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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

देशभक्ति .....?!#अशोकबिन्दु

 देश भक्ति !!



हमें नहीं लगता कि वर्तमान नेता, दल ,संस्थाएं, समाज व देश के ठेकेदार समाज व देश का भला कर सकते हैं।



देश की जनता, वनस्पति, जीवन जंतुओं के लिए जो आचरण, व्यापार, विनिमय आदि भविष्य के खतरनाक है वह के खिलाफ नेता, दल ,समाज व संस्थाओं के ठेकेदार क्यों नहीं बोलते?संसद ,विधानसभाओं  आदि में उस पर आवाज क्यों नहीं उठाते?


जो व्यवस्थाएं देश की जनता के लिए  घातक हैं उसको खत्म करने का जिम्मा क्यों नहीं लेते।



नशा व्यापार, खाद्य मिलावट, जातिवाद, जातिगत व मजहब के आधार पर कानून आदि देश के हित में नहीं है तो उन्हें खत्म क्यों नहीं किया जाता?



देश का सम्विधान यदि महत्वपूर्ण है तो उसके आधार पर चलने वालों के लिए ही सिर्फ नौकरियों को क्यों नहीं सृजनित किया जाता। देश के अंदर यदि सेक्युलर राज्य है तो फिर सरकारें, सरकारी कर्मचारी एक जाति मजहब में सार्वजनिक क्षेत्र में क्यों आचरण करते हैं?  जाति मजहब के आधार पर स्थापित संस्थाओं को सरकारी मान्यता क्यों दी जाती है?


मानवता से बढ़ कर नहीं है सामजिकता ::अशोकबिन्दु

 समाज व सामजिकता तो कायर होती है क्योंकि वह अन्धविश्वसों, कुरीतियों के खिलाफ जंग नहीं लड़ती।

वह सम्प्रदायों, जातिवाद में जीती है। उसका धर्म नहीं होता।


धर्म तो व्यक्ति का होता है।व्यक्तित्व तो व्यक्ति का होता है। मानवता तो मानव का होती है।


सत्यार्थी::दुर्योधन संस्कृति !?भाग 02 #कृष्णकांत शर्मा


                             श्रीअर्द्धनारीश्वर अवधारणा व अन्य आध्यात्मिक चिंतन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि चेतना हर बिंदु पर दो सम्भावनाएं रखती है। प्रकृति व उसकी विविधता में ऐसा है ही।


ये जगत पक्ष - विपक्ष का सम्मिलन है। अकेला पक्ष या विपक्ष अराजकता को जन्म देता है इस भौतिक जीवन में।






शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

सत्यार्थी::दुर्योधन संस्कृति?!भाग 01#कृष्ण कांत शर्मा

 

यह सत्य कि हाड़ मास शरीर, मांस हड्डी, आत्मा, दिल, दिमाग,मन, विचार, भाव आदि जातिवाद, मजहबवाद, धर्मस्थलवाद आदि का मोहताज नहीं है। इसकी आवश्यकताओं के लिए जीना प्राकृतिक, नैसर्गिक कर्तव्य है।हम सबका, जीव जंतुओं,प्रकृति के बीच अनेक स्तर, विभिन्नता, विविधता है।लेकिन इस सब विविधता के बीच एकत्व तन्त्र को समझना आवश्यक है, जिसके बिना जीवन निरर्थक है।नेतृत्व के लिए महत्वपूर्ण कार्य होता है-कैसे विविधता, विभिन्न स्तरों के बीच सन्तुलन बना कर कार्य किया जाए?ईश्वरीय सत्ता के केंद्रीयकरण व विकेंद्रीयकरण की समझ के बिना नेतृत्व अधूरा है। संस्थाओं, समाज, देश, विश्व शांति व कल्याण के लिए विभिन्नता में एकता, सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर आदि की स्थिति को समझना आवश्यक है।मुट्ठी के महत्व को समझना आवश्यक है।हथेली की अंगुलियों की भांति संस्थाओं,समाज,प्रकृति में विभिन्नता रहती है, छोटे बड़े स्तर रहते हैं लेकिन ये विभिन्नता ही मुट्ठी बनाने, सुप्रबन्धन हेतु आवश्यक हो जाती। 


अब सवाल उठता है, नेतृत्व कैसा हो?किसी ने कहा है -यथा राजा तथा प्रजा। अफसोस आजकल भी  नेतृत्व दुर्योधन कल्चर के ही साथ खड़ा होता है।इतिहास बारबार दोहराया जाता है।

आखिर क्या है?दुर्योधन कल्चर?!दुर्योधन संस्कृति?! हालांकि अनन्त यात्रा में तो सब समाहित है।गीता के विराट रूप से क्या स्पष्ट होता है?जगत की विभिन्नताओं से हट कर अनन्त की ओर जाती धाराएं नजर आती है।

               



सत्य/यथार्थ
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स्थूल                 सूक्ष्म         कारण
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बनावटी     नैसर्गिक
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भौतिक   आध्यात्मिक    सन्तुलित
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कुप्रबंधन            सुप्रबन्धन

             



हमें इस पोस्ट पर दुर्योधन कल्चर पर बोलना है, अभिव्यक्ति में जाना है। आखिर दुर्योधन कल्चर क्या है ?इस पर जाने के लिए हमें समझना होगा हम अपने को कुछ भी समझे ब्राह्मण या  शूद्र ,किसी भी मजहब या देश से अपने को जोड़ें, इस सब को हम ताख पर रख कर      यथार्थ पर जाना चाहेंगे। हम वास्तव में दुनिया की नजर में,जाति, मजहब की नजर में,सस्थाओं की नजर में क्या दिखते हैं?यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण ये है कि हम वास्तव में हैं क्या असलियत की नजर में,कुदरत की नजर में,आत्मा - परम् आत्मा की नजर में?      


अशोकबिन्दु कहते रहे हैं, जो भी है; हम उसको तीन स्तरों से देख सकते हैं। हमारी आवश्यकताए ...?! हम अपनी आवश्यकताओं को भी तीन भागों में बांट सकते हैं!



         आवश्यकताएं
 
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भौतिक   आध्यात्मिक    सन्तुलित
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कुप्रबंधन            सुप्रबन्धन



दुर्योधन संस्कृति में हमारी आवश्यकताएं क्या होती हैं?दुर्योधन संस्कृति में हमारा सत्य/यथार्थ क्या होता है?

हे अर्जुन (अनुराग) उठ ! मैं आत्मा के रूप में तेरे साथ हूँ! आत्मा रूपी सिंहासन को अपना स्थान बना।
यहां पर  अनुराग से मतलब क्या है? अनुराग से मतलब है दुर्योधन संस्कृति के विपरीत !!

......तो फिर दुर्योधन कल्चर से क्या मतलब है?

दुर्योधन कल्चर वही है जिसमें हम भी जीते हैं? हम आत्मा के प्रेमी नहीं हैं।हम परम् आत्मा के प्रेमी क्या होंगे ? हम किसी जीवित महापुरुष के भी प्रेमी नहीं हैं। हम सब भी रुपया पैसा, गाड़ी बंगला, यश अपयश, पसन्द नापसन्द, अच्छा बुरा ,लोभ लालच आदि के प्रेमी हैं।




शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

सामूहिक जीवन में स्वतन्त्रता ?!#अशोकबिन्दु

 किसी ने कहा है-उपदेश, आदेश महत्वपूर्ण नहीं है।वातावरण, कार्यक्रम, समय सारणी, दिनचर्या महत्वपूर्ण होती है।हम जिन आश्रमों, शिविरों में जाते हैं।वहां परस्पर सहयोग, सहकारिता,समय सारणी,कार्यक्रम आदि को महत्व होता है।आदेश उपदेश को नहीं।....मुंशी प्रेमचंद ने कहा है-सरकार निरर्थक है।दुनिया को इस पर आश्चर्य हो सकता है।देश के अंदर अनेक लोग कहते हैं, हम अपने परिवार व अपने बच्चों के लिए कर रहे हैं?वहीं हम मराठा, सिक्ख, जाट समुदाय आदि में हम देखते हैं कि समाज, देश आदि से सम्बंधित अपनी समस्याओं के लिए धरना, आंदोलन आदि में अपनी फैमिली के साथ ही अपने कुटुम्ब के साथ ही आ डट ते हैं।#अशोकबिन्दु #ज्ञानान / #तालिबान ...?! #हा हा...?!





स्वतन्त्र बनाम परतन्त्र सामूहिकता के मध्य::अशोकबिन्दु


हमारी स्वतन्त्रता ही हमारी अंतर प्रतिभाओ को उजागर करती है। जो सबमें रमा है,हमारा राम का अस्तित्व वहीं से शुरू होता है। वहीं से द्वार है अनन्त का,अनेकता में एकता का, विविधता में एकता का।हमारी समीपता का हमारे जीवन में प्रभाव होता है।हमारी प्राथमिक समीपता हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे माता पिता,हमारा परिवार, पास पड़ोस, हमारी आवश्यकताए हैं। ऐसे में हमारे चारों ओर एक प्रकार से एक परिवेश, वातावरण, सामूहिकता तैयार रहती है।जिसमें उत्साह, प्रेरणा, सहयोग, सम्मान,आवश्यकताओं के लिए प्रबन्धन भी शामिल है।


स्व का जीवन मे बड़ा महत्व है।हमारा स्व हमारे व्यक्तित्व को खड़ा करता है। वहीं से हमारी कार्य क्षमता के लिए ऊर्जा केंद्रित होती है। स्व ही आत्मा है, स्व ही आत्मियता है, स्व ही अनन्त का द्वार है, स्व से सनातन का प्रारंभ बिंदु है। स्व से ही स्वास्थ्य है।स्व का तन्त्र ही स्वतन्त्रता है।स्व का अभिमान ही स्वाभिमान है।स्व का बल ही आत्मबल है।स्व की निर्भरता ही आत्मनिर्भरता है। जिसके लिए अवसर ही हमारा अवसर है, जिसके लिए ही वातावरण हमारा वातावरण है।जिसके लिए कार्य शैली हमारी कार्यशैली है। ऐसे में परतन्त्रता का कोई औचित्य नहीं।लेकिन यह जब जाति, मजहब, लोभ, लालच, व्यक्तिगत शारिरिक व इंद्रियों की सिर्फ इच्छाओं का जामा पहना लेता है तो समाज में उन्माद, भीड़ हिंसा, द्वेष, भेद आदि का जहर भरता है।अराजक बनाता है।आज कल कुलों, समाज, संस्थाओं आदि में कुछ लोगों  के माध्यम से यही अराजकता, मनमानी, चापलूसी आदि के रूप में समाने आता है लेकिन जो अपने स्व में सहज होते है, या उस सहजता में जीते हैं ,आंतरिक निश्चलता में जीते हैं उन्हें या उपद्रवी या असफल या निरर्थक घोषित कर दिया जाता है।आदि काल से ऐसा वन्य समाज, कृषक आदि के साथ भी होता रहा है।



आध्यत्म अर्थात आत्मा के विज्ञान में आदेशों तक को महत्व नहीं दिया गया है, वरन सुझाव, सहयोग ,परस्पर सहकारिता ,सेवा, कर्तव्य आदि को महत्व दिया गया है।मुंशी प्रेम चन्द्र तो कृत्रिम सरकार को ही निरर्थक मानते है। ऐसे में हमारी योग्यता क्या है?एक नवजात पक्षी की योग्यता क्या है?उसकी शाखा ही, उसका घोसला ही उसकी योग्यता का आधार है।एक बच्चा की योग्यता का आधार उसका बच्चापन ही है। हमारी योग्यता क्या है?



हमारी योग्यता हमारे स्तर, हमारी समझ, हमारे नजरिया, हमारे चेतना के बिंदु, हमारी ऊर्जा के बिंदु से शुरू होती है।गीता के एक भाष्यकार ने भी कहा है कि व्यक्ति के सुधार व व्यक्ति के अंदर की दिव्यता व प्रतिभाओं का जागरण की शुरुआत उसके ही स्तर से शुरू की जा सकती है।हमारी योग्यता क्या है?आपकी आपके समाज की नजर में हमारी योग्यता कुछ भी नहीं है।हां,वह आपको सनकी नजर आ सकती है। जो अनन्त के द्वार अर्थात आत्म पर बार बार अपने पूरे अस्तित्व को खड़ा कर देना चाहता है, उसकी योग्यता आपकी नजर में क्या है? उस दिन दो अक्टूबर विश्व अहिंसा दिवस..... कार्यक्रम का संचलन पुष्पेंद्र सिंह यादव कर रहे थे। वे बोले -"बोलोगे?हम आपका नाम बोल देंगे?" हमने कह दिया - " नहीं, हम नहीं बोलेंगे।"

वे बोले -"बोलते तो रहते हो?कहेंगे तो नहीं बोलोगे? तब हमने कह दिया-"हमें बोलना होगा तो हम बोल देंगे।" 


अनन्त से जुड़ी प्रबुद्धता अनन्त हो जाती है।निरतंर हो जाती है।ये हाड़ मास शरीर तो थक सकता है लेकिन अनन्त या निरन्तरता से जुड़ी प्रबुद्धता नहीं। ऐसे में हम आपकी नजर में  क्या योग्य?!आप किस स्तर पर काम करना चाहते हो और हम किस स्तर पर कार्य करना चाहते है।हम अपने स्तर पर कभी न थकने वाले हैं, निरन्तर है लेकिन हमें अवसर तो दो।अनन्त यात्रा में तो निरन्तरता है वहां थकान ही नहीं।लेकिन ऐसे लोग आपकी नजर में सनकी है।औऱ उपद्रवी भी है।जब #रामतीर्थ अमेरिका गए तो पत्रकारों में पूछा -यह दुनिया किसने बनाई?उनके मुंह से निकल गया-"हमने"!दूसरे दिन #रामतीर्थ के खिलाफ अनेक अखबारों ने छापा।आप सब व आपको दुनिया क्या जाने -सागर में कुम्भ, कुम्भ में सागर की स्थिति?अनन्त यात्रा व सनातन की स्थिति?!आपको आपके दुनिया को तो हाड़ मास शरीर, लोभ लालच, रुपया पैसा, जाति-मजहब,धर्म स्थलों आदि से ही फुर्सत नहीं।आत्मा के लिए ,परम् आत्मा से जुड़ने उसकी आवश्यकताओं के लिए फुर्सत कब होगी?



निरन्तरता में कोई मंजिल नहीं, पूर्णता नहीँ।वहां विकास नहीं।वहां तो निरन्तरता है, विकास शीलता है।

ऐसे में व्यक्ति के अंदर की निरन्तरता से जुड़ना अति महत्वपूर्ण है।




आत्मा, परम् आत्मा कब सक्रिय होता है।जब उसके अनुकूल वातावरण होता है।उसके लिए मानसिक, भावात्मक स्तर पर पवित्रता चाहिए, सहजता चाहिए, स्वभाविकता चाहिए।सत्य चाहिए।यथार्थ चाहिए।जहां तमासी प्रवृतियां, झूठ, लोभ लालच, मदिरा, मांस भक्षण,शोषण, अपराध, माफियागिरी आदि हो रहा हो वहां आत्मा, परम् आत्मा कैसै उजागर होगा?होगा भी तो किस स्तर पर?15 अगस्त 2021 को हमारे साथ क्या हुआ?स्वतन्त्रता दिवस कार्यक्रम के दौरान अंत में प्रबन्धक महेश चंद्र महरोत्रा जी बोलते बोलते आत्मा पर आ गए।वे मानव के अंदर की आवश्यकताओं पर बोलने लगे।हम इतने उत्साहित हो गए कि हम उठने को करने लगे और हमारी बोलने की इच्छा होने लगी।इसके साथ ही हम अंदर ही अंदर आत्मा के प्रभाव में होने लगे।जिसके बाद सामान्य से हट कर दशा हो जाती है।


किसी ने कहा है कि उपदेश आदेश।महत्व पूर्ण नहीं है।वातावरण महत्वपूर्ण है।व्यक्ति जिस वातावरण में रहता है, उसमे दिनचर्या, समय सारिणी, कार्यक्रम महत्व पूर्ण है।महात्मा गांधी ने कहा है कि वातावरण ऐसा होना चाहिए जिसमें एक गुंडा भी मनमानी न कर सके।जिसमें हर स्तर के लोग, हर व्यक्ति एक आभा में बंध सके।इसके लिए सामूहिकता, सहकारिता का बड़ा महत्व है। संविधान सभा को सम्विधान में स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति के लिए कानून की आवश्यकता की जरूरत क्यों पड़ी?जरूर समाज, संस्थाएं अभिव्यक्ति को महत्व नहीं देती है।कुछ मुट्ठीभर लोगो के आदेशों, उपदेशों से समाज प्रभावित है। हम कुछ शिविरों में गए हैं, वहां किसी पर कुछ भी थोपा नहीं जाता।वरन चर्चा होती है, सभी के विचार लिए जाते हैं फिर उस पर फैसला होता है।लेकिन वह फैसला का हेतु सर्वव्यापक हो,सभी की भागीदारी के हिसाब से,सबके कल्याण के हिसाब से हो,महापुरुषों की प्रेरणा के आधार पर हो। एक प्रसंग है- एक युवक आत्महत्या करते कुछ साधक पकड़ लेते हैं और उसे आश्रम ले आते है।आश्रम के स्वामी कहते है-तुम आत्महत्या करना चाहते थे।अब भली भांति यहाँ आत्महत्या होगी।तुमको करना ये है कि जब तक आश्रम में रहो मौन रहना होगा।किसी से भी कुछ भी बोलना नहीं।यहां की दिनचर्या, कार्यक्रम में तटस्थ भाव से शामिल होना है।जब तक चाहो तब तक यहाँ रह सकते हो। जब यहां से जाओ, गांव ही जाना अपने।वहां वह करना जो अंदर से आपकी इच्छा उठे।लेकिन वह न करना जो यहां की सीख, ग्रन्थों, वाणियों के खिलाफ हो। वह युवक काफी समय तक वहां रहा।एक दिन उसने स्वामी से आज्ञा ले अपने गांव लौट गया। गांव जाकर वह फ्री स्टाइल रहने लगा।जो मन में होता वह करता।लेकिन महापुरुषों के वाणियों के खिलाफ कोई कार्य नहीं करता।धीरे धीरे समय बीत गया।एक दो वर्ष बाद वह फिर आश्रम पहुंचा।उससे स्वामी जी ने हाल चाल पूंछा।वह युवक बोला-"सब ठीक है लेकिन अब लोग हमें सनकी, पागल आदि कहने लगे हैं।"स्वामी जी (ओशो) बोले-"जो तुम्हे सनकी पागल कहते हैं वे स्वयं क्या है?उनका लक्ष्य क्या वही है जो तुम्हारा है?यदि नहीं है तो कोई बात नहीं, उन्हें कहने दो।"


विजयनगर साम्राज्य के राजपुरोहित, सेनापति व प्रथम वेद भाष्यकार आचार्य #सायण ने कहा है कि तुंबी कूर्मि/एक कुटम्बी सर्वशक्तिमान होता है। ऐसा कैसे? आदिकाल में जो झुंड बना कर रहते थे वह धरती पर वर्चस्व स्थापित करते थे।समय बदलें के साथ उन झुंडों ने कुल, जन, जनपद का स्थान ले लिया। सन2012 की सामाजिक आर्थिक जनगणना में हम भी सहयोगी रहे थे। उसकी रिपोर्ट के अनुसार सिक्ख, जाट व मराठा अब भी बेहतर स्थिति में थे। अब हम सांकेतिक करना चाहते हैं कि इन समुदायों की नजर में इनके परिवार किस शैली में जीते हैं?


साभार::अशोक कुमार वर्मा 'बिंदु'




गुरुवार, 16 सितंबर 2021

अंतर दम?!#अशोकबिन्दु


 अब ये तन?

हालात हाड़ मास तन के,

क्या  हो रहे हैं?

वक्त जिसमें गुजरा-

वक्त जिन विचारों में गुजरा-

वक्त जिन भावों में गुजरा-

आज वो बोझ बन गया है।

नानक कहा बिचारा-

दुखिया है संसार सारा,

बस, वही है सुख में जो खुदा में, 

दुखियारी तो सारी दुनिया है।

हालात ये क्या हो रहे हैं?

क्या है जज्बा अंदर?

कभी कभी सच बो नहीं होता-

जो दिखता है,

असलियत तो अंदर थी,

जो आज उभरता है।

सम्बंध-

अपने तन से!

सम्बन्ध-

अन्य तन से!

सम्बन्ध -

जगत की वस्तुओं से!

सम्बन्ध यदि निष्काम है -

तो कुछ और बात?

सम्बन्ध यदि काम है-

तो कुछ और बात है?

जिस नजर से हम जीते हैं,

वही हमारा असल जीवन हो जाता है,

जो अभी तक करते थे दिखावा,

वह भी करना अब मुश्किल है;

आदतें ही जीवन की असलियत बन जाती हैं,

हर रोज जो जिये जो दिनचर्या-

वह ही आज मुसीबत बनी है।

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

समाजवाद::एक संक्षिप्त परिचय

 समाजवाद का परिचय




समाजवाद (Socialism) एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक प्रत्यय के तौर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी है कि सम्पदा का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के हाथों में होना चाहिए। राजनीति के आधुनिक अर्थों में समाजवाद को पूँजीवाद या मुक्त बाजार के सिद्धांत के विपरीत देखा जाता है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में समाजवाद युरोप में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उभरे उद्योगीकरण की अन्योन्यक्रिया में विकसित हुआ है।



ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी सी० ई० एम० जोड ने कभी समाजवाद को एक ऐसी टोपी कहा था जिसे कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है। समाजवाद की विभिन्न किस्में सी० ई० एम० जोड के इस चित्रण को काफी सीमा तक रूपायित करती है। समाजवाद की एक किस्म विघटित हो चुके सोवियत संघ के सर्वसत्तावादी नियंत्रण में चरितार्थ होती है जिसमें मानवीय जीवन के हर सम्भव पहलू को राज्य के नियंत्रण में लाने का आग्रह किया गया था। उसकी दूसरी किस्म राज्य को अर्थव्यवस्था के नियमन द्वारा कल्याणकारी भूमिका निभाने का मंत्र देती है। भारत में समाजवाद की एक अलग किस्म के सूत्रीकरण की कोशिश की गयी है। राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव के राजनीतिक चिंतन और व्यवहार से निकलने वाले प्रत्यय को 'गाँधीवादी समाजवाद' की संज्ञा दी जाती है।

समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द 'सोशलिज्म' का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।

समाजवाद शब्द का प्रयोग अनेक और कभी कभी परस्पर विरोधी प्रसंगों में किया जाता है; जैसे समूहवाद अराजकतावाद, आदिकालीन कबायली साम्यवाद, सैन्य साम्यवाद, ईसाई समाजवाद, सहकारितावाद, आदि - यहाँ तक कि नात्सी दल का भी पूरा नाम 'राष्ट्रीय समाजवादी दल' था।

समाजवाद की परिभाषा करना कठिन है। यह सिद्धांत तथा आंदोलन, दोनों ही है और यह विभिन्न ऐतिहासिक और स्थानीय परिस्थितियों में विभिन्न रूप धारण करता है। मूलत: यह वह आंदोलन है जो उत्पादन के मुख्य साधनों के समाजीकरण पर आधारित वर्गविहीन समाज स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है और जो मजदूर वर्ग को इसका मुख्य आधार बनाता है, क्योंकि वह इस वर्ग को शोषित वर्ग मानता है जिसका ऐतिहासिक कार्य वर्गव्यवस्था का अंत करना है।

आदिकालीन साम्यवादी समाज में मनुष्य पारस्परिक सहयोग द्वारा आवश्यक चीजों की प्राप्ति और प्रत्येक सदस्य के आवश्यकतानुसार उनका आपस में बँटवारा करते थे। परंतु यह साम्यवाद प्राकृतिक था; मनुष्य की सचेत कल्पना पर आधारित नहीं था। आरंभ के ईसाई पादरियों की रहन-सहन का ढंग बहुत कुछ साम्यवादी था, वे एक साथ और समान रूप से रहते थे, परंतु उनकी आय का स्रोत धर्मावलंबियों का दान था और उनका आदर्श जनसाधारण के लिए नहीं, वरन् केवल पादरियों तक सीमित था। उनका उद्देश्य भी आध्यात्मिक था, भौतिक नहीं। यही बात मध्यकालीन ईसाई साम्यवाद के संबंध में भी सही है। पीरू (Peru) देश की प्राचीन इंका (Inka) सभ्यता को 'सैन्य साम्यवाद' की संज्ञा दी जाती है, परंतु उसका आधार सैन्य संगठन था और वह व्यवस्था शासक वर्ग का हितसाधन करती थी। नगरपालिकाओं द्वारा लोकसेवाओं के साधनों को प्राप्त करना, अथवा देश की उन्नति के लिए आर्थिक योजनाओं के प्रयोग मात्र को समाजवाद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि इनके द्वारा पूँजीवाद को ठेस पहुँचे। नात्सी दल ने बैंकों का राष्ट्रीकरण किया था परंतु पूँजीवादी व्यवस्था अक्षुण्ण रही।

समाजवाद का भावनात्मक ढाँचा गढ़ने में इंग्लैण्ड में सत्रहवीं सदी के दौरान ईसाइयत के दायरे में विकसित लेवलर्स तथा डिग्गर्स व सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में मध्य युरोप में विकसित होने वाले ऐनाबैपटिस्ट जैसे रैडिकल आंदोलनों की महती भूमिका रही है। लेकिन समाजवाद की आधुनिक और औपचारिक परिकल्पना फ़्रांसीसी विचारकों सैं-सिमों और चार्ल्स फ़ूरिए तथा ब्रिटिश चिंतक राबर्ट ओवेन की निष्पत्तियों से निकलती है। समाजवाद के ये शुरुआती विचारक व्यक्तिवाद और प्रतिस्पर्द्धा की जगह आपसी सहयोग पर आधारित समाज की कल्पना करते थे। उन्हें विश्वास था कि मानवीय स्वभाव और समाज का विज्ञान गढ़ कर सामाजिक ताने-बाने को बेहतर रूप दिया जा सकता है। परंतु वांछित सामाजिक रूपों के ठोस ब्योरों, उन्हें प्राप्त करने की रणनीति तथा मानव प्रकृति की समझ को लेकर उनके बीच कई तरह के मतभेद थे। उदाहरण के लिये, सैं-सिमों तथा फ़ूरिए रूसो के इस मत से सहमत नहीं थे कि मनुष्य की प्रकृति अपनी बनावट में तो अच्छी, उदात्त और विवेकपूर्ण है लेकिन आधुनिक समाज और निजी सम्पत्ति ने उसे भ्रष्ट कर दिया है। इसके विरोध में उनका तर्क यह था कि मानवीय प्रकृति के कुछ स्थिर और निश्चित रूप होते हैं जिनका परस्पर सहयोग के आधार पर आपस में मेल कराया जा सकता है। ओवेन का मत सैं-सिमों और फ़ूरिए से भी अलग था। उनका कहना था कि मनुष्य की प्रकृति बाहरी परिस्थितियों से तय होती है और उसे इच्छित रूप दिया जा सकता है। इसलिए समाज की परिस्थितियों को इस तरह बदला जाना चाहिए कि मनुष्य की प्रकृति पूर्णता की ओर बढ़ सके। उनके अनुसार अगर प्रतिस्पर्द्धा और व्यक्तिवाद की जगह आपसी सहयोग और एकता को बढ़ावा दिया जाएगा तो समूची मनुष्यता का भला किया जा सकता है।

समाजवाद की राजनीतिक विचारधारा उन्नीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशकों के दौरान इंग्लैण्ड, फ़्रांस तथा जर्मनी जैसे युरोपीय देशों में लोकप्रिय होने लगी थी। उद्योगीकरण और शहरीकरण की तेज गति तथा पारम्परिक समाज के अवसान ने युरोपीय समाज को सुधार और बदलाव की शक्तियों का अखाड़ा बना दिया था जिसमें मजदूर संघों और चार्टरवादी समूहों से लेकर ऐसे गुट सक्रिय थे जो आधुनिक समाज की जगह प्राक्-आधुनिक सामुदायिकतावाद की वकालत कर रहे थे।

मार्क्स और एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद का विचार सामाजिक और राजनीतिक उथलपुथल की इसी पृष्ठभूमि में विकसित हुआ था। मार्क्स ने सैं-सिमों, फ़ूरिए और ओवेन के विचारों से प्रेरणा तो ली, लेकिन अपने ‘वैज्ञानिक’ समाजवाद के मुकाबले उनके समाजवाद को ‘काल्पनिक’ घोषित कर दिया। इन पूर्ववर्ती चिंतकों की तरह मार्क्स समाजवाद को कोई ऐसा आदर्श नहीं मानते कि उसका स्पष्ट ख़ाका खींचा जाए। मार्क्स और एंगेल्स समाजवाद को किसी स्वयं-भू सिद्धांत के बजाय पूँजीवाद की कार्यप्रणाली से उत्पन्न होने वाली स्थिति के रूप में देखते हैं। उनका मानना था कि समाजवाद का कोई भी रूप ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही उभरेगा। इस समझ के चलते मार्क्स और एंगेल्स को समाजवाद की विस्तृत व्याख्या करने या उसे परिभाषित करने से भी गुरेज़ था। उनके लिए समाजवाद मुख्यतः पूँजीवाद के नकार में खड़ा प्रत्यय था जिसे एक लम्बी क्रांतिकारी प्रक्रिया के ज़रिये अपनी पहचान ख़ुद गढ़नी थी। समाजवाद के विषय में मार्क्स की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना 'क्रिटीक ऑफ़ द गोथा प्रोग्रैम' है जिसमें उन्होंने समाजवाद को साम्यवादी समाज के दो चरणों की मध्यवर्ती अवस्था के तौर पर व्याख्यायित किया है।

गौरतलब है कि मार्क्स की इस रचना का प्रकाशन उनकी मृत्यु के आठ साल बाद हुआ था। तब तक मार्क्सवादी सिद्धांतों में इसे ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता था। इस विमर्श को मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों में शामिल करने का श्रेय लेनिन को जाता है, जिन्होंने अपनी कृति 'स्टेट ऐंड रेवोल्यूशन' में मार्क्स के हवाले से समाजवाद को साम्यवादी समाज की रचना में पहला या निम्नतर चरण बताया। लेनिन के बाद समाजवाद मार्क्सवादी शब्दावली में इस तरह विन्यस्त हो गया कि कोई भी व्यक्ति या दल किसी ख़ास वैचारिक दिक्कत के बिना ख़ुद को समाजवादी या साम्यवादी कह सकता था। इस विमर्श की विभाजक रेखा इस बात से तय होती थी कि किसी दल या व्यक्ति के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों का तात्कालिक और दूरगामी लक्ष्य क्या है। यानी अगर कोई ख़ुद को समाजवादी कहता था तो इसका मतलब यह होता था कि वह साम्यवादी समाज की रचना के पहले चरण पर जोर देता है। यही वजह है कि कई समाजवादी देशों में शासन करने वाले दल जब ख़ुद को कम्युनिस्ट घोषित करते थे तो इसे असंगत नहीं माना जाता था।

बीसवीं शताब्दी में समाजवाद का अंतर्राष्ट्रीय प्रसार तथा सोवियत शासन व्यवस्था एक तरह से सहवर्ती परिघटनाएँ मानी जाती हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिसने समाजवाद के विचार और उसके भविष्य को गहराई से प्रभावित किया है। उदाहरणार्थ, क्रांति के बाद सोवियत संघ उसके समर्थकों और आलोचकों, दोनों के लिए समाजवाद का पर्याय बन गया। सोवियत समर्थकों की दलील यह थी कि उत्पादन के प्रमुख साधनों के समाजीकरण, बाज़ार को केंद्रीकृत नियोजन के मातहत करने, तथा विदेश व्यापार व घरेलू वित्त पर राज्य के नियंत्रण जैसे उपाय अपनाने से सोवियत संघ बहुत कम अवधि में एक औद्योगिक देश बन गया। जबकि उसके आलोचकों का कहना था कि यह एक प्रचारित छवि थी क्योंकि विराट नौकरशाही, राजनीतिक दमन, असमानता तथा लोकतंत्र की अनदेखी स्वयं ही समाजवाद के आदर्श को खारिज करने के लिए काफी थी। समाजवाद के प्रसार में सोवियत संघ की दूसरी भूमिका एक संगठनकर्ता की थी। समाजवादी क्रांति के प्रसार के लिए कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसे संगठन की स्थापना करके उसने ख़ुद को समाजवाद का हरावल सिद्ध किया। इस संगठन ने विश्व की कम्युनिस्ट पार्टियों का लम्बे समय तक दिशा-निर्देशन किया। सोवियत संघ की भूमिका का तीसरा पहलू यह था कि उसने पूर्वी युरोप में कई हमशक्ल शासन व्यवस्थाएँ कायम की। अंततः सोवियत संघ समाजवाद की प्रयोगशाला इसलिए भी माना गया क्योंकि रूसी क्रांति के बाद स्तालिन के नेतृत्व में यह सिद्धांत प्रचारित किया गया कि समाजवादी क्रांति का अन्य देशों में प्रसार करने से पहले उसे एक ही देश में मजबूत किया जाना चाहिए। कई विद्वानों की दृष्टि में यह एक ऐसा सूत्रीकरण था जिसने राष्ट्रीय समाजवाद की कई किस्मों के उभार को वैधता दिलायी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुई वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के दौरान समाजवाद और राष्ट्रवाद का यह संश्रय तीसरी दुनिया के देशों में समाजवाद के विकास का एक प्रारूप सा बन गया। चीन, वियतनाम तथा क्यूबा जैसे देशों में समाजवाद के प्रसार की यह एक केंद्रीय प्रवृत्ति थी।

सोवियत समर्थित समाजवाद के अलावा उसका एक अन्य रूप भी है जिसने पूँजीवादी देशों को अप्रत्यक्ष ढंग से प्रभावित किया है। मसलन, समाजवाद के तर्क और उसके आकर्षण को प्रति-संतुलित करने के लिए पश्चिम के पूँजीवादी देशों को अपनी अर्थव्यवस्था के साँचे को बदल कर उसे कल्याणकारी रूप देना पड़ा। इस संदर्भ में स्कैंडेनेवियाई देशों, पश्चिमी युरोप तथा आस्ट्रेलेशिया क्षेत्र के देशों में कींस के लोकोपकारी विचारों से प्रेरित होकर सोवियत तर्ज़ के समाजवाद का विकल्प गढ़ने का प्रयास किया गया। माँग के प्रबंधन, आर्थिक राष्ट्रवाद, रोजगार की गारंटी, तथा सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र को मुनाफाखोरी की प्रवृत्तियों से मुक्त रखने की नीति पर टिके इन कल्याणकारी उपायों ने एकबारगी पूँजीवाद और समाजवाद के अंतर को ही धुँधला कर दिया था। राज्य के इस कल्याणकारी मॉडल को एक समय पूँजीवाद की विसंगतियों— बेकारी, बेरोज़गारी, अभाव, अज्ञान आदि का स्थाई इलाज बताया जा रहा था। इस मॉडल की आर्थिक और राजनीतिक कामयाबी का सुबूत इस बात को माना जा सकता है कि अगर वामपंथी दायरों में इन उपायों की प्रशंसा की गयी तो दक्षिणपंथी राजनीति भी उनका खुला विरोध नहीं कर सकी। दूसरे विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद तीन दशकों तक बाज़ार केंद्रित समाजवाद का यह मॉडल काफी प्रभावशाली ढंग से काम करता रहा।

लेकिन सातवें दशक में मंदी और मुद्रास्फीति की दोहरी मार तथा कल्याणकारी पूँजीवाद के गढ़ में बढ़ते सामाजिक और औद्योगिक असंतोष के कारण इस मॉडल के औचित्य को लेकर सवाल खड़े होने लगे। मार्क्सवादी शिविर के विद्वान भी लगातार यह कहते आ रहे थे कि कल्याणकारी भंगिमाओं ने असमानता और शोषण को खत्म करने के बजाय पूँजीवाद को ही मजबूत किया है। इस मॉडल का एक आपत्तिजनक पहलू यह भी प्रकट हुआ कि कामगार वर्ग को जीवन की बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने वाली मशीनरी के द्वारा राज्य उस पर नियंत्रण करने की स्थिति में आ गया।

बाजार को कायम रखते हुए समाजवाद के कुछ तत्त्वों पर अमल करने वाले इस मॉडल का नव-उदारतावादी बुद्धिजीवी शुरू से ही विरोध करते आये थे। सातवें दशक में यह वर्ग जोर-शोर से कहने लगा था कि समाजवाद न केवल अर्थव्यवस्था को जड़ (निर्जीव) बना देता है बल्कि व्यक्ति की स्वतंत्रता भी छीन लेता है। नवें दशक में जब सोवियत संघ के साथ पूर्वी युरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ एक के बाद एक ढहने लगी तो समाजवाद की इस आलोचना को व्यापक वैधता मिलने लगी और समाजवाद के साथ इतिहास के अंत की भी बातें की जाने लगी। विजय के उन्माद में उदारवादी बुद्धिजीवियों ने यह भी कहा कि मनुष्यता के लिए पूँजीवाद ही एकमात्र विकल्प है लिहाजा अब उसके विकल्प की बात भूलकर केवल यह सोचा जाना चाहिए कि पूँजीवाद की कोई और शक्ल क्या हो सकती है।

भारत में समाजवाद : भारत में समाजवाद औपनिवेशिक ब्रिटिश राज के खिलाफ व्यापक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक हिस्से के रूप में, 20 वीं शताब्दी के आरंभ में स्थापित एक राजनीतिक आंदोलन है। यह तेजी से लोकप्रियता में बढ़ गया क्योंकि यह भारत के किसानों और मजदूरों के कारणों को ज़मीनदारों, रियासतों और उतरा सज्जनों के खिलाफ प्रेरित करता था। समाजवाद ने स्वतंत्रता के बाद 1990 के दशक तक स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार की सिद्धांतिक आर्थिक और सामाजिक नीतियों को आकार दिया, जब भारत एक और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ गया। हालांकि, इसका भारतीय राजनीति पर एक प्रभावशाली प्रभाव बना हुआ है, जिसमें बड़ी संख्या में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल लोकतांत्रिक समाजवाद का समर्थन करते हैं।

भारतवर्ष में आधुनिक काल के प्रथम प्रमुख समाजवादी महात्मा गांधी हैं, परंतु उनका समाजवाद एक विशेष प्रकार का है। गांधी जी के विचारों पर हिंदूजैनईसाई आदि धर्म और रस्किनटाल्सटाय और थोरो जैसे दार्शनिकों का प्रभाव स्पष्ट है। वे औद्योगीकरण के विरोधी थे क्योंकि वे उसको आर्थिक समानता, शोषण, बेकारी, राजनीतिक तानाशाही आदि का कारण समझते थे। मोक्षप्राप्ति के इच्छुक महात्मा गांधी इंद्रियों और इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर त्याग द्वारा एक प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता स्थापित करना चाहते थे जो हो न सका। प्राचीन भारत के स्वतंत्र और स्वपर्याप्त ग्रामीण गणराज्य गांधी जी के आदर्श थे। ध्येय की प्राप्ति के लिए गांधी जी नैतिक साधनों - सत्य, अंहिसा, सत्याग्रह - पर जोर देते हैं हिंसात्मक क्रांति पर नहीं। गाँधी जी प्रेम द्वारा शत्रु का हृदयपरिवर्तन करना चाहते थे, हिंसा और द्वेष द्वारा उसका विनाश नहीं। गांधीवाद धार्मिक अराजकतावाद है। इस समय विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण गांधीवाद की व्याख्या और उसका प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने श्रम, भू, ग्राम, संपत्ति आदि के दान द्वारा अहिंसात्मक ढंग से समाजवादी व्यवस्था की स्थापना का प्रयत्न किया है।

भारतीय समाजवादी विचारधारा के अनुसार नि:स्वार्थ सेवा, त्याग और आध्यात्मिक प्रवृत्ति - इनमें शोषक और शोषित के लिए कोई स्थान नहीं। यदि किसी के पास कोई संपत्ति है तो वह समाज की धरोहर मात्र है, देखा जाये तो इसके अनुसार सभी लोग एक समान स्थिति में होने चाहिए। सबके लिए समानता। किन्तु इस स्थिति में जब कि सभी एक समान हैं कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य को करना ही नहीं चाहेगा और समाज में अराजकता फ़ैल जाएगी, अतः यह विचारधारा एक विचारधारा के रूप में ही ठीक हो सकती है।


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रूसी क्रांति के साथ भारत में समाजवादी आंदोलन विकसित होना शुरू हुआ।हालांकि, 1871 में कलकत्ता के एक समूह ने प्रथम अंतर्राष्ट्रीय के भारतीय खंड का आयोजन करने के उद्देश्य से कार्ल मार्क्स से संपर्क किया था। यह भौतिक नहीं था। [1] भारतीय प्रकाशन (अंग्रेजी में) में पहला लेख जो मार्च 1912 में आधुनिक समीक्षा में मुद्रित मार्क्स और एंजल्स के नामों का उल्लेख करता है। कार्ल मार्क्स नामक लघु जीवनी लेख - एक आधुनिक ऋषि जर्मन आधारित भारतीय द्वारा लिखा गया था क्रांतिकारी लाला हर दयाल। [2] 1914 में आर राम कृष्ण पिल्लई ने भारतीय भाषा में कार्ल मार्क्स की पहली जीवनी लिखी थी। [3]

रूसी क्रांति के समय मार्क्सवाद ने भारतीय मीडिया में एक बड़ा प्रभाव डाला। कई भारतीय कागजात और पत्रिकाओं के लिए विशेष रुचि सभी देशों के आत्मनिर्भरता के अधिकार की बोल्शेविक नीति थी। विपिनचंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक उन प्रमुख भारतीयों में से थे जिन्होंने रूस में लेनिन और नए शासकों की प्रशंसा व्यक्त की। अब्दुल सतरार खैरी और अब्दुल जब्बर खैरी क्रांति के बारे में सुनकर तुरंत मास्को गए। मॉस्को में, वे लेनिन से मिले और उन्हें बधाई दी। रूसी क्रांति ने भारतीय क्रांतिकारियों जैसे उत्तरी अमेरिका में गदर पार्टी को भी प्रभावित किया। [2]

भारत में समाजवाद का इतिहाससंपादित करें

रूस में अक्टूबर क्रांति के बाद भारत में छोटे समाजवादी क्रांतिकारी समूह उभरे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1921 में हुई थी, लेकिन विचारधारा के रूप में समाजवाद ने राष्ट्रवादी नेताओं जैसे जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस द्वारा अनुमोदित होने के बाद राष्ट्रव्यापी अपील की। कट्टरपंथी समाजवादी ब्रिटेन में पूरी तरह से भारतीय आजादी के लिए बुलाए जाने वाले पहले व्यक्ति थे। नेहरू के तहत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने 1936 में सामाजिक-आर्थिक नीतियों के लिए समाजवाद को एक विचारधारा के रूप में अपनाया। कट्टरपंथी समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने बंगाल में किसानों के उभरे हुए सज्जनों के खिलाफ तेभागा आंदोलन को भी इंजीनियर बनाया। हालांकि, मुख्यधारा के भारतीय समाजवाद ने खुद को गांधीवाद के साथ जोड़ा और वर्ग युद्ध के बजाय शांतिपूर्ण संघर्ष अपनाया।

स्वतंत्रता आंदोलन में समाजवादसंपादित करें

औपनिवेशिक स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में मानवेंद्रनाथ राय के अपने विचार थे। उनका मत था कि भावी समाजवादी क्रांति में औपनिवेशिक क्रांतियों का प्रमुख स्थान होगा। चीनी साम्यवादियों का भी आज यही मत है, परंतु सोवियत विचारकों ने इसको कभी स्वीकार नहीं किया। राय की यह भी धारणा थी कि औपनिवेशिक पूँजीवाद ने साम्राज्यशाही से गठबंधन कर लिया है अत: वह प्रतिक्रियावादी है और क्रांतिकारी दल उसके साथ संयुक्त मोर्चा नहीं बना सकते। यद्यपि साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय ने इस विचार को भी स्वीकार नहीं किया, तथापि भारतीय साम्यवादियों ने अधिकांशत: इस नीति का अनुसरण किया और बहुधा राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग रहे।

बोल्शेविक क्रांति के बाद शीघ्र ही भारत के बड़े नगरों में साम्यवादियों के स्वतंत्र संगठन बने, एक किसान मजदूर पार्टी की स्थापना हुई और सन् 1924 तक एक अखिल भारतीय साम्यवादी दल का संगठन भी हुआ, परंतु यह दल शीघ्र ही अवैध घोषित कर दिया गया। इसके बाद सन् 1936 से इसकी शक्ति बढ़ी और इस समय यह भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों में से है।

दूसरा समाजवादी दल कांग्रेस समाजवादी पार्टी थी। इसकी स्थापना सन् 1934 में हुई। भारतीय समाजवादी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, आदि नेता प्रथम महायुद्ध के बाद से ही समाजवाद का प्रचार कर रहे थे। परंतु भद्र अवज्ञा आंदोलन (1930-33) की असफलता और सन् 1929 के आर्थिक संकट के समय पूँजीवादी देशों की दुर्गति तथा इन देशों में फासिजम की विजय और दूसरी ओर सोवियत देश की आर्थिक संकट से मुक्ति तथा उसकी सफलता, इन सब कारणों से अनेक राष्ट्रभक्त समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। इनमें जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव, मीनू मसानी, डॉ॰ राममनोहर लोहिया, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, यूसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन और अशोक मेहता उल्लेखनीय हैं। इनका उद्देश्य कांग्रेसी मंच द्वारा समाजवादी ढंग से स्वराज्यप्राप्ति और उसके बाद समाजवाद की स्थापना था।

स्वतंत्रता मिलने के बाद कांग्रेस राष्ट्रीय शक्तियों का संयुक्त मोर्चा न रहकर एक राजनीतिक दल बन गई, अत: अन्य स्वायत्त और संगठित दलों को कांग्रेस से निकलना पड़ा। इनमें कांग्रेस समाजवादी दल भी था। उसने कांग्रेस शब्द को अपने नाम से हटा दिया। बाद में आचार्य कृपालानी द्वारा संगठित कृषक मजदूर प्रजापार्टी इसमें मिल गई और इसका नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी हो गया, परंतु डाक्टर राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी दल का एक अंग इससे अलग हो गया और उसने एक समाजवादी पार्टी बना ली। इस समय प्रजा सोशलिस्ट और सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनाई। किंतु संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के वाराणसी अधिवेशन (1965) में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने अलग होकर पुन: अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लिया। उसी समय अशोक मेहता के नेतृत्व में कुछ प्रजा सोशलिस्ट कार्यकर्ता कांग्रेस में शमिल हो गए हैं। द्वितीय महायुद्ध के बाद वह समाजवादी विचारधारा सोवियत तानाशाही का विरोध करती है तथा अपने को पाश्चात्य देशों के लोकतंत्रात्मक और विकासवादी समाजवाद के निकट पाती है।

समय समय पर समाजवादी विचारों को स्वीकार करनेवाले कई और दल भी भारत में रहे हैं। साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय से संबंध विच्छेद के बाद एम. एन. राय के समर्थक भारतीय साम्यवादी दल से अलग हो गए। भारतीय बोल्शेविक पार्टी, सुभाषचंद्र बोस का फार्वर्ड ब्लाक और क्रांतिकारी समाजवादी दल भी समाजवादी हैं। कुछ ऐसे समाजवादी दल भी हैं जिनका प्रभाव केवल कुछ क्षेत्रों तक सीमित रहा है जैसे महाराष्ट्र क्षेत्रों की किसान मजदूर पार्टी।

स्वराज्यप्राप्ति के बाद भारतीय कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से समाजवाद को स्वीकार किया है। उसके पूर्व वह समाजवादी और उसकी विरोधी सभी राष्ट्रीय विचारधाराओं का एक संयुक्त मोर्चा थी, परंतु उस समय भी वह समाजवादी विचारों से प्रभावित थी। एक प्रकार से उसने कराची प्रस्ताव (1931) में कल्याणकारी राज्य का आदर्श स्वीकार किया था, कांग्रेस मंत्रिमंडलों (1937) के बनने के बाद (सुभाषचंद्रबोस की अध्यक्षता में) एक योजना समिति की नियुक्ति की गई थी; और स्वराज्यप्राप्ति के बाद तुरंत ही वर्गविहीन समाज का विचार सामने आ गया। स्वराज्य के बाद यद्यपि संगठित समाजवादी दल कांग्रेस से अलग हो गए, तथापि उसके अंदर समाजवादी तत्व, विशेषकर उसके सर्वप्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू, प्रभावशील रहे, अत: कांग्रेस के आवढी अधिवेशन (1957) में "समाजवादी ढंग का समाज" और भुवनेश्वर अधिवेशन (1964) में लोकतंत्रात्मक समाजवाद का लक्ष्य स्वीकार किया गया। उसका नियोजित अर्थव्यवस्था, समाजसुधार, कल्याण राज्य और लोकतंत्र में विश्वास है और उसकी परराष्ट्र की नीति पाश्चात्य तथा पूर्वी गुटों के शक्ति संघर्ष से अलग रहकर शांति की शक्तियों को मजबूत करने की है।

समाजवाद और खिलाफत आंदोलनसंपादित करें

खिलाफत आंदोलन ने प्रारंभिक भारतीय साम्यवाद के उद्भव में योगदान दिया। कई भारतीय मुसलमानों ने खलीफा की रक्षा में शामिल होने के लिए भारत छोड़ दिया। सोवियत क्षेत्र में जाने के दौरान उनमें से कई कम्युनिस्ट बन गए। कुछ हिंदू सोवियत क्षेत्रों की यात्रा में मुस्लिम मुहाजिरों में भी शामिल हो गए। [4]

भारत में बोल्शेविक सहानुभूति के बढ़ते प्रभाव से औपनिवेशिक अधिकारियों को स्पष्ट रूप से परेशान किया गया था। मुसलमानों को साम्यवाद को अस्वीकार करने का आग्रह करते हुए एक पहला काउंटर-कदम एक फतवा जारी करना था। गृह विभाग ने कम्युनिस्ट प्रभाव की निगरानी के लिए एक विशेष शाखा की स्थापना की। सीमा शुल्क को भारत में मार्क्सवादी साहित्य के आयात की जांच करने का आदेश दिया गया था। बड़ी संख्या में विरोधी कम्युनिस्ट प्रचार प्रकाशन प्रकाशित किए गए थे। [5]

प्रथम विश्व युद्ध के साथ भारत में उद्योगों की तेजी से वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप औद्योगिक सर्वहारा की वृद्धि हुई। साथ ही आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हुई। ये कारक थे जो भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन के निर्माण में योगदान देते थे। पूरे भारत में शहरी केंद्रों में यूनियनों का गठन किया गया था, और हमलों का आयोजन किया गया था। 1920 में, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना हुई थी। [6]

रूस में विकास के साथ प्रभावित एक भारतीय बॉम्बे में एसए डांगे था। 1921 में, उन्होंने गांधी बनाम एक पुस्तिका प्रकाशित की । लेनिन , लेनिन के साथ दोनों नेताओं के दृष्टिकोण के तुलनात्मक अध्ययन दोनों के बेहतर के रूप में बाहर आ रहे हैं। स्थानीय मिल मालिक, रांचीदादास भवन लोटवाला के साथ मिलकर, मार्क्सवादी साहित्य की एक पुस्तकालय स्थापित की गई और मार्क्सवादी क्लासिक्स के अनुवादों का प्रकाशन शुरू हुआ। [7] 1922 में, लोटवाला की मदद से, डांग ने अंग्रेजी साप्ताहिक, सोशलिस्ट , पहला भारतीय मार्क्सवादी पत्रिका लॉन्च किया। [8]

उपनिवेशवादी दुनिया में राजनीतिक स्थिति के बारे में, 1920 के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस ने जोर देकर कहा कि उपनिवेशवादी देशों में सर्वहारा, किसान और राष्ट्रीय पूंजीपति के बीच एक संयुक्त मोर्चा बनना चाहिए। कांग्रेस से पहले लेनिन द्वारा तैयार की गई बीस स्थितियों में से 11 वीं थीसिस थी, जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को उपनिवेशों में बुर्जुआ-लोकतांत्रिक मुक्ति आंदोलनों का समर्थन करना चाहिए। कुछ प्रतिनिधियों ने बुर्जुआ के साथ गठबंधन के विचार का विरोध किया, और इसके बजाय इन देशों के कम्युनिस्ट आंदोलनों को समर्थन दिया। उनकी आलोचना भारतीय क्रांतिकारी एमएन रॉय ने साझा की थी, जिन्होंने मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था। कांग्रेस ने 8 वीं हालत बनने में 'बुर्जुआ-लोकतांत्रिक' शब्द को हटा दिया। [9]

भारत में समाजवाद और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टीसंपादित करें

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्टूबर 1920 को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस के तुरंत बाद ताशकंद में हुई थी। पार्टी के संस्थापक सदस्य एमएन रॉय, एवलिना ट्रेंच रॉय (रॉय की पत्नी), अब्नी मुखर्जी, रोसा फिटिंगोफ (अब्नी की पत्नी), मोहम्मद अली (अहमद हसन), मोहम्मद शफीक सिद्दीकी और एमपीबीटी आचार्य थे। [10][11]

सीपीआई ने भारत के अंदर एक पार्टी संगठन बनाने के प्रयास शुरू किए। रॉय ने बंगाल में अनुष्लन और जुगांटर समूहों के साथ संपर्क बनाए। बंगाल (मुजफ्फर अहमद के नेतृत्व में), बॉम्बे (एसए डांगे के नेतृत्व में), मद्रास ( सिंगरवेलू चेतियार के नेतृत्व में), संयुक्त प्रांत ( शौकत उस्मानी के नेतृत्व में) और पंजाब (गुलाम हुसैन के नेतृत्व में) में छोटे कम्युनिस्ट समूह बनाए गए थे। हालांकि, केवल उस्मानी एक सीपीआई पार्टी सदस्य बन गए।

1 मई 1923 को सिंगरवेलू चेतेयार द्वारा मद्रास में हिंदुस्तान की श्रम किसान पार्टी की स्थापना की गई थी। एलकेपीएच ने भारत में पहला मई दिवस समारोह आयोजित किया, और यह पहली बार भारत में लाल झंडा का भी इस्तेमाल किया गया था। [12][13][14]


25 दिसंबर 1925 को कानपुर में एक कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित किया गया था। औपनिवेशिक अधिकारियों का अनुमान है कि सम्मेलन में 500 लोगों ने हिस्सा लिया था। इस सम्मेलन को सत्याभाता नामक एक व्यक्ति द्वारा बुलाया गया था, जिनमें से बहुत कम ज्ञात है। कहा जाता है कि सत्याभाता ने 'राष्ट्रीय साम्यवाद' और कम्युनिटी के अधीन अधीनता के खिलाफ तर्क दिया था। अन्य प्रतिनिधियों द्वारा बहिष्कृत होने के कारण, सत्याभाता ने विरोध में सम्मेलन स्थल दोनों को छोड़ दिया। सम्मेलन ने 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया' नाम अपनाया। एलकेपीएच जैसे समूह एकीकृत सीपीआई में भंग हो गए। एमिग्री सीपीआई, जो कि शायद थोड़ा कार्बनिक चरित्र था, अब संगठन के द्वारा प्रभावी ढंग से प्रतिस्थापित किया गया था जो अब भारत के अंदर काम कर रहा है।



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मंगलवार, 24 अगस्त 2021

व्यवहारिक रूप में समाज, संस्थाओं में कार्य करना मुश्किल::अशोकबिन्दु

 दुनिया भर की किताबें रट लेने से हम विद्वान नहीं हो जाते।परम्परा गत समाज में ये अच्छा हो सकता है। महत्वपूर्ण है कि हमारा चिंतन मनन, नजरिया,स्वप्न, कल्पना क्या है?आस्था क्या है?किताबों से जो रट कर हम कहते फिर रहे हैं, जरूरी नहीं वह हमारा चिन्तन मनन, नजरिया, आस्था, स्वप्न, कल्पना आदि हो?

शोध करने वाले, डिग्री कालेज के प्रोफेसर आदि सेमिनार में पढ़ पढ़ कर अपना लेख पढ़ते हैं?उन्हें क्या पता?पढ़ पढ़ कर पड़ते है?

आप क्या जानो? चिंतन मनन,नजरिया, स्वप्न, कल्पना में जिसे जिया जा रहा है वह व्यक्ति की असलियत होकर भी बाहर उजागर होने की कैसी कला ?!

हमें व्यवहारी रुप से कार्य करना मुश्किल होता है जो आप जगत में जीते हैं उनके पास कामकाजी बुद्धि का अभाव होता हैै इसको अनेक मनोवैज्ञानिक कर चुके हैं हम चिंतन मनन अन्वेषण लेखन कर सकते हैं लेकिन उसके आधार पर व्यवहार करना मुश्किल होता है क्योंकि समाज संस्थाएं पूरा सिस्टम कुछ और ही चाहताा है

बुधवार, 11 अगस्त 2021

शिक्षा कोई व्यवसाय नहीं है:::अशोकबिन्दु

 शिक्षा के लिए समाज ,शासन को अपना 80 प्रतिशत बजट खर्च करना चाहिए।जिस देश में शिक्षा व्यवसाय है ,उस देश का भविष्य कभी भी उज्ज्वल नहीं हो सकता, जहां नशा व्यापार आदि को इस लिए बढ़ावा हो कि वह आय का बड़ा स्रोत है, ये विचार ही उस देश के निम्न शैक्षिक स्तर को प्रदर्शित करता है। जीवन की असलियत यह है कि इच्छाएं दुख का कारण है।इच्छाओं की पूर्ति लोभ का कारण।

शिष्यत्व! व गुरुत्व में अहसास की कल्पना काफी दूर जा चुकी है।।



यदि अंदर शिष्यत्व है तो जड़,चेतन सभी से गुरुत्व को प्राप्त किया जा सकता है। नगेटिव दशा से भी गुरुत्व प्राप्त करते हैं, प्रतिकूलता से तक गुरुत्व प्राप्त करते।


शिष्यत्व दो प्रतिशत से भी कम लोगों में होता है, ऐसा 100 साल पहले रामकृष्ण परमहंस कह गए। शिष्यत्व में तो समर्पण, शरणागति, श्रद्धा, आस्था, रुझान होता है।


ऋषियों ने तो कहा है कि शिष्यत्व में अपनी निजी इच्छा होती ही नहीं,वरन एक व्यवस्था में समर्पण होता है।जो स्वतः ही गुरुत्व की ओर धकेलता है, प्राथमिकता देता है।

शिष्यत्व व गुरुत्व में इतना ही फर्क है जितना एक चिकित्सक व चिकित्साशिक्षा के विद्यार्थियों के कर्म व दशा में होता है।

कोई तो कहता है कि दोनों दो शरीर एक प्राण होते हैं।जो ब्रह्मचर्य आश्रम को निर्मित करते हैं।

जहां हमारा पूर्णत्व अस्तित्व=स्थूल+सूक्ष्म+कारण जाग उठे।मन, वचन व कर्म एक हो जाये।

जब भारत जगद्गुरु था तो सब गुरुत्व केंद्रित था। विद्यालय, गृहस्थ वानप्रस्थ व सन्यास;सब कुछ गुरुत्व केंद्रित था।तन्त्र भी गुरुत्व केंद्रित था।तब V I P भी गुरुत्व था।


शिष्यत्व व्यक्ति के रुझान, समर्पण, संकल्प, शरणागति शक्ति से  होता है। जहां स्वयं के पूर्वाग्रह, स्वयं के पूर्व निर्धारित विचार, पूर्व निर्धारित आस्था,पूर्व निर्धारित अहंकार आदि गायब होता है। जबरदस्ती का विनमय नहीं होता है। सब मानसिक होता है।गुरु की उपस्थि में गुरु मन की जिस गहराई से है,शिष्य भी उधर ही बढ़ना शुरू हो जाता है।गुरु के सामने शिष्य शून्य होजाता है। वह गुरु ही होने लगता है। गुरु के एक एक शब्द, एक एक विचार उसके चिंतन मनन, स्वीकृति ,रुझान, रुचि आदि हो जाते है। शिक्षा सिर्फ शब्दों ,वाक्यों, पुस्तकों के भंडार का विनिमय नहीं है,व्यवसाय नहीं है।हमारी शिक्षा विद्या है। जो अतीत की आस्था, अतीत का नजरिया, विचार, पूर्वाग्रह आदि से ऊपर उठ कर आगे बढ़ाता है, जहां पूर्णता नहीं निरन्तरता, अभ्यास होता है। अब अंकतालिकाओं, धन प्राप्ति की युक्तियों, नौकरी पर आकर ठहराव है। जीवन ठहराव है ही नहीं, प्रकृति में कुछ भी ठहराव में है ही नहीं।निरन्तरता है, क्रमिकता है, लगतार गति है।


वर्तमान शिक्षक नौकर है-अंकतालिकाओं ,कागजी तथ्यों, शब्दों, वाक्यों, नौकरी, शासन प्रशासन, शिक्षा कमेटियों, जीविका आदि तक सीमित है।वास्तविक शिक्षक स्वतंत्र है।वास्तविक शिष्य स्वतंत्र है।जो भी प्राकृतिक, नैसर्गिक है, सब का सब स्वतंत्र है।परिवर्तन शील है, सहज है।दबाव में नहीं है।दवाब में तो मानव व मानव समाज है।प्रकृति में जो भी है वह यदि दबाव में है तो इसका कारण मानव व मानव समाज ही है।आत्मा, बुद्धि, ह्रदय आदि सब मानव की प्रकृति की स्थितियां है।वे नैसर्गिक हैं, सहज में रहना जानती है।समस्या स्वयं मानव व मानव समाज पैदा करता है। कृत्रिमताओं का उस पर बोझ...?! शिक्षक किसी का  नौकर नहीं है, शिक्षक किसी का हस्तक्षेप नहीं है, उसका कार्य कोई व्यवसाय नहीं है।समाज, शासन,संस्थाओं का कार्य हो सकता है-शिक्षक भौतिक समस्याओं को दूर करना। लेकिन स्वयं शिक्षक तो हवा का झोंका है, रुझान है, मन की दशा है, आस्था है जो भावी पीढ़ियों  के लिए उसका अंतर ज्ञान, रुझान, रुचि, आस्था आदिआदि को वह प्रेरणा देता है जो कि उसे उसके चेतना, समझ, जीवन जीने के स्तर आदि को आगे की निरंतरता दे।जहां पूर्वाग्रह, पूर्व के विचार, पूर्व की आस्था पर ठहराव न हो।आगे के लिए, भविष्य के लिए निरन्तरता हो।पूर्णता तो होती ही नहीं, जब जीवन में  अनन्तता के प्रभाव हों।

शिष्य ऐसे वातवरण का अंकुरण है, बीज है।पूर्वाग्रह, अतीत, भूत,पितर आदि के लिए शिष्य व गुरु, शिष्यत्व व गुरुत्व क्रांति है।क्योंकि वह आगे की ओर होती है, निरन्तर होती है, शाश्वत होती है।उसके लिए हर वक्त अवसर होते हैं।उसके लिए समझौता नहीं होता।


आज का शिष्य गुरु के सामने क्यों बैठा है?क्यों उप आसन में है?क्यों उप नयन में है?क्यों उपनिषद में है?उपआसन में है भी की नहीं, उप नयन में है भी कि नहीं?गुरु के सामने बैठा है लेकिन पहले से अपना स्वयं का नजरिया बनाये बैठा है, स्वयं की अपनी आस्था बनाये बैठा है?स्वयं के अपने विचार पहले से ही मन में भरे बैठा है? इसी तरह आज का गुरु भी, आज का शिक्षक भी, आज का अभिवावक भी...?!अरे, मेरा बेटा डॉक्टर बन जाये?फलाना ढिमका बन जाए?लेकिन बेटे में क्या पल रहा है?बेटियों में क्या पल रहा है?शिष्यों में क्या पल रहा है।मानव व मानव समाज ने अपने में ही नहीं वरन जगत, प्रकृति में उपद्रव ही उपद्रव भर दिए है, विकार ही विकार भर दिया है। पात्र में पहले से ही काफी कुछ भरा है, पात्र में छेंद भी हो सकते हैं।


वर्तमान तन्त्र में माफिया, जातिवादी, मजहब वादी, नशा व्यापारी का हॉबी होने के बीच मौन रूहानी आंदोलन ही सिर्फ सम्मानीय है।


#अशोकबिन्दु


शनिवार, 24 जुलाई 2021

असन्तुष्टि का इतिहास में महत्व रहा है::अशोकबिन्दु

 

कौटिल्य शिष्य चन्द्र गुप्त ने पंजाब व अन्य क्षेत्र के असंतुष्टों को एकजुट कर सेना बनाई थी। बाबर ने भी ऐसा ही किया। अन्य भी इस तरह के उदाहरण है। भविष्य नए दलों का होगा।वर्तमान दल समाज व देश की दिशा व काया नहीं बदल सकते।




कुछ बीमारी ही हद पर यहां तक पहुंच जाते हैं कि दुनिया के डॉक्टर अपने हाथ खड़े कर लेते हैं। दुनिया व देश,सरकारों, नेताशाही, नौकरशाही का सिस्टम/तन्त्र उतना ही बीमार है कि वह बीमारी से मुक्त नहीं हो सकता। उसके मरने का इंतजार करना होगा। कुदरत की मार को झेलना ही होगा। 2011 से2025 तक का समय काफी महत्वपूर्ण है। भविष्य में जो होना है,उसका रास्ता बन रहा है। कुदरत की ओर से भी कुछ शक्तियां कार्य कर रही हैं। समय पर हिसाब किताव बराबर हो जाएगा लेकिन धृतराष्ट्र व गांधारी के हाथ कुछ भी न लगेगा। हमें अफसोस है कि हमने 2014 में कुछ ज्यादा ही उम्मीदें कर लीं जिस तरह केजरीवाल आदि के षड्यंत्र में फंसे अन्ना आंदोलन से कर बैठे। स्तर दर स्तर अभी काफी कुछ होना बाकी है।अफसोस कि मोदी पूंजीवाद, सत्तावाद,माफिया तन्त्र में ही फंसे हुए हैं। जयगुरुदेव ने कहा था, देश के हालात ऐसे हो जाएंगे जैसे कुत्ते के गले में फंसी हड्डी! इतिहास गबाह है क्रांति कौन करता है?#असन्तुष्ट मगध के राज्य के खिलाफ क्रांति का स्वर भरने वाला चाहें चाणक्य को मानो या चन्द्र गुप्त को लेकिन यह सत्य है कि उनके साथ खड़ा था-#असन्तुष्ट ! फ्रांस की क्रांति हो या रूस की क्रांति?या इंग्लैंड की क्रांति? किसने शुरू की थी? #असन्तुष्ट ने। ये उठा कर देख लो- नौकरशाही, सत्तावाद,पूंजीवाद, पुरोहितवाद,माफियावाद नें क्रांति में अपनी आहुतियां नहीं दी है । आदि काल से वन्य समाज,किसान, पशु पालक, परिवर्तनों के कारण बेरोजगार, मजदूर आदि को ठगा जाता रहा है। समाज,देश व विश्व में क्या होना चाहिए?इससे बुद्धिजीवी निष्पक्षता उपेक्षित रही है। वर्तमान दल, नेताओं, सरकारों के पास वह हिम्मत व जज्बा नहीं है जो जड़ से जुड़ी समस्याओं का हल कर सकें। सरदार पटेल,अम्बेडकर, दीनदयाल, अटल, लोहिया आदि को लेकर तो राजनीति चल रही है लेकिन उनके विचारों को आत्मसात करते हुए नहीं। एक वक्त आएगा जब वर्तमान नेताओं, दलों को हालातों को संभालना मुश्किल होगा। पूंजीवाद, सत्तावाद, पुरोहित वाद, जातिवाद,माफिया वाद आदि में लिप्त व्यवस्था समाज व देश का भला नहीं कर सकती। #अशोकबिन्दु

