Powered By Blogger

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

कथा:परिदंश

सरिता एक तलाकशुदा युवती थी.जो कि बेसिक स्कूल मेँ अध्यापिका थी.वह स्वयं जिला मुख्यालय बरेली मेँ रहती थी और अपने चार वर्षीय पुत्र को नबाबगंज मेँ अपने माता पिता के पास छोँड़ रखा था.




नबाबगंज स्थित मकान मेँ प्रवेश करते हुए वह बोली-"अब तो रुपया ही काम आता है.मैँ तो रिश्तेदारोँ से कोई मतलब नहीँ रखूँगी.वे अपोजिट लोगोँ के ज्यादा काम आते हैँ."


अम्बेडकर पुण्य तिथि के कारण अवकाश होने के कारण मैँ भी आया हुआ था.सरिता मेरे पिता जी की सबसे छोटी सन्तान व मेरी बहिन थी.कुछ देर बाद मेरा छोटा भाई अवनीश भी मोटरसाईकिल से आ पहुँचा था.


सरिता बोली कि मैँ तो अब एस सी कास्ट मेँ शादी करूगी,फिर मैँ उन पर दहेज एक्ट लगवाऊँगी.


अवनीश बोला कि लड़का है, लड़के की परवरिश करो और.....



"अरे ,इसका क्या भरोसा.मुझे अपना जीवन बर्बाद थोड़ी ही करना."


मैँ बोल दिया "भविष्य के प्रति शंकाएँ वर्तमान मेँ भी शान्ति से जिया नहीँ जाता.ईश्वर प्रति विश्वास नहीँ.बस,शंकाएँ भ्रम अविश्वास निष्ठुरता निज स्वार्थ कटु वचन मतभेद और....."



" ईश्वर ने क्या किया देखा नहीँ पिछले दिनोँ ....."



" ईश्वर भी क्या करे ?ईश्वर ने दिमाग दिया दिल दिया उसका जब उपयोग नहीँ करोगे तो क्या होगा?जिन घटनाओँ के कारण उपस्थित होँगे वही घटनाएँ घटेँगी.अविश्वास कटुवचन भ्रम शंका आदि के परिणाम क्या सब अच्छे ही घटेँगे?"



जहाँ व्यक्ति की कोई अहमियत नहीँ ,मन अशान्त व निष्ठुर है,व्यक्ति की आय कपड़े भोजन के स्तर की ही सिर्फ व्यलू है तो क्या होगा.


जब परिवार का मुखिया ही ऐसी परिस्थितियाँ बनाए हो तो .....?!मुखिया होने के दायित्व न निभा कर द्वेषभावना मनमानी कायरता अपनी धुन मेँ जीने का परिणाम क्या होगा?ऐसे मेँ यदि बाहरी व्यक्ति फायदा उठाए या परिवार को बिखेरने का काम करे तो इस पहले परिवार का ही दोष है.परिवार के सदस्य यदि मिलजुल कर प्रेम से रहेँ तो किसी की क्या मजाल परिवार पर दृष्टिपात करने की.



11दिसम्बर,ओशो जन्म दिवस. मै अब बिलसण्डा मेँ अपने कमरे पर था.रात्रि के दो बज रहे थे.कम्पटीशन की तैयारी क्या?अशान्त मन क्या प्रेरणा दे सकता है?मैने नेट हिन्दी की किताब एक तरफ रख दी और गीता पुस्तक उठा ली.



परिवार के अन्दर माता पिता जब अशान्ति मनमानी द्वेष भावना आदि परोसेँ तो क्या हो?रोटी कपड़ा मकान के सिवा भी और कुछ चाहिए.



*** ***




अब परिवार के अन्दर विवाह करके लायी गयीँ बहुएं भी पारिवारिक अशान्ति का कारण बनी हुई हैँ.हमेँ देखने को मिलता है कि बहुओँ मेँ यह भावना खत्म होती जा रही है कि मैँ जिस परिवार मेँ व्याह कर आयी हूँ,अब मेरा परिवार है.यदि कुछ बुरा भी लगता है तो उसे मैँ प्रेम से धीरे धीरे बदलूँगी यदि बदल भी न पायी तब भी कोई बात नहीँ.मैँ तो अब आयी हूँ इस परिवार मेँ.एक दम सब कुछ बदलने को रहा और फिर मैँ स्त्री नहीँ जो परिवार को अपने हिसाब से अपने व्यवहारोँ के माध्यम से बाँध न सकूँ.दहेज वहेज एक्ट को अपना हथियार बनाना हमारी कमजोरी को दर्शाता है.






परिवार के सदस्योँ मेँ भी सामञ्जस्य न बैठा पाने की कमी हो सकती है.परिवार का मतलब भी क्या होता है?सामञ्जस्य के बिना परिवार क्या परिवार?लेकिन जब माता पिता ही किसी के साथ न्याय न कर पाएं और मनमानी से ग्रस्त होँ तो कोई परिजन किसी बाहरी का समर्थन ले तो इसमेँ क्या दोष?यदि दोष है तो पहले परिवार के मुखिया का.



सोँचते सोँचते सुबह के चार बज गये.मकान के बाहर कुछ लोगोँ ने मुझे आवाज दी.मैँ उनके साथ इण्टर कालेज मेँ जा पहुँचा जहाँ आर एस एस के स्वयंसेवकोँ का कार्यशाला शिविर आर एस एस के सौ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य मेँ लगा था.

कोई टिप्पणी नहीं: