सन्त परम्परा बनाम देव लोक@
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हमारी शिक्षा की शुरुआत सन्तों के बीच से ही शुरू हुई.किताब पढ़ना ठीक ढंग से शुरू नहीं कर पाया कि कुरुशान(गीता) हाथ आई.
हमें ननिहाल पक्ष की ओर से भी सन्त मिले.सन्तों के बीच हमें प्रेम का अहसास हुआ.
आगे चलकर पौराणिक कथाएँ पढ़ी . पढ़कर अटपटा सा लगा.हमें सन्तों के लोक से बडा नहीं दिखा देव लोक.बदले की भावना,भेद आदि.... से मुक्त हैं क्या देव लोक?
बचपन से ही आर्य समाज,शांति कुञ्ज,गीता प्रेस आदि के साहित्य से का सानिध्य मिला.लेकिन....??
हजरत किब्ला मौलवी फ़ज़्ल अहमद खान साहब रायपुरी के शिष्य श्री रामचन्द्र जी फतेहगढ़ वाले
की स्मृति में शाहजहाँपुर के श्री रामचन्द्र जी (बाबूजी) ने श्री रामचन्द्र मिशन की स्थापना की.जिसका बोध हमें 1998 में पुबायाँ (शाहजहाँपुर) के श्री राजेन्द्र मिश्र के माध्यम से हुआ.इसी समय जयगुरुदेव का सानिध्य मिला.निरंकारी समाज की समीपता में आया.बचपन से ही हम सनत् कबीर राजा जनक व बुद्ध से भी प्रभावित रहा.
देव परम्परा से बेहतर मानते हैं हम सन्त परम्परा. आखिर ऐसा क्यों?ऐसा इसलिए क्योंकि सन्त परम्परा में द्वेष,भेद आदि को कोई स्थान नहीं है.
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