हर पल जिहाद/धर्म युद्ध/क्रांति की आवश्यकता!!
.
.
फ्रांस क्रांति, रूस क्रांति या अन्य क्रांति का अध्ययन कर पता चलता है कि उन क्रांतियों के जो कारण थे, वे अभी खत्म नहीं हुए है।ऐसे में क्या हर पल क्रांति की आवश्यकता नहीं है ?
85 प्रतिशत बनाम 15 प्रतिशत का खेल आदि काल से रहा है।
सामाजिक,आर्थिक स्तर पर काफी असमानताएं रहीं हैं।
पूंजीवाद, सत्तावाद, पुरोहितवाद ने कभी आम आदमी के अंदर की संभावनाओं को उठाने नहीं दिया है।
महाभरत युद्ध समाप्त हो गया, पूरी दुनिया की व्यवस्था छिन्न भिन्न होगयी।लोग शहर-सभ्यता से ग्रामीण सभ्यता में आ गये, जंगली सभ्यता में आ गये।ग्रामीण सभ्यता व वन सभ्यता को असभ्य कहने वाले ही ग्रामीण व वन सभ्यता में आ गए। इतिहास बार बार दोहराया जाता है।हम समझते हैं,सामाजिक विज्ञान का सलेब्स चेंज कर आम आदमी के आचरण, जीवन व चरवाहा, किसान, घुमंतू, वन्य जीवन को जोड़ते हुए इतिहास लेखन का मतलब यही रहा होगा। जब जब सांसारिक इच्छाओं की पराकाष्ठा बढ़ कर भीड़, परिवार, संस्थाओं आदि के बीच के इंसान इंसान में ही, समीप रहते इंसान इंसान के बीच ही मानसिक दूरियां, खिन्नता आदि बढ़ा दे तो फिर निजीकरण,पूंजीवाद,सत्तावाद, जन्मजात उच्चता भाव आदि के माध्यम से सभ्यताओं को देखकर प्रकृति,प्रकृति के बीच की कबीलाई संस्कृति मुंह चिड़ाती ही दिखती है।लोग बाहर इतने चले जाते हैं,लोग अपने निजत्व, सहजत्व, अस्तित्व के अहसास से ही दूर हो जाते हैं बाहरी कृत्रिम दुनिया के चकाचौंध में।वे अंदुरुनी अपने अंदर के सुकून,धैर्य, आनन्द से काफी दूर चले जाते हैं।
यदि शांति चाहते हो तो हमारे साथ आओ।वर्तमान रहनुमा, तन्त्र, सरकारे कुदरत व मानवता की खातिर समाधान नहीं रखतीं।आओ, हम सब पूंजीवाद, जातिवाद, राष्ट्रबाद,सामन्तवाद, पुरोहितवाद, सत्तावाद आदि को नष्ट कर मानवता व आध्यत्म को स्वीकारें।
वर्तमान में अब जो होने जा रहा है,कुदरत मुस्कुराने वाली है इंसान व उसकी व्यवस्थाओं पर।मानव सभ्यता युद्ध ही चाह सकती है।मानव की व्यवस्थाओं ने अनेक बार दुनिया को युद्ध में धकेला है। दो युद्ध के बीच की शांति अगले युद्ध की तैयारी होती है।ऐसे में सन्त परम्परा ही समाधान होता है लेकिन उसे कौन स्वीकार करे?
.
.
फ्रांस क्रांति, रूस क्रांति या अन्य क्रांति का अध्ययन कर पता चलता है कि उन क्रांतियों के जो कारण थे, वे अभी खत्म नहीं हुए है।ऐसे में क्या हर पल क्रांति की आवश्यकता नहीं है ?
85 प्रतिशत बनाम 15 प्रतिशत का खेल आदि काल से रहा है।
सामाजिक,आर्थिक स्तर पर काफी असमानताएं रहीं हैं।
पूंजीवाद, सत्तावाद, पुरोहितवाद ने कभी आम आदमी के अंदर की संभावनाओं को उठाने नहीं दिया है।
महाभरत युद्ध समाप्त हो गया, पूरी दुनिया की व्यवस्था छिन्न भिन्न होगयी।लोग शहर-सभ्यता से ग्रामीण सभ्यता में आ गये, जंगली सभ्यता में आ गये।ग्रामीण सभ्यता व वन सभ्यता को असभ्य कहने वाले ही ग्रामीण व वन सभ्यता में आ गए। इतिहास बार बार दोहराया जाता है।हम समझते हैं,सामाजिक विज्ञान का सलेब्स चेंज कर आम आदमी के आचरण, जीवन व चरवाहा, किसान, घुमंतू, वन्य जीवन को जोड़ते हुए इतिहास लेखन का मतलब यही रहा होगा। जब जब सांसारिक इच्छाओं की पराकाष्ठा बढ़ कर भीड़, परिवार, संस्थाओं आदि के बीच के इंसान इंसान में ही, समीप रहते इंसान इंसान के बीच ही मानसिक दूरियां, खिन्नता आदि बढ़ा दे तो फिर निजीकरण,पूंजीवाद,सत्तावाद, जन्मजात उच्चता भाव आदि के माध्यम से सभ्यताओं को देखकर प्रकृति,प्रकृति के बीच की कबीलाई संस्कृति मुंह चिड़ाती ही दिखती है।लोग बाहर इतने चले जाते हैं,लोग अपने निजत्व, सहजत्व, अस्तित्व के अहसास से ही दूर हो जाते हैं बाहरी कृत्रिम दुनिया के चकाचौंध में।वे अंदुरुनी अपने अंदर के सुकून,धैर्य, आनन्द से काफी दूर चले जाते हैं।
यदि शांति चाहते हो तो हमारे साथ आओ।वर्तमान रहनुमा, तन्त्र, सरकारे कुदरत व मानवता की खातिर समाधान नहीं रखतीं।आओ, हम सब पूंजीवाद, जातिवाद, राष्ट्रबाद,सामन्तवाद, पुरोहितवाद, सत्तावाद आदि को नष्ट कर मानवता व आध्यत्म को स्वीकारें।
वर्तमान में अब जो होने जा रहा है,कुदरत मुस्कुराने वाली है इंसान व उसकी व्यवस्थाओं पर।मानव सभ्यता युद्ध ही चाह सकती है।मानव की व्यवस्थाओं ने अनेक बार दुनिया को युद्ध में धकेला है। दो युद्ध के बीच की शांति अगले युद्ध की तैयारी होती है।ऐसे में सन्त परम्परा ही समाधान होता है लेकिन उसे कौन स्वीकार करे?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें