बदलाव की क्षमता बुध्दिमत्ता की माप है, वैज्ञानिक आइंस्टीन ने ऐसा कहा था।
धरती को कुरूप कौन बना रहा है?
मानव समाज ही कुदरत की नजर में समस्या है।हम मानव के वर्तमान सिस्टम में ही ऊपर उठने की जरूरत हैमानव समाज अब भी कुदरत के सम्मान में ,मानवता के सम्मान में कुछ भी बदलाव करने को तैयार नहीं।
अब भी वक्त है!!
आध्यत्म,मानव व प्रकृति हमारी प्रकृति, मानवता व आध्यत्म के स्वागत के लिए दोनों हाथ फैलाए स्वागत में हर वक्त खड़ी है।लेकिन वक्त के हिसाब से सब सम्भव है।अब भी वक्त है।अन्यथा बचा खुचा मानव हम पर थूकेगा, हमारे बनाबटी निर्माण पर कोसेगा।जो प्रकृति है, सहज है उसको बिगाड़ने के लिए। प्रकृति तो सन्तुलन करना जानती है लेकिन मानव के बस में नहीं रह जायेगा सन्तुलन बनाना। अब भी वक्त है। जीवन तो प्रकृति है।उसे प्रकृति के भरोसे उस प्रति अपने कर्तव्यों निभाते हुए उस पर ही छोड़ दो।
हमारी व जगत की प्रकृति को प्रकृति ही चाहिए।मानव के इच्छाओं का सैलाब नहीं। वह तो दुख व उपद्रव का का कारण है।अपने व जगत की प्रकृति की व्यवस्था के प्रति अपने कर्तव्य को समझिए!!
अशोकबिन्दु
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