हम स्वयं अपने नजर में क्या हैं?
चरित्र नहीं है-समाज की नजर में जीना।
आत्मा से परम् आत्मा !
चरित्र है-आत्मा!
चरित्र है-परम् आत्मा!
चरित्र है कर्म करने का हेतु या नजरिया!
आत्म साक्षात्कार!
वह दूसरे के सामने बुराई कर रहा था, हमें पता चला।
भीड़ में लोगों के सामने कभी उसने हमें गम्भीरता से न लिया।हम ओर कटाक्ष ही करता रहा।
जब हमने उससे दूरी बना ली ,दिल में उसके प्रति वैसा ही था जैसे पहले था।
वह बोला-कसम से,हम ऐसे नहीं हैं।बताओ तो कौन कह रहा था?
"स्वयं अपने दिल से पूछो।"
आत्म साक्षात्कार!
अंतर्ज्ञान से जुड़ना ही कारण है, विद्यार्थी जीवन का ब्रह्मचर्य जीवन होना।
हम हरितक्रांति विद्या मंदिर में ही थे।
हम कक्षा सात के विद्यार्थी थे।
कक्षा सात व आठ के बीच में द्वंद हो गया था।
लेकिन मुद्दा ऐसा था,सच्चाई कक्षा आठ के बच्चों के साथ थी।
हमें कक्षा सात के विद्यार्थियों ने घेर लिया।
हम तो भीड़ भाड़ में वैसे भी सहमे सहमे से रहते थे।
लेकिन....
अब तो बचना था।
हमारे हाथ एक डंडा आ गया।आंख बंद कर हम चलाने लगे।
अपनी उम्र के 20 साल हमने आर एस एस आदि के लोगों के बीच भी बिताए हैं।उनकी शाखा ओं में लाठी चलाने का अवसर मिला है।
जब हमने आंख खोली तो हमारे चारों ओर कोई न था।
रोज मर्रे की जिन्दगीं में साधारण रहो।
जियो, जीवन जियो।सहज रहने की कोशिश करो।अनन्त यात्रा के साक्षी बनो।अपने अस्तित्व को महसूस करो।
ये धैर्य,शांति, मौन में ही सम्भव है।खुद से खुदा ओर....
कक्षा नौ में हमारे साथ एक और जुड़ा-अनुपम श्रीवास्तव।जो रायबरेली से था।उसके पिता बैंक में थे।
उसे गाने का शौक था।हमें लिखने का शौक हो था।
कक्षा आठ में ही हमने लिखना शुरू कर दिया था।
उसका हमारा साथ कक्षा12 तक रहा।
@@@@@@@ @@@@@@ @@@@@
धर्म स्थलों में हमें गुरुद्वारा ही पसन्द था।
सिंदर सिंह!जूनियर क्लासेज से ही सिक्ख लड़का-सिंदर सिंह हमारे साथ पढ़ता था।
वह अब भी हमारे साथ था।
कक्षा नौ नौ में हमारे क्लास टीचर थे-टी एन पांडे।
हालांकि कालेज में सिंदर सिंह व उसकी मित्र मंडली के साथ हम नहीं रहते थे।क्योंकि वे शरारती थे।
हम हमेशा टॉपर, गम्भीर, शालीन विद्यार्थियों के साथ ही रहते थे।लेकिन मन से भेद किसी भी प्रति न था।
सिंदर सिंह के साथ अनेक बार रेलवे स्टेशन के पास के गुरुद्वारा आना जाना रहता था।
रविवार या छुट्टी वाले दिन उसके खेत पर भी पहुंच जाते थे।उसका खेत नगर से बाहर ही तुरन्त था।
@@@@@@ @@@@@ @@@@@@
जो भी हो जैसा भी हो,अपने स्तर से अपना सुधार होना चाहिए।
ऊपर से क्रीम पाउडर लगा लेने से हम सबर नहीं जाते ऐसा हम व्यक्ति के शिक्षा के स्तर पर कह रहे हैं ।
शिक्षा ? कैसी शिक्षा ?
जो सिर्फ बाहरी, शारीरिक, भौतिक चमक दमक में सहयोगी है ?नहीं ,कदापि नहीं ।हम जो भी अध्ययन करते हैं उस पर चिंतन मनन कल्पना करते हैं ।ऐसे में हो सकता है कि बोलना न हो पाए लेकिन लिखना ,नजरिया विस्तार -परिमार्जन ,अंतःकरण शुद्धि ,समझ में विस्तार -गहनता आदि में सुधार होता है ।हमें ज्ञान हुआ यही कारण है कि बड़े-बड़े विद्वान ,शोध कर्मी सेमिनार में अपने शोध पत्र पढ़ते हैं जो चिंतन मनन कल्पना स्वप्न से लिया है ।वह लिखते हैं या पढ़ते हैं बोलते नहीं ।इसका मतलब आम आदमी की नजर में बुद्धिहीनता हो सकता है लेकिन जो वास्तव में अंतर्ज्ञान में है उसके लिए नहीं ।शिक्षा भी चरित्र की तरह आम आदमी व वर्तमान समाज की धारणाओं के आधार पर अपने को बनाने में नहीं है ।बरन महापुरुषों ,शैक्षिक पाठ्यक्रम से सीख आदि के माध्यम पर अपने को बनाना है।
हाई स्कूल 1998 की परीक्षा हमारी बीसलपुर डाइट में थी ।इस परीक्षा के बाद हम मनोविज्ञान दर्शन शास्त्र शिक्षा शास्त्र का भी अध्ययन बड़ी रुचि से करने लगे थे।
चरित्र नहीं है-समाज की नजर में जीना।
आत्मा से परम् आत्मा !
