शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010
काँग्रेस के 125 वर्ष:आज��दी के बाद चरित्र
देश के आजादी के बाद गांधी जी कांग्रेस को भंग कर देना चाहते थे लेकिन कांग्रेस के प्राण तो कहीँ ओर जगह टिके थे.किसी ने क्या यह ठीक नहीँ कहा कि सौ साल बाद लोग कांग्रेस को गाली देँगे.
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
ऊपर ईश्रू नीचे मिश्रू !
मैँ किसी भी परिवार,जाति,सम्प्रदाय,देश,आदि के खिलाफ नहीँ हूँ.यहाँ भ्रम,शंका,अफवाह आदि मेँ लोगोँ का चरित्र ही बदल डाला जाता है.एक ब्राह्मण जाति का व्यक्ति मुझसे कहता है कि आप तो ब्राह्मणोँ के विरोधी हैँ?उसकी कुछ ब्राह्मण सुन उसका ही पक्ष लेते हैँ.मेरे मन मेँ क्या है?वे क्या जाने?हम बचपन से ही झूठ बर्दाश्त करते आये हैँ.हर व्यक्ति भ्रम ,शंका मेँ जीता है.
व्यक्ति व देश के पतन के लिए कौन से कारण उत्तरदायी होते हैँ?इस पर ईमानदारी से चिन्तन आवश्यक है.घर या देश के विखराव के लिए वास्तव मेँ नेतृत्व ही दोषी रहा है.व्यक्तिगत नजरिये से जब परिवार देश व समाज के हित का प्रदर्शन होगा तो क्या होगा?दिखावी झूठी शान के लिए तो सब कुछ करने लिए तैयार रहे है लेकिन व्यक्ति के दर्द पर मरहम के नाम पर दर्द ही दिया गया.
रोज मर्रे की जिन्दगी मेँ हिन्दू हिन्दू के नाम हिन्दू के साथ क्या करता है ? 13 सौ वर्ष पहले देश पर कौन सी जातियां थीँ?इन 13 सौ वर्षोँ मेँ देश व हिन्दू समाज के बीच जो समीकरण बने ,इसके लिए कौन दोषी है?मैँ हिन्दू सवर्णोँ को दोषी मानता हूँ.अपने घर या जाति या सम्प्रदाय या देश से ऊब कर या परेशान होकर दूर चला गया तो क्या यह नेतृत्व की कमी नहीँ ? नेतृत्व एक सभी को एक सूत्र मेँ पिरोने मेँ असफल क्योँ रहा? वह तो देश के आजादी के वक्त सरदार पटेल की प्रशासनिक क्षमता ने देश को वर्तमान स्वरूप दे दिलवा दिया नहीँ तो यह देश अनेक देशोँ मेँ विभक्त होता.हिन्दू का मन अनेक द्वेषभावनाओँ व मतभेदो से घिरा है ,वास्तव मेँ उसमेँ समाज को एकसूत्र मेँ पिरोने की क्षमता से दूर होता जा रहा है.कुछ विशेषज्ञ कह ही रहे हैँ कि देश के हालात न सुधरे तो देश मेँ कुछ भी हो सकता है.असन्तुष्टि व द्वेषभावना का परिणाम क्या हो सकता है?विहिप,आर एस एस,हिन्दू महासभा,आदि ठीक ही कहते हैँ कि हिन्दू जगा तो देश जगा लेकिन कैसे?इसमेँ सवर्णोँ की क्या भूमिका विशेष कर ब्राह्मणोँ की?उन्हेँ अपने आचरणोँ दलितोँ पिछड़ोँ का दिल जीतना ही चाहिए? सामाजिक एकता के लिए उन्हेँ पहल करना ही चाहिए.यह अच्छा है कि भावी कल्कि अवतार ब्राहमण पुत्री से होगा लेकिन इससे पूर्व भी समाज के उद्धार के लिए प्रयत्न होने चाहिए.
यह अच्छा है -"ऊपर ईश्रू नीचे मिश्रू"
जैसा की मै कुछ ब्राह्मणोँ के मुख सुनता आया हूँ.
अब से पूर्व का इतिहास खून से सना है.जिन(इन्द्रियोँ को जीतने वाले)अर्थात जैनी , बौद्धोँ,मसीहोँ,आदि का धर्म ही वास्तव मेँ धर्म है.कम से कम प्रदर्शन मेँ तो है ही.भड़कने व भड़काने वालोँ से
दुनिया को अल्हा(यल्ह) बचाए.
किसी ने कहा है कि पश्चिम की नस्लेँ भारतीय नस्लोँ से बेहतर होती हैँ.पश्चिम के पुरोहितोँ(पादरियोँ )ने सेवा की हमारे पुरोहितोँ ने सेवा करवायी,उन्होँने दुर्गम क्षेत्रोँ मेँ जा कर भूखोँ नंगोँ को गले लगाया,जिन असाध्य रोगियोँ को हम अपने गांव व घर से बाहर निकालते गये वे उन्हेँ गले लगाते गये,आदि आदि.हमारे एक मिलने वाले कहते हैँ कि हमारे अवतारोँ पुरखोँ ने खून की कोई कीमत नहीँ समझी ,हाँ गंगा के जल को जरुर महत्व दे दिया लेकिन उसको भी स्वच्छ नहीँ रख सके.मैँ भारत मेँ आक्रमणोँ का इतिहास हिन्दुओँ के कमजोरियोँ का इतिहास मानता हूँ.आतंकवादियोँ,नक्सलियोँ,आदि अलगाववादियोँ का इतिहास हिन्दू कमजरियोँ का इतिहास मानता हूँ .मैँ आक्रमणकारियोँ आतंकवादियोँ नक्सलियोँ आदि को दोषी नहीँ मानता,उनका जो लक्ष्य है वे उसके हिसाब से चल रहे है लेकिन हम सब का क्या लक्ष्य है?लोगोँ को अपने जोड़ना कि अपने से तोड़ना ? देश को अपने इतिहास पर पुनर्विचार कर कमजोरियोँ को जान उनकोँ दूर करने की आवश्यकता है.
बुधवार, 15 दिसंबर 2010
किसान दिवस :किसान दुर��दशा
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि दुनिया को बर्बाद करने वाली दो ही शक्तियाँ हैँ-पूँजीवादी व सत्तावादी.ऐसे मेँ श्रम के आधार पर संसाधनोँ का वितरण कैसे हो ? श्रमिक व किसान वर्गोँ को लेकर राजनीति तो खूब होती रही है,सड़केँ जाम होती रही हैँ लेकिन मौके पर सब अंगूठा दिखाते रहे हैँ.बरेली मण्डल मेँ किसान नेता वी एम सिँह की प्रशन्सा करने वालोँ की कमी नहीँ है लेकिन इलेक्शन मेँ सभी जाति बिरादरी ,मजहब,आदि मेँ जनता बंट जाती है. वास्तव मेँ जनता अपने निजी स्वार्थ मेँ सब कुछ भूल जाती है.
किसानोँ के हित मेँ आखिर सम्पूर्ण क्रान्ति कैसे सम्भव हो ?किसानोँ के हित मेँ अभी काफी कुछ होना बाकी है.जिसके लिए कुछ कर गुजरने वालोँ की कमी नहीँ है लेकिन उनके साथ जनता खड़ी नहीँ दिखती है.जनता तो बस सत्ता के पक्ष मेँ या विपक्ष मेँ खड़ी होती है.पक्ष व विपक्ष मेँ कोई फर्क नहीँ दिखता.विपक्ष जिस बात को लेकर बवाल मचाता है ,वह सत्ता मेँ आने पर उसी को खुद बढ़ावा देता है.पक्ष विपक्ष की राजनीति से हट कर जो नेता किसानोँ आदि की समस्याओँ पर खड़े होना चाहते हैँ उनके साथ जनता त्याग व साहस के साथ खड़ी नहीँ होती. किसान जनता गाँव मेँ निवास करती है,जहाँ का राजनैतिक वातावरण अब भी काफी गन्दा है.जहाँ ईमानदारी से एक जुट हो जनता अपने गाँव के हित मेँ तक सामञ्जस्य नहीँ बैठा पाती.
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
कथा:परिदंश
नबाबगंज स्थित मकान मेँ प्रवेश करते हुए वह बोली-"अब तो रुपया ही काम आता है.मैँ तो रिश्तेदारोँ से कोई मतलब नहीँ रखूँगी.वे अपोजिट लोगोँ के ज्यादा काम आते हैँ."
अम्बेडकर पुण्य तिथि के कारण अवकाश होने के कारण मैँ भी आया हुआ था.सरिता मेरे पिता जी की सबसे छोटी सन्तान व मेरी बहिन थी.कुछ देर बाद मेरा छोटा भाई अवनीश भी मोटरसाईकिल से आ पहुँचा था.
सरिता बोली कि मैँ तो अब एस सी कास्ट मेँ शादी करूगी,फिर मैँ उन पर दहेज एक्ट लगवाऊँगी.
अवनीश बोला कि लड़का है, लड़के की परवरिश करो और.....
"अरे ,इसका क्या भरोसा.मुझे अपना जीवन बर्बाद थोड़ी ही करना."
मैँ बोल दिया "भविष्य के प्रति शंकाएँ वर्तमान मेँ भी शान्ति से जिया नहीँ जाता.ईश्वर प्रति विश्वास नहीँ.बस,शंकाएँ भ्रम अविश्वास निष्ठुरता निज स्वार्थ कटु वचन मतभेद और....."
" ईश्वर ने क्या किया देखा नहीँ पिछले दिनोँ ....."
" ईश्वर भी क्या करे ?ईश्वर ने दिमाग दिया दिल दिया उसका जब उपयोग नहीँ करोगे तो क्या होगा?जिन घटनाओँ के कारण उपस्थित होँगे वही घटनाएँ घटेँगी.अविश्वास कटुवचन भ्रम शंका आदि के परिणाम क्या सब अच्छे ही घटेँगे?"
जहाँ व्यक्ति की कोई अहमियत नहीँ ,मन अशान्त व निष्ठुर है,व्यक्ति की आय कपड़े भोजन के स्तर की ही सिर्फ व्यलू है तो क्या होगा.
जब परिवार का मुखिया ही ऐसी परिस्थितियाँ बनाए हो तो .....?!मुखिया होने के दायित्व न निभा कर द्वेषभावना मनमानी कायरता अपनी धुन मेँ जीने का परिणाम क्या होगा?ऐसे मेँ यदि बाहरी व्यक्ति फायदा उठाए या परिवार को बिखेरने का काम करे तो इस पहले परिवार का ही दोष है.परिवार के सदस्य यदि मिलजुल कर प्रेम से रहेँ तो किसी की क्या मजाल परिवार पर दृष्टिपात करने की.
11दिसम्बर,ओशो जन्म दिवस. मै अब बिलसण्डा मेँ अपने कमरे पर था.रात्रि के दो बज रहे थे.कम्पटीशन की तैयारी क्या?अशान्त मन क्या प्रेरणा दे सकता है?मैने नेट हिन्दी की किताब एक तरफ रख दी और गीता पुस्तक उठा ली.
परिवार के अन्दर माता पिता जब अशान्ति मनमानी द्वेष भावना आदि परोसेँ तो क्या हो?रोटी कपड़ा मकान के सिवा भी और कुछ चाहिए.
*** ***
अब परिवार के अन्दर विवाह करके लायी गयीँ बहुएं भी पारिवारिक अशान्ति का कारण बनी हुई हैँ.हमेँ देखने को मिलता है कि बहुओँ मेँ यह भावना खत्म होती जा रही है कि मैँ जिस परिवार मेँ व्याह कर आयी हूँ,अब मेरा परिवार है.यदि कुछ बुरा भी लगता है तो उसे मैँ प्रेम से धीरे धीरे बदलूँगी यदि बदल भी न पायी तब भी कोई बात नहीँ.मैँ तो अब आयी हूँ इस परिवार मेँ.एक दम सब कुछ बदलने को रहा और फिर मैँ स्त्री नहीँ जो परिवार को अपने हिसाब से अपने व्यवहारोँ के माध्यम से बाँध न सकूँ.दहेज वहेज एक्ट को अपना हथियार बनाना हमारी कमजोरी को दर्शाता है.
परिवार के सदस्योँ मेँ भी सामञ्जस्य न बैठा पाने की कमी हो सकती है.परिवार का मतलब भी क्या होता है?सामञ्जस्य के बिना परिवार क्या परिवार?लेकिन जब माता पिता ही किसी के साथ न्याय न कर पाएं और मनमानी से ग्रस्त होँ तो कोई परिजन किसी बाहरी का समर्थन ले तो इसमेँ क्या दोष?यदि दोष है तो पहले परिवार के मुखिया का.
सोँचते सोँचते सुबह के चार बज गये.मकान के बाहर कुछ लोगोँ ने मुझे आवाज दी.मैँ उनके साथ इण्टर कालेज मेँ जा पहुँचा जहाँ आर एस एस के स्वयंसेवकोँ का कार्यशाला शिविर आर एस एस के सौ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य मेँ लगा था.
मंगलवार, 7 दिसंबर 2010
11दिसम्बर1931:ओशो जन्म
" अन्या ! तुम भी,अभी तक मैने तुम जैसी जवान लड़की नहीँ देखी.अभी से आत्मसाक्षात्कार के चक्कर मेँ पढ़ गयीँ. यह तुम्हारा दोष नहीँ,स्वामी सागर मग्न से तुम्हारे मोह का परिणाम है.सारी दुनिया उसे पागल मानती है,तू जैसे कुछ लोग ही उसके चक्कर मेँ पड़े हैँ."
"तुम्हारे कांग्रेसी ब्राह्मण यदि जातिपाति - छुआ छूत आदि का विरोध करेँ तो मैँ भी कांग्रेसी हो जाऊँ."
"कांग्रेसी ब्राह्मण कोई लिए थोड़े ही है?"
"तो ऐसे कांग्रेसियोँ से कोई मतलब नहीँ."
" गोखले के'भारत सेवक समाज ' से तुम जुड़ी हो ,यह इतिहास मेँ गुम हो जाएगा."
"जाओ तुम गांधी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन मेँ अहुतियाँ लगाओ जाकर.(फिर मुस्कुराना)"
12नवम्बर 1930 को प्रथम गोलमेज सम्मेलन प्रारम्भ हुआ.दूसरी ओर कुचबाड़ा गाँव के समीप जंगल मेँ स्थित एक मठ मेँ स्वामी सागर मग्न अन्या भारती को बता रहे थे कि वह अब इस दुनिया मेँ आने वाला है. 10या11दिसम्बर तक वह आ जाएगा.
अन्या भारती जब चली गयी तो एक अधेड़ साधु बोला -
"आप इन शूद्र जाति के लोगोँ को मुँह क्योँ लगाते हो ? "
"आप शूद्र हो कि अन्या ?आप जन्म जात ब्राह्मण हो कर भी शूद्रता का प्रदर्शन करते हो, आप ईमानदारी से अन्वेषण करो कि अन्या क्या शूद्रता का कभी प्रदर्शन किया है?और अपने मन मेँ जरा झांको कितनी शूद्रता भरे पड़े हो?वह अभी तक हर स्तर पर खरी उतरी है."
