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गुरुवार, 3 जनवरी 2013

साहब के आगे व घोड़े के पिछाड़ी....

भारतीय समाज मेँ एक कहावत प्रचलित है कि साहब के आगे व घोड़े के
पिछाड़ी कभी नहीँ चलना चाहिए.आखिर ऐसा क्योँ ?भारत मेँ मैने साहब लोगोँ को
चापलूसोँ व हाँहजूरोँ से घिरा देखा है?किसी के साहब होने का मतलब ये नहीँ
है कि वह ईमानदार,निष्पक्ष ,न्यायप्रिय ,अन्वेषणी ,उदार आदि नियति व
नजरिया से भी होँ .सत्य की खोज मेँ लगे व्यक्ति की बातोँ को बर्दाश्त
करने की क्षमता साहब रखता हो या प्रजातांत्रिक प्रणाली को स्वीकार करता
हो.साहब यदि आम को बबूल कहते हैँ तो बबूल कहना ही पड़ेगा.जो आम को बबूल या
बबूल को आम नहीँ कह सकता उसे साहब कैसे बर्दाश्त कर सकते है
.प्रजातांत्रिक मूल्योँ के अभी भी साहब लोग सामन्तवादी व्यवस्था के
प्रतीक हैँ .वे कुछ भी करेँ या चापलूसी व हाँहजूरी मेँ लगे लोगोँ से वे
चाहेँ कुछ भी करवाये ,उससे तुम्हेँ क्या?पब्लिक भी प्रजातान्त्रिक
मूल्योँ को ताख मेँ रख सामंतवादी मानसिकता से ग्रस्त हो साहब व उनके
चापलूसोँ तथा हाँहजूरोँ के गैरसंवैधानिक व नियम विरुध आचरण के खिलाफ
बोलना पाप समझती है .ऐसे मेँ सूचना पाने का अधिकार इन सामंतवादियोँ की
नजर मेँ अनुचित है .दाऊ के संग रहना है तो दाऊ को तो सहना ही होगा.विधायक
जी ने नौ करोड़ रुपया पिछले विधानसभा सत्र मेँ कहाँ कहाँ लगाया ये पूछना
हमारे हक मेँ नहीँ .पब्लिक व अधिकारी ही सिर पर जूते मारेँगे.दाऊ को सहो
बस ,साहब को सहो बस .सहते कितने हैँ ?दाऊ व साहब अपना उल्लू सीधा करते
हैँ .लोग भी अपना उल्लू सीधा करते हैँ .हम अपना उल्लू सीधा नहीँ कर सकते
तो इसमेँ हमारा ही दोष है न.और फिर लक्ष्मी का वाहन उल्लू ही है ,भूल
जाते हम .क्योँ ठीक कहा न ?

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संस्थापक <
manavatahitaysevasamiti,u.p.>

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