत्व व
नौ ग्रह आदि से निकल कर कुछ भी नहीँ.


हमारे संज्ञान के आधार पर इस्लाम बड़ी विषंगतियोँ,समस्याओँ व
कामुक समाज आदि के बीच से निकलकर सनातन आधार पर ही हुआ.प्रारम्भिक अवस्था
मेँ वास्तविक इस्लाम मक्का व मदीना मेँ ही था.शेष दुनिया मेँ इस्लाम के
नाम पर भ्रम फैलाया गया.अन्य क्षेत्रोँ मेँ इस्लाम को लेकर जो आगे बढ़े वे
कौन थे व कैसे थे?हमारी नजर मेँ वे काफिर थे? खलीफाओँ के शासन तक सब ठीक
था .आगे लुटेरे शासक होने लगे और लोभवश इस्लाम का झण्डा ले शेष दुनिया
मेँ बढ़ गये.हमारे संज्ञान के आधार पर आज एशिया मेँ इस्लाम का जो स्वरुप
हमारे सामने है वास्तव मेँ यदि खदीजा बेगम जीवित होतीँ तो इस्लाम सच्चे
अर्थोँ मेँ वैदिक धर्म का अंग होता.कुरआन मेँ ओ3म है.


अलिफ=अ=परमात्मा या अल्लाह

लाम=उ=प्रकाश करने वाला या जीवात्मा

मीम=म=कल्याणकारक या प्रकृति


कुरआन के अलिफ लाम मीम का वास्तविक अर्थ यही होना चाहिए था.



श्रीमद्भागवद्गीता ,अध्याय 17 के अनुसार वैदिक सिद्धान्तोँ को मानने
वाले पुरुषोँ की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ (अभियान),दान और तप रुप
क्रियाएं सदा "ओ3म" इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके आरम्भ होती
है,"तत"नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये ही सब कुछ है,ऐसा मानकर
मुक्ति चाहने वाले मनुष्योँ द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर अनेक प्रकार
की यज्ञ (अभियान)और तपरुप क्रियाएं तथा दानरुप क्रियाएं की जाती हैँ
."सत" -ऐसा यह परमात्मा का नाम सत्तामात्र मेँ और श्रेष्ठ भाव मेँ प्रयोग
किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ सत शब्द जोड़ा जाता है .हमारी नजर
मेँ अलिफ लाम मीम का अर्थ भी ओ3म तत सत ही सम्भवत: होना चाहिए .उसी त्री
गुणी या तीन प्रकार के निर्देशित किए जाने वाले परमात्मा को ही पूजो.


"ला ताबूदून इल्लाल्लाह!"
(बकर 83)अर्थात अल्लाह के सिवाय किसी को न पूजो.

--
संस्थापक <
manavatahitaysevasamiti,u.p.>

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