(मानवता प्रकृति व सार्वभौमिक ज्ञान पर समाजिकता का दबाव व चोट!)
बस, कलेण्डर/पंचांग बदल रहा है।
आत्मा वही, मन वही... धारणाएं वही.....
परिवर्तन की स्वीकार्यता किस स्तर पर है?
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