चरित्र है-आत्मा!
चरित्र है-परम् आत्मा!
चरित्र है कर्म करने का हेतु या नजरिया!
आत्म साक्षात्कार!
वह दूसरे के सामने बुराई कर रहा था, हमें पता चला।
भीड़ में लोगों के सामने कभी उसने हमें गम्भीरता से न लिया।हम ओर कटाक्ष ही करता रहा।
जब हमने उससे दूरी बना ली ,दिल में उसके प्रति वैसा ही था जैसे पहले था।
वह बोला-कसम से,हम ऐसे नहीं हैं।बताओ तो कौन कह रहा था?
"स्वयं अपने दिल से पूछो।"
आत्म साक्षात्कार!
अंतर्ज्ञान से जुड़ना ही कारण है, विद्यार्थी जीवन का ब्रह्मचर्य जीवन होना।
हम हरितक्रांति विद्या मंदिर में ही थे।
हम कक्षा सात के विद्यार्थी थे।
कक्षा सात व आठ के बीच में द्वंद हो गया था।
लेकिन मुद्दा ऐसा था,सच्चाई कक्षा आठ के बच्चों के साथ थी।
हमें कक्षा सात के विद्यार्थियों ने घेर लिया।
हम तो भीड़ भाड़ में वैसे भी सहमे सहमे से रहते थे।
लेकिन....
अब तो बचना था।
हमारे हाथ एक डंडा आ गया।आंख बंद कर हम चलाने लगे।
अपनी उम्र के 20 साल हमने आर एस एस आदि के लोगों के बीच भी बिताए हैं।उनकी शाखा ओं में लाठी चलाने का अवसर मिला है।
जब हमने आंख खोली तो हमारे चारों ओर कोई न था।
रोज मर्रे की जिन्दगीं में साधारण रहो।
जियो, जीवन जियो।सहज रहने की कोशिश करो।अनन्त यात्रा के साक्षी बनो।अपने अस्तित्व को महसूस करो।
ये धैर्य,शांति, मौन में ही सम्भव है।खुद से खुदा ओर....
कक्षा नौ में हमारे साथ एक और जुड़ा-अनुपम श्रीवास्तव।जो रायबरेली से था।उसके पिता बैंक में थे।
उसे गाने का शौक था।हमें लिखने का शौक हो था।
कक्षा आठ में ही हमने लिखना शुरू कर दिया था।
उसका हमारा साथ कक्षा12 तक रहा।
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धर्म स्थलों में हमें गुरुद्वारा ही पसन्द था।
सिंदर सिंह!जूनियर क्लासेज से ही सिक्ख लड़का-सिंदर सिंह हमारे साथ पढ़ता था।
वह अब भी हमारे साथ था।
कक्षा नौ नौ में हमारे क्लास टीचर थे-टी एन पांडे।
हालांकि कालेज में सिंदर सिंह व उसकी मित्र मंडली के साथ हम नहीं रहते थे।क्योंकि वे शरारती थे।
हम हमेशा टॉपर, गम्भीर, शालीन विद्यार्थियों के साथ ही रहते थे।लेकिन मन से भेद किसी भी प्रति न था।
सिंदर सिंह के साथ अनेक बार रेलवे स्टेशन के पास के गुरुद्वारा आना जाना रहता था।
रविवार या छुट्टी वाले दिन उसके खेत पर भी पहुंच जाते थे।उसका खेत नगर से बाहर ही तुरन्त था।
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जो भी हो जैसा भी हो,अपने स्तर से अपना सुधार होना चाहिए।
ऊपर से क्रीम पाउडर लगा लेने से हम सबर नहीं जाते ऐसा हम व्यक्ति के शिक्षा के स्तर पर कह रहे हैं ।
शिक्षा ? कैसी शिक्षा ?
जो सिर्फ बाहरी, शारीरिक, भौतिक चमक दमक में सहयोगी है ?नहीं ,कदापि नहीं ।हम जो भी अध्ययन करते हैं उस पर चिंतन मनन कल्पना करते हैं ।ऐसे में हो सकता है कि बोलना न हो पाए लेकिन लिखना ,नजरिया विस्तार -परिमार्जन ,अंतःकरण शुद्धि ,समझ में विस्तार -गहनता आदि में सुधार होता है ।हमें ज्ञान हुआ यही कारण है कि बड़े-बड़े विद्वान ,शोध कर्मी सेमिनार में अपने शोध पत्र पढ़ते हैं जो चिंतन मनन कल्पना स्वप्न से लिया है ।वह लिखते हैं या पढ़ते हैं बोलते नहीं ।इसका मतलब आम आदमी की नजर में बुद्धिहीनता हो सकता है लेकिन जो वास्तव में अंतर्ज्ञान में है उसके लिए नहीं ।शिक्षा भी चरित्र की तरह आम आदमी व वर्तमान समाज की धारणाओं के आधार पर अपने को बनाने में नहीं है ।बरन महापुरुषों ,शैक्षिक पाठ्यक्रम से सीख आदि के माध्यम पर अपने को बनाना है।
हाई स्कूल 1998 की परीक्षा हमारी बीसलपुर डाइट में थी ।इस परीक्षा के बाद हम मनोविज्ञान दर्शन शास्त्र शिक्षा शास्त्र का भी अध्ययन बड़ी रुचि से करने लगे थे।
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