फिर मैँ पद्मासन मेँ बैठते हुए "प्रकृति को हम नहीं बख्श सकते तो वह हमें क्यों बख्शे?प्रकृति हमें अब भी बख्श देना चाहती है लेकिन हमारे द्वारा तैयार किए गये भस्मासुर हमेँ नहीं बख्शेंगे."
कुछ बन्दर बरामडे में आ घुसे थे.कुछ दिनों से मैँ बन्दरों का स्वभाव अजीब सा महसूस कर रहा हूँ ,शाम को भी.
मेरी आँखे खुल चुकी थीँ.
मैं सोंचने लगा कि
आधुनिक विज्ञान व सभ्यता ने निरे प्रकृति भोगवाद की और मोड़ दिया.
17वीं18वी शताब्दी के बाद हमारी सोंच बदली कि प्रकृति जैसी है वैसी ही रहने दो .
जापान से क्या हम सीख नहीं लेना चाहेगे?
भविष्य में भारत के साथ भी क्या ऐसा ही होने जा रहा है?देखते रहें-
हाँ यह सच है कि प्रकूति परिवर्तनशील है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मानव इसमेँ तीव्रता ला दे.
मनुष्य अब एक नई मनुष्यता में प्रवेश में करने जा रहा है या फिर सामुहिक आत्म हत्या की ओर!
सामुहिक आत्म हत्या की मेरी परिभाषा कुछ
हट कर है.
खैर...
सन 2011-12ई से एक प्रकार का संधि काल है जिसमे जिसकी आँखे खुल गयीं समझो वह तर गया.
हाँ,इस धरती पर मनुष्य ही विधाता है लेकिन प्रकृति सहचर्य,धर्म(दया व सेवा) व अध्यात्म के साथ न कि कोरे भौतिक भोगवाद के साथ.जरा आचार्य श्री राम शर्मा की यज्ञपैथी व वैज्ञानिक अध्यात्मवाद ,श्री श्रीरविशंकर की आर्ट आफ लीविंग,ओशो स्वेट मार्डन व शिव खेड़ा की व्याख्याएं,जय गुरुदेव की साधना,अन्ना हजारे व बाबा रामदेव का आह्वान,आदि...
वैचारिक क्रान्तियां कभी बेकार नहीं जातीं.
ASHOK KUMAR VERMA'BINDU'
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