11दिसम्बर 1931को मध्य प्रदेश के एक गाँव मेँ एक बालक का जन्म हुआ.एक पागल बाबा उसके मोहल्ले मेँ तथा स्वामी सागर मग्न के पास आने जाने लगा .
पहला गोलमेज सम्मेलन 19 जनवरी को समाप्त हो चुका था.जिसकी असफलता का श्रेय हिन्दू महासभा व सिक्ख प्रतिनिधियोँ दिया जा रहा था.
सम्मेलन की समाप्ति पर प्रधानमन्त्री द्वारा घोषणा मेँ कहा गया कि भारत मेँ अखिल भारतीय संघ को स्थापित किया जाए.भारतीय शासन का उत्तरदायित्व विधान सभाओँ को दिया जाएगा,साथ ही अल्पसंख्यकोँ के हितोँ की सुरक्षा हेतु उचित व्यवस्था की जाएगी.प्रतिरक्षा,विदेश विभाग तथा संकटकालीन अधिकारोँ को छोड़ कर अन्य सभी मामलोँ मेँ केन्द्र की कार्यकारिणी को व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी बनाया जाएगा.प्रान्तो मेँ पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना की जाएगी.साम्प्रदायिक समस्या के सम्बन्ध मेँ आशा व्यक्त की गई कि विभिन्न सम्प्रदाय इसका निवारण स्वयं कर लेँगे .
"हूँ,सम्प्रदाय स्वयं निवारण कर लेँगे?"
एक अन्य युवती अन्या भारती से बोली-" अन्या! दुनिया को एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता है जिसमेँ विश्व के सभी सम्प्रदायोँ के समान तत्व व महापुरुष शामिल होँ ."
"स्वामी जी कहते हैँ कि कुचबाड़ा मेँ जो नवजात शिशु है न,उसके प्रवचनोँ का संकलन कुछ ऐसा ही होगा"
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शनिवार, 4 दिसंबर 2010
भीम राव अम्बेडकर पुण��य तिथि
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
03दिसम्बर1889ई0:खुदी राम ��ोस जन्म दिवस /भावी क��रान्ति की सम्भावनाएं
आज का दिन खुदीराम बोस के चिन्तन मेँ !
03दिसम्बर 1889 ई0 को उनका जन्म मेदिनीपुर जिले के बहुबेनी ग्राम मेँ हुआ था. उनके पिता का नाम त्र्यैलोक्यनाथ बसु था माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था. पिता जी तहसीलदार थे.छह वर्ष की अवस्था मेँ ही अपने माता पिता का विछोह सहना पड़ा. देशभक्ति का भाव बाल्यावस्था से ही जागृत हो गया था.आनन्दमठ उपन्यास के रचयिता बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय मेदिनीपुर मेँ ही शासकीय सेवा मेँ थे.इस उपन्यास का गीत वन्देमातरम बड़ा लोकप्रिय हुआ था.जिससे उन्हेँ प्रेरणा मिली.देशभक्त विपिन चन्द्र पाल ने वन्देमातरम पत्रिका का प्रकाशन किया व अरविन्द घोष इसके
संपादक नियुक्त हुए.1907मेँ अंग्रेज सरकार ने वन्देमातरम पत्रिका पर राजद्रोह का अभियोग लगाया.
ऐसे मेँ खुदीराम बोस सामने आये.
क्रान्तिकारी सुशील कुमार सेन पकड़े गए और उन्हेँ न्यायाधीश किँग्जफोर्ड ने 15 कोड़े मारने की सजा दी.क्रान्तिकारी दल ने किँग्जफोर्ड से बदला लेने का निश्चय किया आखिर क्योँ....?इसलिए क्योँकि अंग्रेज विदेशी थे या दूसरी जाति के थे?क्या इसी कारण.....?यदि नहीँ तो ......?अब क्या सब कुछ ठीक है?यदि नहीँ तो ....?उनके खिलाफ हिँसक कार्यवाही क्योँ नहीँ?क्या कहा,कानून अपने हाथ मेँ क्योँ लेँ ?तब तो यह पक्षपात हुआ?भूल गये गीता को अपने धर्म या जेहाद के पथ पर अपना कोई नहीँ होता.यदि देश से कुप्रबन्धन को मिटाने के लिए हिँसक कार्यवाहियोँ को आप कानून विरोधी मानते हैँ तो .....?क्रान्तिकारियोँ का समर्थन क्योँ?हूँ!मुगल तो विदेशी थे अंग्रेज तो विदेशी थे?तो कहाँ चली गयी वसुधैव कुटुम्कम की भावना?स्वदेशी विदेशी की भावना क्या ठीक है?इसलिए मैने अपने अप्रकाशित उपन्यासोँ मेँ मजबूरन आतंकवादियोँ व नक्सलियोँ से कहलवाया है कि तुम लोगोँ से अच्छे तो हम गीता(कुरूशान) के प्रशन्सक हैँ और.....?
इसलिए मेँ कहता हूँ गांधीगिरी को स्वीकारो या फिर......मैँ तो गांधीगिरी का समर्थन करता हूँ.तुम छोँड़ो जबरदस्ती व हिँसा या फिर यहाँ भी पक्षपात न करो,चाहे कोई विदेशी या दूसरी जाति का हो या न
कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ हथियार उठा लो.नहीँ....तो गांधी को स्वीकार कर लो और कहना छोँड़ दो कि मजबूरी नाम गांधी.छोँड़ोँ उन महापुरुषोँ को जिनके हाथ खून से सने हैँ.आ जाओ मेरे साथ....जैन, बुद्ध सुकरात, ईसा ,गांधी ,ओशो, आदि के पथ पर.
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मंगलवार, 16 नवंबर 2010
बकरीद या सकट चौथ : समर्पण व त्याग का प्रतीक
"मुकेश, वाल्मीकि समाज को अपने से अलग क्योँ देखते हो ?"
"आर एस एस उनकी वस्ती मेँ
वाल्मीकि जयन्ती समारोह करवा रहा है तो क्या गलत कर रहा है ?"
"वहाँ जा कर मैँ अपना धर्म नहीँ गँवा सकता ."
" ऐसा तुम्हारा धर्म गँव ही जाना चाहिए,मुकेश . तुम्हारा इस जन्म जन्मजात ब्राह्मण होने का भाव खत्म होने वाला नहीँ . "
मुकेश इधर उधर ताकने लगा.
इधर
रमेश मन ही मन-
परिवार व समाज का उत्थान बिना त्याग व समर्पण के सम्भव नहीँ है.प्रति पल जेहाद आवश्यक है.
त्याग व समर्पण की व्यवस्था आदि काल से थी,अपने प्रिय या अपने मोह का त्याग व धर्म के प्रति समर्पण.हजरत इब्राहिम- इस्माइल- हुसैन,गुरू गोविन्द सिँह,बन्दा बैरागी,वीर हकीकत,आदि व अनेक स्वतन्त्रता सेनानी अपने धर्म कर्त्तव्य के लिए समर्पित हो गये.आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान मेँ अर्जुन को दिए गये श्री कृष्ण सन्देश भी धर्म स्थापना के लिए त्याग की ओर संकेत करते हैँ,मोह के त्याग की बात करते हैँ.
हिन्दू समाज मेँ प्रति वर्ष सकट चौथ पर्व मनाया जाता है.इस पर्व पर तिल गुड़ से बना मेड़ा काटने व पूजा का रिवाज है.क्या यह उस परम्परा का प्रतीक नहीँ है कि पशु की बलि दी जाती है .जो यह पर्व मनाते हैँ शायद उनके पूर्वज माँसाहारी रहे होँ ?आदि गोत्र कश्यप धारी अब भी माँसाहारी देखे जा सकते हैँ .यहाँ तक की किसी परिवार मेँ किसी विशेष उत्सव पर या उसके एक दिन बाद बकरा काटने और उसके माँस को बाँटने की व्यवस्था है.इस पर्व का सम्बन्ध खगोल
विज्ञान से भी है.
खैर.....
बलिदान व समर्पण के महत्व की महिमा आदि काल से होती है.हवन,छट पूजा,आदि के हेतु मेँ ऐसा भी था. सार्वभौमिकता(ईश्वरता) के समक्ष समर्पण भाव जरुरी है,इस समर्पण भाव के ही अनेक स्थूल रूप विश्व मेँ उपलब्ध रहे हैँ.त्याग किसका हो?व्यक्तिगत स्वार्थोँ का ,मोह का,लोभ का ,काम का.इसलिए कहा गया है कि अपनी प्रिय वस्तु का बलिदान. अपने धर्म व ईश्वर के अलावा संसार की जो भी प्रिय वस्तुएँ हैँ उनका त्याग.सांसारिकता के माया मोह से मुक्त होना.धन के मोह से भी त्याग.प्राचीन काल मेँ धन था-पशु.
सांसारिक वस्तुओँ का भोग करने से पूर्व ईश्वर को वस्तुओँ का भोग लगाना लगाना भी इन पर्वोँ का हेतु रहा होगा ?
अपने मिशन या लक्ष्य के लिए समर्पण व त्याग का भाव आवश्यक है.
*** """ ***
लगभग 70फुट ऊँची कालि देवी की प्रतिमा !
जिसके चरणोँ पर अनेक बकरे लाकर उनका नाममात्र कान काट कर बलि चढ़ाई जा रही थी.
जहाँ मुकेश भी एक बकरे को साथ लिए खड़ा था.
धन्य उसका धर्म !!
गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010
02 अक्टूबर:मेरा जन्म दिन भी.
जन्मदिन भी है-02अक्टूबर.मेरे लिए यह सदयता दिवस है.
मन प्रबन्धन के अन्तर्गत मैँ मन ही मन अपने अन्दर करुणा व संयम
को हर वक्त स्वागत के लिए हालात बनाता रहा हूँ ,जिसके लिए कल्पनाओँ
,विचारोँ,स्वाध्याय ,इण्डोर अभिनय व अन्य उपाय करता रहा हूँ.वास्तव मेँ
अहिँसा के पथ पर चलने के लिए करुणा व संयम के लिए हर वक्त मन के द्वार
खोले रखना आवश्यक है.इस अवसर पर मैँ 'प्रेम 'पर भी कुछ कहना चाहुँगा.वे
सभी जरा ध्यान से सुनेँ जो किसी से प्रेम मेँ दिवाने हैँ.प्रेम पर न जाने
कितनी फिल्मेँ बन चुकी हैँ,किताबेँ लिख चुकी है.कहाँ प्रेम है ?प्रेम
जिसमेँ जागता है,उसकी दिशा दशा ही बदल जाती है.प्रेम जिसमे जाग जाता
है,उसके मन से हिँसा गायब हो जाती है,स्वेच्छा की भावना समाप्त हो जाती
है. 'मैँ' समाप्त हो जाता है.
"दिल ही टूट गया तो जी कर क्या करेँ?"
यह सब भ्रम है.
प्रेम मेँ दिल नहीँ टूटता. हाँ,काम मेँ दिल टूट सकता है.कहीँ न कहीँ
प्रेम दिवानोँ या प्रेम दिवानीयोँ से सामना हो जाता है,सब के सब भ्रम मेँ
होते हैँ. प्रेम मेँ तो अपनी इच्छाएं खत्म हो जाती हैँ.जिससे प्रेम होता
है,उसकी इच्छाएं ही अपनी इच्छाएं हो जाती हैँ.
जो अपनी प्रेमिका या प्रेमी की ओर से उदास हो जाते हैँ, वे प्रेमवान नहीँ
हो सकते.अखबारोँ मेँ निकलने वाली आज कल की प्रेम कहानियां हवस की
कहानियां है.जो चार पांच साल बाद टाँय टाँय फिस्स..........प्रेम तो अन्त
है शाश्वत है जो जाग गया तो फिर सोता नहीँ, व्यक्ति निराश नहीँ होता.
करुणा व संयम के बिना प्रेम कहाँ ?प्रेम तो सज्जनता की निशानी हैँ.जो
जीवन को मधुर बनाती है.
खैर....
आज गांधी जी का जन्मदिन है.जो कि बीसवीँ सदी के सर्वश्रेष्ठ
जेहादी हैँ.जिनका हर देश मेँ सम्मान बढ़ता जा रहा है.
गांधी वास्तव मेँ सभ्यता की पहचान हैँ.जो कहते हैँ मजबूरी का
नाम -गांधी,वे भ्रम मेँ हैँ.
शनिवार, 4 सितंबर 2010
http://primarykamaster.wordpress.com : हम क्या कहिन!
इस अवसर पर मुझे एक विचार गोष्ठी मेँ जाना था .इस पर मुझे बोलना पड़ गया तो.......!मैँ चापलूसी भाषा जानता नहीँ,मीडिया या अन्य या स्वयं जो व्यवहारिक जीवन मेँ देखता आया हूँ उसके साथ साथ समाज मेँ प्रचलित शब्दोँ का अभिप्राय समाज से न समझ कर शास्त्रोँ से समझने का प्रयत्न करता आया हूँ .बुद्धिजीवी या हृदयजीवी,धार्मिक या आध्यात्मिक, आदि न पाकर मनुष्य की शक्ल मेँ पशुओँ को ही देखता आया हूँ . अरे,पण्डित आप रोज प्रवचन के दौरान क्या कहते हो.......एषां न विद्या तपो न दानं,ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म : . ...........कला साहित्य संगीतविहीन: , साक्षात पशुपुच्छ विषाणहीन........न जाने क्या क्या ? और,हाँ,...विद्या ददाति विनयम् ......न जाने क्या क्या ? और ठाकुर सा'ब आप ?ठकुरई अब कहा पर दिखाते हो ? गीता मेँ जो क्षत्रिय धर्म बताया है,धर्म के पथ पर न कोई अपना न कोई पराया बताया है.और भाई आप लाला जी ,आप लोगोँ का क्या कहना? और फिर बात है भईया हम लोगोँ की, हम लोग ठहरे पिछड़े दलित शूद्र ........
वैदिक ग्रन्थोँ की बात करता हूँ तो कहते हो ,आज की देखो.मैँ तो आज की भी देखता हूँ, तब यह कहते हैँ अपनी संस्कृति धर्म जाति.....?शायद मुझे कुछ देखना नहीँ आता.यह लोग झूठ मेँ मजाक मेँ ही हमेँ दार्शनिक कहते है.मैँ जब सनातन विचारोँ की बात करता हूँ तब भी गड़बड़ है,जब संवैधानिक विचारोँ की बात करता हूँ, तब भी गड़बड़ है. शायद हमारे देखने के ढंग मेँ ही फर्क है ? वैदिक पुरुषार्थ सिद्धान्त के चारोँ स्तम्भ-धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष के आधार पर बात करुँ तब भी गड़बड़ है.लोग यह सब बाते करेँ तो ठीक है लेकिन.....हमे मक्खन लगाना नहीँ आता जो,फिर मैँ तो मक्खन मेँ मिलावट गैरमिलावट पर सोँच कर रह जाता हूँ.मक्खन लगाऊँ तो कौन सा मक्खन लगाऊँ?अब समझ मेँ आ रहा है कि सुकरात ,मीरा,ओशो,कबीर,आदि के जिन्दा रहते इनके खिलाफ लोग क्योँ थे? मरने के बाद यही खिलाफत करने वाले फिर इनके नाम का धन्धा करने से न चूके.तब भी धन्धा अब भी धन्धा. अब समझ मेँ आया इनके सीना तानने का राज?गाँधी को ट्रेन से फेँकने वाले पीछे गाँधी के नाम पर करोड़ोँ का धन्धा करते हैँ.यह सब उस वक्त भी धन्धा करने वालोँ के साथ थे आज भी साथ हैँ.
एक -
"भाई कलयुग है! तभी तो न का होत है किसानन के संग? पड़ोस का देश चीन अपने विकास के लिए अपने नागरिकोँ पर कितना गोली चलवायो?जै गोली चलान वाले ठीक हैँ, नकसली गलत हैँ?नकसली कोए भारत के संविधान की शपथ खाए कुछ थोड़े करेँ?संविधान की शपथ खाये चाहे कछु भी करवाबौ,चाहेँ किसानन पर गोली चलबाबो ,चाहेँ और कछु.
आज शिक्षक दिवस!हूँ, बओ सरबपलली राधा करषनन......??अरे कागज ठीक रक्खो ,और का.....इन सब के चक्कर मेँ पड़ कर का बन सकेँ?अंग्रेजन से गोली खान बालौ के नाती पोता आज भूखन मरैँ,परमवीर चककर पाउन वाले तक रोटी कौ तरसै.का कही अभई एक वकता कि "अध्यापक समाज का दिमाग होता है?" हूँ,खाली की बकवास ! कि-
"शिक्षक समाज का दिमाग है .शिक्षकोँ की बुद्धिहीनता को देख कर ही शायद सर्व पल्ली राधा कृष्णन ने कहा होगा कि देश के शिक्षकोँ के पास सर्वश्रेष्ठ दिमाग हो . उन्होने कहा था कि शिक्षा प्राप्त कर मात्र नौकरी प्राप्त करना शिक्षा का उद्देश्य नहीँ है ."
सब बकवास,अरे सब कछु रुपया है रुपया. हम का मास्टर बनन चाहत थो?हमै तौ रूपया चाहो थो. जुगाड़ से अच्छे नम्बर पाये लऔ,दोए लाख रुपया दये कये अच्छे नम्बर से बीएड कर लऔ. सर्ब शिक्षा अभियान को जऔ रुपया.अब का उड़ाबौ गुलछर्रे !भाड़ मेँ जाए मास्टरी,हमेँ कभी पढ़ाउन को शौक नाय रहो. लेकिन रुपया किसे पयारो नाय लग्ये? जा मैरिट चली का चली,ठीक चली.हम जैसे भी गंगा नहाय लए .जै अशोकवा जैसे तओ पागल होएँ.आए हैँ जा विचार गोष्ठी मा तो कान मेँ अँगुरी डाल के बैठ नाए सकत.कोई का कहे कि मास्टर होए के कान मेँ अँगुरी डारे."
मैँ सोँच रहा था कि विचार गोष्ठी मेँ जाऊँ कि न जाऊँ? मुझसे किसी ने बोलने को कह दिया तो लोग मेरे कहे पर क्या सोँचेँगे?पिछले शिक्षक दिवस पर बोला था तो एक सरकारी प्राइमरी मास्टर क्या बोले थे?कुछ मिनट पहले जान चुके होँगे आप.
फिर मैँ तो ठहरा सनकी ...और न जाने क्या क्या?वो तो गनीमत है कि इन दुनिया वालोँ की न सुन कर ग्रन्थोँ महापुरुषोँ की सुनता हूँ.
www.ashokbindu.blogspot.com
अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'
आदर्श इण्टर कालेज,
मीरानपुर कटरा ,
शाहजहाँपुर ,उप्र.
धन्य ! जनता का शासन.
रण कर लेता है.जिसका कोई धर्म नहीँ होता.पुरानी विचारधारा कि शासक दार्शनिक होना चाहिए.
जिसकी अपनी व्यक्तिगत भूख जागी हुई है,बासना जगी हुई है,जिसका विकास अपने या अपने खानदान या जाति तक ही सीमित है वह क्या करेगा जनता की सेवा? जनता को समूह-समूह,गुट-गुट,जाति-जाति,मजहब-मजहब,आदि मेँ बाँट कर देखने वाले रख सकते हैँ क्या निष्पक्ष सोँच ?
सबसे श्रेष्ठ प्राणी है मनुष्य,लेकिन उसे प्रशिक्षण जरूरी है.विधि साक्षरता के बिना चुनाव लड़ने या वोट डालने की क्या अहमियत?कैसी शपथ ?संविधान के दर्शन को जानते नहीँ, मत मतान्तरोँ के दर्शन मेँ प्रति पल जी रहे है.ऐसे मेँ विभिन्न पदोँ के उम्मीदवारोँ के लिए नारको परीक्षण आदि अनिवार्य किया जाना चाहिए,लेकिन कैसे?संसद विधानसभाओँ मेँ कौन लोग बैठे हैँ?वे ऐसा कभी नहीँ चाह सकते.
किसी भीड़,किसी गुट, किसी एक जाति,किसी एक मजहब,आदि के स्वेर्थोँ के लिए ,वोट बैँक के स्वार्थ मेँ सारे देश , संविधान,आदि के हक प्रति चुप्पी साधने वालोँ का शासन.....?!क्या यही है जनता का शासन...?!धन्य ,भारत का प्रजातन्त्र!
जनता का अनुशासन...?!जनता गुटो भीड़ोँ समूहोँ जातियोँ मजहबोँ आदि मेँ विभक्त है. हर कोई भ्रष्टाचार व कुप्रबन्धन मेँ सहायक बना हुआ है.
5 सितम्बर,शिक्षक दिवस!मैँ कहना चाहूँगा कि शिक्षक वर्ण से वैश्य नहीँ होता, समाज का दिमाग होता है-ब्राहमण होता है. अफसोस,जब ब्राहमण जाति के लोग ब्राह्मण वर्ण के नहीँ नजर आते तो अन्य से क्या उम्मीद रखेँ.अब भी देश को विश्वमित्र,चाणक्य,आदि की आवश्यकता है.
JAI ...HO...OM...AAMEEN.
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
विमल वर्मा बीसलपुर निवासी का लेख:बिखरता पर��वार
यही वजह है कि वे परिवार से नाता तोड़ने मेँ भी थोड़ी भी हिचक नहीँ रखते,लेकिन ऐसा करते वक्त वे शायद भूल जाते हैँ कि कल उनके बच्चे भी बड़े होँगे......,युवाओँ को मेरी सलाह है कि संयुक्त परिवार की सोँच ही बेहतर सोँच होती है.
¤मेरी प्रतिक्रिया....
विमल जी आप ठीक लिखते हैँ,लेकिन नई पीढ़ी की विचलित दिशा के लिए क्या नई पीढ़ी ही दोषी है?
माता पिता की सेवा करना युवाओँ का कर्त्तव्य है.हाँ,यदि युवा अपने बुजुर्ग माता पिता की सेवा नहीँ करते तो इसके लिए उनके संस्कार दोषी है या बुजुर्ग माता पिता द्वारा पिछले वर्षोँ मेँ प्रस्तुत किए गये पारिवारिक वातावरण भी दोषी हो सकता है.कायर,निराश,अशान्त,सदभाव हीन,उदारहीन,आदि से युक्त व्यवहार रखने वाले कब परिवार को आदर्श दिशा दे सकते हैँ.त्याग,मधुरता,सामञ्जस्य,परस्पर एक दूसरे का सम्मान,भावनाओँ का शेयर,एक दूसरे के लिए उपयोगी होना,एक दूसरे की समस्याओँ के निदान के लिए सजग रहना,एक दूसरे का उत्साहवर्धन करते रहना,आदि अति आवश्यकता होती है.हमने देखा है कि परिवार का मुखिया ही परिजनोँ की समस्याओँ या अस्वस्थता से अपने को बिलकुल दूर कर लेते हैँ और सहयोगी साबित नहीँ होते.हाँ,उनसे उम्मीदेँ रखते हैँ.विभिन्न स्वभाव,स्थितियोँ,आदि मेँ रहने वालोँ की मजबूरियोँ को न समझ एक विशेष स्वभाव,स्थितियोँ,आदि मेँ जीने वालोँ से तुलना करते हैँ.
यहाँ पर भी वर्ण श्रम विभाजन की प्रासांगिकता है.
शेष फिर....
अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'
आदर्श इण्टर कालेज
मीरानपुर कटरा
शाहजहाँपुर उप्र
सोमवार, 30 अगस्त 2010
यूरोपीय नस्लेँ : आधुन��क दुनियाँ
सैकड़ोँ वर्ष पहले वराह मिहिर व कुछ दशक पूर्व मुंशी प्रेम चन्द्र यूरोपीय नस्लोँ की प्रशन्सा कर चुके हैँ.वराह मिहिर ने कहा था कि हमे यूनान के लोगोँ का सम्मान करना चाहिए क्योँकि वे विज्ञान मेँ पारंगत होते हैँ.मुंशी प्रेमचन्द्र ने कहा है कि भारतीय नस्लोँ की अपेक्षा यूरोपीय नस्लेँ बेहतर होती हैँ.ओशो ने 'नये भारत की खोज 'कहा है कि समस्याओँ की मुख्य जड़ है आदर्श व आचरण एक दूसरे के विपरीत खड़े हैँ.भारत का व्यक्ति सब कुछ जानने के बाद भी वह नहीँ कर सकता जो कि आदर्श है,जो कि उसकी प्रतिभा है जो उसकी क्षमता व कर्त्तव्य है.दवंगता व मनमानी करने की स्वतन्त्रता जरूर है यहाँ,लेकिन अपने कर्त्तव्योँ,ईमानदारी ,न्याय,आदि के आधार पर चलने की नहीँ,अपने प्रतिभा या अन्वेषण के आधार पर नहीँ.
आधुनिक दुनिया मेँ साहसिक यात्राओँ व दुर्गम खोजोँ का इतिहास यूरोप का इतिहास है.
हालांकि...
द्वितीय विश्व के बाद यूरोपीय उपनिवेशवाद का स्थान अमेरीकी भौतिक उपनिवेशवाद ने लिया.आज विश्व के अनेक स्थितियोँ के लिए अमेरीका जिम्मेदार है.खैर....
16वर्षीय किशोरी व अमेरिकी नाविक एबी सदरलैँड के प्रति मेरी हमदर्दी है. उसके सलामती की दुआएँ हैँ.जो कि अकेले दुनिया का चक्कर लगाने निकली है.अभी जल्द उसे आस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट से करीब 3700किमी दूर देखा गया.आस्ट्रेलियाई मीडिया मेँ एबी सदरलैण्ड के पिता लारेँस के हवाले से कहा गया कि वह पूरी तरह ठीक है और अपनी नौका पर सवार है.इससे कुछ दिन पूर्व गुरुवार सुबह कैलिफोर्निया स्थित अपने परिवार से सेटेलाइट फोन सम्पर्क टूट गया था.आस्ट्रेलियाई अधिकारियोँ ने एबी सदरलैण्ड को चेता दिया था कि महासागर के सुदूर इलाकोँ मेँ सेटेलाइट फोन काम नहीँ करता .इन इलाकोँ मेँ 90 किमी प्रति घण्टे की रफ्तार से हवाएँ चलती हैँ और छह मीटर तक तक ऊँची तरंगे उठती हैँ.
इस अमेरिकी किशोरी की दीवानगी को मेरा शत शत नमन !
जिन्दगी मेँ कुछ खास करने के लिए दीवानगी आवश्यक है.मैँ विद्यार्थियोँ से कहता हूँ कि
अभी आप लोग पढ़ रहे हैँ,पढ़ाई पूरी करने के बाद आप चाहेँगे कि आय का साधन प्राप्त हो,फिर शादी,इसके बाद परिवार का पालन पोषण-आय प्राप्ति के क्षेत्र मेँ कार्य भ्रमण,आदि.आप सब हमेँ ऐसे महापुरुष का नाम बताओ जो इस सब के कारण प्रसिद्ध हुआ.नहीँ न,तभी तो कहता हूँ मैँ कुछ खास करने के लिए कुछ खास की दीवानगी या नशा पालना होगा.नशा ? हाँ,नशा.नशा कला का ,नशा संगीत या साहित्य का,नशा अन्वेषण का,नशा किसी खेल का,नशा राजनीति या समाज सेवा का,आदि.
गुरुवार, 26 अगस्त 2010
उग्रवाद के खिलाफ त्य��ग भावना
प्राचीन काल से ही कश्मीर हिँसा का शिकार रहा है.मध्यकाल मेँ औरंगजेब काल मेँ शासकीय कर्मचारियोँ द्वारा अत्याचार की घटनाएँ होती रहीँ. अत्याचारोँ से प्रभावित कश्मीरी पण्डित गुरु तेगबहादुर सिँह के पास अपनी फरियाद ले कर आते रहे थे. एक दिन गुरु तेगबहादुर सिँह ने कश्मीरी पण्डितोँ की सभा बुलाई.जिसमेँ उन्होँने कहा कि त्याग व समर्पण के बिना कुछ भी सम्भव नहीँ.तब बालक गोविन्द बोल बैठा -" पिता जी,"इसके लिए आप से ज्यादा अच्छी शुरुआत कौन कर सकता है." गुरु तेगबहादुर सिँह की आँखे खुल गयीँ.
मिशन या लक्ष्य के पक्ष या विपक्ष मेँ जाने बात बाद की है, अपने मिशन या लक्ष्य के प्रति कैसा होना चाहिए?इसकी सीख हमेँ गुरु गोविन्द सिँह सेँ लेनी चाहिए.जिनका जीवन कुरुशान (गीता) की कसौटी पर खरा उतरता है.समाज के सुप्रबन्धन के लिए त्याग व समर्पण आवश्यक है.
कश्मीर मेँ कश्मीरी पण्डितोँ के बाद अब अलगाववादी कश्मीरी सिक्खोँ पर अत्याचार करने मेँ लगे हैँ.दूसरी ओर देश के अन्दर कुप्रबन्धन , भ्रष्टाचार,आतंकवाद,नक्सलवाद,क्षेत्रवाद,जातिवाद,
साम्प्रदायिकता,
आदि ; इससे कैसे निपटा जा सकता है ?इसके लिए भी हमेँ कुरुशान(गीता) ,गुरू गोविन्द सिंह,आदि से सीख ले सकते हैँ.
अफसोस की बात कि अपनी धुन मेँ जीते जीते हम अपने परिवार को विखराव की स्थिति तक जब ले जा सकते हैँ,त्याग व समर्पण का पाठ नहीँ सीख सकते .घर से बाहर निकल कर सामूहिकता मेँ जीने धर्म के लिए त्याग,समर्पण,कानून,आदि की भावना मेँ जीना ऐसे मेँ काफी दूर की बात हो जाती है.ऐसे मेँ तीसरा फायदा उठाएगा ही.राजपूत काल से अब तक होता क्या आया है?यही तो होता आया है. जम्बूद्वीप (एशिया) से वर्तमान भारत तक और फिर अब भी अलगाववाद ,उग्रवाद, क्षेत्रवाद से प्रभावित इस देश की वर्तमान स्थिति तक आने कारण मात्र क्या है?हमारे पूर्वज कितने भी योग्य रहे होँ लेकिन.....?हमारे मन आपस के लिए ही द्वेष भावना,मत भेद,आदि मेँ जीते आये हैँ.यहां तो कीँचड़ ही कीँचड़ है. हाँ ,यह जरूर है कि कीँचड़ मेँ कमल खिलते आये हैँ.भारत का अर्थ है-प्रकाश मेँ रत,धन्य!धन्य आध्यात्मिक देश!धन्य यहाँ धर्मिक लोग!धन्य कृष्ण के अनुआयी!धन्य अपने को हिन्दू कहने वाले!कुरुशान (गीता) के संदेशोँ को नजर अन्दाज करने वाले.इनकी अपेक्षा तो आतंकवादी,अलगाववादी,आदि अप्रत्यक्ष रुप से कुरूशान(गीता) को आचरण मेँ उतार रहे हैँ और अपने लक्ष्य के लिए त्याग व समर्पण कर रहे हैँ.हम इससे भी सीख नहीँ ले सकते कि अफगानिस्तान मेँ अलगाववादियोँ से लड़ रहे सैनिकोँ को गीता का पाठ सिखाया जा रहा है,एक अमेरीकी विश्वविद्यालय मेँ गीता का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाता है.
जन्माष्टमी के उपलक्ष्य पर हम यदि कुरुशान(गीता ) से यह सीख नहीँ ले सकते तो काहे को कृष्ण भक्ति....!?तब तो सच्चे भक्तोँ(दीवानोँ) को सनकी, पागल,आदि कह कर उपेक्षित करते हो.धन्य....!?तुम्हारी धार्मिकता तो सिर्फ धर्मस्थलोँ की राजनीति,जाति पात , साम्प्रदायिकता,छुआ छूत,आदि के आलावा और क्या सिखा सकती है?बस ,धर्म के नाम पर एक दो मिनट दे दिए फिर चौबीस घण्टे....खो जाता है धर्म.तब वे मूर्ख लगते है जो कहते है कि सुबह से शाम तक हम जो सोँचते करते हैँ,वही हमारा धर्म है.
JAI HO ....OM...AAMEEN!
शनिवार, 21 अगस्त 2010
नक्सली कहानी: संघर्ष ��र विराम [क्या कोई है-भ��माशाह,जो कि हमारी इस मानसिकता पर आधारित हमारे अप्रकाशित कहानी संकलन व उपन्यासोँ को प्रकाशित करवा सके.हमेँ ��ोई पारिश्रमिक नहीँ च��हिए.]
दो युवक बैठे बातचीत कर रहे थे-
" ललक ने अपने भाई की हत्या कर दी."
" विराम!तुम तो कृष्ण के भक्त हो? क्या नहीँ जानते कि कुरुशान(गीता)मेँ क्या लिखा है?धर्म के रास्ते पर अपना कोई नहीँ होता. "
" अधर्म का भी तो कोई अपना होता है क्या ? "
" हूँ,सच कहते हो-विराम.ललक ने क्या वास्तव मेँ धर्म मेँ जाकर अपने अत्याचारी व विधर्मी भाई की हत्या की या फिर बचपन से सहते आ रहे उपेक्षा,अकेलापन, तनाव,आदि के आखिरी हद के परिणाम स्वरूप समाज मेँ प्रदर्शन के लिए ? "
"जो भी हो.......संघर्ष!यार संघर्ष! बचपन से ही शान्ति सुकून की तलाश मेँ मैँ ' विराम ' कहाँ से कहाँ आ पहुँचा ? कभी कभार सोँचता रहा कि शान्ति का उपाय है-' इच्छाओँ की शान्ति ' ."
"विराम! तुम ऊपर से शान्ति की बात करते हो लेकिन मन से अशान्त हो.मैँ 'संघर्ष'मन से शान्त हूँ. हाँ, यह जरुर है कि मैँ नक्सली ग्रुप मेँ शामिल हो कर ' तथाकथित झूठे कानून रक्षकोँ ' की नजर मेँ अपराधी हूँ लेकिन भ्रष्टाचार व कुप्रबन्धन के खिलाफ संघर्ष से मुझे सुकून मिलता है.असाह्य गरीब मजदूर दुखी आदि लोगोँ की दुआएँ. कानून के रक्षकोँ से ईमानदार सीधे साधे शोषित आदि लोग कितना खुश होते हैँ? और बात है ललक की........."
"हाँ,संघर्ष! ललक की बात हो रही थी."
"पिछले महीने उन्नीस नवम्बर को ललक यादव ने अपने भाई मर्म यादव की हत्या कर दी.क्या गलत किया?पूरा का पूरा शहर उससे परेशान हो चुक था.पुलिस भी खामोश थी."
"तो वो कौन होता था मर्म यादव को सजा देने वाला ?"
"बस, यही सोँच तो देश को कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार के दलदल मेँ फँसाए हुए है.किसी न किसी को कुछ न कुछ तो करना ही होगा."
"तो इसके लिए गाँधीगिरी का भी रास्ता है."
"महत्वपूर्ण उद्देश्य है रास्ता नहीँ .मैँ अभी गाँधीवादी बन जाऊँगा यदि समाज धर्म कानून के ठेकेदार देश की व्यवस्थाओँ मेँ बदलाव करके दिखायेँ.यह लोग भाषण देते है,कागजोँ पर आंकड़े बनाते है लेकिन हम'करने'पर विश्वास करते हैँ."
पुन: -
"विराम! तुम न जाने कितनी बार राज्य सरकार के प्रतिनिधि मण्डल के साथ बात चीत के लिए हम नक्सलियोँ के पास आ चुके हो? युद्द विराम की. घोषणाओँ से सिर्फ कुछ नहीँ होने वाला. कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ त्याग समर्पण व ईमानदारी कौन दिखाना चाहता है.?और फिर मन, ......जरा रुकना,टीवी पर यह.......हाँ,आज ओशो जन्म दिन है."
एक प्राइवेट टीवी चैनल का किसी पर्वतीय क्षेत्र के ओशो ध्यान शिविर से सीधा प्रसारण था. एक सन्यासी बोल रहे थे-" ओशो चाहते थे कि दुनिया ऐसी हो जाए कि किसी सुकरात ,मीरा को जहर न पीना पड़े , ईसा को सूली न लगे.....हाँ,हर समस्या की जड़ है हमारा मन.मन प्रबन्धन की भी......"
संघर्ष बोल पड़ा -"चाहने से क्या होता है ? आचरण चाहिए.हाँ,यह सत्य है कि मन को बैरागी और शरीय को परहित कर्मशील रखना चाहिए लेकिन, हूँ......इन्सान के सामने ऐसे हालात न आयेँ कि उसके सामने खुदकशी,विछिप्तता या अपराध के सिवा कोई रास्ता न दिखे.(कुछ रुक कर) आखिर फूलन देवी कुख्यात क्योँ न हो ? तब कहाँ सब सो जाते हैँ समाज व कानून के ठेकेदार ? विराम तो सब चाहते हैँ,शान्ति तो सब चाहते हैँ लेकिन आचरण....?! सभी समस्याओँ की जड़ मन तो है ही ,यथार्थ मेँ सभी समस्याओँ की जड़ है-आदर्श व आचरण का एक दूसरे के विपरीत खड़े होना."
बुधवार, 18 अगस्त 2010
सुभाष चन्द्र कुशवाह ��ा गीत:कैद मेँ है जिन्दगी
फिर से गुलशन को सजाना होगा.
ये नदी दूर जाकर बहक जायेगी
इस पर एक बाँध बनाना होगा.
ये धुआँ जो निकल रहा है विकास का
इससे आबोहवा को बचाना होगा.
बचपन मेँ ये बच्चे जवान न होँ
इन्हेँ टेलीविजन से हटाना होगा.
कुतर रहे है इस देश को जो
उन चुहोँ को अब भगाना होगा.
किसने उसकी रोटी छिपा रखी है
अब इस राज को बताना होगा.
अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'
आदर्श इण्टर कालेज
मीरानपुर कटरा, शाहजहाँपुर,उप्र
शुक्रवार, 13 अगस्त 2010
15 अगस्त:क्या युवक स्वतन्त्र है?
क्या युवक स्वतन्त्र है?इस पर कुछ भी कहने से पूर्व युवक व स्वतन्त्र शव्द को समझना आवश्यक है.शरीर से युवा हुए तो क्या हुए अन्तस से युवा होना आवश्यक है.मन की दशा दिशा सृजनात्मक -सकारात्मक -उत्साहपूर्ण नहीँ तो शरीर से युवा होने से क्या ?
अरविन्द घोष ने कहा है कि आत्मा ही स्वतन्त्रता है.गीता मेँ स्व से अभिप्राय है आत्मा या परमात्मा.हम आत्मा हैँ,हम स्वतन्त्र हैँ.हम सिर्फ शरीर ही नहीँ मन ही नहीँ ,आत्मा हैँ.अरविन्द घोष ने कहा है कि आत्मा ही स्वतन्त्रता है,ठीक ही कहा है.हमारी अब आत्मा से पकड़ दूर हो गयी है.हम शारीरिक व ऐन्द्रिक आवश्यकताओँ के वशीभूत हो कर अपनी स्थिति अर्थात अपनी आत्मा से दूर हो जाते हैँ.
किसी ने कहा है कि मनुष्य कोई न कोई प्रतिभा लेकर ही जन्म लेता है और अपनी प्रतिभा के साथ किसी को समझौता नहीँ करना चाहिए.
आज का युवा वर्ग विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद सिर्फ साक्षरोँ की भीड़ बढ़ाने मेँ सहायक है.ऐसी युवा शक्ति की स्वतन्त्रता के मायने क्या हैँ? विसंगतियोँ से भरा व दृष्टिहीन युवा या सिर्फ भौतिकवादी लालसा मेँ जीने वाला युवा स्वतन्त्रता की ओर अग्रसर नहीँ हो सकता.हाँ;स्वच्छन्दता की ओर अवश्य अग्रसर हो सकता है. जो दस प्रतिशत प्रतिभाशाली युवा हैँ,जिनमेँ वास्तव मेँ दीवानगी है -कुछ कर गुजरने की.वे सब कुप्रबन्धन,भ्रष्टाचार,संसाधन अभाव,पारिवारिक स्तर,अभिभावक सोँच,आदिके रहते अपना मन मार कर रह जाते हैँ. इन्हेँ क्या हम परतन्त्र कहेँगे?कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.कौन सा ऐसा महापुरुष है जो सिर्फ अपने पैत्रक स्थान पर रह कर यशस्वी हुआ हो?'पलायन' युवा की प्रतिभा के अनुकृल वातावरण खोजने मेँ सहायक हो सकता है.जो साहसी है,वे अपनी प्रतिभा से समझौता न कर स्थान परिवर्तन कर और महापुरुषोँ के जीवन से प्ररेणा ले आगे बढ़ सकते है.
युवाओँ की स्वतन्त्रता या परतन्त्रता सिर्फ व्यक्ति की सोँच व सोँच की दिशा दशा है.हम अपनी क्षमताओँ व प्रतिभा के साथ समझौता न कर त्याग,समर्पण ,दीवानगी, उत्साह के सहारे आगे बढ़ सकते हैँ. हम समाज से प्रेरणा न लेकर महापुरुषोँ से प्रेरणा लेँ.समाज व संसार तो हमेँ उलझाने वाला है.
ग्रन्थोँ,महापुरुषोँ ,आदि सेँ प्रेरणा लेते हुए अपनी क्षमता व प्रतिभा के अनुरूप आगे बढ़ कर ही स्वतन्त्रता की ओर प्रत्यन कर सकते हैँ. वर्तमान के आदर्शपुरुष डा.ए.पी .जे.अब्दुल कलाम के जीवन से हमेँ प्रेरणा लेनी चाहिए.अपनी प्रतिभा से दीवानगी के सामने अपनी सगाई की तिथि तक भूल गये.अपनी धुन या अपनी निजता मेँ जीते हुए महापुरुषोँ से प्रेरणा लेते रहना ही स्वतन्त्रता है.ऐसा होना अधिकतर लोगोँ का असम्भव है.
माया मोह लोभ के वशीभूत होकर काम करने वाला क्या स्वतन्त्र है?ऐसा व्यक्ति क्या शान्ति व सुकून को प्राप्त कर सकता है?इन्सान को अपनी कमजोरियोँ को छिपाने के लिए बहाने बनाना व अन्य पर कमेण्टस या आलोचना आसान हो सकता है लेकिन आत्मसाक्षात्कार दौरान सामने नजर आने वाला अपना कड़ुवा सच झेलने की सामार्थ्य कितनोँ के पास है?अपनी निजता या स्वतन्त्रता को जानने के लिए आत्म साक्षात्कार आवश्यक है.
न जाने कितने विचार मेरे मनस पर हिलोरे मारने लगे थे.सुकरात व ओशो सम्बन्धी दृष्टान्त मेरे स्मृति मेँ आ चुके थे,जिन्होने क्रमश:17 व21 की उम्र मेँ अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की.
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
नक्सली कहानी :तन्हाई के कदम
एक युवती की निगाहेँ जिस पर टिकी हुई थीँ.उसके दाहिने हाथ मेँ हिन्दुस्तान दैनिक समाचार पत्र था,जिसकी मुख्य हैडिँग थी-दस नक्सली एक पुलिस मुठभेड़ मेँ ढेर.साथ मेँ एक फोटो भी छपा था.वह फोटो अमित कन्नौजिया का था.
अमित कन्नौजिया का एक फ्रेम जड़ा फोटो यहाँ इस कमरे मेँ टेबल पर रखा था.युवती ने आगे बढ़कर टेबल से वह फ्रेम मड़ी फोटो उठा ली और सिसकने लगी.
इधर झारखण्ड के एक जंगली इलाके मेँ काफी तादाद मेँ नक्सली पुलिस चौकी पर आक्रमण करके अमित कन्नौजिया व उसके अन्य साथियोँ की लाशेँ उठा लाए थे और अब उनका अन्तिम संस्कार ससम्मान कर रहे थे.
08अगस्त 2014ई0 उत्तर भारत के सीतापुर शहर मेँ स्थित गेस्ट हाउस मेँ भारत परिषद द्वारा आयोजित सम्मेलन मेँ काफी संख्या मेँ लोग एकत्रित थे.वर्तमान मेँ जिसे प्रजातन्त्र सेनानी के प्रमुख इकरामुर्रहमान खां सम्बोधित कर रहे थे.दो युवतियोँ ने आपस मेँ खुसुरफुसुर की,"काल करते हैँ.काफी टाईम होगया.पूजा को अब तक तो आजाना चाहिए था."
"अमित!तुम तन्हा तो मैँ तन्हाई.हालाँकि तुम हालातोँ से त्रस्त हो नक्सली हो गये थे लेकिन इस उम्मीद के साथ मेँ जी तो रही थी कि तुम जिन्दा तो हो.तुम चले गये तो....."फिर युवती अमित कन्नौजिया की तश्वीर सीने सटा कर रोने लगी.
