"मुकेश, वाल्मीकि समाज को अपने से अलग क्योँ देखते हो ?"
"आर एस एस उनकी वस्ती मेँ
वाल्मीकि जयन्ती समारोह करवा रहा है तो क्या गलत कर रहा है ?"
"वहाँ जा कर मैँ अपना धर्म नहीँ गँवा सकता ."
" ऐसा तुम्हारा धर्म गँव ही जाना चाहिए,मुकेश . तुम्हारा इस जन्म जन्मजात ब्राह्मण होने का भाव खत्म होने वाला नहीँ . "
मुकेश इधर उधर ताकने लगा.
इधर
रमेश मन ही मन-
परिवार व समाज का उत्थान बिना त्याग व समर्पण के सम्भव नहीँ है.प्रति पल जेहाद आवश्यक है.
त्याग व समर्पण की व्यवस्था आदि काल से थी,अपने प्रिय या अपने मोह का त्याग व धर्म के प्रति समर्पण.हजरत इब्राहिम- इस्माइल- हुसैन,गुरू गोविन्द सिँह,बन्दा बैरागी,वीर हकीकत,आदि व अनेक स्वतन्त्रता सेनानी अपने धर्म कर्त्तव्य के लिए समर्पित हो गये.आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान मेँ अर्जुन को दिए गये श्री कृष्ण सन्देश भी धर्म स्थापना के लिए त्याग की ओर संकेत करते हैँ,मोह के त्याग की बात करते हैँ.
हिन्दू समाज मेँ प्रति वर्ष सकट चौथ पर्व मनाया जाता है.इस पर्व पर तिल गुड़ से बना मेड़ा काटने व पूजा का रिवाज है.क्या यह उस परम्परा का प्रतीक नहीँ है कि पशु की बलि दी जाती है .जो यह पर्व मनाते हैँ शायद उनके पूर्वज माँसाहारी रहे होँ ?आदि गोत्र कश्यप धारी अब भी माँसाहारी देखे जा सकते हैँ .यहाँ तक की किसी परिवार मेँ किसी विशेष उत्सव पर या उसके एक दिन बाद बकरा काटने और उसके माँस को बाँटने की व्यवस्था है.इस पर्व का सम्बन्ध खगोल
विज्ञान से भी है.
खैर.....
बलिदान व समर्पण के महत्व की महिमा आदि काल से होती है.हवन,छट पूजा,आदि के हेतु मेँ ऐसा भी था. सार्वभौमिकता(ईश्वरता) के समक्ष समर्पण भाव जरुरी है,इस समर्पण भाव के ही अनेक स्थूल रूप विश्व मेँ उपलब्ध रहे हैँ.त्याग किसका हो?व्यक्तिगत स्वार्थोँ का ,मोह का,लोभ का ,काम का.इसलिए कहा गया है कि अपनी प्रिय वस्तु का बलिदान. अपने धर्म व ईश्वर के अलावा संसार की जो भी प्रिय वस्तुएँ हैँ उनका त्याग.सांसारिकता के माया मोह से मुक्त होना.धन के मोह से भी त्याग.प्राचीन काल मेँ धन था-पशु.
सांसारिक वस्तुओँ का भोग करने से पूर्व ईश्वर को वस्तुओँ का भोग लगाना लगाना भी इन पर्वोँ का हेतु रहा होगा ?
अपने मिशन या लक्ष्य के लिए समर्पण व त्याग का भाव आवश्यक है.
*** """ ***
लगभग 70फुट ऊँची कालि देवी की प्रतिमा !
जिसके चरणोँ पर अनेक बकरे लाकर उनका नाममात्र कान काट कर बलि चढ़ाई जा रही थी.
जहाँ मुकेश भी एक बकरे को साथ लिए खड़ा था.
धन्य उसका धर्म !!
2 टिप्पणियां:
समझ नही पा रही कि लघु कथा कहूँ या आलेख। खैर मुकेश और रमेश का वारतालाप यहाँ अनावश्यक है। अगर इसे आलेख ही रहने देते तो बहुत अच्छा आलेख है। सार्थक सनेद्श दिया है। आज कल त्यौहार केवल मनोरंजन और दिखावे के लिये ही मनाये जाते हैं,उनका मर्म जान कर नही। आपने सही कहा--
अपने मिशन या लक्ष्य के लिए समर्पण व त्याग का भाव आवश्यक है.
जो आज कल किसी मे कम ही देखने को मिलता है और फिर राजनिती मे केवल ढौंग ही है। शुभकामनायें।
कहानी है कि आलेख?
एक टिप्पणी भेजें