यह सत्य कि हाड़ मास शरीर, मांस हड्डी, आत्मा, दिल, दिमाग,मन, विचार, भाव आदि जातिवाद, मजहबवाद, धर्मस्थलवाद आदि का मोहताज नहीं है। इसकी आवश्यकताओं के लिए जीना प्राकृतिक, नैसर्गिक कर्तव्य है।हम सबका, जीव जंतुओं,प्रकृति के बीच अनेक स्तर, विभिन्नता, विविधता है।लेकिन इस सब विविधता के बीच एकत्व तन्त्र को समझना आवश्यक है, जिसके बिना जीवन निरर्थक है।नेतृत्व के लिए महत्वपूर्ण कार्य होता है-कैसे विविधता, विभिन्न स्तरों के बीच सन्तुलन बना कर कार्य किया जाए?ईश्वरीय सत्ता के केंद्रीयकरण व विकेंद्रीयकरण की समझ के बिना नेतृत्व अधूरा है। संस्थाओं, समाज, देश, विश्व शांति व कल्याण के लिए विभिन्नता में एकता, सागर में कुम्भ कुम्भ में सागर आदि की स्थिति को समझना आवश्यक है।मुट्ठी के महत्व को समझना आवश्यक है।हथेली की अंगुलियों की भांति संस्थाओं,समाज,प्रकृति में विभिन्नता रहती है, छोटे बड़े स्तर रहते हैं लेकिन ये विभिन्नता ही मुट्ठी बनाने, सुप्रबन्धन हेतु आवश्यक हो जाती।
अब सवाल उठता है, नेतृत्व कैसा हो?किसी ने कहा है -यथा राजा तथा प्रजा। अफसोस आजकल भी नेतृत्व दुर्योधन कल्चर के ही साथ खड़ा होता है।इतिहास बारबार दोहराया जाता है।
आखिर क्या है?दुर्योधन कल्चर?!दुर्योधन संस्कृति?! हालांकि अनन्त यात्रा में तो सब समाहित है।गीता के विराट रूप से क्या स्पष्ट होता है?जगत की विभिन्नताओं से हट कर अनन्त की ओर जाती धाराएं नजर आती है।
सत्य/यथार्थ
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स्थूल सूक्ष्म कारण
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बनावटी नैसर्गिक
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भौतिक आध्यात्मिक सन्तुलित
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कुप्रबंधन सुप्रबन्धन
हमें इस पोस्ट पर दुर्योधन कल्चर पर बोलना है, अभिव्यक्ति में जाना है। आखिर दुर्योधन कल्चर क्या है ?इस पर जाने के लिए हमें समझना होगा हम अपने को कुछ भी समझे ब्राह्मण या शूद्र ,किसी भी मजहब या देश से अपने को जोड़ें, इस सब को हम ताख पर रख कर यथार्थ पर जाना चाहेंगे। हम वास्तव में दुनिया की नजर में,जाति, मजहब की नजर में,सस्थाओं की नजर में क्या दिखते हैं?यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण ये है कि हम वास्तव में हैं क्या असलियत की नजर में,कुदरत की नजर में,आत्मा - परम् आत्मा की नजर में?
अशोकबिन्दु कहते रहे हैं, जो भी है; हम उसको तीन स्तरों से देख सकते हैं। हमारी आवश्यकताए ...?! हम अपनी आवश्यकताओं को भी तीन भागों में बांट सकते हैं!
आवश्यकताएं
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स्थूल सूक्ष्म कारण
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बनावटी नैसर्गिक
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भौतिक आध्यात्मिक सन्तुलित
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कुप्रबंधन सुप्रबन्धन
दुर्योधन संस्कृति में हमारी आवश्यकताएं क्या होती हैं?दुर्योधन संस्कृति में हमारा सत्य/यथार्थ क्या होता है?
हे अर्जुन (अनुराग) उठ ! मैं आत्मा के रूप में तेरे साथ हूँ! आत्मा रूपी सिंहासन को अपना स्थान बना।
यहां पर अनुराग से मतलब क्या है? अनुराग से मतलब है दुर्योधन संस्कृति के विपरीत !!
......तो फिर दुर्योधन कल्चर से क्या मतलब है?
दुर्योधन कल्चर वही है जिसमें हम भी जीते हैं? हम आत्मा के प्रेमी नहीं हैं।हम परम् आत्मा के प्रेमी क्या होंगे ? हम किसी जीवित महापुरुष के भी प्रेमी नहीं हैं। हम सब भी रुपया पैसा, गाड़ी बंगला, यश अपयश, पसन्द नापसन्द, अच्छा बुरा ,लोभ लालच आदि के प्रेमी हैं।
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