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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

बुजुर्गोँ की उपेक्षा : बुजुर्गोँ का पिछला स���य

पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर बुजुर्गोँ के सामने प्रमुख समस्या बन कर आ रही है - 'बुजुर्गो की उपेक्षा' .जिस पर वर्तमान मेँ मेरा चिन्तन जारी है.बुजुर्गोँ की उपेक्षा के कारणोँ मेँ से एक प्रमुख कारण है-' बुजुर्गोँ का पिछला समय '.आज वे बुजुर्ग अपने जिन बच्चोँ को दोषी मानते हैँ,पिछले दिनोँ उन बच्चोँ के प्रति कैसा व्यवहार किया गया ?इस पर मैने कुछ परिवारोँ के अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष पर जाने का प्रत्यन किया है.
जिन परिवारोँ का नेतृत्व खुशमिजाज व शान्ति पूर्ण वातावरण बनाने का हरदम रहा था ,परिवार के प्रति सदस्य से भावनाओँ का शेयर करना था,एक दूसरे के दुख दर्द,समस्याओँ मेँ हमदर्दी व समर्पण का प्रदर्शन था, समय समय पर डाँट फटकार व स्नेह प्रेम भाव का प्रदर्शन था, एक दूसरे की आवश्यकताओँ व भविष्य के प्रति मदद थी,गैर परिजनोँ के प्रति सेवा सहयोग व त्याग भाव का प्रदर्शन रहा था,जहाँ बड़ोँ के द्वारा बुजुर्गोँ की सेवा करते देखने से छोटोँ के बीच सकारात्मक सन्देश था,आदि; तो ऐसे परिवारोँ मैने शान्तिपूर्ण वातावरण देखा ही,बुजुर्गोँ का सम्मान भी देखा.क्योँ न ऐसे परिवारोँ मेँ आमदनी के संसाधन सामान्य से भी कम रहे होँ.



दूसरी ओर कुछ परिवार हम ऐसे भी देखते आये हैँ जिनके नेतृत्व मेँ निरुत्साह,खिन्नता,कर्कशवाणी,निज स्वार्थ,दबंगता,अभिव्यक्ति अनादर,भावात्मक सम्बन्धोँ का अभाव, एक दूसरे को असन्तुष्ट रखना,वातारण खुशमिजाज व शान्तिपूर्ण न रख पाना,किसी के बात का जबाव शान्तिपूर्ण ढंग से न दे पाना,आदि का होना पाया जाता है.



परिवार का मुखिया होने का मतलब यह नहीँ कि सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए जीना या उसके अनुरूप जीने वालोँ के पक्ष मेँ रहना तथा अन्य परिजनोँ को उपेक्षित कर देना तथा उन पर कमेन्टस कसते रहना .तब तो अपनी ढपली अपना राग.....?!समूह मेँ रहने की योग्यताओँ शर्तोँ का अभाव ?!जब बुजुर्ग जवान थे तब उनकी ओर से बच्चोँ को जो मैसेज मिला -जो सीख मिली, वह यह कि उसी से व्यवहार मधुर रखो जिससे आप का काम बने. अपना काम बनता भाड़ मेँ जाए जनता(परिजन)....?! घर के बाहर मुखिया अपने परिजनोँ की आलोचना कर स्वयं अपने घर को कमजोर करते हैँ .सम्बन्धियोँ की प्रशंसा मेँ अपने पास शब्द नहीँ रखते. त्याग -संयम- समर्पण- आदि की यहाँ भी जरुरत होती है , परिजनोँ की उम्मीदोँ पर खरा उतरना भी आवश्यक है.किसी ने कहा है कि माता पिता के बच्चो के प्रति कर्त्तव्य हर हालत मेँ अनिवार्य हैँ,बच्चोँ के माता पिता के प्रति कर्त्तव्य उनके संस्कारोँ पर निर्भर करते हैँ.अभी तक तुम परिजनोँ को घुटन ,निरूत्साह,द्वेषभावना ,मतभेद,निष्ठुरता,आदि मेँ रह कर व्यवहार करते रहे. अब जब तुम बुजुर्ग हो तो कहते हो बच्चे अब हमारे काम नहीँ आते?जब आप जवान थे तो काम मेँ थे. अपनी धुन मेँ थे. अरे!बच्चोँ की क्या समस्याएँ ?बच्चे खामोश हो घुट घुट जीते रहे.तुम्हारे प्रति अब वे खिन्नता मेँ जीने लगे है. बबूल बो के आम की उम्मीद कैसे रखो?तुम जब खिन्नता, द्वेष भावना, निरूत्साह, आदि परोसते रहे तो.....?!बच्चे तुमने पैदा थोड़े किये थे ,वे तो आ टपके. ओशो ने ठीक ही कहा है कि नयी पीढ़ी के स्वागत मेँ हमारी तैयारी क्या होती है? वे क्या मूर्ख थे जिन्होँने 'गर्भाधान' शब्द के साथ 'संस्कार' शब्द जोड़ कर 'गर्भाधानसंस्कार' अवधारणा की उत्पत्ति की.शादी व परिवार का उद्देश्य धर्म बताया .काम व अर्थ का परिणाम क्या होता है?तुम तब भी उम्मीद रखते थे अब भी उम्मीद रखते हो.तुम यही चाहते रहे थे कि हम से कोई उम्मीद न रखे.ऐसा कैसे हो सकता था?हर व्यक्ति का समय होता है.चलो आज बुजुर्ग हो कोई बात नहीँ,इससे पहले बच्चोँ के स्वास्थ्य का भी ख्याल नहीँ रखा.बच्चोँ के इलाज के लिए धन व समय नहीँ था. गाँव मेँ जा बुजुर्गोँ को देखने का समय न था . शहर मेँ इमारतोँ को खड़ा करने के लिए धन व समय था.जब तुम को बच्चोँ व बुजुर्गोँ कुशल क्षेम के लिए समय व धन न था तो आज तुम्हारे बच्चे तुम्हारे पथ पर है तो क्या गलत?


कुल मिला कर मैँ नई पीढ़ी के लिए मैँ पुरानी पीढ़ी को ही दोषी मानता हूँ.वह ही आज अपनी पुरानी संस्कृति का संवाहक नहीँ है.वैदिक संस्कृति मेँ हर समस्या का निदान है.

किसी ने ठीक ही कहा है-

रोज घुट घुट मर कर जिन्दा हैँ

अपनोँ के बीच ही
अकेलापन सहते हैँ

उनका मलहम भी दर्द देते हैँ

इससे तो अच्छी अनजान गलियाँ हैँ

अपनोँ से अच्छे पराये लगते हैँ.

1 टिप्पणी:

arvind ने कहा…

अपनोँ के बीच ही
अकेलापन सहते हैँ
उनका मलहम भी दर्द देते हैँ...vaah kyaa baat kahi hai.