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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

अशोकबिन्दु :: दैट इज...?! पार्ट 15

 आर्य समाज और हम::अशोकबिन्दु




आधुनिक भारत के इतिहास में आर्य समाज का बड़ा महत्व है ही हमारे जीवन में भी आर्य समाज का बड़ा महत्व है।


10 अप्रैल 1875,गिरगांव, मुम्बई!आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने मथुरा के स्वामी विरजानन्द की प्रेरणा से की।आर्य समाज का आदर्श वाक्य है-कृवन्तो विश्वमार्यम।मूल ग्रन्थ है-सत्यार्थ प्रकाश। हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में सर्वप्रथम स्वामी दयानंद सरस्वती ने ही देखा व उसका प्रचार किया। 


सन 1875 से पूर्व और बाद कि स्थिति का अध्ययन करें तो,पता चलता है कि देश के अंदर राष्ट्रीय आंदोलन का माहौल बनाने व भारतीयों को महापुरुष बनने की प्रेरणा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आर्य समाज से ही मिली।

30 अक्टूबर 1883 को अजमेर में स्वामी दयानंद सरस्वती की हत्या के बाद भी आर्य समाज उन युवकों को प्रभावित करता रहा था जो देश में विभिन्न स्तर पर परिवर्तन चाहते थे। हालांकि इससे पूर्व बंगाल में 1828 में द्वारकानाथ टैगोर व राजा राम मोहन राय समाज सुधार व ब्रह्म समाज की स्थापना कर चुके थे। जिनकी मृत्यु 27 सितम्बर 1833 में हो चुकी थी। हम तो यही कहेंगे कि 1916 महात्मा गांधी की सक्रियता से पूर्व आर्य समाज किसी न किसी रूप से प्रत्येक आंदोलन ,महापुरुष, क्रांतिकारी, व्यक्तियों को प्रभावित करता ही रहा था।आगे भी अनेक को प्रभावित करता रहा, विशेष रूप से उनको जो समाज में परिवर्तन चाहते थे।

वैचारिक स्तर,समझ आदि को अन्य स्तरों पर बढ़ाने में बचपन व किशोरावस्था में आर्यसमाज,शांति कुंज व सम्वन्धित व्यक्तियों की समीपता का बड़ा महत्व रहा। हवन आदि कर्मकांडों पर तो हमने ध्यान न दिया लेकिन अनेक कुरीतियों आदि प्रति अपने विचार बनाने का अवसर मिला। हालांकि इसमें कबीर के दोहे, बुद्ध के जीवन की घटनाएं भी सहायक रही। खानदान में हमसे पूर्व पिता जी की किशोरावस्था में भी आर्यसमाज  से समीपता का असर रहा। पिता जी के पिता जी अर्थात हमारे बाबा तभी दुनिया से गुजर गए थे जब जब पिता जी पांच वर्ष के थे।पिता जी को अपने पिता जी का होश(जानकारी या याददाश्त) नहीं रही थी। उनका बचपन, किशोरावस्था व जवानी बड़े संघर्ष में बीती। हालातों, अग्रिम स्तरों पर पहुंचने के लिए गांव का उन्होंने त्याग कर दिया। गांव के त्याग किए बिना उनका काम भी नहीं चल रहा था।और फिर गांव  में खानदान की तामसी प्रवृत्ति , तामसी भोजन, हवन में बलि आदि की परंपरा पिता जी को अखरती रहती थी।ऐसे में गांव त्याग व आर्यसमाज,शान्तिकुंज से समीपता ने अनेक सुधार किए।खानदानी परम्पराओं से दूरी बड़ी।


कालेज जीवन तक हम आर्यसमाज में आना जाना रखते रहे। अन्य संस्थाओं आर एस एस,विद्या भारती,जयगुरुदेव, निरंकारी समाज आदि से सम्बद्ध व्यक्तियों से भी सम्पर्क में हम रहे हैं। ईश्वर एक है,उसका दर्शन एक है,उसकी सत्ता एक है,मानवता एक है,विश्व बंधुत्व एक है....आदि आदि ऐसे में हम अपने 11-12 क्लासेज के दौरान ही एक वैश्विक  आध्यात्मिक साझा मंच की कल्पना करने लगे थे। 'विश्व को आर्य बनाने '- का मतलब हमारे लिए ये था कि मानव समाज को आध्यत्म व मानवता से जोड़ना। विश्व व प्रकृति में कोई समस्या नहीं है,समस्या तो मानव समाज में है। जातिवादी पुरोहित व्यवस्था  से दूर रहने के लिए हमारे लिए आर्य समाज  काफी सहयोगी रहा है।

#अशोकबिन्दु
@विश्व हिंदी आध्यत्म साझा प्रचारक

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