"कुप्रबन्धन, भ्रष्टाचार , मनमानी व अपनी अस्वस्थता को देखते हुए तुम अपने परिवार, समाज , सारे तन्त्र ,आदि के रहते तनाव के शिकार हो गये थे.अपने को तन्हा महसूस करने लगे थे.आप तो हम युवतियोँ के प्रति भी खिन्न रहने लगे थे;कमबख्त यह लड़कियाँ क्या चाहती हैँ?कोई काली कलूटी लूली लंगड़ी ही काश हमेँ पसन्द कर लेती?यही तो न! अमित,तुम वास्तव मेँ मूर्ख थे.मैँ तुम्हेँ कैसे बताती कि मैँ तुम्हेँ चाहती हूँ.तुमने यह कैसे महसूस कर लिया कि कोई लड़की तुम्हेँ पसन्द नहीँ करती थी. तुमने किसी को मौका भी दिया क्या? "
मोबाइल पर किसी की काल आयी तो..
"हैलो"
" हाँ,हैलो! हाँ,मैँ पूजा ही बोल रही हूँ"-सीने पर से अमित की तश्वीर हटाते हुए युवती बोली.
"क्या गेस्ट हाउस नहीँ आना है?सम्मेलन शुरु हुए आधा घण्टे से ज्यादा हो गया है."
"सारी, मैँ नहीँ आ सकती. "
"अरे,पूजा!क्या बात?तुम तो रो रही हो?"
"आज का अखबार देखा है,अमित....."
15अगस्त 2 014 ई0 !
नक्सलियोँ का हस्तक्षेप पूरे देश मेँ बढ़ चुका था.नक्सलियोँ की ओर से जनता के नाम पर्चे पूरे देश मेँ जहाँ तहाँ बाँटे गये थे. जिन पर लिखा था कि-"आप क्या देश की वर्तमान व्यवस्थाओँ से सन्तुष्ट हैँ?यदि नहीँ तो क्या ऐसे ही हाथ पर हाथ धरे रहने से काम चलेगा?उन लोगोँ से क्योँ डरते हो जो कानून के ठेकेदार बनते है लेकिन स्वयं अपने जीवन मेँ कानून का 25 प्रतिशत भी पालन नहीँ करते.देश के अन्दर समस्याओँ का मूल कारण है-आदर्श व आचरण का एक दूसरे के विपरीत खड़े होना.आप कैसे श्री कृष्ण के भक्त हैँ?भूल गये कुरुशान(गीता ) का सन्देश?यदि श्री कृष्ण की शिक्षाओँ को अमल मेँ नहीँ ला सकते तो छोँड़ दो श्री कृष्ण की पूजा करना.गाँन्धीगिरी के खिलाफ मेँ भी कुछ नहीँ कहना चाहता हूँ लेकिन आप को देश की भावी पीढ़ी के लिए कोई स्पष्ट निर्णय लेना ही होगा. नहीँ तो आप ढोँगी पाखण्डी हैँ.उदास निराश युवक युवतियाँ हमसे सम्पर्क करेँ.ऐसे नहीँ तो वैसे ,कैसे भी लेकिन जीवन जियो."
पूजा नक्सलियोँ के बीच खामोश खड़ी थीँ.
" पूजा! अमित मौत के वक्त भी तुम्हारा नाम ले रहा था."
पूजा की आँखोँ मेँ आँसू थे.
वह अपने ढाढस बँधाते हुए बोली-"मैँ तो आत्म हत्या का मन बनाये बैठी थी लेकिन अमित की डायरी ने मेरी आँखे खोल दी हैँ.मैँ दुनिया के हिसाब से नहीँ जी सकती न ही ध्यान भजन मेँ मन लगा सकती.हाँ,आत्महत्या कर सकती हूँ लेकिन ......"
"अमित के काम को आगे बढ़ाना ही होगा.हमेँ सर आलोक वम्मा के प्रत्येक कथन याद हैँ,मैँ नक्सल आन्दोलन के साथ हूँ लेकिन नक्सली हिँसक आन्दोलन के खिलाफ हूँ."
लेखक:अशोक कुमार वर्मा "बिन्दु"
आदर्श इण्टर कालेज
मीरानपुर कटरा, शाहाजहाँपुर (उप्र)
बुधवार, 4 अगस्त 2010
संगीता शुक्ला का पत्��:प्रतिभा पलायन
" नौजवान गांव छोँड़ कर शहरोँ का रुख क्योँ करते हैँ?....शहर से विदेशोँ को पलायन कर रहे हैँ?.......जब यही युवा विदेशोँ मेँ जाकर अपने काबिलियत के बूते देश का नाम रोशन करते हैँ तो हम झट से उनका नाम बड़े बड़े अक्षरोँ मेँ अखबार या फिर टेलीवीजन पर दिखाते और खुश हो जाते हैँ."
आदि काल से ही परिवार ,समाज,आदि स्तर पर प्रतिभाओँ का किसी न किसी स्तर पर दम घोटनेँ की कोशिस की जाती रही है.जो अपनी प्रतिभा से समझौता न कर आगे बढ़ते रहे हैँ वे यशवान हुए हैँ और फिर कमल तो कीँचड़ मेँ ही तो खिलते हैँ न .संगीता जी जिसे आप पलायन कहती हैँ ,मैँ उसे पलायन नहीँ मानता.अपनी प्रतिभा से समझौता वैसे भी नहीँ करना चाहिए.अपनी प्रतिभा की दिशा दशा मेँ प्रवाहित होते ही रहना चाहिए.तथा कथित अपने ही निजता को मारते रहे हैँ.निन्यानवे प्रतिशत से भी ज्यादा लोग अपनी निजता से का फी दूर होते हैँ.कुछ मामले मेँ पश्चिम के लोग हम भारतीयोँ से बेहतर होते हैँ,जैसा कि मुंशी प्रेमचन्द्र ने भी कहा है.
कुछ प्रतिभाएँ ऐसी हुईँ जिन्हेँ उनके माता पिता ने तक पागल कह डाला लेकिन विदेश जाने के बाद अपनी प्रतिभा के सहारे ही वे यशवान हुईँ . अभिभावक अपनी सन्तानोँ को अपनी सन्तानोँ को सुकून देनी वाली प्रतिभा के अनकूल बनते नहीँ देखना चाहता. जिसने कहा है भारत आध्यात्मिक देश है,क्या देख कर कहा है ?यहाँ का व्यक्ति क्या चाहता है?उसके मन की दिशा दशा क्या है?जरा,अन्वेषण तो करेँ.वैज्ञानिक अध्यात्म के बिना समाज का स्तर नहीँ उठने वाला.कोरे भौतिकवाद का परिणाम देख तो रहे हो,जो कि योरोपीय क्रान्ति के बाद सत्तरहवीँ सदी से प्रारम्भ हुआ है.
6 साल पहले एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि अनुसंधानशालाओँ मेँ वैज्ञानिकोँ की कमी. जिसके बाद मेरा लेख प्रकाशित हुआ था .आखिर भारत के अनुसंधानशालाओँ मेँ वैज्ञानिकोँ कमी क्योँ न हो?वैज्ञानिक बनने के जो हालात हैँ,उन हालातोँ के खिलाफ खड़ा है अभिभावक.अभी कुछ दिन पूर्व एक समाचार के अनुसार एक विश्वविद्यालय अपने छात्रोँ मेँ से ऐसे तीन वैज्ञानिक नहीँ खोजने मेँ असफल रहा जिसे वह दिल्ली भेज सके.
ओशो ने ठीक ही कहा है कि सभी पाठशालाएँ स्मृतिशालाएँ हैँ.लाखोँ लोग प्रतिवर्ष विज्ञान की डिग्रियाँ ले सड़क पर आ जाते हैँ लेकिन उनमेँ से कितने वैज्ञानिक बन पाते हैँ या वैज्ञानिक सोँच के होते हैँ? विभिन्न मुद्दोँ पर आम आदमी और उनकी सोँच मेँ क्या फर्क होता है?
ऐसे फिर पलायन क्योँ न हो?
और फिर चाणक्य ने क्या कहा है?मनुष्य को कहाँ रहना चाहिए? फिर मैँ कहूँगा ,अपने विद्यार्थियोँ से भी मेँ यही कहता हूँ कि अपनी प्रतिभा के साथ कभी समझौता न करना.महापुरुषोँ के जीवन को स्मरण करना कभी न भूलना.चाहेँ क्योँ न हमेँ अपने परिवार समाज व देश से पलायन करना पड़े.
इसके लिए गीता से भी सीख ले सकते हैँ.आज दुख का कारण यह भी है कि हम 'स्व' से परिचित नहीँ हैँ,उसकी सुनना तो दूर की बात.
शेष फिर....
अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'
आदर्श इण्टर कालेज
मीरानपुर कटरा,शाहजहाँपुर(उप्र)
अन ्तरिक्ष मेँ भारत !
प्रकाशित हुआ था-'धरती पर आ चुके है परलोकबासी'.
अमेरिका ,वोल्गा ,आदि कीअनेक जगह से प्राप्त अवशेषोँ से ज्ञात होता है कि वहाँ कभी भारतीय आ चुके थे.भूमध्यसागरीय सभ्यता के कबीला किसी परलोकबासी शक्ति की ओर संकेत करते हैँ.वर्तमान के एक वैज्ञानिक का तो यह मानना है कि अंशावतार ब्रह्मा, विष्णु ,महेश परलोक बासी ही रहे होँ?
मध्य अमेरिका की प्राचीन सभ्यता मय के लोगोँ को कलैण्डर व्यवस्था किसी अन्य ग्रह के प्राणियोँ से बतौर उपहार प्राप्त हुई थी. इसी प्रकार पेरु की प्राचीन सभ्यता इंका के अवशेषोँ मेँ एक स्थान पर पत्थरोँ की जड़ाई से बनी सीधी और वृताकार रेखाएँ दिखाई पड़ती हैँ.ये पत्थर आकार मेँ इतने बड़े है कि इन रेखाओँ को हवाई जहाज से ही देखा जा सकता है.अनुमान लगाया जाता है कि शायद परलोकबासी अपना
यान उतारने के लिए इन रेखाओँ को लैण्ड मार्क की तरह इस्तेमाल करते थे.इसी सभ्यता के एक प्राचीन मन्दिर की दीवार पर एक राकेट बना हुआ है.राकेट के बीच मेँ एक आदमी बैठा है,जो आश्चर्यजनक रुप से हैलमेट लगाए हुए है.
पेरु मेँ कुछ प्राचीन पत्थर मिले हैँ जिन पर अनोखी लिपि मेँ कुछ खुदा है और उड़न तश्तरी का चित्र भी बना है.दुनिया के अनेक हिस्सोँ मेँ मौजूद गुफाओँ मेँ अन्तरिक्ष यात्री जैसी पोशाक पहने मानवोँ की आकृति बनाई या उकेरी गई है.कुछ प्राचीन मूर्तियोँ को भी यही पोशाक धारण किए हुए बनाया गया है.जापान मेँ ऐसी मूर्तियोँ की तादाद काफी है.सिन्धु घाटी की सभ्यता और मौर्य काल मेँ भी कुछ ऐसी
ही मूर्तियाँ गढ़ी गयी थीँ.इन्हेँ मातृदेवि कहा जाता है.जिनके असाधारण पोशाक की कल्पना की उत्पत्ति अभी भी पहेली बनी हुई है.
ASHOK KUMAR VERMA'BINDU'
A.B.V. INTER COLLEGE,
KATRA, SHAHAJAHANPUR, U.P.
रविवार, 25 जुलाई 2010
मुंशी प्रेम चन्द्र : स���माजिकता के दंश का चित्रकार
मुंशी प्रेमचन्द्र का साहित्य व्यक्ति के विकारयुक्त सामाजिकता के दंशोँ का यथार्थ चित्रण है.उनका साहित्य समाज मेँ उपेक्षित -दलित- नीच माने जाने वाली जातियोँ,दबे कुचले व्यक्तियोँ,आदि का यथार्थ है.हालांकि सवर्ण वर्ग के कुछ लेखकोँ ज्योति प्रसाद निर्मल,ठाकुर श्रीनाथ सिँह,आदि ने जातिवादि मानसिकता के साथ प्रेम चन्द्र को 'घृणा का प्रचारक' कह कर आलोचना की . डा . धर्मवीर 'प्रेमचंद्र की नीली आँखे' मेँ लिखते हैँ कि'प्रेमचन्द्र ने रंगभूमि का पाठ तैयार ही इसलिए किया था कि अपने समय के अछूतोँ के नेतृत्व से लड़ा जा सके'. राजीव रंजन गिरी हालांकि कहते हैँ, कुछ हद तक ठीक कहते है कि अस्मितावादी विचार या समूह का लक्ष्य मुक्तिकामना है. ऐसा न हो कि अपनी अस्मिता को उभारक र,ताकत अर्जित कर एक नया वृहद आख्यान रच लिया जाए और इस ने आख्यान मेँ दूसरी अस्मिताएं दब जाएं.लिहाजा लोकतांत्रिक मूल्योँ की कसौटी पर अस्मितावादी विचारोँ की जांच होनी चाहिए.
अन्य अस्मितावादी ......?!
इस वक्त मात्र एक विषय'छुआ छूत ' का लेँ,उत्तर प्रदेश के कुछ जिलोँ मेँ प्रथमिक विद्यालयोँ मेँ दलित रसोईयोँ के द्वारा भोजन पकाने का विषय है.दलित रसोईयोँ के द्वारा भोजन पकाने का विरोध क्या गैर संवैधानिक व गैर लोकतान्त्रिक नहीँ है.रसोईये पद पर आरक्षण -गैरआरक्षण की बात अलग की है.लोकतन्त्र के सम्मान का मतलब यह तो नहीँ कि विकारोँ का समर्थन करने वालोँ के पक्ष मे जा कर संवैधानिक मूल्योँ को दबा दिया जाये?
कुरीतियोँ के खिलाफ मुहिम निरन्तर जारी रखने की आवश्यकता है.क्योँ न कुरीतियोँ के समर्थन मेँ सौ प्रतिशत समाज खड़ा हो लेकिन कुरीतियोँ के खिलाफ निरन्तर दिवानगी,बलिदान,समर्पण ,आदि की आवश्यकता है.हाँ,यह भी सत्य है सारा का सारा समाज शासन प्रशासन तन्त्र धर्म से विचलित है.ऐसे मेँ गीता की बातेँ अब भी प्रासांगिक है.
सामाजिक विषमताओँ के चित्रण मेँ मुंशी प्रेमचन्द्र स्मरणीय रहेँगे.
ASHOK KUMAR VERMA 'BINDU'
AADARSH INTER COLLEGE,
MEERANPUR KATARA,
SHAHAJAHANPUR,
U.P.(INDIA)
ये अभिभावक:बच्चोँ के ��िए फुर्सत नहीँ
मार्केट मेँ 5 रुपये के आलू खरीदते वक्त सब्जीवाला यदि एक आलू खराब तौल देता है तो बौखला पड़ते हैँ लेकिन अपने बच्चोँ पर प्रति माह हजारोँ रुपये खर्च करने के बाबजूद यह फुर्सत नहीँ कि हमारे बच्चे क्या हो रहे हैँ?बच्चोँ के मन का रुझान क्या हो रहा है ?बच्चोँ से उम्मीदेँ तो बड़ी रखते हैँ लेकिन बच्चोँ के लिए समय नहीँ.जो है भी वह सिर्फ भाषणबाजी या फिर बौखलाहट का प्रदर्शन एवं मारपीट.बस,इतने से ही सन्तुष्ट कि हम इतना रुपये खर्च करते हैँ उतना रुपये खर्च करते हैँ.
कक्षा 12 का एक छात्र है-विमल राजा.उसके अभिभावक एक दिन कालेज मेँ आये.उसके क्लासटीचर बीडी मिश्रा के सामने बोले कि मेरा बालक तो किसी काम का नहीँ है.मिश्रा जी बोले कि आप का बालक सीधा है.अभिभावक बोले कि किसी काम मेँ तो होता.मुझे पता है कि वह दस प्रतिशत भी अंक पाने की योग्यता नहीँ रखता.मैँ बोल दिया कि व्यक्ति के विकास मेँ व्यक्ति के मन की दिशा दशा महत्वपूर्ण है,मन का रुझान महत्वपूर्ण है.अभिभावक बोले कि हमेँ तो किसी के प्रति भी उसका रुझान नहीँ मालूम पड़ता.मेरे मन ही मन मेँ काफी कुछ आ गया,लेकिन कहा व्यक्ति के स्तर के आधार पर जाता है.
संकोचवश मेँ धीरे से बोला कि तो क्या मन से शून्य है या अस्थिर है.
हम देख रहे हैँ कि जो अपने बच्चोँ के साथ अपना समय लगाते हैँ,आदर्श वातावरण देते हैँ ,मित्रवत व्यवहार भी रखते हैँ,आदि क्योँ न भौतिक संसाधन कम होँ.जो अभिभावक या अध्यापक सोँचते हैँ कि हम बच्चोँ को पढ़ाते हैं ,वे अज्ञानता मेँ हैँ.यदि ऐसा होता तो क्योँ अनेक विद्यार्थी संसाधनोँ के बाबजूद शिक्षा अधूरी छोड़ देते हैँ.कुछ ऐसे अभिभावकोँ से सामना होता है जो कहते है कि मैं इतना इतना रुपया खर्च करता हूँ,इतनी इतनी ट्यूशन लगवा रखी हैँ;तब भी मेरा बच्चा पढ़ता नहीँ है.भाई,पढ़ाई के लिए मानसिक तैयारी भी तो चाहिए.आज 90प्रतिशत विद्यार्थी आधुनिकता के सामने असफल है ही,मजदूर-चाट खोँन्चे वालोँ के स्तर के भी नहीँ हैँ.यदि उन्हेँ संसाधनोँ से मुक्त कर घर से बाहर धकेल दिया जाए तो ये लेबर स्तर के भी नहीँ होँ.धन्य था -मैकाले.?और आज के काले मैकाले ?! ....और धन्य 'सर्व शिक्षा अभियान'. ..सिर्फ कागजी आंकड़े ठीक कर लो भाई?!कड़ुवा सच से कब तक मुँह फेरते रहोगे?हम जैसे पागलोँ का क्या?बकवास करते करते एक दिन दुनिया से चले जाएँगे.अरे, हम जैसोँ का जीवन क्या जीवन?क्योँ न हम खिलखिलाते मुस्कुराते दुनिया से जाएँ.जीवन तो उसका है जिसके साथ लोग खड़े हैँ,जो धन दौलत गाड़ी बंगला आदि रखते है.
लेकिन मेरे साथ माँ है,जननी-मातृ भूमि-गाय!और गीता का सन्देश!
खैर!
अभिभावक क्या चाहते हैँ?वे चाहते तो है कि हमारे बच्चे 'कुछ 'बन जाएँ लेकिन यहाँ 'कुछ'से मतलब कुछ ही रह जाता है.नौकरी...शादी... धन दौलत.....लेकिन दिशा दशा?!अशान्ति...असन्तुष्टि....अवसाद...? हूँ !
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
बुजुर्गोँ की उपेक्षा : बुजुर्गोँ का पिछला स���य
जिन परिवारोँ का नेतृत्व खुशमिजाज व शान्ति पूर्ण वातावरण बनाने का हरदम रहा था ,परिवार के प्रति सदस्य से भावनाओँ का शेयर करना था,एक दूसरे के दुख दर्द,समस्याओँ मेँ हमदर्दी व समर्पण का प्रदर्शन था, समय समय पर डाँट फटकार व स्नेह प्रेम भाव का प्रदर्शन था, एक दूसरे की आवश्यकताओँ व भविष्य के प्रति मदद थी,गैर परिजनोँ के प्रति सेवा सहयोग व त्याग भाव का प्रदर्शन रहा था,जहाँ बड़ोँ के द्वारा बुजुर्गोँ की सेवा करते देखने से छोटोँ के बीच सकारात्मक सन्देश था,आदि; तो ऐसे परिवारोँ मैने शान्तिपूर्ण वातावरण देखा ही,बुजुर्गोँ का सम्मान भी देखा.क्योँ न ऐसे परिवारोँ मेँ आमदनी के संसाधन सामान्य से भी कम रहे होँ.
दूसरी ओर कुछ परिवार हम ऐसे भी देखते आये हैँ जिनके नेतृत्व मेँ निरुत्साह,खिन्नता,कर्कशवाणी,निज स्वार्थ,दबंगता,अभिव्यक्ति अनादर,भावात्मक सम्बन्धोँ का अभाव, एक दूसरे को असन्तुष्ट रखना,वातारण खुशमिजाज व शान्तिपूर्ण न रख पाना,किसी के बात का जबाव शान्तिपूर्ण ढंग से न दे पाना,आदि का होना पाया जाता है.
परिवार का मुखिया होने का मतलब यह नहीँ कि सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए जीना या उसके अनुरूप जीने वालोँ के पक्ष मेँ रहना तथा अन्य परिजनोँ को उपेक्षित कर देना तथा उन पर कमेन्टस कसते रहना .तब तो अपनी ढपली अपना राग.....?!समूह मेँ रहने की योग्यताओँ शर्तोँ का अभाव ?!जब बुजुर्ग जवान थे तब उनकी ओर से बच्चोँ को जो मैसेज मिला -जो सीख मिली, वह यह कि उसी से व्यवहार मधुर रखो जिससे आप का काम बने. अपना काम बनता भाड़ मेँ जाए जनता(परिजन)....?! घर के बाहर मुखिया अपने परिजनोँ की आलोचना कर स्वयं अपने घर को कमजोर करते हैँ .सम्बन्धियोँ की प्रशंसा मेँ अपने पास शब्द नहीँ रखते. त्याग -संयम- समर्पण- आदि की यहाँ भी जरुरत होती है , परिजनोँ की उम्मीदोँ पर खरा उतरना भी आवश्यक है.किसी ने कहा है कि माता पिता के बच्चो के प्रति कर्त्तव्य हर हालत मेँ अनिवार्य हैँ,बच्चोँ के माता पिता के प्रति कर्त्तव्य उनके संस्कारोँ पर निर्भर करते हैँ.अभी तक तुम परिजनोँ को घुटन ,निरूत्साह,द्वेषभावना ,मतभेद,निष्ठुरता,आदि मेँ रह कर व्यवहार करते रहे. अब जब तुम बुजुर्ग हो तो कहते हो बच्चे अब हमारे काम नहीँ आते?जब आप जवान थे तो काम मेँ थे. अपनी धुन मेँ थे. अरे!बच्चोँ की क्या समस्याएँ ?बच्चे खामोश हो घुट घुट जीते रहे.तुम्हारे प्रति अब वे खिन्नता मेँ जीने लगे है. बबूल बो के आम की उम्मीद कैसे रखो?तुम जब खिन्नता, द्वेष भावना, निरूत्साह, आदि परोसते रहे तो.....?!बच्चे तुमने पैदा थोड़े किये थे ,वे तो आ टपके. ओशो ने ठीक ही कहा है कि नयी पीढ़ी के स्वागत मेँ हमारी तैयारी क्या होती है? वे क्या मूर्ख थे जिन्होँने 'गर्भाधान' शब्द के साथ 'संस्कार' शब्द जोड़ कर 'गर्भाधानसंस्कार' अवधारणा की उत्पत्ति की.शादी व परिवार का उद्देश्य धर्म बताया .काम व अर्थ का परिणाम क्या होता है?तुम तब भी उम्मीद रखते थे अब भी उम्मीद रखते हो.तुम यही चाहते रहे थे कि हम से कोई उम्मीद न रखे.ऐसा कैसे हो सकता था?हर व्यक्ति का समय होता है.चलो आज बुजुर्ग हो कोई बात नहीँ,इससे पहले बच्चोँ के स्वास्थ्य का भी ख्याल नहीँ रखा.बच्चोँ के इलाज के लिए धन व समय नहीँ था. गाँव मेँ जा बुजुर्गोँ को देखने का समय न था . शहर मेँ इमारतोँ को खड़ा करने के लिए धन व समय था.जब तुम को बच्चोँ व बुजुर्गोँ कुशल क्षेम के लिए समय व धन न था तो आज तुम्हारे बच्चे तुम्हारे पथ पर है तो क्या गलत?
कुल मिला कर मैँ नई पीढ़ी के लिए मैँ पुरानी पीढ़ी को ही दोषी मानता हूँ.वह ही आज अपनी पुरानी संस्कृति का संवाहक नहीँ है.वैदिक संस्कृति मेँ हर समस्या का निदान है.
किसी ने ठीक ही कहा है-
रोज घुट घुट मर कर जिन्दा हैँ
अपनोँ के बीच ही
अकेलापन सहते हैँ
उनका मलहम भी दर्द देते हैँ
इससे तो अच्छी अनजान गलियाँ हैँ
अपनोँ से अच्छे पराये लगते हैँ.
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
सर्व शिक्षा अभियान मेँ दंश:छुआ छूत
पुरानी पीढ़ी से जो मिलता है वह सब ठीक ही नहीँ है.उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद,कानपुर देहात,औरेया और शाहजहाँपुर मेँ एक के बाद एक प्रथमिक विद्यालयोँ मेँ दलित रसोईयोँ द्वारा भोजन बनाने का बहिष्कार किया जा रहा है.मासूम बच्चोँ को यह सिखाने का काम कौन कर रहा है कि दलित रसोईयोँ के द्वारा बनाये भोजन को न खायेँ.दलित रसोईया तो पहले से ही खाना पकाते आये थे लेकिन अब विरोध क्योँ?समाज व धर्म के ठेकेदार कहाँ सो रहे हैँ?विहिप,बजरंगदल,संघ आदि जैसे संगठन कहाँ सो रहे हैँ?क्या वे भी इस बहिष्कार के समर्थन मेँ हैँ या फिर तटस्थ हैँ तो क्योँ?
विद्यालय तो ज्ञान केन्द्र हैँ. ज्ञान केन्द्र का मतलब यह नहीँ कि वहाँ समाज के परम्परागत अन्धविश्वास,कूपमण्डूकता ,आदि को बढ़ावा दिया जाये.वहाँ से तो सार्वभौमिक ज्ञान की ओर दिशा दशा मिलनी चाहिए.शिक्षा जगत से जुड़े मुझे अनेक वर्ष हो चुके हैँ. अत: हर जाति वर्ग के बच्चोँ के सम्पर्क मेँ रहा हूँ.बच्चे तो बच्चे होते हैँ, कोरे कागज के समान होता है उनका मन लेकिन....?!मत मेँ जीना कोई दोष नही लेकिन मतभेदोँ मेँ जीना ठीक नहीँ और न ही बच्चोँ को मत भेदोँ के लिए बातावरण बनाना उचित है.
समाज मेँ सब अच्छा ही नहीँ है.समाज मेँ हर व्यक्ति विकारोँ से भरा है.अनुसूचित जाति के अन्तर्गत तक विभिन्न जातियोँ के अन्तर्गत भेद व छुआ छूत है.अनुसूचित जाति के कितने लोग वाल्मिकियोँ के सामाजिक कार्योँ मेँ शामिल होते हैँ?जाति व छुआ छूत की भावना के लिए अब सिर्फ सवर्ण वर्ग ही दोषी नहीँ हैँ.हालाँकि यह सत्य है कि सवर्ण वर्ग गैर हिन्दुओँ के सामाजिक कार्योँ अब शामिल होते देखे जा रहे हैँ लेकिन हिन्दू समाज मेँ ही आने वाले जाटव व वाल्मीकि भाईयोँ के यहाँ पानी छूना तक पसन्द नहीँ करते.
अपने परिवार या समाज मेँ हम जिस अवधारणा मेँ जीते आये हैँ.जरुरी नहीँ वे अवधारणाएँ ठीक होँ.
अवैज्ञानिक व असंवैधानिक नीतियोँ का चलो बहिष्कार करो,चलता हैँ.भाई यह नहीँ चलना चाहिए.आखिर कब खुलेँगे दिमाग व हृदय के दरबाजे?मात्र स्कूली शिक्षा काफी नहीँ है और फिर स्कूली शिक्षा का उद्देश्य मात्र भौतिक कैरियर रह गया है.कुरीतियोँ के खिलाफ मुहिम न चला पाने के लिए तो अभिभावक व अध्यापक दोषी हैँ,जो स्वयं अभी कूपमण्डूक ज्ञान से भरे हैँ. मैँ तो सर्व शिक्षा अभियान को असफल मान रहा हूँ.इसका उद्देश्य मात्र मुझे व्यवहारिक रुप मेँ इतना दिख रहा है कि विश्वबैँक की नजर मेँ कागजी आंकड़े ठीक हो रहे हैं और बम्पर अध्यापकोँ की आवश्यकताओँ से कुछ घरोँ की आर्थिक समस्या खत्म हो रही है.हाँ ,यह सत्य है कि सामाजिक सुधार आन्दोलन के लिए शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है लेकिन वर्तमान शिक्षा का माडल व आम आदमी के शिक्षित होने के उद्देश्य को बहुद्देश्यीय होना आवश्यक है.सिर्फ भौतिक सोँच से भला होने वाला नहीँ.17वीँ सदी को पैदा हुई विकास की सोंच दूरगामी घातक परिणाम लाने वाली है.
ऐरे- गैरे सभी के हाथोँ मेँ अंक तालिकाएँ पकड़ा देने से विश्व बैंक की नजर मैँ आप साक्षरता के आंकड़े तो ठीक कर लेँगे लेकिन शिक्षित बेरोजगारी से आप कैसे निपटेँगे?आज की तारीख मेँ प्रति वर्ष महाविद्यालयोँ से लाखोँ लोग स्नातक- स्नातकोत्तर की डिग्री ले कर सड़क पर आ जाते हैँ. जिनमेँ से 90 प्रतिशत से ज्यादा युवक युवतियाँ सामाजिक सुधार आन्दोलन मेँ निर्रथक होते ही हैँ .शारीरिक परिश्रम व परम्परागत व्यवसाय की आदत /रुचि न होने कारण मजदूर/चाट खोँचे वालोँ/किसान/आदि से भी बदतर स्थिति मेँ पहुँच जाते हैँ और कम्पटीशन निकाल नहीँ पाते,मैरिट मेँ भी आ नहीँ पाते.हाँ,कुप्रबन्धन व भ्रष्टाचार का हिस्सा जरूर बन जाते हैँ.