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

गुरु-शिष्य परम्परा से वर्तमान शिक्षक व विद्यार्थी परम्परा::अशोकबिन्दु

 वास्तव में किसी का गुरु जाना दिल की अवस्था है, व्यक्ति के रुझान, रुचि ,आत्मीय अवस्था है।समर्पण, शरणागति की दशा है।दीवानगी की दशा है।जो वह होने, उसमें जीने के लिए संसार का सब कुछ त्यागने की अनजानी दशा रखता है।जैसे कि किसी की किसी में आदत पड़ जाती है तो हर हालत में उस आदत में जीता है। शिष्य गुरु से कुछ निचले स्तर पर होता है।जैसे कि चिकित्सा विद्यालय में चिकित्सा की ट्रेनिग करता  व्यक्ति जो समाज में चिकित्सक के छोटे छोटे कार्य देखने लगता है।इससे हट कर उसके सामने एक चिकित्सक होता है।एक चिकित्सक व चिकित्सा विद्यार्थी में जो फर्क होता है, वहीं शिष्य व गुरु में होता है।



आज कल के विद्यार्थीव शिक्षक की दशा हट कर है।

 वर्तमान में  शिक्षक और शिष्य के बीच मर्यादा ए बदल चुकी हैं शिक्षक और विद्यार्थी के आचरण भावनाएं नजरिया बदल चुकी है।



गुरुपूर्णिमा पर विशेष!!#अशोकबिन्दु 


वास्तव में यदि शिक्षा ज्ञान आधारित आचरण में उतरने लगे तो शायद नब्बे प्रतिशत अभिवावक अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दें। तब मानवता हीन समाज का अस्तित्व ही हिल जाएगा।एक व्यक्ति के वैज्ञानिक होने की स्थितियां जो है, ज्ञान के आधार पर आचरण की जो स्थितियां है.... आदिआदि उसे परम्परागत समाज, परम्परागत अभिवावक ही नहीं चाहेगा। देखा जाए तो अब दो ही वर्ण रह गए हैं-वैश्य व शुद्र।व्यापार व नौकरी।।कल्पना चावला, किरण बेदी,ए पी जे अब्दुल कलाम आदि जैसे बनने के लिए उनके जैसा नजरिया, भाव कहाँ से आएगा? #शिक्षाक्रांति हममें शिष्यत्व चाहिए, तब हम पेड़ पौधों, जीव जंतु से तक यहां तक कि हर नगेटिव घटना से तक शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।यदि शिष्यत्व नहीं तो आप कॉम्ब्रिज चले जाएं, निरर्थक!! हर व्यक्ति अपने स्तर पर अपने अंदर गुरुत्व को छिपाए है।प्रश्न ये है कि हम किसके भाव से सामने के व्यक्ति के सामने किस स्तर पर समर्पित हैं, शरणागति है। किसी का शिष्य होना या किसी का गुरु होना एक योगिक दशा है।दिल से हमारा शिष्यत्व किस स्तर पर है?दिल से हमरा गुरुत्व किस स्तर पर है?#हार्टफुलनेसस्टूडेंट्स #हार्टफुलनेसटीचर एक तो दिल से इतना हो जाता है कि उसकी हालत अतिसम्वेदनाशील हो जाती,जिसे अट्ठानवे प्रतिशत स्वीकार ही नहीं सकते। वे इतने अंदर पहुंच जाते हैं कि उनके लिए उसका उभरना उसी स्तर का सघन मनोवैज्ञानिक वातावरण मांगता है। उसके लिए मन की सघन गहरी शांति हेतु वातवरण चाहिए। ऊपर ऊपर जुबान, तर्क, बुद्धि, इंद्रियों ,लोभ लालच आदि से/के सहयोग से कोई भी सक्रिय हो सकता है। जो ज्ञान अंतर्मुखी होता है,वही वास्तविक होताहै लेकिन वह यों ही उजागर नहीं होता। गुरु तत्व है, दशा है। शिष्य एक तत्व है, दशा है। लोभ लालच, जीविका आदि के लिए कोई भी कुछ समय के लिए शिष्य या गुरु की भूमिका में आ सकता है जो सिर्फ कर्मचारी होता है।जो दिल से है, उसके हालात अलग हैं। शिक्षा में शैक्षिक मनोविज्ञान का बड़ा महत्व है। शिक्षा एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। क्यो ,कैसे, कब, किसे, कहाँ ,कौन शिक्षा दे यही शिक्षा में मनोविज्ञान का ध्येय है।आज की तारीख।में।अट्ठानबे प्रतिशत शिक्षा लेने व देने वाले दोनों का मनोवैज्ञानिक रुझान शिक्षा में है ही नहीं।उन्हें वास्तव में शिक्षा से मतलब ही नहीं।वे सिर्फ शिक्षा को अन्य रुझान के लिए माध्यम बनाये हैं। समाज व जगत के के प्रति वे भी वही नजरिया, विचार, भाव रखते हैं जो एक अशिक्षित,अज्ञानी, जातिवादी, मजहबी, मानवता हीन सामजिकता, अंधविश्वास युक्त सामजिकता आदि रखती है,चरित्र रखती है।

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

प्रिय की कुर्बानी बनाम प्रिय की कुर वाणी ::अशोकबिन्दु

   कुरआन की शुरुआती सात आयतें हमें काफी प्रभावित करती रही है।


उसके हिसाब से हमने जो चिंतन मनन करते हैं,उसको लिखने की कोशिश कर रहे हैं।


आखिर प्रिय क्या है?

हमारे जीवन में 'प्रिय' के  भी अनेक स्तर हैं।उस स्तर के आधार पर ही हमारी बरक्कत होती है।


'सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर'- की स्थिति से पूर्व अनेक दशाएं हैं।उत्तरार्ध भी अनेक दशाएं हैं।चेतना के वर्तमान स्तर से नीचे व ऊपर अनन्त स्तर हैं।


संसार,प्रकृति में हमें जो प्रिय है, पसन्द है।उसमें हमरा ठहराव हमारी रुकावट, हमारी गुलामी है।हम कहते रहे हैं, आगे अनन्त स्तर हैं। प्रिय, आत्मियता, आत्मा आकर्षण, गुण आदि अनन्त से आते धारा का परिणाम है।लेकिन हम जिस स्तर/बिंदु पर होते है।उससे आगे नहीं जाना चाहते। स्थूल, सूक्ष्म व कारण..... हम स्थूल स्तर पर ही निम्न/पशुवत स्तर पर होते हैं।तो हम अनन्त से आती ऊर्जा, आकर्षण, प्रेम ,पसन्द को  उसी स्तर पर अपने लोभलालच, मोह, काम, अपराध ,हिंसा, जबरदस्ती, मनमानी, चापलूसी आदि पर टिका देते हैं। ऐसे में हम आगे के स्तरों की अनन्त यात्रा के गबाह नहीं हो पाते। 


जगत में प्रिय की कुर्बानी का मतलब है, जगत की कोई चीज हमारे लिए पसन्द न पसन्द से परे हो।अच्छा बुरा से परे हो।हम बस एक व्यबस्था के लिए, अपने कर्तव्यों के लिए जीते रहे जो हमारी चेतना, समझ के स्तर को आगे अनन्त स्तर/बिंदुओं की ओर ले जाए।इसके लिए निरन्तर अभ्यास, नियमित दिनचर्या, सतत स्मरण, नियमित साधन आवश्यक है।



महाभारत युद्ध के बाद आ अनेक कबीले/कुटुम्ब शांति से अपना जीवन गुजर बसर करने के लिए स्थान परिवर्तन किए।जंगलो, पहाड़ों, गुप्त स्थानों का सहारा लिया ही अपनी पहचान को छिपा कर जीवन यापन अपने जीवन की आवश्यकताओं में लग गए। जीवन प्रबन्धन है, यज्ञ है.. आवश्यकताओं के प्रबन्धन के लिए जीते रहना।
ये  प्रबन्धन हमारी पूर्णता/सम्पूर्णता/योग/all/अल/इला/आदि के लिए होना चाहिए।हद तो तब होती है जब हम आत्माओं, परम् आत्माओं के लिए जीने से पहले हाड़ मास शरीरों के लिए इस हद तक गिर जाते हैं कि हिंसा, अपराध,पर निंदा, पर शोषण, अन्याय आदि में ही उलझ जाते हैं।


कुर्बानी या बलिदान, सन्यास या त्याग, वैराग्य या भक्ति आदि का मतलब सांसारिक बस्तुओं के लिए जी कर जीवन उसी में न गंवा देना है।जिसके लिए प्रयोगशाला ग्रहस्थ जीवन है।जिसमें निरन्तर अभ्यास वर्तमान स्तर से उबरना है। जगत व कुटुम्ब में जीने का मतलब लोभ लालच, पसन्द नापसन्द में जीना नहीं वरन अपने सामर्थ्य, स्तर, औकात में जीते हुए अपने सामर्थ्य, स्तर, औकात को विस्तार हेतु निरन्तर अभ्यास में रहना है।इसके लिए आत्मा ही द्वारा है जो हमें अनन्त, निरन्तर, शाश्वत, स्वतः आदि से जोड़ता है।जीवन पटरी पर आ जाता है।तब ये हाड़ मास शरीर क्यों न साथ छोड़ जाए लेकिन तब भी हम अभ्यास में बने रहते हैं।आदी हो जाते हैं।तब...
#भगत के बस में हैं भगवान #आदत संवर गयी हो गया भजन....!?
#उसके सारथी होने का मतलब समझ में आने लगेगा।


प्रिय की कुर्बानी को हम दो रूप में लेते है-(१) संसार के बीच पसन्द नापसन्द से परे होकर जीना।प्रिय अप्रिय के भाव से मुक्त हो जीना  सिर्फ सुप्रबन्धन व  कर्तव्य के लिए(२) प्रिय की वाणी को पकड़ना, उस पर चलना।आकाश तत्व से हमें अपने अपने अन्तर में अनेक मैसेज मिलते रहते हैं।उनको पकड़ कर उस आधार पर चलना।
(क्रमशः)