अच्छा इन्सान होना और धनवान होना दोनोँ अलग अलग बातेँ हो सकती हैँ.इसी तरह धन की उधैड़बुन मेँ रहना अलग बात है और जीवन जीना अलग बात है.धन -दौलत आदि भौतिक संसाधन साधन हैँ लक्ष्य नहीँ. जो इसे लक्ष्य मान कर जीते हैँ और रिश्तोँ को निभाना नहीँ जानते, मतभेद मेँ जीते हैँ ,मन को शान्त या खुश मिजाज रहने की कला से अपरिचित होते हैँ, दूसरोँ के कष्टोँ को महसूस करना नहीँ जानते, जाने अन्जानेँ परिजन ही आप से मानसिक दूरियाँ बना बैठते हैँ और परिजनोँ को उनकी बातोँ को रखने का मौका न दे या उनकी बातोँ का शान्तिपूर्ण ढंग से जबाब न दे बौखला जाना एवं सन्तुष्ट न कर पाना , स्वास्थ्य के प्रति जागरुक न होना,आदि का होना व्यक्ति की कमजोरी है.
उदारता, परोपकार ,ईमानदारी , परिश्रम, योगासन ,सौहार्द,ज्ञान, आदि मेँ जीने वाले ही जगत मेँ श्रेष्ठ हैँ.परिश्रमी धनवान आदि होने के बाबजूद जो निराशा, कुण्ठा, खिन्नता ,ईर्ष्या ,विवेकहीनता, अस्वस्थता ,अज्ञानता, निजस्वार्थ, आदि मेँ जीता है -उसका जीवन क्या जीवन...?इनसे तो अच्छे वे हैँ जो रोज कमाते हैँ रोज खर्च करते हैँ.जिस दिन नहीँ कमा पाते उस दिन ठण्डा पानी पी कर काम चला अपना वर्तमान मस्त रखने की कोशिस रखते हैँ लेकिन .....?
व्यक्ति निर्माण मेँ परिवार एवं परिवार के मुखिया का बड़ा योगदान होता है.खुश मिजाज शान्तिपूर्ण आध्यात्मिक वातावरण व मुखिया व्यक्तियोँ मेँ आदर्श गुण बनाये रखने मेँ सहायक हो सकते हैँ लेकिन ऐसा सम्भव हो नहीँ पाता.अभिभावक ही स्वयं अज्ञानता- निजधुन -पूर्वाग्रह- निष्ठुरता -आदि से ग्रस्त होते हैँ. वे दर असल अपने सनातन नबियोँ- मुनियोँ के उद्देश्य को भूल गये हैँ .धर्म -अर्थ -काम -मोक्ष मेँ सन्तुलन की कला को भूल गये हैँ.जीवन का उद्देश्य जब काम एवं अर्थ रह गया हो तो धर्म व मोक्ष की उम्मीद नहीँ की जा सकती . आदमी का स्तर इतना गिर गया है कि उसे किसी के इस कथन को समझना मुश्किल है कि माता पिता बनने का अधिकार सभी को नहीँ होना चाहिए.विवाह का मतलब यह तो नहीँ अभिभावक बनने का मतलब यह तो नहीँ कि अपनी मनमानी के लिए जीना या अपनी मजबूरी दिखा सामने वाले को निरुत्साहित कर देना या सामने वाला तुम्हारे करीब रहते हुए आपसे मानसिक दूरी बना बैठे.हमारा जीना तभी जीना है जब हम परिवार एवं समाज मेँ शान्ति व्यवस्था बनाये रखते हुए दूसरे के मन का भी जानते हुए उसके दिल मेँ जगह बनाए रखेँ.
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