बुरा न मानना,मैँ जाति व्यवस्था का तो विरोधी हूँ लेकिन वर्ण व्यवस्था का नहीँ.मैँ अब भी इस बात का समर्थक हूँ कि शिक्षा का हकदार ब्राह्मण ही है.बात है प्राथमिक विद्यालयोँ मेँ दलित रसोईयोँ के द्वार पकाए भोजन के बहिष्कार की,बहिष्कार करने वालोँ तटस्थ किया जाए या फिर उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जाए.जिन्हेँ संवैधानिक कार्यो से आपत्ति है ,उनको नागरिकता व अन्य सरकारी योजनाओँ से वंचित करने का कानून आना चाहिए.नागरिकता की परिभाषा मेँ संशोधन किया जाये.वोट की राजनीति के खिलाफ कार्यवाही किए बिना देश मेँ कुप्रन्धन से नहीँ लड़ा जा सकता. मात्र भौतिक विकास के लिए योजनाएँ बना लेने से क्या है?हमारे सामने चीन देश है तो ,उसने 50 सालोँ मेँ अपनी समस्यायोँ का निदान कर लिया है और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ भी मुहिम चला दी है.यहाँ कागजी आंकड़े ही ठीक करने मेँ लगे हैँ
मंगलवार, 13 जुलाई 2010
बहुसंख्यक मुसलमान:या���ि कि........
हजरत मोहम्मद सा'ब की इस घटना से हमेँ प्रेरणा मिलती रही है कि आप जिस गली से गुजरते थे.गली मेँ एक औरत उनके ऊपर कूड़ा डाल दिया करती थी लेकिन उसके प्रति आप कोई दुर्भावना नहीँ रखते थे.हम आचरण व सोँच से इस किरदार के रूप मेँ कहाँ पर फिट बैठते हैँ ?आम जीवन मेँ यदि हमारे साथ ऐसा हो तो हमारे क्या हालात होँगे?जरा उसको सोँच कर आत्मसाक्षात्कार कीजिए कि हम क्या धर्म मेँ हैँ या धर्म मेँ होने का ढोँग कर रहे हैँ?हमारे मन मेँ यदि माया मोह,लोभ,खिन्नता,द्वेष,जलन,आदि अपना विकास कर चुके हैँ तो हम धार्मिक कैसे? खैर....
रविवार,11.07.2010 ,8.00AM!मैँ एक हेयर कटिँग की दुकान मेँ जा एक कुर्सी पर बैठ गया.अपना मोबाइल निकाल कर मेँ एक मुस्लिम कब्बाली सुनने लगा.दुकानदार इस्लाम मताबलम्वी था.वह बोल पड़ा कि आप यह भी सुनते हो?मैने मन ही मन कहा कि क्योँ नहीँ?मैँ आप लोगोँ की तरह थोड़े ही हूँ.आप लोग कितने सेक्यूलरवादी हो?बहुसंख्यक मुसलमानोँ के बीच कितना जीता है सेक्यूलरवाद?
आज समाचार पत्र मेँ पढ़ा कि मस्जिद के नल से पानी पीने के कारण पाकिस्तान मेँ 400हिन्दुओँ को खदेड़ा गया .एक अन्य समाचार पत्र के मुख्य पृष्ठ पर समाचार था कि 'गोली मार दो ,लेकिन पाक नहीँ जाएंगे'.भारत लौटना चाहते हैँ प्रताड़ना से तंग15से20लाख हिन्दू और सिक्ख.12 साल पहले घर बार छोड़कर कराची,पेशावर और स्यालकोट से लौटे लोगोँ ने सुनाई व्यथा.मैँ एक होटल पर बैठा था .एक व्यक्ति बोला कि यहाँ भी 25 साल बाद देखना,बहुसंख्यक होने दो इन्हेँ.यहाँ पहली बात स्पष्ट सेक्यूलरवाद है नहीँ,जो है भी वह कुछ वर्षोँ के बाद देखना?अभी भी देख रहे हो ,जहाँ पर उनका वर्चस्व है.
फिर भी....
मैँ गैरमुसलमानोँ से भी सन्तुष्ट नहीँ हूँ.
कहीँ भी धर्म नजर नहीँ आ रहा है.
धर्म धर्मस्थलोँ,मजहबोँ,जातियोँ, रीतिरिवाजोँ,कर्मकाण्डोँ,अहिँसा,दबंगता,कूपमण्डूकता,आदि से नहीँ करुणा, प्रेम, सेवा, त्याग ,समर्पण ,विवेक,आदि से पहचाना जाता है.
जिन्दगी मेँ समाज:घरेलू अपराधोँ मेँ भूमिका
जिन्दगी भर समस्यावृद्धिकारक बन कर ही आता है.परिजन ,आसपड़ोस,सम्बन्धी,आदि सब के सब बनी के यार होते जा रहे है. सामूहिकता मेँ जीने गुण समाप्त हो चुके हैँ, हाँ! अवगुण अवश्य विकराल होते जा रहे हैँ.अर्थात निज् स्वार्थ मेँ समूह बनता बिगड़ता है.न्याय व ईमानदारी चेहरा व हालात देख बनती बिगड़ती है.
घरेलू हिँसा के खिलाफ किधर से भी कोई व्यवहारिक कदम नहीँ रखे जा रहेँ.आसपड़ोस,सम्बन्धी,आदि मूक दर्शक बने रहे जाते हैँ , हाँ! बर्बादी मेँ सहायक तो जरुर हो सकते हैँ.अनेक घर की कहानी के अन्त पर कल्पनाएँ भयावह व दर्दनाक नजर आती हैँ.अनेक घर समाप्त न होने वाली आन्तरिक हिँसा के शिकार हो बस बर्बादी का जश्न मनाने मेँ लगे हैँ.हम तो देख रहे हैँ किसी किसी घर मेँ मुखिया की मनमानी तक घर मेँ अशान्ति का कारण बन रही है.कर्त्तव्यविमुखता बढ़ती जा रही है.आखिर घरेलू अपराध के खिलाफ मुहिम कब छिड़ेगी?आखिर कब...?
शनिवार, 10 जुलाई 2010
अध्यापक दंश:अब अध्यापक ही बुद्धिजीवी नहीँ?
किसी ने अध्यापक को समाज का मस्तिष्क कहा है लेकिन हमेँ नहीँ लगता कि वह अब समाज का मस्तिष्क रह गया है.आज व्यक्ति परिवार समाज की दशा दिशा का आधार बुद्दि व हृदय नहीँ वरन मन इन्द्रियोँ व शरीर है.मन की दशा दिशा इन्द्रियोँ व शरीर के आधार पर विकास की ओर है न कि बुद्दि व हृदय के आधार पर.अभी हम सब अपने मन को प्रशिक्षित करने की कला नहीँ सीख पाये हैँ.अपने शरीर को प्रशिक्षित करने के सह दुनिया को प्रशिक्षण के साथ साथ अपने मन को प्रशिक्षित करना आवश्यक है.पर उपदेश कुशल बहुतेरे...........?!बीटीसी विशिष्ट बीटीसी आदि के माध्यम से युवक युवतियां अधयापक इसलिए नहीँ बन रहे कि वे अध्यापन के प्रति रूचि रखते हैँ वरन इसलिए कि आय का एक माध्यम मिल रहा है.बी टेक,बी बी ए,एम सी ए,आदि जैसे प्रोफेशनल कोर्स किए भी बीटीसी विशिष्ट बीटीसी आदि करके अध्यापक बनने की राह पर हैँ.आज भी लाखोँ युवक युवतियाँ हैँ जो उच्च शिक्षा प्राप्त या प्रोफेशनल कोर्स करने के बाद भी विचलित हैँ और किसी क्षेत्र प्रति रुचि न रखकर आय स्रोतो की तलाश मेँ हैँ और अरुचिकर क्षेत्र मेँ पहुँच रहे हैँ.ऐसे मेँ वे स्वयँ अपने साथ धौखा दे ही रहे हैँ,अन्य को भी धोखा दे रहे हैँ.
खैर.....
क्या सिर्फ पेट की आवश्याकताएँ काफी है?आज के भौतिकवाद मेँ कैरियर ने आदमी को अन्धा बना दिया है.अध्यापक वर्ण(स्वभाव ,मन की दिशा दिशा व व्यवहार) से ब्राह्मण होना चाहिए न कि वैश्य लेकिन जब ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से हीन होता जा रहा तो अन्य से क्या उम्मीद रखी जाए?
सोमवार, 5 जुलाई 2010
मनीष तिवारी:पेड़ वाले ��ाबा
रविवार, 4 जुलाई 2010
विवेकानन्द पुण्यतिथ��:04जुलाई
अन्त: प्रशिक्षण....
मन को कैसा रखेँ?कौन कितना जानता है?शरीर व इन्द्रियोँ के लिए जिए जा रहे हैँ.शान्ति,सन्तुष्टि,आनन्द,अध्यात्म,प्रेम,प्रार्थना,उदारता,आदि का सम्बन्ध मन से है.जिन्हेँ सिर्फ शारीरिक ऐन्द्रिक सुख व सांसारिक वस्तुओँ से प्राप्त नहीँ किया जा सकता.भाग्यहीनता,भाग्य,असफलता,सफलता,आदि तो सिर्फ हमारा नजरिया हो सकता है.ऋणात्मक विचार वाले जीवन मेँ कभी भी आनन्दित नहीँ हो सकते.तभी तो मेँ कहता रहा हूँ कि विचारोँ का बड़ा महत्व है.हमेँ निरन्तर विभिन्न माध्यमोँ से विचारोँ से साक्षात्कार आवश्यक है.जोकि अन्तर्प्रशिक्षण के लिए आवश्यक है.जो मेडिटेशन के आदि हो चुके हैँ ,उन्हेँ विचारोँ की दुनिया मेँ भी जाने की जरूरत नहीँ है.ऐसा तो ऋणात्मक विचार रखने वाले वहिर्मुखी व्यक्तियोँ को जरुरत होती है.ऋणात्मक विचार रखने वाले अन्तर्मुखी व्यक्तियोँ के लिए तो मेडिटेशन काफी है.पारिवारिक व सामाजिक कर्त्तव्योँ का निर्वाहन इस सब से हट कर है.यहाँ तो अन्त: प्रशिक्षण मूल केन्द्रित है.
अन्त: प्रशिक्षण कैसे?
इसके लिए पहले अपने मन के अन्दर पैदा होने वाले विचारोँ,भावनाओँ,इच्छाओँ,आदि का परिणाम व उनका विपक्ष भी जानना आवश्यक है.किस सोँच के कारण मन अशान्ति व खिन्नता मेँ आया ,इसका चिन्तन आवश्यक है.अशान्ति व खिन्नता के विरोध मेँ मन पर विचार हावी करना आवश्यक है.जिसके लिए कल्पनाशील होना भी आवश्यक है. जैसे कि मेरे मन मेँ किसी कारण से खिन्नता उत्पन्न हो जाती है तो मै अपने मन मेँ विचार ले आता हूँ कि खिन्नता न रखने से हमारा क्या नुकसान हो जाएगा?या खिन्नता रखने से क्या फायदा हो जाएगा?अपराधोँ के लिए कौन दोषी है-शरीर,इन्द्रियाँ या मन?
खैर....
देश का युवा वर्ग अपने जीवन के लिए क्या स्वामी विवेकानन्द के विचारोँ को महत्वपूर्ण मानता है ?क्या स्वामी विवेकान्द जी से प्रभावित है? क्या वह उनसे अपने जीवन के लिए प्रेरणा लेना चाहता है? क्या क्या स्वामी जी के जन्म दिवस को युवा दिवस मनाने की गलती की गयी ?जवानी है कुछ करने की ,वह भी क्या रुखे सूखे पुराने विचारोँ मेँ गवाँ देँ?बाइक.......मोबाइल....और गर्ल.....यह नहीँ तो जवानी नहीँ!
अरे,वैदिक विद्वानोँ का क्या कहना?......मेरा वश चले तो मैँ(आज के युवा) तो सलमान खाँ ,शाहरूख खान, रितिक रोशन,आदि के जन्मदिनोँ को युवा दिवस मनाने की माँग करता? बुरा लगा हो तो क्षमा करना.
हूँ.........आज का दिन मैने जहानी खेड़ा -मोहम्मदी रोड स्थित मकसूदपुर (लखीमपुर) मेँ बिताया.जहाँ मेँ कल 4.00PM पर पहुँचा था.यह मेरा वहाँ जाना पहली बार था.अभी कुछ देर पहले ही मैँ वहाँ से कटरा लैटा था.
रविवार, 27 जून 2010
गुरु हरगोविन्द सिँह ��यन्ती:27जून
11.00AMको यज्ञ!रामेश्वर दयाल गंगवार'आर्य'पुरोहित!हेतु श्रुति कीर्ति का नामाकरण संस्कार!
क्योँ ये खिन्नता?
06.43PM !मैँ इस लेख को टाईप कर रहा था कि पत्नी के मोबाइल प्रियांशी की काल आगयी.चालीस मिनट पहले ही यहाँ(बीसलपुर आवास )से निकली थी.इस लेख को टाइप करते रहने के दौरान ही मैँ सुरक्षित यात्रा के लिए कामना मेँ था और अनुमान लगाता जा रहा था कि कितनी यात्रा तय की जा चुकी होगी?6.34PMपर मैने अनुमान लगा लिया था कि अब प्रियांशी आदि खजुरिया पहुँच चुकी होँगी.इच्छा तो थी कि अभी काल करके पता लगाएँ कि सही सलामत पहुँची कि नहीँ?लेकिन ,यह खिन्नता क्योँ?6.43PMपर जब प्रियांशी का फोन आया तो मेरी पत्नी उससे कुछ बात करने के बाद हमसे बोली कि प्रियांशी आप से बात करना चाहती है लेकिन मैँ इस वक्त उससे बात नहीँ करना चाहता था?मैने मोबाइल स्वीच आफ कर दिया.मेरी पत्नी ने फिर स्वीच आन कर प्रियांशी को काल किया-हम से ही बात कर लिया करो,देख लिया अपने मौसा जी को?
लेकिन मेरी खिन्नता?
दरअसल,प्रियांशी और मैने एक दिन पूर्व ही निर्णय ले चुके थे कि हम दोनोँ सोमवार,28.06.2010 को सुवह खजुरिया चलेँगेँ लेकिन प्रियांशी आज ही चालीस मिनट पहले ही चली गयी.हूँ......?!खिन्नता का मनोविज्ञान ! हमेँ अभी अन्तर्साधना के पथ पर आने वाले अनेक अवरोधोँ को तोड़ना है.
¤सिक्ख सम्प्रदाय व जीवन¤
जीवन मेँ सीखने व अनुभव का बड़ा महत्व है.सिक्ख परम्परा जिसका आधार है.जीवन को सुन्दर व गतिशील बनाये रखने के लिए जीवन भर सिक्ख परम्परा को बनाए रखना आवश्यक है.जो सिर्फ काम व अर्थ के लिए अपने जीवन मेँ व्यवहार करते हैँ वे सनातन यात्रा व अपनी आत्मा की पकड़ से हीन होते हैँ.ऐसोँ को निरन्तर सत्संग व सिक्ख परम्परा मेँ जीना आवश्यक है.निरन्तरता ही उन्हेँ उनके मन पर सुविचारोँ व सद्भावनाओँ का आवरण देती है.
शुक्रवार, 18 जून 2010
झांसी रानी पुण्यतिथि:18जून
18जून2010 दिन
शुक्रवार !
8.20 PM. कहाँ रहना ....??
एक दिन एक युवक ने हमसे पूछा कि किसी ने हमेँ जन्म दे दिया .क्या इसका मतलब यह है कि उसके करीब रह अपना जीवन नष्ट कर लेँ और सिर्फ पशुओँ से भी गिरा जीवन जियेँ?मैँ खामोश ही रहा.अपना कौन है?उसने दूसरा प्रश्न किया.
आपके सवाल किस नियति किस कारण से पैदा हुए हैँ?उसका विश्लेषण आपके अतिरिक्त मैँ या अन्य नहीँ कर सकता.हर समस्या या सवाल का हल अनेक स्तर का हो सकता है.हम भौतिक मूल्योँ को यदि महत्व देते हैँ,आप आध्यात्मिक मूल्योँ को तो हमारे समाधान आपके लिए कैसे हो सकते हैँ?यदि आपकी नियति व सोँचने के ढंग मेँ धर्म- सत्य -सार्बभौमिकता- आदि है और अपने परिवार मेँ रहते आप लक्ष्य ,सम्मान,सहयोग आदि नहीँ पा सकते हैँ तो स्थान परिवर्तन आवश्यक है.महापुरुषोँ का जीवन उठा कर देखो,उनके जीवन मेँ स्थान परिवर्तन का बड़ा महत्व रहा है .
जहाँ हम असमर्थ पागल आदि ही सिर्फ साबित हो सकेँ या अपनी क्षमता व लक्ष्य के अनरुप या उत्साहित ढंग से कार्य न कर सकेँ तो
.....?!
अधिक से अधिक लोगोँ से मुलाकात सम्वाद आवश्यक है.भौतिक संसाधनोँ को सिर्फ महत्व देने से काम नहीँ चलता वरन लोगोँ -मनुष्योँ को कमाना अति आवश्यक है,अपना लक्ष्य -समूह बनाना अति आवश्यक है.तथाकथित अपने या परिजन आवश्यक नहीँ आपके मददगार बनेँ?वे तो लकीर के फकीर होते हैँ.और फिर किसी ने ठीक कहा है कि धर्म के रास्ते पर अपना कोई नहीँ होता जिसकी सीख कुरशान अर्थात गीता से मिलती है.जब निजस्वार्थ(अधर्म)मेँ लोग मनमानी कर सकते हैँ तो हम स्वार्थ (धर्म)मेँ मनमानी क्योँ नहीँ कर सकते?क्या बकवास करते हो?स्वार्थ(धर्म).....?!जरा गीता का अध्ययन कीजिए,'स्व' का अर्थ स्पष्ट हो जाएगा.'पर' का अर्थ स्पष्ट हो जाएगा.स्थूल जगत मेँ कौन है अपना?प्रतिदिन हमारी नजरोँ के सामने से अनेक व्यक्ति व परिवार या घर आते हैँ,क्या हम उन से व्यवहार रखना चाहते हैँ?जो हमारे अनुकूल होते हैँ उन्ही से व्यवहार रखना चाहते हैँ.इसी तरह कुछ अपने परिवार के प्रति है,यदि कोई बच्चा बड़ा होकर अपने परिवार से दूर भागने लगे तो इसके लिए क्या बच्चा दोषी है?एक परिवार मेँ एक बालिका कहती है कि कर लो अपनी मनमानी ,बड़ी होने के बाद यहाँ न आऊँ गी.ऐसी सोँच को कौन दोषवान है?जब परिवार का नेतृत्व जब एकपक्षीय व मूल्यहीन हो तो उस परिवार की दिशा -दशा कैसी ..? ये समस्यावृद्धिकारक के रुप मेँ क्या नहीँ जीते ?जिस परिवार मेँ परिवार चलाने का मतलब है अपनी इच्छाओँ का थोपना और दूसरोँ को असन्तुष्ट रखते हुए दूसरोँ की भावनाओँ व अभिव्यक्ति के सामने बौखलाना या अपने अशान्त मन मेँ जीना.....या ज्यादा धन कमाने वाले के व्यवहारोँ या सामान्य मेँ व्यवहारोँ को नजरान्दाज करना.इसका मतलब क्या है कि मुखिया कहता फिरे कि जमीन -जायदाद
बेँच डालेँगे या गिरबी डाल देँगे या किसी को गोद ले लेँगे?कोई कब तक सुने धौँस? चलो ठीक है,तुम अपनी दुनियाँ
हम अपनी दुनिया!अपनी कमाई का अपने आप से खाओ .क्योँ किसी को अपनी कमाई का खबाओ?सब के सब अपनी भावनाओँ का गला घोटने वाले नहीँ और तुम भी हो कि अपनी भावनाओँ के सामने किसी को क्योँ महत्व देना?लोग यह मानते होँगे कि एक दूसरे की आवश्यकताओँ मेँ सामंजस्य का नाम रिश्ता है,हमारा तो वही रिश्तेदार है जो हमारी हाँ मेँ हाँ मिलाए.वैदिकता मेँ विवाह व गृहस्थ का उद्देश्य शरीर सुख नहीँ परिवार व सन्तान सुख बताया गया है.और......एक और स्मृति.....समाज मेँ कुछ मिल जाते हैँ जो कहते हैँ कि दो ढाई हजार के लिए इधर उधर मड़राते रहोगे?लेकिन परिजनोँ व सम्बन्धियोँ मेँ ऐसा कहने वालोँ का अकाल सा पड़ जाता है.
खैर!
आज18जून दिन शुक्रवार!लक्ष्मी बाई की पुण्य तिथि!30साल बाद मेरी यह रात खजुरिया नवीराम(बिलसण्डा)पीलीभीत मेँ! प्रात: 3.25 AM वक्त!लगभग दो घण्टे की नीँद के बाद कुछ उम्मीदोँ के साथ मैँ बेचैन हो उठा था.लगभग 7.25AM पर मैँ
बीसलपुर पहुँच गया था.मैँ वर्तमान मेँ था लेकिन कुछ बाह्य कारकोँ के कारण शंकाएँ आ घेरती थीँ.सब कुछ सामान्य बीत गया.8.20AM पर सामान्य डिलीवरी के साथ सब कुछ सन्तोष जनक ढंग से निपट गया.मैने चिकित्सिका शालिनी सिँह को बरामदे मेँ देखा तो उत्सुकतावश आगे बढ़ा,शालिनी सिँह से कुछ भी न पूछ नमस्ते कर रह गया.बरामदे मेँ प्रवेश करते ही प्रियांशी से सामना हो गया."मौसा जी!लड़की हुई है"-वह बोली.मैँ मुस्कुरा दिया.मैँ अब निश्चिन्त था कि सब सामान्य बीत गया.20मई20जून के बीच जन्मेँ जातकोँ को मिथुन राशि के अन्तर्गत रखा जाता है.जिसका स्वामी बुध होता है और जातकोँ का नाम क कि कु घ ड़ छ के को ह से रखा जाता है.जिसके आधार पर मैने पुत्री को नाम दिया-कुणाल राखी.
गुरुवार, 10 जून 2010
अखण्ड ज्योति:हिम्मते���रद मददेखुदा
मंगलवार, 25 मई 2010
अशोक कुमार वर्मा'बिन��दु'द्वारा बेला रानी ,रुद्रपुर की कविता:पहचान चाहिए
खमोशी नहीँ,सुलझी सी बात चाहिए
अब वो परदे के पीछे की आन नहीँ
घर की चारदीवारी की शान है
निकली है वो सपनोँ को पाने के लिए
लक्ष्य तक ले जाने वाला एक बाट चाहिए
अपनी व्यथा न कहकर
छुप छुपकर रोने के दिन बीत गए
सबके दिलोँ को चीरकर
रखनेवाली बुलन्द आवाज चाहिए
हमेशा से करती आई है
सबके लिए जीवन न्यौछावर
अब बिना पंखोँ के ही
न रुकने वाली उड़ान चाहिए
देवी नहीँ बनना चाहती है वो
बस उसे अब अपनी पहचान चाहिए .
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सोमवार, 24 मई 2010
प्रेम से साक्षात्कार !
हम किसी को चाहते चाहते खिन्न चिड़चिड़े आदि होने लगेँ तो इसका मतलब यही है कि हम जिसे चाह रहे हैँ उससे हमेँ प्रेम नहीँ है.अच्छा तो यही है कि हम सभी का सम्मान करेँ और जो हमेँ चाहेँ उनसे प्रेम करेँ.प्रेम मेँ तो हम तब है जब अहंकारशून्य होँ,नम्रता बिना हम प्रेमवान नही.
शेष फिर....
www.kenant814.blogspot.com
सोमवार, 17 मई 2010
विज्ञान कथा: कलि न्या��� (सुप्रीम कोर्ट की ना��को परीक्षण पर ना '5मई2010'के प्रति विरोध जताते ��ुए यह कथा प्रस्तुत) लेखक:अशोक कुमार वर्मा'ब��न्दु'
इधर धरती पर सेरेना--
" इन्सान मतभेद की मानसिकता से ग्रस्त रहने वाला प्राणी है.वह अनेक पूर्वाग्रहोँ भ्रम शंका अफवाह मेँ रह कर व्यवहार करने वाला है.जिससे न जाने कितने निर्दोष इन्सान बलि चढ़जाते हैँ."सेरेना फिर खामोश हो गयी.
"खामोश क्योँ हो गयीँ सेरेना ?"
"सन्ध्या बैरागी!आपकी माँ रजनी बैरागी पुरुष प्रधान दबंगवादी कामुक भेड़ियोँ के परिवेश मेँ क्या क्या न सही ? वो तो तुम...तुम अपनी माँ के पेट मेँ थीँ उस वक्त,जंगल के बीच एक नदी मेँ बहोश मिली थीँ उस तांत्रिक अर्थात जिसे तुम बाबा कह कर पुकारती हो,को तुम्हारी माँ."
" सेरेना,मैँ कभी कभी हीनता का शिकार हो जाती हूँ कि जिन .. " "सन्ध्या तुम भी .....तब ठीक था किअब ठीक है?बाबा के पास से पुष्प कन्नोजिया की लाश न लातीँ तो क्या होता?यदि बाबा कामयाब हो जाता तब तो ठीक,नहीँ.... "
" तभी तो सुकून कर लेती हूँ कि पुष्प कन्नोजिया का शरीर अब फिर जिन्दा है.तुम सब धन्यवाद के पात्र हो. "
सितम्बर सन2010ई0के प्रथम सप्ताह की बात है,ग्राम प्रधान के चुनाव का माहौल था.शाहजहाँपुर जनपद के निगोही कस्बे से लगभग बारह किलोमीटर दूर एक गाँव-अहिरपुरा,जहाँ एक जाटव परिवार मेँ एक युवती थी-अनेकता भारती.वह प्रतिदिन लगभग एक वर्ष से शाहजहाँपुर जा कर संगणक अर्थात कम्प्यूटर मेँ ट्रेनिँग पर जा रही थी.जिस कम्प्यूटर सेन्टर'सुनासिर कैरियर सेन्टर' पर वह ट्रेनिंग कर रही थी,उसका मालिक था पच्चीस वर्षीय एक युवक- बिन्दुसार वम्मा . अचानक अनेकता भारती लापता हो गयी,उसके परिजनोँ ने बिन्दुसार वम्मा के खिलाफ थाना मेँ रिपोर्ट दर्ज करवायी.क्या वास्तव मेँ बिन्दुसार वम्मा दोषी था?उसका जीवन अब तहस नहस होने की ओर था.उसके परिजनोँ ने उसकी मदद से हाथ पीछे खीँच लिए थे.कम्प्यूटर सेन्टर अपनी बिजनिस पार्टनर वैशाली जैसवार के सपुर्द कर अज्ञातबास मेँ चला गया .पन्द्रह दिन बाद अनेकता भारती की लाश खुटार के जंगल मेँ पायी गयी.इधर बिन्दुसार वम्मा की पत्नी रैना गंगवार एक साल से बिन्दुसार के परिजनोँ से असन्तुष्ट हो कर अपने मायके रह रही थी,जिसने आत्म हत्या कर ली .रैना गंगवार के भाई व पिता ने बिन्दुसार व उसके परिजनोँ पर दहेज व प्रताड़ना का आरोप लगा कर थाना मेँ रिपोर्ट लिखवा दी.
भ्रम ,शंका, अफवाह ,मतभेद, व्यक्तिगत ,स्वार्थ, भ्रष्टाचार ,कुप्रबन्धन ,झूठे -पाखण्डी -भेड़चाल भीड़, आदि के चलते क्या से क्या हो जाए कुछ पता नहीँ.ऐसे मेँ अचानक बिन्दुसार वम्मा का ध्यान पीस पार्टी की इस माँग पर गया कि विभिन्न पदोँ पर चयन के लिए नारको परीक्षण व ब्रेन रीडिँग को अनिवार्य किया जाए. इसी आधार पर युवा वैज्ञानिक भविष्य त्रिपाठी द्वारा निर्मित 'कम्प्यूट्रीकृत न्याय कक्ष' के सम्बन्ध मेँ वह भविष्य त्रिपाठी से मिला.
"दोस्त बिन्दुसार!आप ठीक कहते हैँ लेकिन अभी हमारे इस निष्पक्ष न्यायवादी कम्पयूट्रीकृत रूम को भारत सरकार ने मान्यता नहीँ दी है और इस प्रोजेक्ट को मैँ विदेश लेजाना चाहता नहीँ."
" भविष्य फिर भी .......मेरे व मेरे परिजनो के सत्य को इस कक्ष के माध्यम से जाना जा सकता है.जिसके माध्यम से मीडिया व समाज को भविष्य के लिए एक मैसेज तो जाएगा."
" ठीक है!"
" थैँक यू!"
बिन्दुसार वम्मा व उसके परिजनोँ के परीक्षण के साथ साथ भविष्य त्रिपाठी विपक्ष के कुछ व्यक्तियोँ का परीक्षण करने मेँ सफल हुआ.जिसके आधार पर भविष्य त्रिपाठी ने बिन्दुसार त्रिपाठी व उसके परिजनोँ के निर्दोष होने की रिपोर्ट मीडिया व कुछ अन्य संस्थाओँ को दी जिसका पीस पार्टी व कुछ वैज्ञानिक संस्थाओँ के अलावा किसी ने समर्थन नहीँ किया.कुछ राजनैतिक दलालोँ व अपने बहनोई के कूटनीतिक सहयोग से पुलिस बिन्दुसार वम्मा व उसके परिजनोँ को गिरफ्तार करने मेँ सफल हुई.आगे चल कर बिन्दुसार वम्मा को अदालत के द्वार आजीवन काराबास की सजा सुनायी गयी ,उसके अन्य परिजनोँ को निर्दोष साबित कर छोँड़ दिया गया.
लगभग पन्द्रह साल बाद ऐसी घटनाएँ घटी जिन्होँने साबित कर दिया कि बिन्दुसार वम्मा निर्दोष है.अब तो मशीनेँ ही न्याय करने लगी थी.इन्सान तो मतभेद ,स्वार्थ, भ्रम शंका, अफवाह ,दबाव, आदि मेँ आकर अन्याय ही करता आया था.
भविष्य त्रिपाठी धरती पर आ कर सेरेना की ओर चल दिए.